रावण टोली जिन्दाबाद -हिमांशु पंड्या की कहानी

कहानी पखवारे में आज हिमांशु पंड्या की कहानी 'रावण टोली जिंदाबाद'. कहानी बच्चों के लिए हैं लेकिन बड़ों के भी काम आएगी.



“ये हुए बारह सौ उनचास रुपये पचास पैसे”, लोकेश ने गिनती पूरी करते हुए कहा | हम सबके चेहरे चमक उठे | यानी इस बार हम प्रसाद में बूंदी बाँट सकेंगे और रावण में पटाखे भी ज्यादा भर सकेंगे | पर इस बार मामला ज्यादा पेचीदा होगा | रावण पच्चीस फुट तक पहुँचना ही चाहिए | इस बार हमारी बारी है |

पिछली बार भानपुरा वाले बाज़ी मार ले गए थे |

हर साल दशहरे पर रावण बनता है | ये पूरा हफ्ता हम लड़कों का होता है | मैं पूरे साल इस समय का इंतज़ार करता हूँ | रावण बनाने का काम पूरी तरह से हम लडके ही करते हैं, बड़ों की कोई दखलंदाजी नहीं | उनसे तो सिर्फ पैसे वसूले जाते हैं, चंदे के | J इसके बाद हम और हमारा रावण !  चार साल हो गए इस सिलसिले को | मुझे याद है, पहली बार चन्दा भी कम मिला था और देने वालों ने भी यूं देखा था कि, “ये बनायेंगे रावण !” पर जब रावण बना और पूरा गाँव उसे देखने को उमड़ा तो हाल देखने लायक था | लोकेश,गौरव,अजहर,लक्की भैया,सोनू भैया, छुटकू, दीपू सबके घर से अंकल-आंटी आकर रावण के पास गर्व से ऐसे खड़े थे, घूमघूम कर चारों ओर से ऐसे देख रहे थे कि जैसे रावण न हुआ, ताजमहल हो गया | मैंने सुना, पापा शर्मा अंकल से कह रहे थे, “ मैं तो टिकलू और उसके दोस्तों को यूं ही समझता था, पर इन्होने तो कमाल कर दिया |”

हंसी आती है मुझको | कैसा बेढंगा था रावण | दोनों हाथ भी एक दूसरे के बराबर नहीं थे और सर ऐसे लटका हुआ था...पर पिछले चार साल से बनाते बनाते अब तो हम रावण एक्सपर्ट हो गए हैं ! सब बड़ा इंतज़ार करते हैं कि इस बार क्या नया देखने को मिलेगा |

“इस बार तो तुम लोगों की ज़िम्मेदारी है |” माँ ने सुबह सुबह कहा | इस बार हम लोग बारहवीं में हैं | लक्की भैया कॉलेज पढने बाहर चले गए | सोनू भैया, प्रांजल दा उससे भी पिछले साल चले गए थे | मुझे लगा माँ घबरा रही है | वैसे घबराए हुए हम भी थे | पिछली बार लक्की भैया इक्कीस फुट तक ही रावण की ऊंचाई बढ़ा पाए थे | भानपुरा का रावण तेईस फुट का था | वे लोग आये और मज़ाक उड़ाने लगे, “मालपुरा के ठन्डे पुए ! मालपुरा के ठन्डे पुए !” गुस्सा तो बहुत आया | सालों का रावण तो टेढ़ा झुका हुआ था, दूसरा अब गिरा- तब गिरा.... पर तो भी....था तो ज्यादा ऊंचा |

“इस बार हम पच्चीस फुट का रावण बनायेंगे |”लोकेश ने कहा | पर कैसे ? सबसे लम्बे तो लक्की भैया थे , हमारा तो किसी का हाथ इतना ऊपर नहीं जाता | कोई तो तरकीब लगानी पड़ेगी | फिर हमने फैसला किया कि इस बार हम शहर से बल्लियाँ लायेंगे | वहां पंद्रह-सोलह फुट की बल्लियाँ मिल जायेंगी और इसका एक दूसरा पहलू भी था | शहर से सामान लाना सस्ता पडेगा | “मैं साथ चलूँ” पापा बोले, “तुम क्या जानते हो, शहर में सब लूटते हैं |”” नहीं पापा, रावण का काम तो हम अकेले ही करेंगे |” मैंने दृढ़ता से कहा |

और हम शहर से सामान लाये – बल्लियाँ, फंटे, गोंद, रंग, चमकीली पन्नियाँ... सभी कुछ बहुत सस्ता मिला | दो-तीन जगह घूमे, कीमत पता की और फिर एक जगह लोकेश ने दुकानदार से कहा, “ अनाडी समझते हो ? पिछली दुकान में तो बीस रुपये में बल्ली बतायी थी” तो मुझे तो हंसी छूटने को ही थी....कि लो ! दुकानदार मान गया ! “लोकेश यार, कमाल कर दिया | हमारे यहाँ तो इससे आधी ऊंची बल्ली भी पच्चीस तीस रुपये की ही मिलती |”

धीरे धीरे रावण तैयार हो रहा था | लोकेश सबसे ज्यादा काम करता है | उसकी गाँठ भी सबसे ज्यादा मजबूत होती है , बल्ली ज़रा भी नहीं हिलती | गाँठ तो भास्कर भी अच्छी लगाता है, पर वह थोड़ा लंगड़ाता है, इसलिए नीचे की गाँठ तक तो ठीक है, ऊपर की गांठें लगाते समय उसे खाली बैठना पड़ता है | मैं ऊपर चढ़ा हुआ था, गाँठ कसकर बंध गई थी, तभी भास्कर ने कहा, “टिकलू, रावण थोड़ा टेढ़ा जा रहा है” “कहाँ, सब ठीक तो है” मैंने, लोकेश ने सबने देखा, ठीक ही था | “रुको ज़रा इधर सामने से सीध में उस मकान के समानांतर मिलाकर देखो |”भास्कर ने कहा | भास्कर का कहना सही निकला | दरअसल, सतही रूप से पता नहीं चल रहा था, पर ध्यान से देखने पर पता चलता था, रावण थोड़ा टेढ़ा था | ऊपर तक जाते जाते ये टेढापन और बढ़ जाता | फिर इतनी मेहनत दुबारा थोडेही हो सकती थी | भास्कर ने सही समय पर चेता दिया | “भास्कर तुम अब ध्यान रखो यार” हमने कहा | तब मुझे पता लगा कि भास्कर की नज़र बहुत तेज़ है | उसे लम्बाई-चौडाई ही नहीं, रंगों की भी अच्छी समझ है | “भई , ये तो डायरेक्टर हो गया” लोकेश ने कहा | हम भास्कर को डायरेक्टर ही कहने लगे |  वो थोड़ा थोड़ा शर्माता था ऐसा कहने पर |

पल्लवी रोज़ हमारा रावण देखने के लिए आकर खडी हो जाती | पल्लवी नायक अंकल की बेटी है | नायक अंकल बहुत अच्छे चित्रकार हैं | वे मूर्तियाँ भी बनाते हैं और कई बार तो लकड़ी और न जाने कौन कौन सी चीज़ों की अजीब सी आकृतियाँ भी बनाते रहते हैं | “इसे कोलाज कहते हैं” उन्होंने पूछने पर बताया था |” “पर आपने इसमें ये कांच के टुकड़े क्यों चिपका दिए हैं ?” “क्योंकि कोई भी चीज़ बेकार नहीं होती” बात तो सही है | अब देखो ना, ये बेशरम की झाड़ियाँ यूं ही उगी रहती हैं , मोहल्ला परेशान रहता है पर रावण में ये झाड़ियाँ खपच्चियों के बीच ऐसी फिट होती हैं कि लगता है दो झाड़ और क्यों न हुए | नायक अंकल के यहाँ जाना इसीलिये हम सबको बहुत अच्छा लगता है |

पर इसका मतलब ये थोडे ही है कि पल्लवी हर समय आकर हम कलाकारों को परेशान करे | लड़की है, घर पर रहे, खाना वाना बनाए | मेरी बहन रिंकी या लोकेश की बहन टिन्नी भी तो नहीं आती | “पल्लवी देखो तुम यूं घूरती मत रहो, जब रावण पूरा बन जाए, तब देखने आ जाना” लोकेश ने टोक ही दिया | पल्लवी कुछ बोलने को हुई, पर फिर जाने क्या सोचकर चली गयी | अच्छा ही हुआ उसके सामने ठीक से हंसी मज़ाक भी नहीं कर पाते |

पर रावण जैसे जैसे बढ़ता जा रहा था, हमारी हंसी गायब होती जा रही थी | मकान की डोली पर चढ़कर भी हम लोग बीस बाईस फुट से ऊपर नहीं जा पाते | कोई जुगत लगानी पड़ेगी, हमने सर जोड़कर सोचा | “ऐसा करो, रावण का सर अलग से बनाओ पांच छ फुट का और ऊपर धर दो” रोहित ने राय दी | रोहित हमारे बीच सबसे छोटा है | हम लोग उससे हमेशा बेशरम की झाड़ियाँ तोड़कर लाने, घास ठेले पर लाद लाने जैसे काम ही करवाते थे | पर इस बार उसने बात समझदारी की की | फिर सवाल उठा, सर अलग से इतना बड़ा कैसे बने ? तीन ही दिन बचे थे | सर वैसे भी हमारी दुखती रग था |एक बार मटकी रखकर बनाया था तो इतना छोटा लग रहा था जैसे रावण बीमार हो | पिछली बार पुट्ठे का बनाया तो आँख नाक तो बन गए, ठुड्डी नहीं बन पायी, कान भी फड़फड़ा रहे थे | बड़ी मुश्किल से इज्जत बची थी | क्या करें ?

“क्यों न नायक अंकल से सर बनवाएं ?” लोकेश ने कहा |ये ठीक तो न था पर पच्चीस फुट का चैलेन्ज हमें मजबूर कर रहा था | और फिर इससे जो समय बचता उसे हम रावण के धड़ को और ज्यादा सजाने संवारने में भी लगा पाते | “भई ये तो तुम बच्चों का रावण है, जैसा बनेगा, अच्छा ही होगा”नायक अंकल पहले तो तो मान नहीं पा रहे थे फिर अचानक बोले, “अच्छा ठीक है दोस्तों, रावण का सर १२७, गांधी मार्ग में ही बनेगा | जाओ, दहन वाले दिन दोपहर में आकर ले जाना |”

“वाह नायक अंकल वाह !” सब एक साथ बोले | अब हम लोग दुगुने जोश से काम में जुट गए | इस बार तो भानपुरा वालों की छुट्टी | कुछ भी कहो लड़के ठान लें तो बड़े से बड़ा काम कर सकते हैं | एक दिन बचा था और ढांचा तैयार था | अब पहले अखबारों की परत, फिर उसपर चमकीली पन्नियों से वस्त्र आभूषण , बस तैयार | लोकेश के घर में हम लोग लेई बनाने लगे, पर मुश्किलें तो पीछा ही नहीं छोड़ रही थीं | इतना पतला घोल ! “ऐसे नहीं | पहले दो तार की चाशनी होने दो, फिर अरारोट मिलाओ” टिन्नी ने कहा जो पीछे से देख रही थी, वह आगे आयी और गैस पर चढ़ा पतीला संभाल लिया | वाकई काम आसान हो गया था | “भई रसोई का काम तो तुम लडकियां ही अच्छा करती हो” “मौक़ा दो तो हम रावण भी बना दें” पीछे से आती टिन्नी की आवाज़ पर हम ठहाका लगाकर हँसे |

रावण दहन की सुबह रावण सज़ गया था | घास फूस , पटाखे भर दिए गए थे | अब हम बेकरार थे सर के लिए | “चलो चलकर देखे, क्या बन गया होगा ? उन्होंने तो दोपहर में बुलाया था” मैंने कहा | “ अरे चलो भी , नायक अंकल से तो गप्पें मारने में भी मज़ा है” भास्कर बोला | हम पहुँच गए | नायक अंकल ने दरवाज़ा खोला | “अंकल सर तैयार है क्या ?” “ बस बन रहा है, हमारी कलाकार लगी हुई है” “कलाकार ? ये नायक अंकल के यहाँ और कौन कलाकार आ गया ?” हम भागे अन्दर | पल्लवी बैठी रावण के मुंह को आकार दे रही थी | क्या मुंह था | बड़ी  बड़ी मूंछें, सर पर मुकुट | रूई के इस्तेमाल से ठुड्डी की ऐसी लचक तैयार की गयी थी कि मानों रावण अभी बोल पडेगा | “पूरा सर पल्लवी ने ही बनाया” नायक अंकल बोले’ “भई जब बच्चों का रावण है सारा काम बच्चे ही करें |” हम सब दोस्त चुपचाप खड़े थे | पल्लवी के दोनों हाथ ब्रश से रँगे हुए थे, कपड़ों पर भी छींटे थे, पर वह इस सबकी परवाह किये बिना पूरी तल्लीनता से लगी थी | उसने पूरे समय हमारी ओर सर उठाकर देखा भी नहीं | थोड़ी देर बाद हम लोग लौट आये |

क्या रावण बना इस बार ! भानपुरा के लडके भी बोले, “ इत्ता ऊंचा और ऐसा शानदार रावण ! पर इसका मुंह किसने बनाया ? तुममें से तो कोई ऐसी कला जानता नहीं |” “है एक कलाकार हमारे बीच” लोकेश ने कहा और पल्लवी को पकड़कर हम लोग बीचों बीच ले आये | ‘रुको” पल्लवी मुस्कुराई, “इन कलाकारों को तुम भूल रहे हो” पल्लवी बोली और रिंकी टिन्नी को अपने साथ ले आयी | दोनों हंस रही थीं | “ओह ! तो इन्हें सब मालूम था |” “अब हुई रावण टोली पूरी” पल्लवी ने कहा और हम सब चिल्लाए, “ रावण टोली जिंदाबाद !”



टिप्पणियाँ

सचमुच अच्‍छी कहानी है।
बचपन के दिन याद आ गये।
संज्ञा उपाध्याय ने कहा…
आज सुबह सुबह यह कहानी पढ़ी. खुश!
पंकज मिश्र ने कहा…
बेहतरीन ..........बाकी सब तो ठीक है लेकिन शीर्षक गज़ब .......विज़यदश्मी का राममय अवसर और बच्चों की टोली .....रावण टोली
Subrato Sen ने कहा…
nice story, well told from the heart of a seventeen year old...nostalgic
Dr Deependra Sharma ने कहा…
कहानी रावण टोली जिंदाबाद ने पुराने दिनो की यादे कुछ ईस तरह ताजा कर दी की आंखे डबड्बा गई. ये कहानी कम आंखो देखा हाल ज्यादा लग रही थी . लेखक बधाई के हकदार है .
Pawan Sen ने कहा…
कहानी अच्छी होने के साथ साथ बचपन के दिन तो याद दिलाती है ही, साथ ही अपना एक उदेश्य भी छोड़ जाती हे ..और वह यह की रावन का सर पल्लवी ने बनाया था
Pawan Sen ने कहा…
कहानी अच्छी होने के साथ साथ बचपन के दिन तो याद दिलाती है ही, साथ ही अपना एक उदेश्य भी छोड़ जाती हे ..और वह यह की रावन का सर पल्लवी ने बनाया था

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