राकेश बिहारी की एक नई कहानी
असुविधा मूलतः कविताओं का मंच रहा है. लेकिन इस बार हम कहानी पखवाड़ा मना रहे हैं. हर पांच दिन पर एक कहानी. इस क्रम में सबसे पहले भाई राकेश बिहारी की एक कहानी .
खिला
है ज्यों बिजली का फूल...
-
राकेश बिहारी
उस
रात
गुड नाईट का मैसेज भेजने से ठीक पहले उसने लिखा था- ‘तुम्हारे एस. एम. एस. से पोस्टकार्ड की-सी खूश्बू आती है.' उसका अपनापन जैसे मेरे पोर-पोर में नमक की तरह घुलने लगा... उसके गुनगुने-से गुड नाईट ने मेरी पलकों को हौले से सहलाया और मेरी पुतलियां जैसे उसे
अपने ख्वाब में उतार लाने के लिये नींद के जीने पर जा चढ़ीं...
सुबह से
मैं कई पोस्टकार्ड लिख चुका हूं. पहले भाप उड़ाती दो प्याली चाय की तस्वीर... फिर
गुलज़ार की एक बेहद ही खूबसूरत और नर्म नज्म... और अब जगजीत सिंह की गहरी और ठहरी
आवाज़ में यह शेर- ‘थक गया हूं
करते-करते याद तुमको, अब तुम्हें मैं याद आना चाहता हूं.’...
कोयल की कूक वाला मेसेज अलर्ट टोन हर बार मुझे नये सिरे से उत्साहित
करता है कि ‘इस बार यह पक्का ही उसका जवाबी पोस्टकार्ड होगा’
लेकिन... कभी हमारे सर्विस प्रोवाइडर की कोई नई स्कीम तो कभी किसी
प्रोपर्टी डीलर का दो-तीन या चार बेड रूम के फ्लैट का ऑफर या फिर ऐसा ही कुछ और...
हर बार जैसे मेरा उत्साह गहरे पानी में ऊब-डूब जाता है.
‘मुझे
मेरी धड़कनों का पता तो बताओ, तुम्हारी सांसे खुद-ब-खुद लौट
आयेंगी’... उसके नाजुक अहसासों से अब भी भीतर तक भरा हुआ हू
मैं. लेकिन अभी मैं उन्हें बिल्कुल ही याद नहीं करना चाहता. उससे नाराज होना चाहता
हूं. दफ्तर के काम-काज निबटाता मन ही मन उस पर खीजना चाहता हूं कि नहीं करना उसे
अब अपनी तरफ से कोई मैसेज... और इसी बीच मेरा दाहिना अंगूठा हल्की सी हरकत के बाद
मोबाईल का सेन्ड बटन दबा देता है... ‘मेरी सांसें तेरी धड़कन
का पता रखती हैं, उन्हें लौटाओ तो कोई बात बने...’ मोबाईल का चेहरा अब भी खामोश है.
ऑफिस ब्वाय
आकर दिन भर के पेमेंट वाउचर्स कैशियर के पास ले गया है और मैं ई-मेल चेक कर रहा
हूं... कहीं हेड ऑफिस ने कोई अर्जेंट रिपोर्ट न मांग ली हो... कि बॉस ने कोई जरूरी
मेल न फारवर्ड कर दिया हो... कि किसी ने इस बीच पी. एफ. लोन के लिये रिक्वेस्ट न
डाल दी हो... इन बॉक्स में कई-कई ‘कोटा
एरर वार्निंग रिपोर्ट’ पड़े हैं… मैसेजेज़
की बाढ़-सी आई हुई है. मैंने कई दिनों से इन्हें आर्काइव भी नहीं किया. मैं `आर्काइव नाऊ' का बटन दबान ही चाहता हूं कि मेरे
मोबाईल में कैद कोयल कूकती है... मैं जानता हूं किसी ने फिर अपने नये प्रोडक्ट्स
के बारे में बताया होगा या फिर बैंक ने फिर से मेरे आज के बैलेंस की जानकारी या
किसी और से अपना पासवर्ड न शेयर करने की हिदायतें भेजी होगी. मैं बेमन से मैसेज
पढ़ने की कोशिश करता हूं और मेरी पुतलियों में जैसे अचानक से दीया-सलाई-सी रोशनी
चमक उठती है - " माफ करना, जवाब नहीं दे पाई. मेरे पति
को बाहर जाना था, उसी की तैयारी में थी. अब हाजिर हूं.
सुनाओ..."
मेरी
उंगलियों के पोर में एक तेज हलचल हुई है..."क्या सुनाऊं?"
मेरे
मोबाईल का दिल उसी आवेग से धड़कता है... "जो मन करे...कोई लड़की कभी गूंगी नहीं
होती... उसकी आंखें सुनो तो..."
मैं कहना
चाहता हूं, लगता है कभी तुमने ठहरकर किसी
लड़कें की आंखों में नहीं देखा है... लेकिन दिल की यह आवाज़ उंगलियों तक नहीं
पहुंचती या फिर मैं उसे वहां तक पहुंचने ही नहीं देता..."हां, ठीक कहा तुमने. जिन्हें देख नहीं सकता उसे तो बस सुन ही सकता हूं न! और सच
बताऊं, मेरे कानों ने इस लड़की की आंखों को गौर से सुना है,
वे गेहूं की पकी बालियों-सी खनकती हैं..."
अंतरा की
आंखों में एक गहरी-सी उदासी तैर गई थी. उसके सीने पर हमेशा-हमेशा के लिये अंकित हो
चुके नख-दंत के कई-कई निशान जैसे एक ही साथ टीस पड़े थे... काश किसी ने यह भी लिखा
होता... उस लड़की की देह से धान के कच्चे-हरे फूलों-सी खुश्बू आती है,
और मेरा जी करता है उस खुश्बू को अपने नथुनों में हमेशा-हमेशा के
लिये भर लूं...
मैंने
जवाबी पोस्टकार्ड पढ़ा था- "नील! सूरजमुखी अंधेरे में नहीं खिलते... बालियों
की यह खनक सांकल-सी बजती है मेरे दिल में अब..." उसके इन शब्दों ने मेरे
मोबाईल के स्क्रीन पर भी उदासी की एक परत बिछा दी है.
हौले से
अपनी मोबाईल के स्क्रीन पर अपनी उंगलियां फिराते हुये मेरे भीतर अगले पोस्टकार्ड
का मजमून तैर जाता है...‘काश हम पास होते,
तुम्हारे मन में फैली उदासी के इस परत को मैं हमेशा-हमेशा के लिये
पोंछ डालता...’ लेकिन मेरी उंगलियां मेरे इस अहसास को उस तक
पहुंचाने में झिझक रही हैं जैसे.
...और इसी
बीच कोयल फिर से कूकती है- "मैं चल रही हूं. तुम क्या कर रहे हो...?"
वह टहलने
को चलना ही कहती है. मुझे याद आया मैंने एक दिन उससे पूछा था- "अंतरा,
तुम टहलने को चलना क्यों कहती हो? टहलना एक
खूबसूरत-सा अहसास है, लेकिन चलना... लगता है जैसे कोई बहुत
ही गंभीर किस्म का काम हो यह."
"तुम ने ठीक कहा नील, यह मेरे लिये काम ही तो है जो
डॉक्टर के कहने पर किये जा रही हूं कि मेरा शुगर, बी पी अपनी
सीमा में रहे... कि मैं अपनी बेटी को ठीक से बड़ी कर सकूं. इसे टहलना तो तब कहती न जब कोई साथ होता और
उसके होने भर से..." उसने अचानक ही अपने शब्द रोक लिये थे कि कुछ और बोला तो
उसकी आंखें उसका साथ नहीं देंगी.
...उसका
अकेलापन मेरी पलकों पर छलक-सा जाता है और मैं धुंधली आंखों से अपनी मोबाईल के
स्क्रीन पर लिखता हूं- "कुछ खास नहीं. बस, अब घर चलने
की तैयारी है."
"यदि समय हो तो घर जाने के पहले कुछ देर मेरे साथ चलोगे...?"
इन्डक्शन
ट्रेनिंग के दौरान पुणे में मेरी शामें
अक्सर आरती के साथ टहले हुये बीतती थीं. सुजाता को थायरॉयड है. डॉक्टर उसे नियमित
टहलने को कहते हैं लेकिन वह नहीं टहलती. और जब भी उसे कहो वह ताना देती है ..‘रहने दो, मेरे साथ क्यों टहलोगे भला? मैं आरती की तरह पतली-दुबली तो ठहरी नहीं...’ मैं
जानता हूं उसे मुझमें बेपनाह यकीन है. लेकिन वह उन दिनों को जैसे भूल-सी गई है जब
कॉलेज से उसके घर तक हम साथ-साथ टहलते हुये आते थे. वह रिक्शा नहीं लेती थी और मैं
अपनी साइकिल लुढ़काते हुये चलता रहता था और दुनिया भर की बातें करते हुये बीस मिनट
की उस पैदल दूरी को कई बार हम घंटे भर में तय करते थे,.
रविवार और पर्व-त्योहारों की छुट्टियों के दिनों को छोड़ दूं तो यह रोज का सिलसिला
था. लेकिन उसकी कॉलोनी के गेट पर उसे छोड़ते हुये हमदोनों को अक्सर ही ऐसा लगता था
जैसे हमारी बातें पूरी ही नहीं हुई... कि बहुत सी बातें बाकी ही रह गईं... कुछ
कचोटता-सा है मेरे भीतर... छाता चौक से बटलर मोड़ तक के बीच साइकिल-रिक्शा की
घंटियों व इधर-उधर की घूरती निगाहों से बेखबर और किसी परिचित के न मिल जाने की
आशंका से भरे उन दिनों की बेशकीमती यादों पर जैसे धूल की एक मोटी-सी परत जम गई है.
पहले उसके इन तानों को मजाक समझता था मैं, लेकिन अब इन बातों
से ईर्ष्या की-सी महक आती है. सोचता हूं यह वह सुजाता तो नहीं जो मेरी दोस्त थी...
शायद सुजाता भी अब मेरे लिये ऐसा ही सोचती हो. कुछ गहरे चुभता-सा है मेरे भीतर...
पति-पत्नी बनते ही हम शायद दोस्त नहीं रह जाते...
...
अपनी उदासी और अपने भीतर के खालीपन के साथ अंतरा अकेली चल रही है. मैं उसके साथ हो
लेता हूं.
चलने के
बाद बाल्कनी में चाय पीती अंतरा ने सकुचाते हुये अपने मोबाइल स्क्रीन पर कुछ शब्द
लिखे थे... "थैंक यू नील! तुम्हारे साथ-साथ चलने से शाम कितनी आसान हो गई
आज." वह लिखना चाहती थी कि तुम्हें बुरा न लगे तो क्या रोज मेरे साथ चलोगे
यूं हीं...? लेकिन लिख नहीं पाई. ऐसी ही है
वह. अपने सुख-दुख, प्यार-कुढ़न, इच्छा-आवेग
सब भीतर ही भीतर दबा ले जाती है, जैसे खुद के इर्द-गिर्द
लोहे की मजबूत चादर लपेट रखी हो उसने...
मेरा छोटा-सा
जवाब..."मेरी खुशनसीबी..." मेरे पिघलते से मन ने न चाहते हुये भी उसका
मैसेज इन बॉक्स से डिलीट कर दिया है.
सुजाता आज
ही दोपहर एक सेमिनार के लिये पुणे गई है. सन्नाटा घर के कोने-कोने में बोल रहा है
और उसकी प्रतिध्वनि मेरे मन में. सुजाता ने जाते-जाते फ्रिज में खाने के साथ ढेर
सारी हिदायतें भी भर दी थीं... ‘खाना गर्म कर
के खा लेना... भिंडी है, तुम्हारे मन की... आलस मत करना...
मुझे तुम्हारी चिंता लगी रहेगी. और हां, खाना खाने के बाद
फोन जरूर करना, मैं इन्तजार करूंगी...’ फ्रिज का दरवाजा खोलता हूं लेकिन पता नहीं क्यों पलक झपकते ही बंद कर देता
हूं उसे. कमरे में आकर टी. वी ऑन किया है. एक के बाद एक खटाखट कई चैनल बदल डालता
हूं, लेकिन कहीं कुछ ऐसा नहीं दिखता जहां मन थम सके. भीतर
जैसे खालीपन का तूफान उमड़ा पड़ा है...
"नील, तुम्हारी बेटी बहुत प्यारी है. उस दिन जब उसने
अचानक से मुझे फोन लगा दिया और अपनी मीठी-सी आवाज़ में नमस्ते कहा तो मैं जैसे भीतर तक भीग गई थी."
"हां, जितनी प्यारी है उतनी ही शैतान भी. बहुत परेशान
करती है. कभी-कभी तो उसकी शैतानियों के कारण उस पर इतना गुस्सा आता है कि पूछो
मत...."
"क्या कहा, गुस्सा..? फूल जैसी
बच्ची पर गुस्सा...?"
"तुम नहीं समझोगी... कभी-कभी कितना इरीटेट कर देती है वह... न चाहते हुये
भी हाथ उठ जाता है मेरा..."
अंतरा को
जैसे अचानक झटका-सा लगा था- "यह क्या कह रहे हो तुम...?"
"हां अंतरा, मैंने सच कहा है तुमसे... मुझे अपने
गुस्से पर नियंत्रण नहीं रहता... लेकिन अगले ही पल जैसे अपनी गलती का अहसास होता
है, मेरा गुस्सा अचानक से ठंडा हो जाता है... उससे लिपट कर
रो पड़ता हूं… उससे सॉरी कहता हूं… मन
ही मन खुद को धिक्कारता हूं लेकिन फिर किसी दिन उसकी किसी हरकत पर आपा खो बैठता
हूं."
"नील! यह अच्छी बात नहीं है, एक बार हाथ खुल जाये तो
मुश्किल से रुकता है. जानते हो एक बार मैंने भी दिव्या को मारा था...फिर देर तक
रोती रही थी उसे अपने कलेजे से चिपका कर. और अगले ही दिन ईश्वर के आगे जा कर
प्रतिज्ञा की थी उसे कभी न मारने की. शिरीष को भी ले गई थी. तब से मैंने उसे कभी
नहीं मारा. तुम्हें विश्वास नहीं होगा अब भी कई बार अकेले में मैं उससे अपने एक
बार उठे हाथ के लिये माफी मांगती हूं..."
"मैं भी अपने बेटी को नहीं मारना चाहता अंतरा... और जानती हो जब कोई उससे
पूछता है कि पापा मारते हैं, तो वह कभी हां नहीं कहती,
उसका जवाब हमेशा ना में होता है. उस समय मेरे भीतर आरी-सी चल जाती है... उसकी
आंखों में तैरते प्यार को देख अपने जीवित होने पर भी शर्मिंदगी होने लगती है...
प्लीज हेल्प मी अंतरा मुझे कोई तरीका बताओ..."
"गुस्से पर नियंत्रण का कोइ रेडीमेड तरीका नहीं होता, नील! तुम खुद से वादा करो कि आज से कभी उस पर हाथ नहीं उठाओगे. जब कभी ऐसी
स्थिति आये, बन्द मुट्ठियों के साथ गहरी सांसे लो और पच्चीस
तक की गिनती गिनो... गुस्से का वह पल निकल जायेगा" मेरे भीतर जैसे एक
पवित्र-सी हलचल हुई थी. मुझे लगा जैसे वह साक्षात कोई देवी हो और मैने खुद से ही
नहीं उस देवी से भी मन ही मन वायदा किया था- `आज से अपनी बेटी पर हाथ
नहीं उठाउंगा.'
अंतरा की
आवाज़ ने जैसे एक गाढ़ी-सी गंभीरता ओढ ली है..."नील, क्या तुमने कभी सुजाता पर हाथ उठाया है...?"
अचानक से
किये गये इस प्रश्न ने मुझे असहज-सा कर दिया है. मैं अपने आप को संभालने की कोशिश
करता हूं. मैं सच नहीं कहना चाहता लेकिन उसके पूछने के लहजे में कुछ था ऐसा कि
मेरी जुबान मेरे झूठ का साथ नहीं देती... "हां." लेकिन अगले ही पल मैंने
खुद को जैसे बटोरने की कोशिश-सी की है... "लेकिन इसका मतलब यह नहीं समझना कि
हमारे बीच मार-पीट का रिश्ता है... वी आर ए हैप्पी कपल...." मेरे एक-एक शब्द
जैसे अतिरिक्त परिश्रम के साथ निकल रहे हैं. मेरे मन की ग्लानि भय के आवरण में
लिपटकर मेरे कमरे में अजीब तरह से चहलकदमी करने लगी है... भय इस बात का कि यह सच कहीं
अंतरा को मुझसे दूर न कर दे... अब लाख कोशिश करो, कुछ नहीं होनेवाला. तुम्हारा सच अंतरा के आगे खुल चुका है... मेरे कंठ में
जैसे कोई नदी आकर ठहर-सी गयी है अचानक...
मेरे आंसू
उस तक पहुंच रहे हैं. मेरी खामोशी को पढ़ना चाहती है वह... "क्या हुआ?
चुप क्यों हो गये तुम अचानक...?"
मैं बेआवाज़
पुकारता हूं उसे- अंतरा...
"नील...!!!"
मै फिर
कहता हूं- "मुझे अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रहता... खुद को जस्टीफाई करने
को मेरे पास कोई तर्क नहीं कि उसदिन कैसे मेरा हाथ उठ गया था... देर तक रोती रही
थी वह... मेरे बार-बार माफी मांगने पर जैसे और रोई चली जा रही थी. उस दिन उसने जो
कहा था जैसे मुझे छलनी करने को काफी थे... ‘मैंने
इसी दिन के लिये अपनी ज़िंदगी खुद नहीं चुनी थी न... जब-जब अपनी दीदियों, बुआ, सहेलियों की कहानियां सुनती थी मुझे तुम पर
गर्व होता था... आज तुमने मेरा वह अभिमान मुझसे छीन लिया. ऊनके पतियों को उनके
पिताओं ने चुना था, वे अपना दर्द कह सकती थीं किसी से...
लेकिन तुम तो मेरे चयन हो, मैं किससे कहूं...’ और फफक कर मेरे सीने से आ लगी थी... मैंने बार-बार माफी मांगी थी उससे,
लेकिन मेरे गुस्सैल स्वभाव ने मेरे स्वयं से किये वादे का भी ध्यान
नहीं रखा... छोटी-छोटी बातें और उससे उपजी बहसों से गाहे-बगाहे ऐसी स्थितियां पैदा
होती रहीं. यह एकतरफा था, लेकिन वह भी हाड़ मांस की बनी है...
एक दिन उसके धैर्य ने भी उसका साथ छोड़ दिया... लेकिन यकीन करो अंतरा! मैंने कभी
उससे इसके लिये शिकायत नहीं की... हो सकता है यह उसके उठे हाथ के कारण ही हुआ
हो... अब मेरा हाथ नहीं उठता... यह तो नहीं कहूंगा कि अब मुझे गुस्सा नहीं आता,
लेकिन संभाल लेता हूं खुद को किसी तरह"
कुछ देर के
बाद अंतरा ने हमारे बीच पसर आई चुप्पी को समेटने की कोशिश की थी... "नील,
मैं समझ सकती हूं तुम्हें... तुम सिर्फ सच्चे ही नहीं एक अच्छे
इंसान भी हो... सुजाता लकी है... शायद ही कोई औरत ऐसी हो जिसके साथ यह नहीं होता
लेकिन कितने मर्द ऐसे होते हैं जो तुम्हारी तरह पश्चाताप की आंच मे इस इमानदारी से
जलते हैं... गलतियों का क्या वह तो हम सब करते हैं, कहीं न
कहीं, किसी न किसी रूप में... लेकिन उसे न दुहराने की कोशिश
..." मैं शर्म से गड़ा जा रहा हूं. जुबान से एक शब्द भी नहीं फूट रहे.
अंतरा ने
मेरी चुप्पी में गूंज रही मेरी ग्लानि के हर्फ-हर्फ को पढ़ लिया है. वह जैसे मुझे
इस क्षण से उबार लेना चाहती है- " गुस्सा मुझे भी बहुत आता है नील! जानते हो
एक दिन मैं और शिरीष बाल्कनी में खड़े थे. सामान्य सी बातों के बीच उसने अचानक मेरे
अस्तित्व और स्त्रीत्व को ही शक के घेरे में ले लिया था, जो मेरे बर्दाश्त के बाहर था... जिसके लिये मैंने जीवन के सारे दुख उठाये,
उसका यह बर्ताव मेरे लिये सौ मौतों से भी बदतर था... मेरा गुस्सा
सातवें आसमान पर चला गया. मेरा मन हुआ उसे वहीं बाल्कनी से धक्का दे दूं... लेकिन
कुछ चीज़ें हम चाहकर भी नहीं कर पाते... सम्बन्धों का अतीत कई बार हमारे आवेग और
आवेश पर भी अंकुश का काम करता है... मेरा गुस्सा रुका तो नहीं था, हां उसकी दिशा जरूर बदल गई थी.. एम अनाम आवेग के साथ मैं कमरे में गई थी
और पल भर में फ्रीज़ से चिल्ल्ड वाटर की दो लीटर की बोतल निकालकर सीधे उसके सिर पर
खाली कर दिया था... तब मुझे यह भी ध्यान नहीं था कि वह बचपन से ही अस्थमा का
पेशेंट है और मौसम का थोड़ा सा बदलाव या कि
फ्रिज का दो घूंट पानी भी उसे हफ्तों परेशान कर देता है..." उसकी हल्की-सी
हंसी ने मुझे भी अपने साथ ले लिया है. वह आगे कह रही है- "लेकिन उसमें गजब का
धैर्य है, बिना कुछ बोले वह चुपचाप बाथरूम की तरफ चला गया
था... अब सोचती हूं तो अपने ही बर्ताव पर हंसी आती है."
"तुम लकी हो अंतरा कि तुम्हारी ज़िंदगी में शिरीष है... इस तरह का धैर्य
बहुत मुश्किल है, वह
भी किसी पुरुष में और खासकर अपनी पत्नी के लिये."
अंतरा की
छलकती हंसी सहसा गुम हो गई है और आवाज़
निस्तेज... जैसे दुख और उदासी के सघन
बादलों के पीछे से कोई सूरज बाहर झांकने की असफल कोशिश कर रहा हो- "मैं भी
ऐसा ही सोचती थी, नील! लेकिन हर बार
सतह पर दिखने वाली चीज़ें ही आखिरी सच नहीं होती.... उसका यह धैर्य मुझे भी बहुत
लुभाता था पहले... लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया, ऊपर से
दिखनेवाले इस धीरज में मेरे लिये घोर उपेक्षा का भाव भरा है. मेरे सुख-दुख,
सपनों, चाहतों, गुस्सा,
प्यार सबकुछ से निरपेक्ष है वह... तुम बिल्कुल इसके उलट हो, इसलिए उसके इस धैर्य के कारण मुझपर क्या बीतती है शायद नहीं समझ
सको.." अंतरा की आवाज़ ने जैसे सर्द रातों की गाढ़ी नमी ओढ़ ली थी. उसकी
आर्द्रता ने मेरे मन में मुखर ग्लानि भाव को कुछ देर के लिये परे धकेल दिया था,
मैं उसकी बातों के सहारे जैसे उसमें होता जा रहा था. लेकिन ठीक-ठीक
शब्द अब भी जुबान को नहीं मिल रहे थे... वह बोले जा रही थी, जैसे
अपने भीतर संचित सारे फफोलों को खुद ही फोड़कर
बहा देना चाहती हो. उसके शब्दों में किसी पुराने घाव के टीसने की तकलीफ शामिल थी जो
बाद में रिसने भी लगा था... "नील! मैं तो तरसती हूं कि कभी वह खुल के लड़ ही
लेता मुझसे. अबोले के दुख से ज्यादा तकलीफदेह तो वह भी नहीं होता होगा! लेकिन नहीं,
वह तो जैसे हर चीज़ से निस्पृह है. घर में कुत्ते-बिल्ली पाल रखे
हैं. दिन-रात उनकी सुविधाओं के इंतजाम में लगा रहता है. उन्होंने खाया या नहीं,
कहीं उन्हें ठंड तो नहीं लग रही... अपने हाथों से मछली के कांटे
निकाल के उन्हें देगा... अपनी नई स्वेटर में उनके बच्चों को हिफाजत से लपेटकर
रखेगा. पर, मैं कहां हूं, किस हाल में
हूं उसने आजतक मुड़के नहीं पूछा. पिछले दस दिनों से बिना हल्दी के दाल-सब्जी बना
रही हूं, उसे फर्क नहीं पड़ता... इतनी दूर जंगल में रहती हूं, खुद से जाकर सामान भी नहीं ला सकती...
"मैंने
धीरे से कहा है- "तुमलोगों के पास दो गाड़ियां हैं न?"
"हां, दो हैं. एक मेरे नाम से. मैं तो ड्राइव भी करती
थी, लेकिन एक बार एक स्कूटरवाले को बचाते-बचाते खुद गड्ढे
में जा गिरी. उस दिन जो कॉन्फिडेन्स डगमगाया, आजतक वापस नहीं
आ सका. डरती हूं ड्राइव करने से..."
"ऐसा भी क्या डरना... खुद में विश्वास करो..."
मुझे एकबार
फिर सुजाता याद हो आती है, उसके पीछे-पीछे
उसकी शिकायतें भी- दिल्ली से इस जंगल में ले आये कि मुझपर आश्रित रहेगी... नई गाड़ी
खरीदते वक्त इतना कहा कि पुरानीवाली को मत बेचो, उसे मैं
चलाऊगी, कम से कम हर छोटी-बड़ी बात के लिये तुम्हारे आने का
इंतज़ार तो नहीं करना होगा... लेकिन नहीं... सबकुछ अपने मन का करने की आदत है...
मेरी कब सुनी है कि आज सुनते... मैं उसकी तकलीफ समझता हूं, महानगर
के माहौल में नौकरी करके अपना कैरियर बनानेवाली लड़की का अचानक से एक ऐसे टाउनशिप
में रहना जहां रिक्शा तक नहीं चलता कितना मुश्किल होगा... लेकिन उसने तो जैसे मेरी
बात न समझने की कसम ही खा रखी है... पहले रट लगाये रहती थी कि हमारी गाड़ी छोटी है,
सबने बड़ी गाड़ियां ले ली है, हमें भी ले लेनी
चाहिये... बिना अपनी हैसियत देखे दूसरों से तुलना करने की उसकी इस आदत पर मुझे
हमेशा गुस्सा आता है... खर्चे पर तो कोई कन्ट्रोल रखेगी नहीं ऊपर से हर रोज नई
चीजों के सपने... सारी मुरादें एक साथ कैसे पूरी हो सकती हैं. कंपनी से चार लाख
रुपये लोन लिये. डेढ़ लाख पिताजी से लेने
के बाद भी पूरा नहीं पड़ रहा था... वो तो पता नहीं कंसल कैसे उस पुरानी गाड़ी के
पचहत्तर हज़ार रुपये देने को राजी हो गया, वर्ना दूसरे तो
पचास-साठ भी देने को तैयार नहीं थे.. किसी तरह जोड़-जाड़कर यह वेरेना ले पाया. उसे
इन बातों से कोई मतलब नहीं, लेकिन पुरानी गाड़ी बेच लेने का
ताना हमेशा देगी... कंफ्यूटर घर में कब से पड़ा है, आज तक
चलाना नहीं सीखा, एक छोटा-सा मेल तक मुझसे लिखवाती है...
यहां दिन-रात उसकी ड्राइवरी कर रहा हूं तो पुरानी गाड़ी चलाने की बात करती है... मन
के किसी तलछट में संचित कसैलापन अचानक से जुबान के रास्ते दिलो-दिमाग तक पहुंचने
लगा है... तभी अंतरा की आवाज़ खनकती है- "कहां गुम हो गये?"
मैं जैसे
किसी नींद से जागता हूं-" अरे, गुम
क्या होना... सुन रहा हूं तुम्हें..." मैंने अपनी आवाज़ की लड़खड़ाहट को संभालने
की कोशिश की है...
अंतरा के
स्वरों की संजीदगी बढ़ गई है- "मैंने अपनी बातों से बोर कर दिया न?
सॉरी!"
मैं अपने
शर्मीन्दगी में झेंप जाता हूं- "कैसी बात करती हो अंतरा! तुम्हें सुनकर कभी
जी नहीं भरता... तुम्हारी बातें अपनी-सी लगती हैं"
मेरे इतना
भर कह देने से जैसे उसका भरोसा मुझमें लौट आया है. वह एक बार फिर अपनी बातों में
लौट जाती है- "किसी को विश्वास न हो, दिव्या
के होने के बाद जब मैं अस्पताल से घर आई थी तो आते ही पहला काम क्या किया, जानते हो... खाना बनाके उसे परोसा... नॉर्मल डेलिवरी वालियां भी उन दिनों
बिस्तर से नहीं हिलतीं, मेरी दिव्या तो सिजेरियन थी...
टांकों से मेरा शरीर ही नहीं नहीं मन तक बिंधा जा रहा था... लेकिन मदद की बात तो
दूर, उसने एकबार कुछ पूछा तक नहीं, डायनिंग
टेबल पर बैठा निर्लिप्त भाव से खाता रहा...पर्व-त्योहार पर अपने सारे घर के लिये
कपड़े खरीदता है... आजतक मेरे लिये कुछ नहीं लाया. अब तो कोई उम्मीद भी नहीं
करती... पर मन तो दुखता है न... मेरे भाई-बहन इन बातों को समझते हैं...
मौके-बेमौके गिफ्ट के नाम पर हज़ारों रुपये नगद थमा जाते हैं... मैं समझती हूं यह
गिफ्ट नहीं है... ग्लानि भी होती है, लेकिन क्या करूं...
सबकी बातों की अवहेलना कर जिससे शादी रचाई थी, उसकी तो
शिकायत भी किसी से नहीं कर सकती... शादी के बाद कई साल तक वह समाज सेवा में लगा
रहा, मैं काम करूं तो उसकी नाक कटती है... किसी तरह मैं गिफ्ट
के उन पैसों से घर चलाती रही... उसने कभी मुड़ के नहीं देखा, कुछ
नहीं पूछा... मुझे आश्चर्य होता है कि यह वही लड़का है जिसने एक-दो नहीं पूरे बारह
साल मेरी हां के इंतज़ार में बिता दिये थे. लेकिन शादी के अगले दिन मुझे ही भूल
गया... वह पूरी दुनिया के लिये बहुत अच्छा है. सड़क चलते भी किसी की तकलीफ, किसी के प्रति होनेवाला कोई अन्याय उसे बर्दाश्त नहीं होता, जी-जान से किसी के लिये कहीं भी लग जाता है... मुझे उसकी इन्हीं अच्छाइयों
ने प्रभावित किया था. लेकिन आज जब देखती हूं कि पूरे गांव के लोग अपने दुख,
झगड़े आदि के निबटारे के लिये इसके पास आते हैं तो भीतर ही भीतर बहुत
गुस्सा आता है. मेरे ही घर में दुनिया की पंचायत लगती है, मैं
अपनी तकलीफ किससे कहूं..? " अचानक ही उसने खुद को टटोला
था... "मैं भी क्या लेके बैठ गई.. तुम भी सोच रहे होगे कि..."
मैंने
सकुचाते हुये से कुछ शब्द बोले थे- " ऐसी कोई बात नहीं... मैं सुन रहा हूं...
लेकिन समझ नहीं पा रहा क्या कहूं... " शब्द-चयन का मेरा विवेक जैसे अचानक ही
एक नन्हें बच्चे-सा किसी भीड़ में गुम हो गया है. मैं चाह कर भी उसे ढूंढ नहीं पा
रहा.
अंतरा मेरी
परेशानी को समझती है- "बहुत देर हो गई नील! सुजाता और गुड़िया तुम्हारा इंतज़ार
कर रहे होंगे. घर जाओ. हम फिर बात करेंगे."
अंतरा के
जाते ही मैंने गौर किया, पार्किंग में सिर्फ
मेरी ही गाड़ी खड़ी थी... हमेशा आखिर में जानेवाला वह झक्की डी जी एम लाहिड़ी भी जा
चुका था... दफ्तर से बाहर निकलते हुये सामने आसमान के उस कोने पर सुनहले, गुलाबी रंगों की चमकती रेखाओं के फ्रेम में जड़ा बादलों का वह अनोखा टुकड़ा
जाने कब अंधेरे में घुल-मिल गया था... हवा में एक हल्की-सी खुनक भरी ठंडक थी. मैं
चाहकर भी अन्य दिनों की तरह गुनगुना नहीं पाया... पिछले तीन महीने में जबसे यह नई
वेरेना ली है, पहली बार मैं बिना म्यूजिक सिस्टम ऑन किये इसे
ड्राइव कर रहा हूं...
घर आ गया
हूं,
पर अंतरा के शब्द लगातार मेरे भीतर घूम रहे हैं- कभी गोल-गोल तो कभी
आड़े-तिरछे... मैं हमेशा की तरह सुजाता को दिन भर की बातें बताते हुये अंतरा से हुई
बातों के बारे में भी बताना चाहता हूं, तभी मेरे भीतर आवाज़
की एक कोंपल उगती है- अंतरा ने सिर्फ अपना दुख ही नहीं कहा,
अपना भरोसा भी साझा किया है मुझसे... हर रिश्ते की एक अंतरंगता होती है और हर
अंतरंगता की एक गोपनीयता... मुझे अंतरा के इस भरोसे को तोड़ने का कोई हक
नहीं...
देर रात
अंतरा का मैसेज आया है - " नील! पता नहीं क्यों तुम पर बहुत निर्भर करने लगी
हूं... तुमसे बात करते हुये अपनेपन और सुरक्षा के एक मजबूत अहसास से घिर जाती
हूं...थैंक्स फ़ॉर बीइंग यू! " अंतरा का इस अन्तरंगता से मुझे नाम लेकर
संबोधित करना हमेशा से गहरे छूता है मुझे...
हल्के से
ऊहापोह के बाद धुंधली सी नमी में लिपटी मेरी आंखों के सामने मेरा दाहिना अंगूठा हल्की-सी
हरकत के बाद मोबाईल का सेन्ड बटन दबा देता है- "दूर जितना भी रहूं खोलोगे
लेकिन आंख जब, मैं सिरहाने पर तुम्हारे जागता
मिल जाऊंगा..." सेन्ट फोल्डर में जाकर मैं अपने ही भेजे मैसेज को बार-बार
पढ़ता हूं... मोबाईल की स्क्रीन पर उंगलियां फिराते हुये शब्द-दर-शब्द उसे भीतर तक
सहेज लेना चाहता हूं. सेन्ट बॉक्स एक बार फिर से खाली हो गया है...
"बहुत ही अच्छी पंक्तियां हैं. मैंने सेव कर ली है. कल फिर टहलने पर मिलते
हैं. तबतक के लिये गुड नाईट" ‘टहलने’ शब्द ने मुझे रोका है... ‘चलना’ शब्द की इस विदाई ने मेरी आँखों को कई-कई जुगनूओं की चमक से भर दिया है...
वैसे तो
एस. एम. एस. पर चुटकुले, शेर, कोटेशन्स आदि भेजना एक सामान्य-सी बात है. लेकिन अंतरा को कुछ भी भेजने से
पहले मैं कई बार सोचता हूं. पता नहीं कौन सी बात उसे बुरी लग जाये... एक दिन शाम को
टहलते हुये मैंने अपनी आशंका उसके आगे कर ही दी थी- "मेरा कोई मैसेज तुम्हें
बुरा लगे तो प्लीज बता देना..."
उसने मेरी
बात को जैसे बीच में ही लपक लिया था-"तुम जो कुछ भेजते हो मैं उन्हें कुछ
अच्छी पंक्तियां समझ कर पढ़ती हूं. तुम भी मेरे भेजे हुये को वैसा ही समझना. जरूरी
नहीं कि हमारे हर पढ़े-लिखे का हमारी भावनाओं से सीधा-सीधा रिश्ता हो.... मैं तो इस
मामले में बहुत सहज हूं. लेकिन कई लोग इन्हें दिल से लगा बैठते हैं. एक बंगाली
प्रोफेसर और मैं एक दूसरे को अक्सर ही कविताओं की पंक्तिया भेजा करते थे... मैंने
कभी कोई एक अच्छी-सी प्रेम कविता भी भेजी थी उन्हें. मैं तो भेजकर भूल गई,
लेकिन उन्होंने उसे मेरा प्रेम निवेदन ही मान लिया... और बहुत गंभीर
हो गये... बाद में उनके व्यवहार में एक अजीब किस्म का रुमानी बदलाव मैंने महसूस
किया... फिर एक दिन मेरे यह कहने पर कि हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं, उन्होंने उस कविता का हवाला देते हुये कहा था कि यदि ऐसा नहीं तो वो क्या
था... तबसे मैं बहुत संभल के किसी को कोई मैसेज फारवर्ड करती हूं. लेकिन तुम्हारे
साथ मैसेज के आदान-प्रदान का यह सिलसिला इस सहजता से शुरु हुआ कि मुझे तुम्हारे
लिये ऐसा कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी. मुझे यकीन था कि तुम इसे दो परिपक्व
लोगों के बीच कुछ अच्छी पंक्तियों और खूबसूरत विचारों की शेयरिंग की तरह ही लोगे..."
"अच्छा! तो मुझे इतना नादान और मासूम समझती हो तुम!"
मेरी शरारत
ने उसे भी गुदगुदाया था- "बहुत बदमाश हो तुम!" और फिर देर तक हमारी
समवेत हंसी हमारे साथ टहलती रही थी.
पिछ्ले आठ
महीने में ऐसा कभी नहीं हुआ कि शाम को टहलते हुये उसने फोन न किया हो... उसका फ़ोन
ही मुझे वर्किंग आवर के समाप्त होने की सूचना देता है... एक-एक कर दफ़्तर के सारे
लोग चले गये हैं... जब सेक्यूरीटी गार्ड आखिरी चेकिंग के लिये आया तो मैंने घड़ी पर
नज़र दौड़ाई, छुट्टी हुये डेढ़ घंटे हो चुके
हैं... अंतरा का फ़ोन नहीं आया...पहले दस मिनट भी देर होती थी तो मैं मैसेज कर लेता
था. लेकिन जब से शिरीष उसके फोन पर नज़र रखने लगा है, अंतरा
ने मुझे अपनी तरफ से फोन-मैसेज करने को मना किया है... मेरे भीतर बेचैनी का सैलाब-सा
उमड़ा जा रहा है... मन में अनेक तरह के अनिष्ट की आशंकायें अपने सिर उठाने लगी हैं..
कहीं उसका शुगर लेवल न गिर गया हो.. शिरीष के साथ किसी बेवजह की बहस मे उसका ब्लड
प्रेशर न बढ़ गया हो... कहीं शिरीष के हाथ उसका कोई मैसेज न लग गया हो...मेरा मन इन
आशंकाओं को बरजना चाहता है- आज वह दिव्या को लेकर एक सिंगिंग कॉम्पेटिशन में गई
थी... बच्चों की भारी भीड़ के कारण लगभग पूरी दोपहर वहीं रहना पड़ा... शायद थककर सो
गई हो... लेकिन बेचैनी के इस आलम में इस तरह के सदाशयी तर्क ज्यादा देर तक नहीं
खड़े रहते... अनिष्ट की आशंकायें नाम-रूप बदल-बदलकर इन्हें अतिक्रमित करती चलती
हैं... कहीं ये... कहीं वो....
सहसा डूबते
को तिनके का सहारा की तरह एक खयाल आता है- कहीं उसने फेसबुक पर कोई मैसेज छोड़ा
हो... मैंने फेसबुक लॉग इन किया है... इन बॉक्स में कोई नया मैसेज नहीं है... मेरी
बेचैनी बढ़ती जा रही है... इसका ईलाज सिर्फ और सिर्फ अंतरा है... मैं उसके पोस्ट
पढ़ना चाहता हूं, उसकी तस्वीरें देखना चाहता
हूं... उसकी प्रतीक्षा में उसके पुराने स्टेटस पढ़ने या फिर उसकी तस्वीरों पर लोगों
के लाइक्स गिनने या कमेंट पढ़ने से ज्यादा अच्छा और कुछ नहीं हो सकता... हमेशा की
तरह दूसरों के स्टेटस, तस्वीर आदि पर उसके कमेंट का समय पढ़कर,
उसके नाम पर कर्सर फिराकर मैं उसकी उपस्थिति को महसूसना चाहता
हूं... लेकिन यह क्या... दूर-दूर तक उसकी
उपस्थिति का कोई निशान नहीं दिखता... उसकी वाल पर जाना चाहता हूं लेकिन वह भी नहीं
दिख रहा... मैं सर्च इंजन में उसका नाम डालता हूं... रिजल्ट सामने है- अंतरा शर्मा... अंतरा विश्वकर्मा... अंतरा श्री...अंतरा
गुप्ता... अंतरा मोहंती... हाय अंतरा... अंतरा आपकी... अंतरा सर्वश्रेष्ठ...
दर्जनों अंतराओं की उस फेहरिस्त में मुझे अपनी अंतरा- अंतरा कश्यप कहीं नहीं
दिखती... वह सरनेम नहीं लगाती, स्कूल कॉलेज में उसका नाम
सिर्फ अंतरा ही रहा है.. लेकिन फेसबुक के फॉर्मेट में सेकेन्ड नेम अनिवार्य है
उसके बिना आप अपना अकाउंट ही नहीं क्रियेट कर सकते.... उसीने बताया था कभी कि एक
सेकेन्ड नेम या सरनेम नहीं होने के कारण कितनी दिक्कतें हुई थी उसे अकाउंट क्रियेट
करने में ... इस क्रम में उसने कई नाम ट्राई किये थे... अंतरा अंतरा... अंतरा
अकेली...अंतरा दर्द... और न जाने क्या-क्या. लेकिन कोई भी नाम उसे नहीं जंचा था...
और हारकर उसने अपने नाम के साथ अपना गोत्र कश्यप लगा लिया था... फेसबुक का सर्च
इंजन उसी अंतरा कश्यप को नहीं खोज पा रहा था... तो क्या अंतरा ने मुझे ब्लॉक कर
दिया? … इस नई आशंका से मेरा दिल जैसे धक से कर के रह गया है...
किसी अपने की मृत्यु की अचानक आई खबर शायद हमें इसी तरह बदहवास कर देती होगी...
मेरी आंखें धारासार बह रही हैं और मैं पागलों की तरह बार-बार अंतरा कश्यप सर्च
किये जा रहा हूं...आखिर ऐसा क्या हुआ कि अंतरा ने मुझे ब्लॉक कर दिया.. पूरी शाम
बीत गई मुझे फोन तक नहीं किया... मुझे उसके साथ की एक बातचीत याद आ रही है... ‘नील! कभी कोई शक-सुबहा हो तो मुझे एक मौका जरूर देना अपनी बात कहने का.
मैं तुम्हें किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती... मैं भी तुमसे यही रिक्वेस्ट करता हूं
अंतरा! मुझसे बिना एक बार पूछे कभी दूर मत जाना मुझसे...’ अंतरा
ने अपना वादा पूरा नहीं किया... मैं अपने दुखों से दुहरा हुआ जा रहा हूं...
अपनी
फ्रेंडलिस्ट खंगालते हुये मेरी नज़र मृणालिनी चटर्जी पर गई है- मृणालिनी चटर्जी!
हमदोनों का ज्वाइंट फेक अकाउंट... मैं और अंतरा दोनों इसका पासवर्ड शेयर करते
हैं... एक-एक कर न जाने कई घटनायें मुझे याद आने लगती हैं,
कब हमने किसे इस अकाउंट से गालियां दी... कब किसे बेवकूफ बनाया...
लोग कैसे एक अदद लड़की की फोटो और थोड़े से फ्लर्टी संवाद के सहारे औंधे मुंह गिरने
को तैयार रहते हैं... वो अशेष आनन्द- अमेरिका में रहनेवाला एक भारतीय लेखक... कैसे
उसने अपनी पत्नी की फोटो भेजकर कहा था- ‘मृणालिनी! तुम्हारा
चेहरा बिल्कुल मेरी दिवंगत पत्नी के चेहरे से मिलता है... और फिर धीरे-धीरे आवाज़
सुनने, देखने और डेट पर चलने की बात करने लगा था.... बाद में
किस तरह हमने ताबड़तोड़ गालियां देकर उसे ब्लॉक किया था सोचते ही हंसी आ जाती हे...
और वह टकला आलोचक- रोहित शर्मा! उसने तो हद ही कर दी थी... हर कीमत पर मृणालिनी को
लेखिका बनाकर ही दम लेन चाहता था, चाहे उसके नाम से उसे जितनी
किताबें लिखनी पड़े... और फिर कैसे उसके साथ कुछ घंटे होटल में बिताने के लिये
उपहार स्वरूप माइक्रोमैक्स का `कैनवास टू' मोबाईल सेट और सुरक्षित यौन सुख के लिये चॉकलेट फ्लेवर वाला इम्पोर्टेड
कंडोम लेकर एक सेमिनार के बहाने मृणालिनी के शहर तक पहुंच गया था...
ऐसे न जाने
कितने किस्से हमदोनों ने एक साथ मिलकर मृणालिनी की आड़ में रचे थे... कईयों को
गलियाया,
लताड़ा था... कईयों से हिसाब बराबर किये थे.. इन सारी यादों ने जैसे
मुझे क्षण भर को अंतरा के खो जाने के दुख से उबार लिया है. अनायस मेरे चेहरे
पर हंसी की एक लकीर खिंच गई है... मैं
अपना अकाउन्ट लॉग आउट कर मृणालिनी को लॉग इन करता हूं... मृणालिनी के होम पेज पर
सबसे ऊपर अंतरा की नई तस्वीर है... अंतरा की तस्वीर देखते हीं एक बार मैं फिर
अवसाद के कोहरे में लिपट जाता हूं...
मैसेज
बॉक्स में दो नये मैसेजेज़ हैं... मैं अन्दर जाता हूं. पहला मैसेज अंतरा कश्यप का
है... मैं दूसरे पर ध्यान भी नहीं देता और बदहवास उसे क्लिक करता हूं...
"हाय नील! मैं जानती हूं कि तुम बहुत परेशान हो. मुझे यह भी पता था कि तुम
यहां जरूर आओगे.... शिरीष इन दिनों लगातार मुझ पर नज़र रखता है... कल रात उसने मेरे
मोबाइल का पूरा मैसेज बॉक्स चेक किया.. थैंक गॉड! मैने तुमहारे सारे मैसेजे डिलीट
कर दिये थे... सेंट बॉक्स भी खाली था... मैं तो बहुत जोर से डर गई थी... लेकिन
भगवान ने बचा लिया... उसे कंप्यूटर का कोई ज्ञान नहीं, पर कब
दबे पांव मेरे पीछे आ खड़ा होता है मुझे पता नहीं चलता. मै नहीं चाहती कि उसे
तुम्हारे होने की भनक भी लगे. इसलिये मैंने फेसबुक पर फिलहाल तुम्हें ब्लॉक कर
दिया है... मोबाईल में तुम्हारा नंबर किसी लड़की के नाम से सेव करना चाहती थी,
उसी समय वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ और मैं इतनी डर गई कि मुझसे
तुम्हारा नम्बर ही डीलिट हो गया... तब से बेतरह परेशान हूं... प्लीज अपना नंबर
भेजो या रात को कॉल करो... आज शाम वह दो दिनों के लिये विदर्भ जा रहा है...बाय!
प्लीज टेक केयर."
अंतरा ने
यह मैसेज सुबह ग्यारह बजे ही छोड़ा था... मैं एक गहरी सांस खींचता हूँ... लगता है जैसे जमाने
बाद सांस ली हो... अपनी सांसें लौटने की खुशी ने मुझे फिर से रुला दिया है...
धुंधली आंखों से मैं जवाब लिखता हूं- "अंतरा! मेरी तो जान ही चली गई थी...
खैर..." दूसरी पंक्ति में मैंने अपना मोबाईल नंबर लिखा है... और फिर उसके
नीचे कैफी आज़मी के दो खूबसूरत शेर-
"जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग
अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं.
लमहे भर को
ये दुनिया जुर्म छोड़ देती है,
लमहे भर को
सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं..."
मेरी खुशी
का ठिकाना नहीं है... अभी मैं कुछ और सोचकर अपना जायका नहीं बिगाड़ना चाहता... मैं
फेसबुक से बाहर आ जाता हूं और दफ़्तर से भी... मद्धम हो चुके सूरज को उसके घर पहुंचाकर
अंधेरा आसमान से धरती तक पर अपना कब्जा
जमा चुका है... धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे चान्द का गाल अबरख की तरह चमक रहा है...
सोचता हूं, जब अभी इसकी चमक इतनी रुपहली है
तो पूरा खिलने के बाद का आलम क्या होगा...
घर आने के
लगभग आधे घंटे बाद साइलेंट मोड में पड़े मेरे मोबाइल का स्क्रीन चमका है-" इन
कोमल अहसासों को तो न जाने कब की भूल चुकी थी. तुम्हारे भेजे शेर ने मुझे फिर से
हरा कर दिया... मैं तो जैसे भूल ही गई थी कि मैं भी एक इंसान हूं और मेरे अंदर भी
कुछ धड़कता है जिसे लोग दिल कहते हैं... मैने आज जी भर के उन अहसासों महसूसने की
कोशिश की है... मेरे मृत अहसासों को हरा करके मुझे वापस लौटाने का बहुत-बहुत
शुक्रिया,
नील!"
मैं एक शब्दहीन
संवेदना से भर जाता हूं... आकंठ भरे होने का यह अहसास कितना अनोखा है.. कितना अद्भुत!
क्षण भर को जैसे मैं किसी समाधि की अवस्था में चला गया हूं... थोड़ी देर के बाद मैं
खुद को एक चिकोटी काटता हूं और आश्वस्त होता हूं कि हां,
मैं हूं- इसी दुनिया में, इसी धरती पर...
मैंने छोटा
सा जवाब टाईप किया है- "मे आई कॉल प्लीज़?"
"अभी नहीं! दिव्या को सुलाने की कोशिश कर रही हूं... चाहो तो मैसेज कर सकते
हो. फोन साइलेंट पर कर लेती हूं."
"मोबाईल से फुर्सत हो जाये तो खाना खा लो..." सुजाता की आवाज़ हर रात
कुछ और तल्ख हो जाती है.
मैं
बिलाआवाज़ रोटी के निवाले अंदर डाल रहा हूं... कहीं अंतरा का मैसेज न आया हो इस बीच...
"खुद नहीं खा सकती तो भूखी रहो... सारी जिम्मेदारियां सिर्फ मेरी ही नहीं
है...और ज्यादा दुलार जागा है तो कहो पापा को, और कुछ नहीं
कर सकते तो खिलायें ही दें तुम्हें..." सुजाता मेरा गुस्सा माही पर
चीख-चिल्ला के निकाल रही है.
मुझसे नहीं
रहा जाता- " यदि प्यार से नहीं बोल सकती तो कम से कम चुप तो रहा करो... बोलना
जरूरी है क्या?"
"बोलना जरूरी है क्या! तुमसे बिल्कुल यही उम्मीद थी... याद है, पिछले छ: महीने में मुझसे कितनी बार बात की है तुमने?" सुजाता की आंखों के अंगारे मुझ तक पहुंच रहे हैं.
"ऑफिस से आकर घर में ही तो रहता हूं...कहीं आता-जाता भी नहीं.... लेकिन
तुम्हारी शिकायतें हैं कि जाती नहीं... तो क्या अब अलग से एक घंटा बैठकर बातें
करनी होंगी?"
"हां-हां तुम ही तो हो अकेले जो ऑफिस जाते हो! पता है, मिश्राजी ऑफिस से आने के बाद रोज अपने बच्चे का होमवर्क कराते हैं... खाने
के बाद भाभी के साथ टहलने जाते हैं..."
इस तरह की
तुलनाएं मुझे बेतरह चिढ़ा जाती हैं...मैं कहना चाहता हूं कि मिश्रा भाभी हर शाम चाय
के लिये पानी चढ़ाकर उनके आने का इंतज़ार करती हैं... मिश्राजी अपने हाथ से उठाकर एक
ग्लास पानी तक नहीं पीते... तुमने ही तो बताया था न कि एक ग्लास पानी के लिये वे
एस. एम एस. करके भाभी को दूसरे कमरे से बुलाते हैं...तुम्हें याद है कि तुमने
पिछली बार किस संडे को खाना बनाया था....? एक दिन बेटी को स्कूल के लिये
तैयार करके तो दिखाओ... एक टाई की नॉट तक तो बांध नहीं पाओगी... लेकिन प्रत्यक्षत: जो कहता हूं वह कहीं अधिक
तल्ख और मारक है..." तो कर क्या रही हो यहां.. चली जाओ मिश्राजी के
पास..."
" सारे दिन में एक बेटी को तैयार करते हो, उसका भी
ताना!"
मेरा मन
मोबाईल पर टंगा है. अभी और ज्यादा झगड़ा मैं अफ़ोर्ड नहीं कर सकता... सुजाता को
सुबकते छोड़ मैं अपने कमरे में चला जाता हूं...
अंतरा का
मैसेज मेरे इंतज़ार में है-" मैं एक अजीब सी स्थिति में हूं. इसने मेरे भरोसे
का खून किया है... मैं एक पल इसके साथ नहीं रहना चाहती... पर दिव्या की
छोटी-सी उम्र मुझे मजबूर करती है... यह आजकल कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गया है...
बीच-बीच में प्यार जताने की कोशिश भी करता है... लेकिन मैं जानती हूं यह सब झूठ
है... दो साल से मैंने उसे खुद को हाथ नहीं लगाने दिया... उसने कभी कोई जबर्दस्ती
भी नहीं कि... लेकिन आजकल शक की आग में जल रहा है..."
मैं मन ही
मन अंतरा की पंक्तियां दुहराता हूं- ‘दिव्या
की छोटी-सी उम्र मुझे मजबूर करती है...’ तो क्या सुजाता भी
कुछ ऐसा ही सोचती होगी... "सुजाता की तल्खी भी रोज बढ़ रही है... मुझे लगता है
शिरीष तुमतक वापस आना चाहता है... उसे एक मौका देकर देखो... शायद कोई चमत्कार हो
जाये... मुझे इस चमत्कार का इंतज़ार रहेगा..." सेन्ड बटन दबाने में मुझे कभी
इतनी तकलीफ नहीं हुई थी.
"तुम्हारा यह इंतज़ार कभी पूरा नहीं होगा नील! उसे मैं अच्छी तरह जानती
हूं... जिस दिन उसे भरोसा हो गया कि मैं कहीं नहीं जा रही वह फिर से निर्लिप्त हो
जायेगा... तुम सुजाता का ध्यान रखा करो... मेरा सुख-दुख बांटने के चक्कर में उसे
इग्नोर मत करो... गुड़िया पर असर पड़ेगा..."
"मुझे डर लग रहा है अंतरा! कहीं हम अपने बीच फैले पोस्टकार्ड की इस खुश्बू
को खो तो नहीं देंगे..?"
"डर मुझे भी लगता है... पर तुम पोस्टकार्ड का यह सिलसिला मत छोड़ना कभी...
इसकी खुश्बू मेरी ज़िंदगी का अकेला हासिल है... अब नींद आ रही है... गुड
नाईट!"
मैं अपनी
तरफ से गुड नाईट नहीं लिख पाता हूं क्योंकि मुझे मालूम है,
आज की रात वह फिर नहीं सोयेगी...
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राकेश बिहारी
जन्म : 11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
शिक्षा : ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी),
एम. बी. ए. (फाइनान्स)
प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह)
केन्द्र
में कहानी (कथालोचना)
सम्पादन : स्वप्न में
वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन)
पहली
कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ (निकट पत्रिका का विशेषांक)
समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (संवेद पत्रिका का प्रस्तावित विशेषांक)
संप्रति : एनटीपीसी लि. में कार्यरत
संपर्क : एन एच 3 / सी 76
एनटीपीसी
विंध्याचल
पो.
- विंध्यनगर
जिला
- सिंगरौली
486885 (म. प्र.)
मो. : 09425823033
ईमेल : biharirakesh@rediffmail.com
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