तुषार धवल की नई लम्बी कविता - एक झुर्री चंद सफेद बाल और आइसोटोप


आज तुषार चालीस पास से चालीस पार की ओर बढ़ गया....उसे जन्मदिन की बधाई. बस पीछे-पीछे मैं भी आ रहा हूँ उसी रास्ते पर. कुछ दिन पहले उसने जो अपनी लम्बी कविता भेजी थी वह आज उसके जन्मदिन पर आप सबके लिए....इस अवसर पर कोई कमेन्ट लिखने की जगह उसने इस कविता के साथ जो लिख भेजा था, वाही उसके आत्मकथ्य के रूप में ...तुषार की कुछ और लम्बी कवितायें यहाँ 


प्यारे साथी अशोक,
22 अगस्त को चालीस का हो जाऊँगा. चालीस पर एक लम्बी कविता भेज रहा हूँ. चालीस से ढलान शुरू होती है और यहीं युवःकाल का चरम भी होता है पूरी तरह परिपक्व. मुझे ऐसा लगता है कि तमाम धर्म दर्शन पंथ आदि,  मृत्यु से सम्वाद हैं जो नश्वरता की भयावहता को अमरत्व के आश्वासन में बदलने की कोशिश करते हैं. चालीस की पूर्ण परिपक्वता और यौवन की अंतिम चरम बिंदु पर सभी ईश्वर धर्म वगैरह सनातन काल से खड़े हैं और इसके आगे नहीं जाना चाहते क्योंकि यहाँ से क्षय के संकेत शुरू होते हैं. हम भी नहीं जाना चाहते पर हमें जाना ही होता है.


यहाँ मैं आम फहम ईश्वरीय अवधारणाओं की बात कर रहा हूँ. भरतीय अध्यात्म में वर्णित जिस निर्गुण ईश्वरको मैं मानता और महसूस करता हूँ वह और है.(और सम्भवतया इसी बिंदु पर मैं वाम पंथ से छिटक जाता हूँ). यहाँ धर्म की पाखण्डी शिक्षाओं और उसके चलन की तरफ व्यंग है जो सिर्फ भेद करना जानती है और उसी पर फलती फूलती है.    






एक झुर्री चंद सफेद बाल और आइसोटोप
(बड़े भतीजे कुँवर यशराज सिंह के लिये )

जी हाँ भला चंगा हूँ. दिन की मजूरी करता हूँ और रात की बागबानी.

जैविक विकास क्रम में आदमी से मज़दूर बना. फिर हाँफता हुआ रोबोट. हर हाल में वशीभूत उस अदृश्य अनंत पिंजड़े में स्वतंत्र और उसी में परिभाषा उसकी स्वंतंत्रता की उत्तर आधुनिक औपनिवेशिक समय में जहाँ इतिहास अब खतरनाक माना जाता है और इसीलिय गैरज़रूरी भी  
अपने इतिहास के चालीस साल गिन रहा हूँ और उन चालीस वर्षों में अनगिनत कई और इतिहासीय मिथकों के कई युग गिनता हूँ पूर्वजों की अस्थियों में उस डी. एन. ए. में जाने कब से जीवित था जाने कब तक जीवित ही रहूँगा अनुवांशिक जिजीविषाओं में उद्गार में होने के उछाल में
एक शब्द तिरोहित होता है और यहाँ वहाँ फैल जाता है वाक्य की जकड़ से छूट कर
कवि हो जाता है
नाक से उगे एक सफेद बाल की तरह
छिटका हुआ समय के सौंदर्य बोध से
उसे कितना भी काटो वह रह रह कर बढ़ ही आता है और अपनी पूरी एक नस्ल तैय्यार करता है
उसी आदिम कवि की मज्जा से उगी यह देह और उसका चालीसवाँ साल
दुनियाँ के संग मैं भी इस देह को प्यार से बधाई देता हूँ कि जिसने मुझे रखा है मेरी तमाम सदियों के साथ

कई दोस्तों ने जन्मदिन की पार्टी माँगी है. पत्नी के साथ बैठ कर हिसाब जोड़ता हूँ. जेब से बड़ा निकलता है इज़्ज़त का सवाल.
एक और फोन कॉल बधाई और शुक्रिया का और वही रटे शब्द टेम्प्लेट से निहितार्थों से बेज़ार बस चंद शब्द जो सिर्फ कह दिये जाते हैं.
फेसबुक पर वैसा ही अगला रेस्पॉन्स. और फिर जोड़ जुगत चालू. जेब देखें या इज़्ज़त.

ओह! यह आईना भी!
आँखों की कोर पर एक झुर्री दिखाता है कुछ सफेद बाल और गंजा होता सिर भी. एक डर्मेटोलोजिस्ट की आवाज़ कानों में गड़ने लगती है: “Sleeplessness, Mr. Singh! You know! आप सोता नहीं है.
चलो अच्छा है, नींद गहरा आता है, अच्छा है, पर उसको एक लेंथ भी तो मँगता है ना. आप सिरफ चार घण्टा सोयेंगा तो कइसा चलेंगा ? बॉडी को प्रॉपर रेस्ट भी तो मँगता है ना ? काइके वास्ते इतना जगता है ? You are a Handsome Man... पण (पर) इतना काम करेंगा और सोयेंगा नहीं तो जल्दी बूढ़ा हो जायेंगा! You know! This is Nature, and Nature has its own Rules!

एक थका बोझ लिये आता हूँ. ज़िंदगी चालीस की हो गई और अब तक कुछ भी नहीं कर पाया.

कुछ कुछ भुलक्कड़ सा भी हो गया हूँ. याद आती हैं वे बातें, “T. D.! Your memory is too sharp Man!”
यह क्षय का प्रथम संकेत है अपनी देह से जूझते हुए...
देह मेरी ! माफ करना, अच्छा रहवासी नहीं हो सका तुम्हारा... रौंद डाला तुम्हें अपनी ज़िद में !

ज़िम्मेदारियाँ और जीने की भूख. इसी के बीच हर परिभाषा.

वही अदृश्य अनंत पिंजड़ा  
जिसकी ज़द में ही आजादियाँ तक़सीम होती हैं  

(2)

एक छिटकी हुई जिजीविषा जो विषय हो सकती है
सृजन के शोध का, शोध के सृजन का      इस व्यवस्था में                   बेवा हुई कल्पनाओं का आत्मदाह
अनुराग नहीं था
उनकी आह मेरे चेहरे पर दरारें खींचती है अपने होने का इतिहास लिखती है जिसे
डॉ. आदिल गाबावाला तुम “Sleeplessness” कहते हो
यह अनिद्रा नहीं जागे रहने की ज़िद है
बहुत कुछ था जिसे होना था
पर
जो नहीं हुआ
नहीं हो सका  

समझौता
बस यूँ ही हो कर नहीं रह जाता डॉक्टर !
वह हर वक़्त अपना हिसाब लेता है.
मुफ्त कुछ भी नहीं है शिव तुम्हारे संसार में, खुद तुम भी नहीं !

इन नींदों को कोई खा रहा है नेपथ्य से
मजूरी कर के लौटा फकीर रात की बागबानी करता है
जटिल सितारों के समूह गान में अपना स्वर उछालता है कि शब्द मेघ हों एक दिन धरती पर बरसें
टूटें तप्त उल्काओं से मिस्र साइप्रस वियतनाम में लड़ें हिरोशिमा के मृतकों का आखिरी मुक़्क़म्मल मुक़दमा तियानमेन चौराहे पर
उसके काम की फेहरिस्त नहीं रुकती उसे बहुत चलना है अभी नंगे पैर बहुत दूर तक
वही सो जायेगा तो जागेगा कौन ?

चालीस बीत गये और अब उससे कुछ कम बचे हैं उसी में होना है उसे पूरी दखल से
वह  बुलबुला नहीं है सतह के विलास का
वह काल की खोपड़ी में तिरछी धँसी एक कील है
तुम्हारा चाँद टूटे काँच का टुकड़ा है

वही सो जायेगा तो जागेगा कौन ?  

होना तो बहुत कुछ था डॉक्टर जो नहीं हुआ
पर यह रसायन ही ऐसा है !

(3)

एक झुर्री चंद सफेद बाल और इस सबके साथ इस पूरी प्रणाली में एक आइसोटोप मैं
चालीस साल से वहीं टँगा हुआ हूँ कहीं नहीं के मध्य
देश काल की विपरीत रति * में  
त्रिशंकु, शिखण्डी या अपुरुष या भेद-अभेद के पार अष्टम चरम की खोज में  
इस तीसरे पहर भी जब चाँद थक चुका है
यार दोस्त पार्टी की शराब पी कर जा चुके हैं उधेड़े गये गिफ्ट रैपर्स पंखे की मंद हवा में इधर उधर सिर झुला रहे हैं मैं ढूँढ़ रहा हूँ शब्द कैनवास पर छाये शून्य को भरने के लिये
उसी शून्य से कई आँखें मुझे घूरती हैं जिनकी अपेक्षा मैं पढ़ पाता हूँ उनकी फुसफुसाहट सुन पाता हूँ उन निज़ामी मंत्रणाओं को भी सुलह की आड़ में जो उन आँखों में गूँगे खौफ की सिल्लियाँ उतारती हैं जो सूरज की रोशनी में सामान्य मान लिया जाता है टी वी की बहसों और फेसबुक के आंदोलनों में तमाम ‘Like’ और ‘Share’ के बीच
कोई ममता से भर कर कहता है लौट जाओ अब बागबानी मत करो रात की थोड़ी नींद बचा लो बुरे वक़्त के लिये
अभी और भी झुर्रियाँ आयेंगी समय से पहले सर गंजा हो जायेगा स्वर थरथराने लगेगा थोड़ी ताक़त बचाये रखो भुजाओं की नये मकबरों के लिये पुराना बहुत कुछ ढाहना होगा
मज़ारों पर जब क़लमे पढ़े जायेंगे गुज़र जाने देना अपने ऊपर से बगूलों के झुण्ड को खुले आकाश के अनंत मुँह में
हमारी दशा दिशा वही तय करेगा
जिसकी भूख में सबसे अधिक ताक़त होगी

(4)
उम्र की कई मज़ारें लाँघ आये इस भूख को लिये यहाँ तक 
चालीस के गाँव में जहाँ अटपटा अनजाना बहुत कुछ है  
उसके प्रवेश द्वार पर कोई प्रहरी नहीं है सिवा मोटे अक्षरों में लिखे इस रिपेलेंट शब्द के :क्षय के संकेत
पढ़ते ही जिसे हर कोई लौट जाना चाहता है वहीं उसी पिछले पड़ाव पर लेकिन
लौटने के संकेत मिटा दिये गये हैं... सीट बेल्ट बाँध लें !
अचानक उस अवश्यमभावी अंत की दहकती आँखों में अपनी छाया पिघलती नज़र आती है
अचानक किसी तेज बहाव में जैसे अँगुली से पकड़ छूट रही हो देह की वह मुझसे छूटती जा रही है और मैं पूरी ताक़त से उसे पकड़े रखना चाह रहा हूँ “ ठीक से पकड़े रहो छोड़ना मत बह जाओगे !”

चालीस के गाँव ऐसे ही पहुँचते हैं छूटते पकड़ते

वहाँ के वासी जो कई सदियों से वहीं रहते आये हैं ढाढ़स बँधायेंगे
अब ही तो ज़िंदगी खुलेगी खिलेगी
अब दुनियाँ नज़र आयेगी साफ साफ और अपने पत्ते ठीक ठीक खेल पाओगे तुम
देखो ! तुम्हारी बोतल जो ज़रूरत से ज़्यादा भरी हुई थी अब बिल्कुल सही माप तक भरी है और तुम्हारी रातों में भी बेखटका दम भरपूर भरा है

दम लगा लो दाम लगा लो  
यह चाम का खेल है बाबू !

चालीस का चारा
चखा नहीं सो बे-चारा !!     

कितने दिलासे हैं मौत की दहशत में
धर्म दर्शन पंथ कण्ठ
मृत्यु की प्रति सृष्टि हैं
उसी की छाया में उसी से सम्वाद

ये दवाइयाँ तुम्हारी यह सलाह भी डॉ. आदिल गाबावाला
मुझे याद दिलाते हुए कि ब्लड प्रेशर की गोलियाँ सुबह नाश्ते के बाद हर रोज़ लेनी है
यह दिलासा भी कि यह तो बड़ा कॉमन है आज कल , यू नो ! द लाइफ स्टाइल थिंग... !

मृत्यु के कितने हाथ हैं और उन पर लकीरें कितनी
श्मशान जा कर लौट आते हैं जीवित अपने केंद्र में
जीवन का जड़ से द्वंद
अमर्त्य आकांक्षाओं का अदम्य आत्म निर्वाण
धर्म दर्शन आस्था पर्व सभी चालीस के प्रवेश द्वार पर ही सनातन काल में ठिठके हुए हैं
और वहीं उसी जगह यह जगत भी वैसा ही खड़ा रह गया है उसी मनःस्थिति में अब भी युवा पर पका हुआ मृत्यु के खिलाफ अपनी रचना उगाहता हुआ अपनी अमरता गढ़ता हुआ
वह बूढ़ा नहीं होता जीवन के प्रति अदम्य आशाओं से भरा हुआ
वहीं ईश्वर वहीं धर्म वहीं दर्शन सदियों का बूढ़ा पर चालीस के लगभग ना जाने कब से खड़ा
उसे उस प्रवेश द्वार में नहीं जाना है क्षय के संकेत” पढ़ लेने के बाद

धरती प्रवेश कर गई है उस गाँव में और विश्व भी
पर जगत वहीं खड़ा है
चालीस का चारा चरता
जहाँ मैं हूँ अभी
और हम सब जहाँ से कुछ पहले ही रुक जाना चाहते थे
उस प्रवेश द्वार से ठीक थोड़ा पहले  

अब चाँद ढल चुका है
और पंछी कुनमुनाने को हैं
ब्रह्म बेला का प्रथम संकेत हवा में कहीं दूर से आती फूल की कोई खुशबू
एक खुशबू मेरे इन-बॉक्स में चोरी छुपे भेज दी गई है
सुदूर किसी इतिहास से पारिजात की  
सबकी आँखें बचा कर भेजा गया एक संदेश शुभकामना का
इस अन-नोन सेंडर को मैं शायद पहचान गया हूँ
कुछ झूम उठता है मेरे भीतर झनक उठता है इत्र महसूस करता हूँ अपने हर ओर

आइये श्रीमान ! चालीस के गाँव में स्वागत है आपका !

(5)
साबुन से जुड़े ये रंग गाढ़े नहीं होते
बह जाते हैं
पिछली आग की सिर्फ राख़ बाकी है
जो बदनुमा था मुँहलगा था मिटा दिया गया
अब उसे इतिहास का सुनहरा काल कहते हैं कि उसी से वर्तमान सुंदर लगता है
कुछ बुलबुलों की तलाश है
जो छाप छोड़ सकें
नहीं मिलते
घुल जाते हैं इन साबुनी रंगों में
खुश नसीब हैं देह बदल लेते हैं
इन्हें चालीस की वंचना नहीं मिलती
इन्हें अहं अपना नहीं गढ़ना होता
इन्हें नहीं जीतना होता है खुद को तमाम पराजयों के बाद भी
ये बलिष्ठ भुजाओं पर तावीज़ बने रहते हैं ... साबुन से जुड़े ये रंग.

ढूँढ़ता हूँ एक शब्द
बुलबुले से इस जीवन में जो अपनी छाप छोड़ सके
नहीं मिलता वह शब्द

“हलो ! जी जी ! आशीर्वाद है. धन्यवाद. प्रणाम !”  

फोन फेसबुक झूठे हैं
झूठी हैं औपचारिकतायें
और ये शब्द भी झूठे हैं 
जो गढ़ दिये गये हैं किसी के भी इस्तेमाल के लिये कि जैसे बंदूक बम बारूद या साबुन
और तभी मैं कैनवास के शून्य में शब्द खोजता हूँ जो नहीं मिलता  
शब्द
जिसका पासवर्ड सीधा आत्मा में दर्ज़ हो
नहीं मिलते हैं शब्द नहीं मिलती है वजह होने की और ना ही कविता की
एक गाँव जो टूटा हुआ है बिखरा मेरे हर गाँव सा
जिसके बाहर लिखा है
क्षय के संकेत
वहाँ ईश्वर धर्म दर्शन जगत कब से पसोपेश में खड़े हैं
कि ठीक वहीं से विघटन शुरू होता है देह ढलान को पैरों की अँगुलियों से रोकती है कि जैसे अड़ता है धर्म जैसे  अड़ता है तुम्हारा ईश्वर जैसे अड़ती है कट्टरता
विघटन सिर्फ पश्चिम में ही नहीं होता
सूरज के साथ हर जगह है
बाड़ से छूटे मवेशियों की खुरों में होता है उन्माद
दक्षिण !
तुम्हारा पश्चिम तुम्हारे ही खुरों में है
तुम कितने गाँधी मारोगे ?

तुम असम्भव मिथ्या के चालीस पर खड़े हो उस प्रवेश द्वार में घुसने से डरते हुए
एक परिपक्व जीवन के युवः काल की चरम बिंदु पर
अमरता के खूँटे तुमने भी गाड़ दिये हैं  
और अमरता भी वहीं है तुम्हारे बगल में तुम्हारी ही तरह 
चालीस के प्रवेश द्वार से कुछ कदम पहले जिसके आगे लिखा है “क्षय के संकेत”

(6)

आईसोटोप रहा जन्म से तुममें तुम जैसा तुम से कुछ अलग थे न्यूट्रॉन मेरे
मेरा विक्षेप जिस ललकार का पीछा करता है
तुम उससे सुरक्षित हो
और तभी नींद का सुख तुम्हारे हिस्से आता है
तुम्हारे हिस्से आती है हँसी किसी पर भी कभी भी कि तुम्हारे अपने कमरे में ही आकाश है तुम्हारा
रात की बागबानी करता मजूर सितारों के ताप को सहता है अपनी आत्मा पर उनके गीतों में उतरता है छूता है उनके दर्द को बे-आवाज़
वह खोजता है केवल एक अभिव्यक्ति बिल्कुल उस जैसी उसकी अपनी
बाकी सभी रचनायें उस तक पहुँचने का रियाज़ भर हैं
अंत कोई भी मुकम्मल नहीं होता चालीस के बाद भी उस गाँव में भी जिसके बाहर वे डरावने शब्द लिखे हैं जिसे देख कर धर्म दर्शन ईश्वर चिर यौवन कामना में अपनी मृत्यु से सम्वाद करते अपनी जिजीविषाओं से अपनी अमरता रचते वहीं खड़े रह गये हैं

(7)

यह चालीस है
और इसकी गड्ड्मड्ड आवाज़ों में कोई सुर सा सुन रहा हूँ
जीवन हो रहा है लगातार  
एक शब्द बस चाहिये कि लौट आयें टहनियों से लटके किसान कीटनाशकों का वमन करके
उसकी बिवाइयों से उगे सके ढाल लोक के तंत्र की
सृष्टि में स्वर की जो जगह है मिल सके उसे
वह चाह सके
भविष्य के बीजों में लहलहाना
कि नहीं चाह पाना चाह कर भी
एक बे-शिनाख्त ग़ुलामी है इस व्यवस्था में
अनंत अदृश्य उस पिंजड़े में कैद उसकी परिभाषा भी स्वंतंत्रता की उसी पिंजड़े में
जहाँ आज़ादियाँ तक़सीम होती हैं.  

*विपरीत रति स्वर्गीय दिलीप चित्रे जी की एक कविता का शीर्षक है. यह शब्द वहीं से साभार.

***** अगस्त 2013, मुम्बई. 

टिप्पणियाँ

कविता अच्छी लगी, पहली पढंत में. इनकी ही अन्य कविताओं से अलग. पर फिर लगा कि एक बार में ही सारे सूत्र पकड़ में नहीं आ रहे. वैसे, यह भी कविता की खूबी ही कही जानी चाहिए कि वह पटक को फिर आने का न्योता दे-रही लगती है.
addictionofcinema ने कहा…
तुषार जी को जन्मदिन को बहुत बधाई, इस कविता के बारे में एक पाठ में कुछ कहना जल्दबाजी होगी सिवाय इसके कि ये सिर्फ चालीस पार या चालीस की कविता कतई नहीं, जिजीविषा और व्यर्थताबोध की उहापोह से भरी यह शानदार कविता तुषार की अन्य कविताओं से थोड़ी अलग तो है मगर उनका सिग्नेचर स्टाइल साफ़ मौजूद है इसमें, बहुत सघन और बहुत रॉ ....फिर से पढ़ लेता हूँ एक बार

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