धर्मदीक्षा के लिए विनयपत्र - अवतार सिंह पाश
आज पाश का जन्मदिन है. जीवन भर साम्प्रदायिक कट्टरता से लड़ता वह शहीद हो गया था अपने ही एक पुरखे भगत सिंह के शहादत दिवस वाले दिन. आज जब देश में वह कट्टरता अलग-अलग शक्लों में सर उठा रही है तो मुझे उनकी यह कविता बार-बार याद आ रही है.
मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु!
आदमी बेचारा सिर पर रहा नहीं
तेरे इस तरह गरजने के बाद
आदमी तो दूर दूर तक नहीं बचे अब सिर्फ औरतें हैं या शाकाहारी दो पाए
जो उनके लिए अन्न कमाते हैं
धर्मगुरु तुम सर्वकला-संपन्न हो!
तुम्हारा एक मामूली सा तेवर भी
अच्छे-खासे परिवारों को बाड़े में बदल देता है
हर कोई दुसरे को कुचल कर
अपनी गर्दन तीसरे में घुसेड़ता है
लेकिन धर्मगुरु, मेरी तो एक ही गर्दन है -
मेरे बच्चे की...
और आदमी बेचारा सिर पर रहा नहीं
मैं तुम्हारे बताये हुए इष्ट को ही पूजूंगी
मैं तुम्हारे पास किये हुए भजन ही गाऊँगी
मैं दूसरे सभी धर्मों को फ़िजूल कहूँगी
लेकिन धर्मगुरु, मेरी एक ही ज़बान बची है -
मेरे बच्चे की...
और आदमी बेचारा सिर पर रहा नहीं
मैं पहले बहुत पगलाई रही हूँ अब तक
मेरे परिवार का जो धर्म होता था
मेरा उस पर कभी ध्यान नहीं गया
मैं परिवार को ही धर्म मानने का कुफ्र करती रही हूँ
मैं पगली सुन-सुनाकर, पति को ही ईश्वर कहती रही हूँ
मेरे जाने तो घर के लोगों की मुस्कराहट और त्यौरी ही
स्वर्ग-नरक रहे -
मैं शायद कलियुग की बीट थी धर्मगुरु
तुम्हारी गरज से उठी धर्म की जयकार से
मेरे से बिल्कुल उड़ गया है कुफ़्र का कोहरा
मुझ मुई का अब कोई अपना सच न दिखेगा
मैं तेरे सच को ही इकलौता सच माना करुँगी ...
मैं औरत बिचारी तेरे जांबाज़ शिष्यों के सामने हूँ भी क्या
किसी भी उम्र में तेरी तलवार से कम ख़ूबसूरत रही हूँ
किसी भी रौ में तेरे ज़लाल से फीकी रही हूँ
मैं तो थी ही नहीं
बस तुम ही तुम हो धर्म गुरु !
मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु!
वैसे अगर सात भी होते
वे तुम्हारा कुछ न कर सकते थे
तेरे बारूद में ईश्वरीय सुगंध है
तेरा बारूद रातों को रौनक बांटता है
मैं तुम्हारी आस्तिक गोली को अर्घ्य दिया करूँगी
मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु!
और आदमी बेचारा सिर पर रहा नहीं
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धन्यवाद!