बसंत जेटली की कहानी
बसंत जी की यह कहानी काफी दिनों से मेरे पास थी. इसे पढ़ते हुए मुझे परसाई याद तो आये लेकिन यह भी लगा की उस शैली में लिखना इतना आसान भी नहीं. शायद उस दर्जे की प्रतिबद्धता अर्जित करना भी उतना आसान नहीं. शायद वक़्त भी वैसा नहीं. इस कहानी में जो 'इंकलाबी' चरित्र आये हैं, दरअसल वे और चाहे जो हों कम्युनिस्ट तो नहीं. वे रातोरात दुनिया बदल देने के सपने देखने वाले मध्यवर्गीय चरित्र हैं जो और कुछ भी कर लें दुनिया नहीं बदल सकते...खैर असल मानी तो आपकी प्रतिक्रिया के होंगे.
इन्क़लाब
वे संख्या में चार थे.
उनमे से तीन के कपडे बेहद धूसर और मामूली थे.पैरों में घिसी हुई चप्पलें थीं. एक
के सिर पर मओनुमा एक टोपी भी थी. वह हाव – भाव से उनका नेता सा लग रहा था. चौथे के
कपडे कुछ सलीकेदार तथा साफ़-सुथरे थे. उसके पैरों में जूते थे और लगता था कि कुछ
दिन पहले ही उन पर पौलिश की गयी थी. यों देखने में चारों ही परेशान लग रहे थे. उन सब
के चेहरों पर चिंता की गहरी रेखाएं थीं.गाल पिचके हुए थे, माथे उभरे हुए थे और नाक
के सिरे बेहद लंबे थे.कुछ सोचते हुए वे सड़क पर चले जा रहे थे या अपने को घसीट रहे
थे यह कहना मुश्किल है पर वे सोच ज़रूर रहे थे. कभी- कभी वे रुक कर चारों तरफ देखते
और फिर आगे बढ़ जाते.
एक पेड़ के नीचे पहुँच कर
वे सब खड़े हो गए. कुछ देर वे यों ही चुपचाप खड़े रहे फिर सबने आँखों में प्रश्न
भरकर एक दूसरे की ओर देखा “ अब.? “ उत्तर के लिए वे एक दूसरे की आँखों में झांकने
लगे. किसी के पास उत्तर नहीं था. सिर पार हाथ रख कर वे सब वहीं बैठ गए और इस “ अब
“ का जवाब सोचने लगे.
उनमे से नेता सा दीखने
वाला एक व्यक्ति अचानक उठ कर खड़ा हो गया. सब उसकी ओर देखने लगे. उसकी आँखें चमक
रहीं थीं. उसने अपने कधों को एक झटका दिया और माथे को दाहिने हाथ की उंगली से
ठकठकाते हुए सिर हिलाया – “ नहीं, इस तरह नहीं. हमें कुछ और करना होगा. आखिर
अच्छाई की तलाश में हम ऐसे कब तक भटकते रहेंगे ? हमें पूरा माहौल बदलना होगा.
विद्रोह करना होगा इस व्यवस्था के खिलाफ. महज़ हमारे आक्रोश से कुछ नहीं हो सकता.”
सब बिना किसी बहस के उससे
सहमत हो गए. वे उठ खड़े हुए.मुट्ठियाँ बाँध कर उन्होंने दांत किटकिटाए, अपने नेता
से हाथ मिलाए और आगे चल दिए. माहौल बदल देने का संकल्प उन्होंने मन ही मन में
दुहराया और इन्कलाब लाने की कसमें खाईं. उन्होंने तय किया कि बदलाव लाने की शुरुआत
इसी शहर से की जाए. लोगों से उनकी तकलीफें पूछी जाएँ और जहां जो भी गलत हो उसे ठीक
किया जाए.
सड़क के किनारे एक पुरानी खटारा
सी बस खड़ी थी.यह उन्हें बहुत अजीब लगा. घूम-फिर कर चारों ओर से उन्होंने उसका
मुआयना किया और फिर चेहरे पर प्रश्न चिपका कर खड़े हो गए,
“ यह बस यहाँ क्यों खडी है
? “ एक ने सवाल किया.
“ शायद यह खराब है, चलती
नहीं है. ” दूसरे ने कहा.
“ लेकिन खराब भी है तो या
तो इसे ठीक करके काम में लेना चाहिए और या फिर इसे बेच कर इसका धन गरीबों में बाँट
दिया जाना चाहिए. " तीसरे ने राय दी.
“ हम ऐसा कैसे कर सकते है
? ” एक और साथी बोला. “ इसका कोई तो मालिक होगा ही. उसकी मर्जी के बिना हम इसे न
तो ठीक कर के चला सकते हैं और न इसे बेच कर इसका धन बाँट सकते हैं.”
“ यह बस जब यों ही खड़ी है
तो इसका मतलब है कि इसके मालिक को इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं है.” यह नेता का स्वर
था. “ देश के संसाधनों का उपयोग सबके हित में होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो
हमें कुछ तो करना ही होगा ? “
बहुत देर तक वे बस को लेकर
बहस करते रहे. वे इस बात पर सहमत थे कि बस को अपना काम करना चाहिए. उनमे से एक
आदमी ने बस का बोनट खोला और कुछ समझ में न आने पर उसे बंद कर दिया. दूसरे ने बस के
अंदर जाकर देखा. सारी सीटें फटी हुई थीं और उनमे जंग लगी हुई थी. तीसरे ने ध्यान
दिया कि बस के सारे टायर भी फटे हुए थे. चौथा बस के अंदर फटी हुई सीट पर बैठा
कुछ-कुछ ऊंघ रहा था. अचानक उसने देखा कि बस के अंदर लगे एक फ्रेम से फोटो जैसा कुछ
चमक रहा था. सीट से उठ कर उसने हाथ से उसे साफ़ किया. हाथ में पर्वत उठाये हनुमान
जी की एक फोटो चमकने लगी. वह तुरंत बस से नीचे उतर गया.
“ अंदर, अंदर हनुमान जी
हैं.”
“ हनुमान जी, “ सब उसकी
तरफ पलट गए.” हनुमान जी बस के अंदर क्या कर रहे हैं ?”
“ मेरा मतलब है कि उनकी
फोटो है ... हाथ में पहाड़ उठाये हुए.”
“ तो क्या हुआ ? “ नेता ने
सवाल किया.” हनुमान जी क्या कर लेंगे ? क्या हमें बताया नहीं गया था कि भगवान –
वगवान कुछ नहीं होता. अगर उनकी फोटो लगी भी है तो क्या हुआ ? कुछ जाहिल लोग ऐसे
काम करते रहते हैं. कुछ और तो उनसे होता नहीं इसलिए जहां – तहां फोटो चिपकाते हैं
और फिर दिन में चार बार उसे ढोक लगाते हैं |”
“ लेकिन हनुमान जी जन
देवता हैं.” फोटो साफ़ करने वाले ने दबे स्वर में कहा. “ और फिर मेरे पिता कहते थे
कि वो कम्युनिस्ट हैं ? “
“ कम्युनिस्ट ! भगवान और
कम्युनिस्ट ? “ सबने एक साथ सवाल किया.
“ हाँ, मेरे पिता कहते थे
कि शिव और हनुमान दोनों सर्वहारा वर्ग के नेता हैं इसीलिये दोनों इतने कम कपड़ों
में रहते हैं. शिव जी के गण देखो और हनुमान जी तो लाल लंगोट पहनते ही हैं. वे ये
भी कहते थे कि हनुमान शिव के अवतार थे. आम जनता उन्हें अपना संकट मोचक मानती
है,पूजती है. हम एक सर्वहारा वर्ग के ईश्वर की बस का तिया - पांचा कैसे कर सकते
हैं.”
“ संकट मोचक के रूप में तो
गणेश को भी माना और पूजा जाता है न ? एक और साथी ने सवाल किया.
“ हाँ, यह सही है. लेकिन
गणेश सर्वहारा वर्ग के देवता नहीं हो सकते. वे खाए – पिए देवता हैं. उनकी बडी सी
तोंद नहीं दीखती क्या ? और वो बेचारा चूहा भी याद रखो जो शोषित जनता का प्रतीक हो
सकता है. जिसे सवारी के नाम पर वे अपने नीचे दबाये बैठे हैं. वह अभिजात्य वर्ग के
देवता हैं इसलिए सिर्फ अमीर लोगों के संकट ही दूर करते होंगे. हनुमान और गणेश में
बहुत फर्क है.”
“ चलो मान लिया कि तुम सही
कह रहे हो लेकिन बस तो हनुमान जी की नहीं हो सकती न. यह तो किसी पैसे वाले आदमी की
ही हो सकती है. फिर हम ...
पहले वाले ने उसे बात पूरी
होने से पहले ही रोक दिया. “ हो सकता है कि इस आदमी ने क़र्ज़ लेकर इसे खरीदा हो. हो
सकता है कि बस खराब होने के बाद उसके पास इसे ठीक करवाने लायक धन ही न रहा हो. और
फिर हनुमान जी का यहाँ होना यह साबित करता है कि उसे आम जन से सहानुभूति तो है ही.
इसीलिये हमें इस बस के साथ छेड – छाड नहीं करनी चाहिए.”
कुछ देर तक वह इस बात पर
बहस करते रहे. किसी नतीजे पर न पहुँच पाने के कारण उन्होंने अपने नेता की ओर देखा.
वह कमर पर हाथ रखे खड़ा था – “ यह बस वैसे भी बहुत बेकार हालत में है. हनुमान जी ने
बीच में आकार मामले को और उलझा दिया है इसलिए हमें इस पर अपने समय और शक्ति का
अपव्यय नहीं करना चाहिए.” उसने कहा और अपने साथियों को आगे चलने का इशारा किया.
बस को वहीं छोड़ कर वे
सामने वाले चौराहे पर जा खड़े हुए. वे परिवेश बदलने के लिए लोगों को प्रेरित करना
चाहते थे. लोगों को अपने साथ करने के लिए उन्होंने तय किया कि लोगों से उनकी
तकलीफें पूछी जानी चाहियें और उन्हें दूर करना चाहिए. वे बड़े ध्यान से हर आने -
जाने वाले का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगे. बड़ी हडबडी में चले आ रहे एक व्यक्ति
को उन्होंने रुकने का इशारा किया और उसे घेर कर खड़े हो गए.
“ आपको कोई कष्ट है ?”
“ कष्ट ! कैसा कष्ट ?
“ कैसा भी. सामाजिक,
आर्थिक या राजनीतिक ?”
:” जी नहीं, और हो भी तो
इससे आपको क्या ? हटिये मेरा समय बर्बाद मत कीजिये. कष्ट ! हुंह, बकवास, बेकार की
बकवास.” और वह उन्हें हतप्रभ छोड़ कर चला गया.
वे फिर चुपचाप खड़े होकर
किसी दूसरे की प्रतीक्षा करने लगे. फटे कपडे पहने एक आदमी को देख कर उनकी बाछें
खिल गयीं. सबने उसे घेर लिया.
“ यह क्या तमाशा है ?”
घिरा हुआ आदमी जोर से चिल्लाया. उनके चेहरे और भी चमक उठे. यह ज़रूर किसी से बात से
दुखी है.
“ आपको कोई तकलीफ है ?”
“ तकलीफ !” घिरे हुए आदमी
ने उन्हें जलती आँखों से घूरा—“ कौन सी तकलीफ जानना चाहते हो ? मेरे साथ धोखा हुआ
है. वह बेईमान है. उसने मेरा सारा पैसा छीन कर मुझे घर से निकाल दिया है.”
“ क्या सबूत है कि तुम सही
कह रहे हो ?”
“ सबूत ! मै कह रहा हूँ कि
बेईमान है, मक्कार है, झूठा है. उसने मेरे साथ दगा किया है. मै कायर नहीं हूँ. मै
यह सब उसके सामने कह सकता हूँ. यह क्या कम बड़ा सबूत है ?”
वे सब उसे छोड़ कर अलग हट
गए. बेईमानी की कोई दवा उनके पास नहीं थी,” हमें तुमसे हमदर्दी है,पर इस मामले में
हम कुछ कर नहीं सकते.”
“ कोई कुछ नहीं कर सकता. कोई
कुछ नहीं करेगा. सब पूछ-पूछ कर मज़ा लेते हैं. लेकिन मै फिर कहता हूँ कि वह बेईमान
है, मक्कार है,धोखेबाज़ है, झूठा है और मै मरते दम तक यह कहता रहूँगा.”
उन्होंने उसकी बात पर
ध्यान नहीं दिया और फुटपाथ पर बैठे एक भिखारी की ओर मुड गए. भिखारी ने अपना कटोरा उनके
आगे बढ़ा दिया और उम्मीद भरी नज़रों से उनकी तरफ देखने लगा.
“ तुम्हे रोज दोनों टाइम
खाना मिल जाता है ?” कटोरे से नज़रें बचाते हुए उन्होंने सवाल किया.
“ नहीं “ भिखारी ने बुरा
सा मुंह बना कर जवाब दिया.
“ फिर तुम विद्रोह क्यों
नहीं करते ?”
“ उससे क्या मुझे दोनों
टाइम खाना मिलने लगेगा ?”
“ हाँ, यदि तुम सफल रहे
तो. अगर हार गए तो जेल भेज दिए जाओगे या फिर मार डाले जाओगे.”
भिखारी को गुस्सा आ गया –
“ फिर तो मै ऐसे ही ठीक हूँ. कम से कम अभी राम की कृपा से ज़िंदा तो हूँ. तुम्हारी
बातें मेरी समझ में नहीं आतीं. अगर कुछ देना है तो दो नहीं तो चलते बनो. मुझे मेरा
काम करने दो. पता नहीं न जाने कितने लोग निकल गए तुम्हारे चक्कर में.”
वे भिखारी को छोड़ कर हट
गए. कुछ देर सोचते रहे. फिर उन्होंने अपनी जेब से एक पुरानी सी नोटबुक निकाल कर
लिखा कि सब जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं. भारतीय धर्म और दर्शन ने लोगों की
विरोध करने की क्षमता समाप्त कर दी है. सभी संतुष्ट हैं अतः इन्कलाब नहीं आ सकता.
जो कुछ आक्रोश लोगों में दिखाई देता है वह भी अंदरूनी नहीं है. सारा का सारा
बनावटी है.
यह लिख लेने के बाद वे
वहाँ से चल दिए. अँधेरा होने लगा था. वे जाकर शहर के एक अँधेरे कोने में बैठ गए.
उन सब के माथे पर बल पड़े हुए थे और वे अपना सिर खुजा रहे थे. उनमे से एक व्यक्ति
यकायक उठ कर खड़ा हो गया. बाएं हाथ की उंगली से नाक का ऊपरी हिस्सा दबाते हुए उसने नकनके
स्वर में कहा – “ देखा, हम सब किस हद तक नपुंसक हो चुके है. हमारे अंदर की सारी आग
मर चुकी है. अब हम कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.”
“ तुम इस बात को अपने तक
ही रखो तो ठीक है. इसे तुम सामन्य नहीं बना सकते. आग सिर्फ तुम्हारे अंदर की मरी
है और नपुंसक भी सिर्फ तुम हुए हो. मै जानता था कि एक न एक दिन तुम यही कहोगे.”
दूसरे व्यक्ति ने गुर्राते हुए कहा.
“ न ... नहीं, मे... मेरा
मतलब था कि परिस्थितियों ने हमें इतना बौना बना दिया है कि हम हतप्रभ हो गए हैं.”
पहले ने हकलाते हुए सफाई पेश की.
“ बको मत. तुम्हारा यह
मतलब बिल्कुल नहीं था. तुम हम पर लांछन लगा रहे थे.”
दूसरे की आवाज़ गुस्से से
कांपने लगी थी.
“ खामोश “ नेता ने गंभीर
स्वर में कहा. सब चुप हो गये और उसकी ओर देखने लगे.
काफी देर तक नेता चुप रहा,
फिर बोला – “ हमें यह सोचना होगा कि हमारी सारी योजनाएं फेल क्यों हो जाती हैं. हमारे बीच कोई
ऐसा तो नहीं है जो खबरे बाहर पहुंचा देता हो ?”
सब एक दूसरे को शक की निगाहों
से घूरने लगे. नेता ने सब को भेद लेने के अंदाज़ में गहरी नज़रों से देखा. एक साथी
पर उसकी निगाहें अटक गयीं— “ तुम ... तुम इधर आओ. तुम हम सबसे अच्छे कपडे कैसे
पहनते हो ?”
“ यह मेरा अपना मामला है.
मै अच्छे कपडे पहनता हूँ इसमें किसी का क्या जाता है ? वह व्यक्ति झल्ला उठा.
“ बिल्कुल जाता है. हम सब
एक स्तर पर काम कर रहे हैं. तुम्हारे बढ़िया कपडे पहनने का मतलब है कि तुम बूर्जुआ
हो. तुम्हे हमारे सिद्धांतों में आस्था नहीं है.” नेता की आवाज़ तीखी हो गयी थी.
“ यह मात्र संयोग है कि मै
तुम सब के साथ हूँ, नहीं तो मेरा बाप बहुत अमीर है. मै सिर्फ इसलिए तुम लोगों के
साथ हूँ क्योंकि मुझे तुम्हारे सिद्धांत पसंद है, मै उनसे सहमत हूँ. कपड़ों से क्या
फर्क पड़ता है ?”
“ मै तुमसे सहमत नहीं हूँ.
तुम गद्दार हो .”
“ मै भी तुमसे सहमत नहीं
हूँ. मै तुम सब पर थूकता हूँ. तुम सब ढोंगी हो. तुम मेरी नियत पर शक करते हो ? मै
तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. मै जा रहा हूँ.” वह चला गया. धीरे-धीरे उसकी छाया
अँधेरे में विलीन हो गयी.
बाकी सब बहुत देर तक
स्तब्ध बैठे रहे. फिर उन्होंने एक लंबी सांस खींची और तय किया कि अब वे आतंक फैला
कर सब कुछ बदल देंगे. वे सशस्त्र क्रान्ति करेंगे और लोगों को मजबूर कर देंगे वे
उनकी बातें सुनें और उन पर अमल करें. यह तय करके उस रात उन्होंने सड़क पर खड़ी बसों –
कारों में आग लगा दी, दुकानें लूट लीं, फुटपाथ पर सो रहे लोगों को पीट दिया और फिर
मुस्कुराते हुए एक अनजान दिशा में चल दिए.
रात धीरे – धीरे दिन के
उजाले में घुलती जा रही थी. चारों तरफ बहुत से जले –अधजले वाहन खड़े थे. अनेक
दुकानों का सामान बाहर बिखड़ा पड़ा था और बहुतेरी एकदम खाली हो चुकी थीं. इंकलाबियों
का पता किसी के पास नहीं था. ऊपर खुले आसमान में कुछ चील- कौवे चीखते हुए आपस में
लड़ रहे थे.
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बसंत जेटली
संपर्क :6 / 261, मालवीय नगर, जयपुर – 302017 (राज.) मोबाइल : 98290 55342
ईमेल : bjaitly@gmail.com
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