रामजी यादव की कविताएँ
रामजी यादव को हम उनकी कहानियों के लिए जानते हैं. गाँव-गिरांव की संघर्षशील जन के प्रतिरोध की सशक्त कहानियों के लिए. लेकिन जब उन्होंने थोड़े दिन पहले ये कवितायें भेजीं तो यह मेरे लिए थोड़ा विस्मित होने का सबब था. इनका टोन बिलकुल अलग है. लेकिन इस अलग कहन की पालिटिक्स वही है. आखिर प्रेम भी जीवन दृष्टि से विहीन तो नहीं होता न? प्रेम की राजनीतियाँ होती हैं. वहाँ भी आप एक आक्रामक पितृसत्तात्मक पुरुष हो सकते हैं जहाँ प्रेम भी रणभूमि में बदल जाता है और विजय से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं होता. इन प्रेम कविताओं की भी एक राजनीति है. जो एक राग है इसमें कभी धीमा और कभी ऊंचा बजता हुआ, वह रणभेरी नहीं है बल्कि एक सम पर होने की कोशिश है....
एक स्त्री के समक्ष एकालाप
एक
अगर तुम
चांदनी की किरण होतीं
तो सारी
बेरौनक आंखों को तुम्हें दे देता
अगर तुम
बारिश की बूंद होतीं
तो दे देता
तुम्हें जंगल को कि वे हरे भरे होकर निखर आयें
लेकिन हे
प्रेम की चिरकुमारी
तुम तो समा
गयी हो मुझमें मैं बनकर
आईना देखता
हूं तो झांकती हो साफ साफ
तुमसे भरा
होना था सारी कायनात को
और तुमने
भरा केवल मुझे !
दो
जैसे जौ
में बालियां आने से पहले ही चेहरे पर सरसराती है टूंड
जैसे सूरज उगने
से पहले होने लगता है दिन का आभास
जैसे कुयेँ
को देखते ही कमज़ोर पड़ जाती है प्यास
हम दूर
रहते हों कितना भी
छिटककर फिर
उमड़ता चला आता है प्यार
हम देखते
ही हैं ऐसे कि जैसे प्यार उमड़ रहा हो हमारे भीतर
तुम्हारी
दीवानगी निखर उठती है तुम्हारे इनकार में
तुमने
ग्रंथों में बिताया है जीवन
ओ प्रिये , क्या कभी नहीं पढ़ा यह सबक
कि प्यार
को छिपाने के लिये नहीं बनी है कोई सावधानी
इसके आगे
बेकार हैं सारे मंत्र !
तीन
यह होली हर
साल आकर कहती है
कि चुन लो
एक रंग अपने लिये
और सराबोर
कर दो हरेक को
लेकिन कहीं
कोई भी तो न था
सिर्फ़ एक
नकली मुस्कान
और निशदिन
की मौकापरस्ती
और स्वार्थ
के गले कोई कैसे मिल सकता है
किसी को
अपने रंग में न पाया सिवा तुम्हारे !
सोचता हूं ,
आज तुम्हें
अपने विश्वास के रंग से कर दूं सराबोर
तुम आजीवन
डूबी रहो रंगों में
मैं आजीवन
तुम्हें देखता रहूं
उल्लास की
कहानियां लिखते हुए !
तुममें बची
रहे युवता
तुम्हारी
आत्मा से फूटता उजास
फैल जाये शब्दों
में
अपने हृदय
में साफ होते
सुर्ख रक्त
सा विश्वास का रंग
तुम्हें
भेंट करना चाहता हूं !!
चार
अगर
तुम्हें दे सकता एक दुनिया
तो देता कि
जहां निर्भीक होतीं लड़कियां
जहां नहीं
होता बाजार
और
उत्फुल्ल होता बचपन
जहां नहीं
मची होती जंगलों में लूट
जहां कीटनाशक
न पीते किसान
जहां झूठ न
बोलतीं सरकारें
जहां न
होता विज्ञापन जगत
और न होते
चैनल्स
जहां अखबार
न होते चापलूस
और कोई न
उठाता किसी का जूता
जहां न
होतीं कारें
और न आते
गांवों से लोग भाग कर शहरों में
जहां न
होतीं जातियां
और न होता
स्त्री विमर्श
जहां हर
आदमी को मिलती दाल
और हर
बच्चे को झूला
हर स्त्री
को पेट भर भोजन और सम्मान
मगर नहीं
है यह दुनिया ऐसी
जो देना
चाहता हूं तुम्हें
इराक , सोमालिया , अफगानिस्तान की तरह
हर जगह है
बदहाली
मेरे सपनों
का नहीं है यह भारत
और तुम्हें
नहीं दे पा रहा हूं कोई भी निशानी
सिर्फ जल
रहा हूं दिन-रात
विचारों
में आग की तरह !
पाँच
यह समूची
पृथ्वी तुम्हारे लिये है सिर्फ
हवायें
तुम्हारे लिये सीखती हैं विनम्रता की भाषा
वसंत के
साथ साथ जब आता है गेहूं की बालियों में दूध
और आम के
टिकोरों में खटास
तो मैं
सारा पर्यावरण कर देना चाहता हूं तुम्हारे नाम
मैं
तुम्हारी खुशियों का एक शब्दकोश बनाना चाहता हूं
उम्र के इस
छोर से उस छोर तक
तुम हो
सिर्फ एक धार
जिससे काट
देता हूं मैं समय के सारे रज्जू
मैं इस
जीवन में तुम्हें देना चाहता हूं
एक बेमिसाल
सूर्योदय !
छः
बहुत हरे
भरे रेवड़ में भी जैसे कोई हिरन अकेला
वैसे मैं
हूं इस दुनिया में तुम्हारे बिना
जैसे कोई
झरना गिरता हो
सैंकड़ों
मीटर की ऊंचाई से बेआवाज़
जैसे
उन्माद में नहीं बहता हो पानी
बस ढुलकता
हो जैसे आंसू
जैसे चमकते
हुए परदेस में
कोई ढूंढता
रहा हो किसी अपने को
वैसे मैं
ढूंढता हूं तुम्हें !
थककर चूर
हो रहे हों पांव
और उठने से
कर रहे हों इनकार
लेकिन मन
है कि भागा जाता है तुम्हारी ओर !
आंखें
अक्षर नहीं ,
तुम्हें ढूंढ रही
हैं
हर किताब
के पन्नों में !
सात
जब आंखें
देखती हैं कुछ
तो उर्वर
होता है मस्तिष्क
जब आंखें
देखती हैं कुछ अधिक
तो रचने
लगते हैं हाथ
जब आंखें
देखती हैं बहुत कुछ
तो झरने
लगते हैं शब्द बेशुमार
जब आंखें
देखती हैं अपने आप को
तो जन्म
लेता है प्यार का अहसास
दो आंखों
ने चुन ली होती हैं
दुनिया में
असंख्य भूमिकायें
आठ
जैसे जीवन
के झूठे मेलों में खोये सारे लोग
घबराते हैं
अंत को सोचकर
और जाते
हैं बिना रुके अंत की ओर
वैसे ही
तुम भी डरी हुई हो मेरी भावनाओं से
और उन्हें
झूठा कहकर नकार देती हो
तुम खोज
रही हो शाश्वतता
और मैं रोज़
देख रहा हूं अपना अंत
तुम्हारा
हठ है खोई हुई चीज़ों को पाने का
मेरा हठ है
जीने के लिये सबकुछ खो देने का
अगर मैं भी
न बचूं तो नष्ट तो नहीं होगी दुनिया
कहीं न
कहीं तो तब भी बची रहेगी इन्सानियत
लेकिन बचा
रहा तुम्हारे बिना तो क्या होगा हासिल ?
कुछ ही पल
हों बेशक तुम्हारे साथ पर यही तो है जीवन
भले ही शरीर
का हो दुखद अंत
भले
विस्फोट में उड़ जाये एक एक पुरजा
मैं क्यों
छोड़ूं उम्मीद कि तुम्हारे साथ से ही
सबसे
खूबसूरत हो उठती है दुनिया !
नौ
अक्सर जो
खेत को जोतते हैं
मेंड़
बांधते हैं
और हेंगाकर
ज़मीन को भुरभुरा बनाते हैं
वैसा ही एक
किसान हूं मैं
तुम्हारी
आत्मा की ज़मीन को उर्वर बनाने का
काम दिया
है नियति ने
जैसे कभी
पड़ जाता है सूखा
तो खोल
देता है किसान अपने बैल और मवेशी
जायें कहीं
भी खोज लें घास
ढूंढ लें
पानी और बचा लें जीवन
वैसे ही
मैंने भी खोल दिया है
सारी
महत्वाकांक्षाओं का जीवन
कि जाओ हो
जाओ कोई कहानी
और घुल जाओ
किसी कविता में
लौटा दो भाषा
में जीवन और विश्वास
मैंने
सिर्फ तुम्हें रोक लिया है अपने लिये
नहीं कर
सका हूं बंधन मुक्त
जैसे
संवेदना हो तुम जीवन की
और तुम्हीं
से बच सकती है
मनुष्यता
और कल की उम्मीद
जैसे चाहता
है कोई किसान अपनी किसानिन को
जैसे कोई
स्वार्थी संगीतकार
सारी धुनों
पर करना चाहता है कब्जा
वैसे मैं
हूं तुम पर हक जमाता हुआ
हर बार भूल
जाता हूं अपनी सीमायें !
दस
जैसे
सन्नाटे में गिरती है सुई
जैसे कोई
चुपचाप पांव रखता है सूखे पत्तों पर
जैसे हवा
में सरसराती है रेत
जैसे
प्रेमी फुसफुसाकर भी कर लेते हैं झगड़ा
वैसे ही
तुम आ जाती हो मुझ तक
जब भी कोई
पास नहीं होता
और अब होता
कहां है कोई और ....
अब तो
सिर्फ तुम हो और तुम्हारा वजूद है
अब कान
नहीं सुनते कोई संगीत
सिवा
तुम्हारी खिलखिलाहट के
अब आंखें
नहीं देखतीं कुछ भी
सिवा
तुम्हारे उत्फुल्ल मन के
और सबकुछ
चल रहा है बेआवाज़
तुम नहीं
करती हो मुझ पर भरोसा तो क्या हुआ
मैं बहुत
कम आहटों में भी सुनता रहूंगा तुम्हें
आजीवन !
ग्यारह
एक बिगड़ी
हुई बेढंगी कविता हूं तुम्हारे लिये
उड़ंत घोड़ा
हूं तुम्हारे सपनों और इच्छाओं को
उठा लेने
को तत्पर
डगमगाता
हुआ जहाज हूं
दुनिया के
समंदर में तुम्हारे लिये
बरबाद किया
गया कागज हूं तुम्हारे लिये
बरसता हुआ
बादल हूं तुम्हारे लिये
उदास आसमान
हूं तुम्हारे लिये
बेरंग हुआ
सूरज हूं तुम्हारे लिये
दागों से
भरा चांद हूं तुम्हारे लिये
सबकुछ हो
जाना चाहता हूं तुम्हारे लिये
चाहे कितना
भी कर दो दूर
और मत करो
मेरा विश्वास
लेकिन
दुनिया इसीलिये है खूबसूरत
कि हर चीज़
देख रहा हूं तुम्हारी आंखों से
हरसांस में
जी रहा हूं तुम्हें !
बारह
कितनी शिद्दत
से चली आती है यह दुनिया हमारे भीतर
कितने
चुपके से आकार लेता है एक मोहल्ला
कितने
चुपचाप उग आता है एक पड़ोस
और बिना
कहे हर चीज़
गवाही देती
लगती है हमारे प्रेम की
तुम इनकार
को बना देती हो अपनी तस्दीक
बारहां
सफाई देती हो रोम रोम से
एक शब्द है
- ‘है‘
कि जिसको ‘नहीं’ लिखना चाहती हो तुम
चाहती हो
एक नयी शाम का सुख
और दोपहर
से भागना चाहती हो
यह
तुम्हारा आकर जाना
और ‘हां’ को बदलना ‘नहीं’ में
चाहना जीवन
और भागना कड़ी धूप से
क्या करे
कोई
जाओ कितना
भी अंधेरे में
लेकिन नहीं
छिप सकता प्यार
यह हादसा
ऐसा है !!
तेरह
प्यार
उमड़ता है ऐसे
कि अब
अंटता नहीं कविताओं में
जैसे भरी
दुपहरी में उमड़ती है सुर्खी
पलाश के
फूलों में
और लगता है
जैसे आग लगी हो जंगल में
नहीं बचेगा
कोई पेड़ ,
वनस्पति और जीवन
जैसे कूदता
है कोई हिरन उछाह में
जैसे निकल
आता है दिन जबरदस्ती
और खटने चल
देते हैं लोग
एक और दिन
की गुलामी
और उन पर
लद जाती हैं
ज़रूरतें और
इच्छायें
जैसे कोई
असंतुष्ट विचारक
उमड़ते देख
रहा हो अपने भीतर
भयानक
गुस्सा
जैसे
मिट्टी हटा देने से
उमड़ आता है
कुंए में पानी
वैसे ही
उमड़ कर चला आता है प्यार ऐसे
कि तुम्हें
खींच लूं अपनी ओर
और बरस
पड़ूं बेगानी वजह से
चौदह
मैं रहा
होऊंगा कभी एक पेड़
काटा गया
होऊंगा किसी लकड़हारे के हाथों
चीरा गया
होऊंगा आरा मशीन पर
और बांटा
गया होऊंगा न जाने कितने टुकड़ों में
बुरादा और
टहनियां जलने के काम आई होंगी
और पतरों
से बनाई गई होगी तुम्हारी मेज़
अगर महसूस
करो तो रहा हूं तुम्हारे पास न जाने कब से
अगर देख
सको तो ज़र्रे ज़र्रे में बसा हूं मैं
तुमने उतना
ही लिया है
जितने में
अहसास बने अपनापे का
तो मैं
क्या कर सकता हूं
मैं तो
यहां वहां हर जगह तुम्हारे पास हूं
बस , ज़रा हाथ बढ़ाओ और छू लो मुझे !
पंद्रह
रात का
अर्थ केवल निद्रावाहिनी नहीं होता
एक सन्नाटे
का वाचाल हो जाना भी होता है
तुमसे भरा
हुआ दिन और तुमसे भरी पृथ्वी
दोनों ही
जब डूब जाते हैं अंधेरे में
जब मचाया
गया शोर और न सुनी गयी बातें
थककर उदास
बैठ जाती हैं
जब फैसले
से पहले जज वसूलता है गड्डियां
जब शहर में
यहां-वहां सज उठता है जिस्म का बाज़ार
जब चुपचाप
अंजाम दी जाती हैं दमनात्मक कार्यवाहियां
जब घेर
लिया जाता है कहीं कोई गांव
और करार
दिया जाता है युवाओं को नक्सली
किसी सबूत
के चीखने से पहले ही चीख उठती हैं बंदूकें
जब बारिश
को तरसती धरती नहा लेती है खून से
तब रात का
अर्थ केवल सन्नाटा नहीं हो सकता
उस रात में
किसी नदी की तरह उमड़ आती हो तुम
एकदम समो
लेना चाहता हूं तुम्हें आगोश में
लेकिन रात
और सन्नाटा मुझे एकाग्र नहीं होने देते
मैं
मुल्तवी कर देता हूं प्यार
और स्थगित
कर देता हूं खुशियां !!
टिप्पणियाँ
Amit Upmanyu
नहा लेती है खून से
तब रात का अर्थ केवल सन्नाटा नहीं हो सकता
उस रात में किसी नदी की तरह उमड़ आती हो तुम
बहुत अच्छी कविताऎ।
नहा लेती है खून से
तब रात का अर्थ केवल सन्नाटा नहीं हो सकता
उस रात में किसी नदी की तरह
उमड़ आती हो तुम
बहुत अच्छी कविताएं
तो खोल देता है किसान अपने बैल और मवेशी
जायें कहीं भी खोज लें घास
ढूंढ लें पानी और बचा लें जीवन
वैसे ही मैंने भी खोल दिया है
सारी महत्वाकांक्षाओं का जीवन
कि जाओ हो जाओ कोई कहानी
और घुल जाओ किसी कविता में
लौटा दो भाषा में जीवन और विश्वास
ओह ...कितना अच्छा होता , यदि महत्वाकांक्षाओं का जीवन इस तरह खोल दिया जाता | अद्भुत बिम्ब है मित्र ...दिन की इससे बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती है ...| बधाई आपको और आभार असुविधा का ...
हर जगह है बदहाली
मेरे सपनों का नहीं है यह भारत
और तुम्हें नहीं दे पा रहा हूं कोई भी निशानी
सुंदर कविता.... कविजी को बधाई...