निरंजन श्रोत्रिय की कवितायें
निरंजन श्रोत्रिय हिंदी कविता में एक सुपरिचित नाम हैं. निजी जीवन की सहज अनुभूतियों को कविता में गहन आवेग के साथ प्रस्तुति की उनकी खासियत को बहुधा लक्षित किया गया है. गुना जैसे छोटे से शहर में रहते हुए उन्होंने कस्बाई जीवन, वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं और राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ उसके गहन अंतर्संबंधो की गहन पड़ताल की है और उसे कविता में संभव भी किया है. आज उनकी कुछ नई-पुरानी कवितायें
‘कठिन समय है! कठिन समय!!’
बुदबुदाता कवि
उठ बैठता आधी रात
लेकर कलम-दवात
भक्क से जल उठता लैम्प
रोशनी के वृत्त में
संचारी भाव स्थायी रफप से
बैठने लगते कविता की तली में
तय करता है कवि
ड्राफ्ट कठिन समय का
बुनता है भाषा कठिन समय की
याद करता किसी कठिन समय को
तय करता अनुपात
बिम्ब और तर्क
जटिलता-सम्प्रेषण
मौलिकता-दोहराव के
‘कठिन समय -कठिन समय’
बुदबुदाता कवि तय करता
अपने सम्पादक, आलोचक और पाठक
और चोर-दरवाजे भी
किसी कठिन समय पर भागने के लिये
फिलहाल
जबकि सारे जाहिल लोग
थक कर सोये हैं
नींद से लड़ता कवि
लिखता एक आसान-सी कविता
कठिन समय पर
प्रिय पाठक!
सचमुच कठिन समय है यह
कविता के लिये
‘अब छोड़ो भी ये बातें मनहूसियत की
और जश्न की इस मधुर संध्या पर
उठाओ यह छलकता जाम’ जैसी मीठी झिड़की को
नकार सकते हैं यदि आप, तो ही पढ़ें
यह कविता........
कविता जो शुरु करना चाहता था कवि
उमंग, उल्लास, उजास, उम्मीद जैसे कुछ शब्दों से
लेकिन नहीं कर सका
क्योंकि वह देख पा रहा था
इस जगमग रोशनी के पार
पसरा हुआ एक अँधियारा जो ध्ंसा हुआ था
पृथ्वी की आत्मा में
लोग खुश थे- खिलखिला रहे थे
मार रहे थे ठोकर पैरों में लोटते किसी भयावह सच को
लेकिन सच था कि लिपटने को आमादा
गरजती थी आवाजें
कैसे आ गया यह बिन बुलाये
हुआ जा रहा रंग में भंग--हटाओ इसे यहाँ से
लोग ढूंढते उसे कभी टेबिल के नीचे, कभी कनात के पीछे
कभी पीछे किसी झाड़ी के
लेकिन वह टुकड़ा था हमारी आत्मा से रिसता/ झुठलाते जिसे
बीती जा रही थी सदियों पर सदियां
पार्टी थी पूरे शबाब पर
जिसकी रंगीनियों में किये जा रहे थे कुछ नये वादे
सौदे की शक्ल में
किये जा रहे थे कुछ प्रस्ताव जिसका मसौदा
ले चुका था अंतिम शक्ल
मनाया जा रहा था ईश्वर को जो सो चुका था कोप-भवन में रोते-रोते
उस सर्द रात में जब पारा शून्य के आसपास ठिठुर रहा था
गर्माहट के कुछ शर्मनाक तरीकों की धुंध के पार
दिखाई पड़ रहा था सियाचीन का साफ और उजला आसमान
जहां शून्य से पचास डिग्री सैल्सियस नीचे
कोई जाँबाज पुकार रहा था अपनी बर्फीली मगर दृढ़ आवाज़ में
कि चिन्ता न करना हमारी हम हैं यहां महफूज़ !
पार्टी में चिन्ता की जा रही थी संभावित वृद्धि की पेट्रोल के भावों में
पहियों के रुकने की आशंका में दुखी थे दलाल और मुनापफाखोर
उध्र किसी घर में ‘पापा’ लिखना सीख रही थी कुछ मासूम अंगुलियां
पापा की अंगुलियां ट्रिगर पर फंसी थी और ध्यान लक्ष्य पर
कवि प्रदीप और लता मंगेशकर की आत्माओं से निकला मर्मभेदी गीत
समय की अतल गहराईयों में डूब चुका था।
पार्टी जम रही थी और कनात के उस पार जूठन की उम्मीद में बैठी
कुछ आशाएं बुझने को थीं
लेकिन कनात के इस पार मचा हुआ था द्वन्द्व कुछ चश्मों, झोलों, दाढ़ियों,
तोंदों और लिपस्टिक्स के बीच
कि होनी ही चाहिये समतावादी समाज की स्थापना
इस मुल्क में वरना होगी क्रान्ति
सुन लिया समाजवाद ने और वह दुबक गया आलू की चिप्स के नीचे
क्रान्ति शब्द सुनते ही जोश में खुला एक ढक्कन
और फैन लगा बहने दरिया बन
मुक्तिबोध् की कविता के डोमाजी का वंशज
जो इस तरल बहस में दुःखी होने की हद तक
भावुक हो चला था अचानक करने लगा उल्टियां झाड़ियों के पीछे
और वह दूसरा जिसे चढ़ता था नशा पांच पैग के बाद ही
समझाने लगा जीन्स में फंसे एक दुबले नौजवान को
--‘दिस कन्ट्री हेज नो पफ्यूचर! व्हाय डोन्ट यू ट्राय फाॅर ए फारेन एसानइमेंट!’
दुबला नौजवान गद्गद् था।
पार्टी खत्म नहीं होना चाहती थी मगर ज्यादातर लोग लुढ़क चुके थे
सहमत और असहमत जा चुके थे एक ही गाड़ी में बैठ
मेजबान खुश थे कि मेहमान खुश हुए
मेहमान खुश थे कि इस बार पार्टी में कनात के उस पार से
किसी ने नहीं उछाला पत्थर!
सब कुछ पा चुकी इस दुनिया में
बहुत कुछ बचा है खोजने को
कुछ सुगंध गुम हुई अंधेरे के भीतर
या कि याद अपनी ठेठ बोली के ठेठ मुहावरे की
कोई सच जो समाया मुहल्ले की पापड़ बेलती औरतों की गप्पों में
मुन्ने की घुटनचाल में उलझा
टुकड़ा कोई बचपन का सिरहाने जिसके आती नींद गहरी
बूढ़ी आँखों को
गया बाहर दरवाजे के पहन सूट
तो लौटी आवाज़ केवल सवार घंटियों पर
समवेत स्वाद रोटियों का पकी साझी आंच पर तन्दूर की
चट कर गई संगीनें दहशत की
आवाज़ किसी बीज की घोट दी गई जो
सौंधी मिट्टी के गर्भ में
पहाड़ा तेरह का कठिन जो हुआ याद
दबाते हुए पैर पिता के
हवाले अंततः फ्लापी के
कुछ पल बेशकीमती फुरसत के
सोखे जो विज्ञापन-गीतों की गुनगुनाहट ने
बिछाकर बाजार घर में
सदाशयता ‘कोई बात नहीं’ की मुस्कुराहट की
टकरा जाने पर अनायास
गुम हुई जो न मिली आज तक
हुए कुछ ज़रुरी सवाल कैद
उस गाड़ी में बख़्तरबन्द
जिस पर लिखी इबारत इनामी क्विज की
जबकि मनुष्य की अनिवार्य आकांक्षाएं बदल दी गई हैं
कम्प्यूटर की ‘बेसिक लैंग्वेज’ की बाइट में
जो करती बयां स्क्रीन पर/ धुंधला चेहरा कोई
खोजता हूं --धडकन अविकल!
एक/ पत्नी से अबोला
बात बहुत छोटी-सी बात से
हुई थी शुरु
इतनी छोटी कि अब याद तक नहीं
लेकिन बढ़कर हो गई तब्दील
अबोले में ।
संवादों की जलती-बुझती रोशनी हुई फ्यूज़
और घर का कोना-कोना
भर गया खामोश अंधकार से ।
जब भी होता है अबोला
हिलने लगती है गृहस्थी की नींव
बोलने लगती हैं घर की सभी चीजें
हर वाक्य लिपटा होता है तीसरी शब्द-शक्ति से
सन्नाटे को तोड़ती हैं चीजों को ज़ोर से पटकने की आवाज़ें
भेदने पर इन आवाज़ों को
खुलता है--भाषा का एक समूचा संसार हमारे भीतर ।
सहमा हुआ घर
कुरेदता है दफन कर दिये उजले शब्दों को
कहाँ बह गई सारी खिलखिलाहट
कौन निगल गया नोंक-झोंक के मुस्काते क्षण
कैसे सूख गई रिश्तों के बीच की नमी
किसने बदल दिया हरी-भरी दीवारों को खण्डहर में
अबोले का हर अगला दिन
अपनी उदासी में अधिक भयावह होता है ।
दोनों पक्षों के पूर्वज
खाते हुए गालियाँ
अपने कमाए पुण्य से
निःशब्द घर को असीसते रहते हैं ।
कालबेल और टेलीफोन बजते रहते
लौट जाते आगंतुक बिना चाय-पानी के
बिला वजह डाँट खाती महरी
चुप्पी टूटती तो केवल कटाक्ष से
‘भलाई का तो ज़माना नहीं’
या
‘सब-के-सब एक जैसे हैं’ जैसे बाण
घर की डरी हुई हवा को चीरते
अपने लक्ष्य की खोज में भटकते हैं ।
उलझी हुई है डोर
गुम हो चुके सिरे दोनों
न लगाई जा सकती है गाँठ
फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
घर की दहलीज से एकदम बाहर
अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब !
इस कविता के पाठक कहेंगे
... यह सब तो ठीक
और भी क्या-क्या नहीं होता पति-पत्नी के इस अबोले में
फिर जितना आप खींचेंगे कविता को
यह कुट्टी रहेगी जारी
तो ठीक है
ये लो कविता समाप्त !
दो /टावेल भूलना
यदि यह विवाह के
एक-दो वर्षों के भीतर हुआ होता
तो जान-बूझकर की गई ‘बदमाशी’ की संज्ञा पाता
लेकिन यह स्मृति पर
बीस बरस की गृहस्थी की चढ़ आई परत है
कि आपाधापी में भूल जाता हूँ टाॅवेल
बाथरूम जाते वक्त ।
यदि यह
हनीमून के समय हुआ होता
तो सबब होता एक रूमानी दृश्य का
जो तब्दील हो जाता है बीस बरस बाद
एक खीझ भरी शर्म में ।
‘सुनो, जरा टाॅवेल देना !’
की गुहार बंद बाथरूम से निकल
बमुश्किल पहुँचती है गन्तव्य तक
बड़े हो चुके बच्चों से बचते-बचाते
भरोसे की थाप पर
खुलता है दरवाजा बाथरूम का दस प्रतिशत
और झिरी से प्रविष्ट होता
चूड़ियों से भरा एक प्रौढ़ हाथ थामे हुए टाॅवेल
‘कुछ भी ख्याल नहीं रहता’ की झिड़की के साथ ।
थामता हूँ टाॅवेल
पोंछने और ढाँपने को बदन निर्वसन
बगैर छूने की हिम्मत किये उस उँगली को
जिसमें फँसी अँगूठी खोती जा रही चमक
थामता हूँ झिड़की भी
जो ढँकती है खीझ भरी शर्म को
बीस बरस से ठसे कोहरे को
भेदता है बाथरूम में दस प्रतिशत झिरी से आता प्रकाश !
तीन/ अचार
अचार की बरनी
जिसके ढक्कन पर कसा हुआ था कपड़ा
ललचाता मन कि
एक फांक स्वाद भरी
रख लें मुँह में की कोशिश पर
पारा अम्माँ का सातवें आसमान पर
भन्नाती हुई सुनाती सजा फाँसी की
जो अपील के बाद तब्दील हो जाती
कान उमेठ कर चौके से बाहर कर देने में ।
आम, गोभी, नींबू, गाजर, मिर्च, अदरक और आँवला
फलते हैं मानो बरनीस्थ होने को
राई, सरसों, तेल, नमक, मिर्च और हींग -सिरके
का वह अभ्यस्त अनुपात
बचाए रखता स्वाद बरनी की तली दिखने तक ।
सख्त कायदे-कानून हैं इनके डालने और
महफूज़ रखने के
गंदे-संदे, झूठे-सकरे हाथों
और बहू-बेटियों को उन चार दिनों
बरनी न छूने देने से ही
बचा रहता है अम्माँ का
यह अनोखा स्वाद-संसार !
सरल-सहज चीजों का जटिलतम मिश्रण
सब्जी-दाल से भरी थाली के कोने में
रसीली और चटपटी फांक की शक्ल में
परोस दी जाती है घर की विरासत!
चौके में करीने से रखी
ये मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित कृतियाँ
केवल जायके का बदलाव नहीं
भरोसा है मध्य वर्ग का
कि न हो सब्जी घर में भले ही
आ सकता है कोई भी आधी रात !
चार/ फर्ज़ निभाना
जिन्हें सींचा अपने रक्त और दूध से
प्राणवायु दी जिन्हें अपने फेफड़ों की
बहते रहे शिराओं में जिनकी जिजीविषा बनकर
तैयार हुआ जो आदमकद हमारी भूख और पसीने से गुँथकर
लाँघ जाते वे एक दिन घर की दहलीज़
‘यह तो हर माँ-बाप का फर्ज़ है’ का
तमाचा मार कर ।
चल देता है दरख़्त उन्मुक्त दिशा में
खींचकर जमीन से जड़ें अपनी और छाँह आकाश से
फिर बंजर हुई उर्वरा वह
समेटती है अपने सूने गर्भ में
सूखे पत्तों की चरमराहट
भूलती है हिसाब चूसे गये खनिजों का
और प्रार्थना में गाने लगती है हरीतिमा का गीत
क्या जिया जीवन !
निभाते रहे फर्ज़ केवल
पूत-सपूत की तमाम लोकोक्तियाँ नकारते
भरते रहे भविष्य निधि की गुल्लक पाई-पाई से
अपने स्वप्नों को डालकर उनकी बची हुई नींद में
देते रहे पहरा दहलीज पर रात भर ।
पोंछती है वह साड़ी के उसी पल्लू से आँख की कोर
गाँठ से जिसकी निकलती थी चवन्नी चुपके से स्कूल भेजते वक्त
मारी हुई घर-खर्च से
सुनें ! दुनिया के तमाम सीनियर सिटीजन्स सुनें !
कि उर्जा गतिकी के नियमों के अनुसार
यह प्रवाह होता एक दिशीय
कि ऋण अदायगी का शास्त्रोक्त तरीका भी यही
कि उनकी खुशी के फलों में ही छुपे
बीज हमारी खुशी के ।
चुनें ! दुनिया के तमाम बुज़ुर्गवार चुनें !
इन चहकती हवाओं के बीच
आँगन में रखी एक आराम-कुर्सी
जिसके उदास हत्थे पर टिकाकर सिर
सुना जा सके ममत्व का संगीत
दबाए सीने में
घुमड़ती सुनामी लहरों के ज्वार को
थामे कस कर लगाम रुलाई की
रखा जा रहा है अटैची में
तह कर के एक-एक फर्ज़ !
पांच/ टेलीफोन का बिल
डाक से आने वाला यह कागज़
बिल है टेलीफोन का या
घर में होने वाली खटपट का द्वैमासिक दस्तावेज!
बजट से बाहर पसारता पैर
कागज का बेशर्म टुकड़ा
वसूली हवा में गुम हो गये शब्दों की
बिल के साथ नत्थी डिटेल्स ही
मूल में होते खटपट की
‘ये देखो तुम्हारे इतने-मेरे इतने’
संख्या, समय और यूनिट के आंकड़ों का
एक कसैला समीकरण
कुतरता घर के बटुवे को एक सिरे से!
‘करना चाहिये केवल ज़रुरी बात ही ’
की सार्वजनिक सीख
‘मेरे ही फोन होते हैं ग़ैर ज़रूरी’
के पलटवार से हो जाते परास्त।
समीकरण से चुनकर
उसके हिस्से के समय को
बदलता हूं मुद्रा में
और कोसता हूं अपने रिटायर्ड ससुर की बचत के लिये
की गई पहल को
बेटी बेटी ही होती है
शादी के बीस बरस बाद भी!
उसके हिस्से की इकाईयों में छुपा है
पिता के दमे और भाभी के बर्ताव का संताप
भतीजे के लिये एक तुतलाती भाषा भी दर्ज़ वहाँ
कुछ घरेलू नुस्खे....व्यंजन विधियाँ
कुछ निन्दा-सुख, कुछ दूरी का दुःख
यदि ध्यान से खंगालें उन ‘पल्सेज़’ को
तो सिसकियों का एक दबा संसार भी खुल सकता है वहाँ
इन सबके बरक्स
दूसरे हिस्से में थोथी गप्पें दोस्तों से
जो होती हैं ऊर्जावान मेरे हिसाब से
न जाने किस निष्कर्ष पर पहुंचेगा
टेलीफोन का बिल का यह तुलनात्मक अध्ययन!
एक दिन जब वह
होती है वहाँ
लगाता हूं एस टी डी
‘मेरे मोजे रखे हैं कहां ?’
मैं अटपटा आदमी
इन दिनों मैं एक अटपटा व्यक्ति होता जा रहा हूँ
इस कथित सहज-सरल दुनिया में
मैं एक अटपटा व्यक्ति
अटपटी पोशाक, अटपटे व्यक्तित्व के साथ
अटपटी बातें करता हूँ
मित्रों में सनकी और अफसरों में कूड़मगज
कहलाने वाला मैं
अपने अटपटेपन पर शर्मिन्दा होने से मुकरता हूँ
शोकसभा में दो मिनट के मौन की अंतिम घड़ी में
फूट पड़ती है मेरी हँसी
आभार प्रदर्शन के औपचारिक क्षणों में
गरिया देता हूँ सभापति को
दफ्रतरों में घुसता हूँ अब भी
पतलून की जेब में हाथ डाले बगैर
मुझे पता है
अटपटे के दुःख और
विशिष्ट के सुख के बीच की दूरी
अपनी बात न कहकर मैंने पहले ही
बहुत खतरे हैं उठाये
अब अटपटी बातों की वजह से
और गंभीर खतरे उठाऊँगा ।
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अपनी एक मूर्तिबनाता हूँ और ढहाता हूँआप कहते हैं कि कविता की है।रघुवीर सहाय
कठिन समय की कविता
‘कठिन समय है! कठिन समय!!’
बुदबुदाता कवि
उठ बैठता आधी रात
लेकर कलम-दवात
भक्क से जल उठता लैम्प
रोशनी के वृत्त में
संचारी भाव स्थायी रफप से
बैठने लगते कविता की तली में
तय करता है कवि
ड्राफ्ट कठिन समय का
बुनता है भाषा कठिन समय की
याद करता किसी कठिन समय को
तय करता अनुपात
बिम्ब और तर्क
जटिलता-सम्प्रेषण
मौलिकता-दोहराव के
‘कठिन समय -कठिन समय’
बुदबुदाता कवि तय करता
अपने सम्पादक, आलोचक और पाठक
और चोर-दरवाजे भी
किसी कठिन समय पर भागने के लिये
फिलहाल
जबकि सारे जाहिल लोग
थक कर सोये हैं
नींद से लड़ता कवि
लिखता एक आसान-सी कविता
कठिन समय पर
प्रिय पाठक!
सचमुच कठिन समय है यह
कविता के लिये
जश्न की रात
‘अब छोड़ो भी ये बातें मनहूसियत की
और जश्न की इस मधुर संध्या पर
उठाओ यह छलकता जाम’ जैसी मीठी झिड़की को
नकार सकते हैं यदि आप, तो ही पढ़ें
यह कविता........
कविता जो शुरु करना चाहता था कवि
उमंग, उल्लास, उजास, उम्मीद जैसे कुछ शब्दों से
लेकिन नहीं कर सका
क्योंकि वह देख पा रहा था
इस जगमग रोशनी के पार
पसरा हुआ एक अँधियारा जो ध्ंसा हुआ था
पृथ्वी की आत्मा में
लोग खुश थे- खिलखिला रहे थे
मार रहे थे ठोकर पैरों में लोटते किसी भयावह सच को
लेकिन सच था कि लिपटने को आमादा
गरजती थी आवाजें
कैसे आ गया यह बिन बुलाये
हुआ जा रहा रंग में भंग--हटाओ इसे यहाँ से
लोग ढूंढते उसे कभी टेबिल के नीचे, कभी कनात के पीछे
कभी पीछे किसी झाड़ी के
लेकिन वह टुकड़ा था हमारी आत्मा से रिसता/ झुठलाते जिसे
बीती जा रही थी सदियों पर सदियां
पार्टी थी पूरे शबाब पर
जिसकी रंगीनियों में किये जा रहे थे कुछ नये वादे
सौदे की शक्ल में
किये जा रहे थे कुछ प्रस्ताव जिसका मसौदा
ले चुका था अंतिम शक्ल
मनाया जा रहा था ईश्वर को जो सो चुका था कोप-भवन में रोते-रोते
उस सर्द रात में जब पारा शून्य के आसपास ठिठुर रहा था
गर्माहट के कुछ शर्मनाक तरीकों की धुंध के पार
दिखाई पड़ रहा था सियाचीन का साफ और उजला आसमान
जहां शून्य से पचास डिग्री सैल्सियस नीचे
कोई जाँबाज पुकार रहा था अपनी बर्फीली मगर दृढ़ आवाज़ में
कि चिन्ता न करना हमारी हम हैं यहां महफूज़ !
पार्टी में चिन्ता की जा रही थी संभावित वृद्धि की पेट्रोल के भावों में
पहियों के रुकने की आशंका में दुखी थे दलाल और मुनापफाखोर
उध्र किसी घर में ‘पापा’ लिखना सीख रही थी कुछ मासूम अंगुलियां
पापा की अंगुलियां ट्रिगर पर फंसी थी और ध्यान लक्ष्य पर
कवि प्रदीप और लता मंगेशकर की आत्माओं से निकला मर्मभेदी गीत
समय की अतल गहराईयों में डूब चुका था।
पार्टी जम रही थी और कनात के उस पार जूठन की उम्मीद में बैठी
कुछ आशाएं बुझने को थीं
लेकिन कनात के इस पार मचा हुआ था द्वन्द्व कुछ चश्मों, झोलों, दाढ़ियों,
तोंदों और लिपस्टिक्स के बीच
कि होनी ही चाहिये समतावादी समाज की स्थापना
इस मुल्क में वरना होगी क्रान्ति
सुन लिया समाजवाद ने और वह दुबक गया आलू की चिप्स के नीचे
क्रान्ति शब्द सुनते ही जोश में खुला एक ढक्कन
और फैन लगा बहने दरिया बन
मुक्तिबोध् की कविता के डोमाजी का वंशज
जो इस तरल बहस में दुःखी होने की हद तक
भावुक हो चला था अचानक करने लगा उल्टियां झाड़ियों के पीछे
और वह दूसरा जिसे चढ़ता था नशा पांच पैग के बाद ही
समझाने लगा जीन्स में फंसे एक दुबले नौजवान को
--‘दिस कन्ट्री हेज नो पफ्यूचर! व्हाय डोन्ट यू ट्राय फाॅर ए फारेन एसानइमेंट!’
दुबला नौजवान गद्गद् था।
पार्टी खत्म नहीं होना चाहती थी मगर ज्यादातर लोग लुढ़क चुके थे
सहमत और असहमत जा चुके थे एक ही गाड़ी में बैठ
मेजबान खुश थे कि मेहमान खुश हुए
मेहमान खुश थे कि इस बार पार्टी में कनात के उस पार से
किसी ने नहीं उछाला पत्थर!
खोज(समाचार पढ़कर कि एक 23 वर्षीय युवक ने कम्प्यूटर ज्ञान से तृप्त होकर इसलिये आत्म हत्या कर ली कि अब इस दुनिया में जानने के लिये बचा ही क्या है!)
सब कुछ पा चुकी इस दुनिया में
बहुत कुछ बचा है खोजने को
कुछ सुगंध गुम हुई अंधेरे के भीतर
या कि याद अपनी ठेठ बोली के ठेठ मुहावरे की
कोई सच जो समाया मुहल्ले की पापड़ बेलती औरतों की गप्पों में
मुन्ने की घुटनचाल में उलझा
टुकड़ा कोई बचपन का सिरहाने जिसके आती नींद गहरी
बूढ़ी आँखों को
गया बाहर दरवाजे के पहन सूट
तो लौटी आवाज़ केवल सवार घंटियों पर
समवेत स्वाद रोटियों का पकी साझी आंच पर तन्दूर की
चट कर गई संगीनें दहशत की
आवाज़ किसी बीज की घोट दी गई जो
सौंधी मिट्टी के गर्भ में
पहाड़ा तेरह का कठिन जो हुआ याद
दबाते हुए पैर पिता के
हवाले अंततः फ्लापी के
कुछ पल बेशकीमती फुरसत के
सोखे जो विज्ञापन-गीतों की गुनगुनाहट ने
बिछाकर बाजार घर में
सदाशयता ‘कोई बात नहीं’ की मुस्कुराहट की
टकरा जाने पर अनायास
गुम हुई जो न मिली आज तक
हुए कुछ ज़रुरी सवाल कैद
उस गाड़ी में बख़्तरबन्द
जिस पर लिखी इबारत इनामी क्विज की
जबकि मनुष्य की अनिवार्य आकांक्षाएं बदल दी गई हैं
कम्प्यूटर की ‘बेसिक लैंग्वेज’ की बाइट में
जो करती बयां स्क्रीन पर/ धुंधला चेहरा कोई
खोजता हूं --धडकन अविकल!
घर-गिरस्ती की पांच कविताएं
एक/ पत्नी से अबोला
बात बहुत छोटी-सी बात से
हुई थी शुरु
इतनी छोटी कि अब याद तक नहीं
लेकिन बढ़कर हो गई तब्दील
अबोले में ।
संवादों की जलती-बुझती रोशनी हुई फ्यूज़
और घर का कोना-कोना
भर गया खामोश अंधकार से ।
जब भी होता है अबोला
हिलने लगती है गृहस्थी की नींव
बोलने लगती हैं घर की सभी चीजें
हर वाक्य लिपटा होता है तीसरी शब्द-शक्ति से
सन्नाटे को तोड़ती हैं चीजों को ज़ोर से पटकने की आवाज़ें
भेदने पर इन आवाज़ों को
खुलता है--भाषा का एक समूचा संसार हमारे भीतर ।
सहमा हुआ घर
कुरेदता है दफन कर दिये उजले शब्दों को
कहाँ बह गई सारी खिलखिलाहट
कौन निगल गया नोंक-झोंक के मुस्काते क्षण
कैसे सूख गई रिश्तों के बीच की नमी
किसने बदल दिया हरी-भरी दीवारों को खण्डहर में
अबोले का हर अगला दिन
अपनी उदासी में अधिक भयावह होता है ।
दोनों पक्षों के पूर्वज
खाते हुए गालियाँ
अपने कमाए पुण्य से
निःशब्द घर को असीसते रहते हैं ।
कालबेल और टेलीफोन बजते रहते
लौट जाते आगंतुक बिना चाय-पानी के
बिला वजह डाँट खाती महरी
चुप्पी टूटती तो केवल कटाक्ष से
‘भलाई का तो ज़माना नहीं’
या
‘सब-के-सब एक जैसे हैं’ जैसे बाण
घर की डरी हुई हवा को चीरते
अपने लक्ष्य की खोज में भटकते हैं ।
उलझी हुई है डोर
गुम हो चुके सिरे दोनों
न लगाई जा सकती है गाँठ
फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
घर की दहलीज से एकदम बाहर
अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब !
इस कविता के पाठक कहेंगे
... यह सब तो ठीक
और भी क्या-क्या नहीं होता पति-पत्नी के इस अबोले में
फिर जितना आप खींचेंगे कविता को
यह कुट्टी रहेगी जारी
तो ठीक है
ये लो कविता समाप्त !
दो /टावेल भूलना
यदि यह विवाह के
एक-दो वर्षों के भीतर हुआ होता
तो जान-बूझकर की गई ‘बदमाशी’ की संज्ञा पाता
लेकिन यह स्मृति पर
बीस बरस की गृहस्थी की चढ़ आई परत है
कि आपाधापी में भूल जाता हूँ टाॅवेल
बाथरूम जाते वक्त ।
यदि यह
हनीमून के समय हुआ होता
तो सबब होता एक रूमानी दृश्य का
जो तब्दील हो जाता है बीस बरस बाद
एक खीझ भरी शर्म में ।
‘सुनो, जरा टाॅवेल देना !’
की गुहार बंद बाथरूम से निकल
बमुश्किल पहुँचती है गन्तव्य तक
बड़े हो चुके बच्चों से बचते-बचाते
भरोसे की थाप पर
खुलता है दरवाजा बाथरूम का दस प्रतिशत
और झिरी से प्रविष्ट होता
चूड़ियों से भरा एक प्रौढ़ हाथ थामे हुए टाॅवेल
‘कुछ भी ख्याल नहीं रहता’ की झिड़की के साथ ।
थामता हूँ टाॅवेल
पोंछने और ढाँपने को बदन निर्वसन
बगैर छूने की हिम्मत किये उस उँगली को
जिसमें फँसी अँगूठी खोती जा रही चमक
थामता हूँ झिड़की भी
जो ढँकती है खीझ भरी शर्म को
बीस बरस से ठसे कोहरे को
भेदता है बाथरूम में दस प्रतिशत झिरी से आता प्रकाश !
तीन/ अचार
अचार की बरनी
जिसके ढक्कन पर कसा हुआ था कपड़ा
ललचाता मन कि
एक फांक स्वाद भरी
रख लें मुँह में की कोशिश पर
पारा अम्माँ का सातवें आसमान पर
भन्नाती हुई सुनाती सजा फाँसी की
जो अपील के बाद तब्दील हो जाती
कान उमेठ कर चौके से बाहर कर देने में ।
आम, गोभी, नींबू, गाजर, मिर्च, अदरक और आँवला
फलते हैं मानो बरनीस्थ होने को
राई, सरसों, तेल, नमक, मिर्च और हींग -सिरके
का वह अभ्यस्त अनुपात
बचाए रखता स्वाद बरनी की तली दिखने तक ।
सख्त कायदे-कानून हैं इनके डालने और
महफूज़ रखने के
गंदे-संदे, झूठे-सकरे हाथों
और बहू-बेटियों को उन चार दिनों
बरनी न छूने देने से ही
बचा रहता है अम्माँ का
यह अनोखा स्वाद-संसार !
सरल-सहज चीजों का जटिलतम मिश्रण
सब्जी-दाल से भरी थाली के कोने में
रसीली और चटपटी फांक की शक्ल में
परोस दी जाती है घर की विरासत!
चौके में करीने से रखी
ये मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित कृतियाँ
केवल जायके का बदलाव नहीं
भरोसा है मध्य वर्ग का
कि न हो सब्जी घर में भले ही
आ सकता है कोई भी आधी रात !
चार/ फर्ज़ निभाना
जिन्हें सींचा अपने रक्त और दूध से
प्राणवायु दी जिन्हें अपने फेफड़ों की
बहते रहे शिराओं में जिनकी जिजीविषा बनकर
तैयार हुआ जो आदमकद हमारी भूख और पसीने से गुँथकर
लाँघ जाते वे एक दिन घर की दहलीज़
‘यह तो हर माँ-बाप का फर्ज़ है’ का
तमाचा मार कर ।
चल देता है दरख़्त उन्मुक्त दिशा में
खींचकर जमीन से जड़ें अपनी और छाँह आकाश से
फिर बंजर हुई उर्वरा वह
समेटती है अपने सूने गर्भ में
सूखे पत्तों की चरमराहट
भूलती है हिसाब चूसे गये खनिजों का
और प्रार्थना में गाने लगती है हरीतिमा का गीत
क्या जिया जीवन !
निभाते रहे फर्ज़ केवल
पूत-सपूत की तमाम लोकोक्तियाँ नकारते
भरते रहे भविष्य निधि की गुल्लक पाई-पाई से
अपने स्वप्नों को डालकर उनकी बची हुई नींद में
देते रहे पहरा दहलीज पर रात भर ।
पोंछती है वह साड़ी के उसी पल्लू से आँख की कोर
गाँठ से जिसकी निकलती थी चवन्नी चुपके से स्कूल भेजते वक्त
मारी हुई घर-खर्च से
सुनें ! दुनिया के तमाम सीनियर सिटीजन्स सुनें !
कि उर्जा गतिकी के नियमों के अनुसार
यह प्रवाह होता एक दिशीय
कि ऋण अदायगी का शास्त्रोक्त तरीका भी यही
कि उनकी खुशी के फलों में ही छुपे
बीज हमारी खुशी के ।
चुनें ! दुनिया के तमाम बुज़ुर्गवार चुनें !
इन चहकती हवाओं के बीच
आँगन में रखी एक आराम-कुर्सी
जिसके उदास हत्थे पर टिकाकर सिर
सुना जा सके ममत्व का संगीत
दबाए सीने में
घुमड़ती सुनामी लहरों के ज्वार को
थामे कस कर लगाम रुलाई की
रखा जा रहा है अटैची में
तह कर के एक-एक फर्ज़ !
पांच/ टेलीफोन का बिल
डाक से आने वाला यह कागज़
बिल है टेलीफोन का या
घर में होने वाली खटपट का द्वैमासिक दस्तावेज!
बजट से बाहर पसारता पैर
कागज का बेशर्म टुकड़ा
वसूली हवा में गुम हो गये शब्दों की
बिल के साथ नत्थी डिटेल्स ही
मूल में होते खटपट की
‘ये देखो तुम्हारे इतने-मेरे इतने’
संख्या, समय और यूनिट के आंकड़ों का
एक कसैला समीकरण
कुतरता घर के बटुवे को एक सिरे से!
‘करना चाहिये केवल ज़रुरी बात ही ’
की सार्वजनिक सीख
‘मेरे ही फोन होते हैं ग़ैर ज़रूरी’
के पलटवार से हो जाते परास्त।
समीकरण से चुनकर
उसके हिस्से के समय को
बदलता हूं मुद्रा में
और कोसता हूं अपने रिटायर्ड ससुर की बचत के लिये
की गई पहल को
बेटी बेटी ही होती है
शादी के बीस बरस बाद भी!
उसके हिस्से की इकाईयों में छुपा है
पिता के दमे और भाभी के बर्ताव का संताप
भतीजे के लिये एक तुतलाती भाषा भी दर्ज़ वहाँ
कुछ घरेलू नुस्खे....व्यंजन विधियाँ
कुछ निन्दा-सुख, कुछ दूरी का दुःख
यदि ध्यान से खंगालें उन ‘पल्सेज़’ को
तो सिसकियों का एक दबा संसार भी खुल सकता है वहाँ
इन सबके बरक्स
दूसरे हिस्से में थोथी गप्पें दोस्तों से
जो होती हैं ऊर्जावान मेरे हिसाब से
न जाने किस निष्कर्ष पर पहुंचेगा
टेलीफोन का बिल का यह तुलनात्मक अध्ययन!
एक दिन जब वह
होती है वहाँ
लगाता हूं एस टी डी
‘मेरे मोजे रखे हैं कहां ?’
मैं अटपटा आदमी
इन दिनों मैं एक अटपटा व्यक्ति होता जा रहा हूँ
इस कथित सहज-सरल दुनिया में
मैं एक अटपटा व्यक्ति
अटपटी पोशाक, अटपटे व्यक्तित्व के साथ
अटपटी बातें करता हूँ
मित्रों में सनकी और अफसरों में कूड़मगज
कहलाने वाला मैं
अपने अटपटेपन पर शर्मिन्दा होने से मुकरता हूँ
शोकसभा में दो मिनट के मौन की अंतिम घड़ी में
फूट पड़ती है मेरी हँसी
आभार प्रदर्शन के औपचारिक क्षणों में
गरिया देता हूँ सभापति को
दफ्रतरों में घुसता हूँ अब भी
पतलून की जेब में हाथ डाले बगैर
मुझे पता है
अटपटे के दुःख और
विशिष्ट के सुख के बीच की दूरी
अपनी बात न कहकर मैंने पहले ही
बहुत खतरे हैं उठाये
अब अटपटी बातों की वजह से
और गंभीर खतरे उठाऊँगा ।
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परिचय
जन्म: 17 नवम्बर 1960, उज्जैन
शिक्षाः आद्योपान्त प्रथम श्रेणी कैरियर के साथ विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से वनस्पति शास्त्र में एम.एस-सी., पी-एच. डी.। मेटल टाक्सिकालाजी पर अनेक शोध-पत्र अन्तरराष्ट्रीय जरनल्स में प्रकाशित।
सृजनः एक कहानी संग्रह ‘उनके बीच का जहर तथा अन्य कहानियां’ 1987 में पराग प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित। दो कविता-संग्रह ‘जहाँ से जन्म लेते हैं पंख’ 2002 में तथा ‘जुगलबंदी’ 2008 में प्रकाशित तथा चर्चित, एक कहानी संग्रह ‘धुआँ’ (2009) तथा एक निबंध-संग्रह ‘आगदार तीली’ (2010) में प्रकाशित । हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, आलोचना , निबन्ध तथा नाट्य रूपान्तर प्रकाशित। नव- साक्षरों एवं बच्चों के लिये पर्यावरण एवं विज्ञान की पुस्तकों का लेखन। कई कविताएं अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित एवं प्रकाशित। देश के अनेक महत्वपूर्ण कथा-कविता समारोहों में शिरकत। अनेक रचनाओं का अंग्रेजी एवं भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद।
सम्मानः 1998 में अभिनव कला परिषद, भोपाल द्वारा ‘शब्द शिल्पी सम्मान’।
सम्प्रतिः प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, वनस्पति शास्त्र विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,गुना (म.प्र)
सम्पर्कः ‘विन्यास’, कैन्ट रोड, गुना- 473 001 (म.प्र.), दूरभाषः ;07542- 254734
मोबाइलः 98270 07736
टिप्पणियाँ
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रंगों के पर्व होली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामंनाएँ!
होली की महिमा न्यारी
सब पर की है रंगदारी
खट्टे मीठे रिश्तों में
मारी रंग भरी पिचकारी
ब्लोगरों की महिमा न्यारी …………होली की शुभकामनायें
बधाई, अशोकजी का आभार
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