सुन्दर चंद ठाकुर की नई कविताएँ


सुंदर चंद ठाकुर हिंदी कविता का बेहद मुक्तलिफ़ स्वर हैं. उनके यहाँ निजी जीवन, उसकी अनुभूतियाँ और संवेदनाएँ बड़ा स्पेस घेरती हैं. यह अपने आप को और अपने परिवेश को 'जानने' की लगातार कोशिश है. यह व्यक्तिगत राजनीतिक भी है और सामजिक भी  और वह भी बहुत सबलाइम भाषा और शिल्प में. ऐसा नहीं है कि वह बहुत सपाट हैं लेकिन जटिलता से जैसे एक जानबूझकर बरती हुई दूरी उनके यहाँ साफ़ दिखाई देती है. उनकी कविता विचारहीन नहीं है, लेकिन जैसे विचारों को प्रत्यक्ष प्रकट करने से एक अरुचि सी दिखाई देती है. 'एक बेरोज़गार की कवितायें', 'किसी रंग की छाया' और 'एक दुनिया है असंख्य' कविता संकलनों के बाद उनका उपन्यास 'पत्थर पर दूब' आया है. 

आज असुविधा पर उनकी कुछ नई कवितायें....


 
अनंत तक मेरी सल्तनत

1.
मेरे ही भीतर थी वह
ऊर्जा जो पृथ्वी को गतिमान किए हुए थी
मैं ही ब्रह्माण्ड हूं राजाओं का राजा और भिखारी
तारे मेरे लिए ही चमकते हैं और पृथ्वी घूमती है
अपनी अदृश्य ताकतों का संजाल लिए
सौरमंडल मेरे लिए ही अस्तित्ववान है
मैं गाता हूं नाचता हूं सोता और जागता हूं
मैं आविष्कार करता आगे बढ़ रहा हूं
अरबों वर्षों की थकान लिए
अरबों वर्षों के मुहाने पर
यहां से मैं छलांग नहीं लगाऊंगा
बढ़ूंगा समय के साथ साथ
समय जिसे मैंने ही ईजाद किया
मेरी सल्तनत अनंत घेरे तक फैली है
अगर इस घेरे और समय के परे भी कुछ है
मैं उसे भी जल्दी बेनकाब कर दूंगा

2.

मैं पृथ्वी पर मनुष्य का प्रतिनिधि
खींचता हूं अपने कंधों पर समय का ठेला
चल रहा हूं जहां तक पहुंचती है रश्मिरेखा

मैं पंचतारा होटल के कॉन्फ्रेंस रूम में एक डील पर मुहर लगाता
टूरिस्ट बनकर पहुंचा हुआ फ्रांस न्यू यॉर्क इंडिया
एफिल टावर, स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी, ताजमहल के आगे फोटो खिंचवाता
निर्माणाधीन पुल के नीचे थकान से चूर सोया
ओढ़ा है मैंने एक नेकदिल सेठ द्वारा खैरात में दिया कंबल
मैं प्रधानमंत्री, इंजिनियर, क्लर्क, दुकानदार
मैं कभी मुंह न दिखाने वाला आपका पड़ोसी
सार्वभौमिक नायक, खलनायक
मैं ऐसा ही फालतू आवारा कुछ नहीं
मगर तब भी अपने बारे में लिखता हूं कुछ
तो सबसे पहले मैंलिखता हूं।


सिर्फ प्रेम बचा सकता है तुम्हें

सिर्फ प्रेम बचा सकता है तुम्हें

इन दिनों तुम क्रांति के दावे करते हो
इन दिनों तुम दुनिया को बदल देना चाहते हो
इन दिनों तुम पर महान होने का भूत सवार है

इन दिनों तुम विचार का नाश्ता करते हो
लंच और डिनर में भी मांगते हो विचार ही
दुनिया तुम्हें हर पल बर्बादी की ओर बढ़ती दिखाई देती है

तुम्हारी जिंदगी में प्रेम की बहुत कमी है।


उदात्त क्षण

एक खूबसूरत क्षण
उदात्त
भरा हुआ ठोस
आदिम आवेग से
इसे मैं खींच देना चाहता हूं
शताब्दियों के पार तक


जानना 
जानना एक लंबी प्रक्रिया है
पूरी उम्र साथ रहकर भी
हम खुद को ही नहीं जान पाते ठीक से 
स्थितियां और घटनाएं जानती हैं हमें बेहतर
जो हमसे हमेशा अपने मुताबिक काम करवा ले जाती हैं

एक इनसान कितनी बातें जान सकता है
कितनी चीजों और कितने लोगों को
इसलिए वह जानने का अभिनय करता है
कई बार वह नहीं जानने का भी अभिनय करता है
जानते हुए कि वह जानता है सब कुछ

जानना एक तकलीफों से भरी हुई प्रक्रिया है
उसमें बुरी चीजें भी शामिल होती हैं
खुद को जानना अपने दुर्गुणों को जानना भी है
अपने स्वार्थों और चालाकियों को भी
मैं अपनी मां को मां की तरह जानता हूं
उस तरह नहीं जिस तरह मेरी पत्नी जानती है उसे
एक पारंपरिक सास और एक मुश्किल औरत की तरह

एक अनंत प्रक्रिया है जानना
आदि से अंत और उसके पार अनंत तक पहुंचती
पूर्वजों का जाना हुआ अब हमारा जाना हुआ है
हमारा जाना हुआ अगली पीढिय़ां जान ही जाएंगी

एक आदमी को एक साल में
एक साल जितना ही जान सकते हैं हम
एक झलक में एक झलक जितना
माता-पिताओं को अपनी उम्र जितना जानते हैं हम
बच्चों को उनकी उम्र जितना

मैं पहाड़ों को जन्म से जानता हूं
अपने पिता की तरह
मैं पेड़ों को अपनी मां की तरह जानता हूं
उन्होंने कभी दगा नहीं दिया, कहीं छोडक़र नहीं गए वे
उनकी छाया ने हमेशा मेरा इंतजार किया

जबकि बहुत कुछ अनजाना है चारों ओर
मैं थोड़ा-थोड़ा जानता हूं रोज
शहर को थोड़ा और
रास्तों को थोड़ा और
दोस्तों को थोड़ा और
पहले से जाने हुए को भी
थोड़ा और

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टिप्पणियाँ

बहुत दिनों बाद सुन्‍दर भाई की कविताएं पाई हैं कहीं, सबसे पहले तो इन कविताओं का स्‍वागत। 'सिर्फ़ प्रेम बचा सकता है तुम्‍हें' और 'जानना' मेरे जीवन और दिल के बहुत क़रीब लगीं मुझे। इनमें बहुत सारा समकाल विस्‍तार पाता है। यहां उम्रों में आगे बढ़ गए कवि के भीतरी संसार की भरपूर झलक है, जो भीतर से बाहर के बजाए बाहर से भीतर अधिक झांकती हैं और कविता में मेरे प्रिय दृश्‍य और टीसता हुआ मर्म सम्‍भव करती है। इन कविताओं का कवि हर लिहाज से एक बड़ा कवि है।

असुविधा का आभार।
nilayupadhayay@gmail.com ने कहा…
मैं पहाड़ों को जन्म से जानता हूं
अपने पिता की तरह
मैं पेड़ों को अपनी मां की तरह जानता हूं
उन्होंने कभी दगा नहीं दिया, कहीं छोडक़र नहीं गए वे
उनकी छाया ने हमेशा मेरा इंतजार किया

बहुत अच्छी कविताऎ।
Nilay Upadhyay ने कहा…
मैं पहाड़ों को जन्म से जानता हूं
अपने पिता की तरह
मैं पेड़ों को अपनी मां की तरह जानता हूं
उन्होंने कभी दगा नहीं दिया, कहीं छोडक़र नहीं गए वे
उनकी छाया ने हमेशा मेरा इंतजार किया

बहुत अच्छी कविताऎ।
'जानना' सचमुच में एक अच्छी कविता है |
hariom rajoria ने कहा…
बहुत दिनों बाद सुंदर की कवितायें पढीं ,कुछ उसकी कविता में बदला है ,आगे गयी है कविता । पढकर अच्छा लगा और खुशी भी हुई ।
neera ने कहा…
सुंदर जी की सुंदर कवितायें। "सिर्फ प्रेम बचा सकता है तुम्हे" और "जानना" दिल के बहुत करीब लगी ।


कवि को बधाई और असुविधा का शुक्रिया
प्रदीप कांत ने कहा…
मैं अपनी मां को मां की तरह जानता हूं
उस तरह नहीं जिस तरह मेरी पत्नी जानती है उसे
एक पारंपरिक सास और एक मुश्किल औरत की तरह
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निजी अनुभूतियों से व्यापक अर्थ खोलती कविताएँ
Asuvidha bahut bahut abhaar. Badhai Sundar jee.
Onkar ने कहा…
बहुत सुन्दर कविताएँ
Unknown ने कहा…
'सिर्फ प्रेम बचा सकता है' और 'जानना' बेहतरीन कविताएं हैं। सुंदर जी अपनी धज के अकेले कवि हैं। बधाई और शुभकामनाएं।

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