मूल निवास का तिलिस्म, स्किट्जोफ्रिनिया और ‘क्रांतिकारी’ कविता : विनोद कुमार शुक्ल पर गिरिराज किराडू

कवि चित्र यहाँ से साभार 

विनोद कुमार शुक्ल की चार कविताओं का पाठ करता हुआ गिरिराज किराडू का यह आलेख हाल ही में उन पर केन्द्रित पाखी के विशेषांक में छपा है. गिरिराज के पास आलोचना का एक अलग व्याकरण भी है और कविता तक पहुँचने की एक जानी पहचानी लेकिन अब विस्मृत की जा रही राह भी. खंडन-मंडन के लिए वह जारगंस या फिर इम्प्रेशंस (प्रभावों) का सहारा लेने की जगह कविता के तंतुओं और उनके बीच की ख़ाली जगहों का सहारा लेता है और इसी लिए यह ज्यादा आश्वस्तिकारक लगता है, सहज भी और आत्मीय भी.


लेख काफ़ी लंबा है. इसीलिए एक हिस्सा यहाँ दिया गया है और उत्सुक पाठकों के लिए इसे ई बुक में तब्दील कर दिया गया है, जिसे आप आनलाइन भी पढ़ सकते हैं या डाउनलोड कर इत्मीनान से आफलाइन भी. इसके लिए बस आपको 'यहाँ' क्लिक करना होगा





मूल निवास का तिलिस्म, स्किट्जोफ्रिनिया[1] और क्रांतिकारी कविता  
गिरिराज किराड़ू

यह निबंध विनोद कुमार शुक्ल की चार कविताओं का पठन करता है। वैसे चारों एक ही पठन के भाग हैं लेकिन पहले को स्वतन्त्र भी पढ़ा जा सकता है। - लेखक
 

. पानी गिर रहा है

पानी गिर रहा है
बरसात की जगह
जहाँ मैं रह रहा हूँ
बरसात का मेरा घर
बरसात की मेरी सड़क
बार बार भींगते हुए
बरसात का मूल निवासी ।
अरी! बरसात की गीली चिड़िया
पंख फड़फड़ा
शाखा पर भीगते बैठी रह
अभी आकाश बरसात का है
पानी के बंद होते ही
बरसात से सब कुछ होगा निर्वासित
मैं भी!
अपने मूल निवास का यही तिलिस्म है।

विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता पानी गिरने का एक अति परिचित विवरण है पानी गिरे और सब कुछ बरसातमय हो जायेजब तक कि इस कविता के दृश्य में एक अन्यदेशीय पद मूल निवासीनहीं आता। बाद में मूल निवासीसे अर्थगत तादात्म्य रखने वाला एक और पद निर्वासितआता है और अंतिम पंक्ति में मूल निवासके साथ साथ एक और अन्यदेशीय पद तिलिस्म। यदि इस कविता से इन तीन अन्यदेशी तत्वों (‘प्रवासियों’) को निर्वासित कर दिया जाय तो यह कविता अपने कवित्व से वंचित एक बंजर हो जायेगी। मूल निवासऔर निर्वासितदोनों अर्थों से भरे (लोडेड) प्रत्यय हैं उनके संयोग से जो कथा कही जाती रही है वह कोई और ही कथा है। निर्वासनबीसवीं शताब्दी को परिभाषित करने वाली संघटनाओं में से एक था और मूल निवासों की ओर लौटना यह क्रिया उस शताब्दी के प्रमुख व्यंजकों में से एक। विनोद कुमार शुक्ल की कविता में उपस्थित दृश्य सामग्री में मूल निवासों का, उनसे विस्थापन और उनकी ओर लौटने का कोई सादृश्य नहीं ये दोनों पद इस कविता के दृश्य में आ कर एक तरह का अर्थ-संघर्ष उसमें उत्पन्न कर देते हैं। जितना वे अपने गुरुत्व से इस दृश्य के उपलब्ध अर्थको विचलित, अनुकूलित और नियंत्रित करने का यत्न करते हैं उतना ही यत्न यह दृश्य भी उनके उपलब्ध अर्थ/अर्थों को विस्थापित करने का करता है। मूल निवासऔर निर्वासनको इस कविता में वैसे नहीं पढ़ा जा सकता जैसे अन्यत्र, उनसे वही कथा नहीं कही जा सकती जैसी अन्यत्र।

पानी गिर रहा है और कविता का आख्याता मनुष्य जहाँ रहता है, जिस घर में रहता है वह उसका मूल निवास नहीं है, बल्कि गिर रहे पानी ने भीगी हुई चीजों का जो एक नया, टेम्परॅरि देश बनाया है वह उसका मूल निवास है, वह अपने घर, अपने भूगोल का नहीं बरसात का मूल निवासीहै। यह मूल निवास के मूल, उपलब्ध अर्थ का विस्थापन हैमूल निवास टेम्परॅरि नहीं हो सकते। वे शाश्वतहोते हैं, स्थायी – (अस्थायी तो प्रवास होते हैं!) उनकी ओर लौटना सदैव संभव है। और जो टेम्परॅरि है उससे कैसा निर्वासन? किंतु इस कविता में यही होता है: जो टेम्परॅरि है वही मूल है और उसका समापन निर्वासन है। कविता मूल निवास, अन्यदेश और निर्वासन की भूचित्रात्मक, भावात्मक, नैतिक हॉयरार्की को अस्थिर कर देती है और विनोद कुमार शुक्ल घर-वापसी और लौटने की क्रियाओं से विमोहित जिस भाषा (हिन्दी) में लिखते हैं उसकी नॉस्टेलजिक नैतिकता अचंभित हो कर सोचती है घर किस दिशा में है?

*
मिलान कुंदेरा जिनके छोटे-से मातृदेश, तत्कालीन कम्यूनिस्टचेकोस्लोवाकिया, पर पाँच लाख सैनिकों के साथ सोवियत रूस ने 1968 में त्रासद ढंग से कब्जा कर लिया था, 1975 से फ्राँस में रह रहे हैं और मूल निवास और निर्वासन की उस कथा को बहुत नज़दीकी और पीड़ा से जानते लिखते रहे हैं जिसे यह कविता नहीं कहती। रूसी सेना 1989 तक चेकोस्लोवाकिया में रही पर उसकी वापसी के बाद भी कुंदेरा घर नहीं लौटे। पिछले कई बरसों से फ्राँस के नागरिकऔर अब एक अधिक गहरे अर्थ में फ्रेंच हो चुके (उनके पिछले कुछ उपन्यास फ्रेंच में लिखे गये हैं) कुंदेरा के 2002 में प्रकाशित फ्रेंच उपन्यास इग्नोरेंस (अंग्रेजी अनुवादः लिंडा अशर/ फेबर के सहयोग से पेंग्विन) में नॉस्टेल्जिया पूरे उपन्यास का मूल हैएक तरह से उसका कृतित्व। कुंदेरा नॉस्टेल्जिया को एक सर्वथा नये, कल्पनाशील अनुभव/गल्प में बदल देते हैं। नॉस्टेल्जिया के ग्रीक उद्गम nostos (=return) और algos (=suffering) को फिर से सक्रिय करते हुए वे इसे लौटने की एक अतृप्त कामनाकी तरह पढ़ते है और होमर के महाकाव्य ओडिसी का एक नया पाठ नॉस्टेल्जिया के आदिकाव्यकी तरह करते  हैं। इस महाकाव्य का नायक ओडिसस दस बरस तक ट्रॉय का युद्ध लड़ता है, युद्ध समाप्त होने पर वह अपने मातृदेश इथाका लौटने की कोशिश करता है (अपनी पत्नी पेनेलोप के पास) लेकिन अगले दस और बरस नहीं लौट पाता; इनमें से अंतिम सात बरस वह केलिप्सो के बंदी और प्रेमी की तरह बिताता है। कुंदेरा लिखते हैं

Homer glorified nostalgia with a laurel wreath and thereby laid out a moral hierarchy of emotions. Penelope stands at its summit, very high above Calypso.

Calypso, ah, Calypso! She loved Odysseus. They lived together for seven years. We do not know how long Odysseus shared Penelopes bed, but certainly not so long as that. And yet we extol Penelope’s pain and sneer at Calypsos tears.[i]

कुंदेरा स्वकीया मूल और परकीया अन्य में आरोपित जिस नैतिक हॉयरार्की को होमर के महाकाव्य के पात्रों में, महाकाव्य, नायकत्व और युद्धों की लॉर्जर दैन लाईफ कथा में, मिथकीय में पढ़ते हैं वह उस सारे घमासान से दूर सड़क, चिड़िया और पेड़ के रोजमर्रा पर पानी गिरने के एक ‘साधारण’ दृश्य में, पन्द्रह बहुत छोटी काव्य पंक्तियों से बनी एक अन्यदेशीय, हिन्दी कविता में चुपचाप, बारिश थमने की तरह उलट दी जाती है।


हमने कविता में जिन तीन अन्यदेशीय तत्वों को पहचाना था उनमें से ‘तिलिस्म’ को, निश्चय ही जानबूझकर नहीं, हम भूल गये। तिलिस्म शब्द का उद्गम ग्रीक है और उसके प्रचलित अर्थ रहस्य  या कोई जादुई जगह या वह चीज़ जिसे किसी कोड़ से उत्तीर्ण करना होता है। लेकिन सुहैल अहमद खान[i] तिलिस्म के प्रतीकात्मक अभिप्रायों का अध्ययन करते हुए यह प्रस्तावित करते हैं कि न सिर्फ यह संसार खुद एक तिलिस्म है ऐसा मानने की, इस सेंसिबिलिटी की एक परंपरा रही है बल्कि कहा जा सकता है कि तिलिस्म = संसार है। इस तरह देखने पर ‘अपने मूल निवास का तिलिस्म’ यही है कि मूल निवास खुद एक तिलिस्म है, और जैसा अशोक वाजपेयी[ii] संकलन की भूमिका में कहते हैं, ‘जहाँ हम रहते हैं (क्या) वहीं तिलिस्म है?   





[i]   अहमद खान, सुहैल, द सिम्बॉलिक आस्पेक्ट्स ऑव तिलिस्म, अनुवादः मुहम्मद सलीम उर रहमान,
     http://www.urdustudies.com/pdf/15/09khansuhail.pdf
[ii]   भूमिका, सब कुछ होना बचा रहेगा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 1992 



[1] SCHIZOPHRENIA




इस निबंध में उद्धृत विनोद कुमार शुक्ल की कवितायें वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह, संभावना प्रकाशन, हापुड़, सं 1992 और सब कुछ होना बचा रहेगा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992 से हैं।

[i]   कुंदेरा, मिलान, इग्नोरेंस,अनुवादः लिंडा अशर, फेबर एंड फेबर, 2002, पृ

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टिप्पणियाँ

प्रशांत श्रीवास्तव ने कहा…
धैर्य तो बस शुरु की कुछ पंक्तियों को पढने क ही है, फ़िर तो यह आलेख खुद-ब-खुद अपने को पढवा लेती है..इसे Ashok के लिंक से डाऊनलोड कर दोपहर को पढ़ा और ’वह आदमी....’ र ’लगभग जयहिंद’ वाला आधा हिस्सा अभी थोड़ी देर पहले ही दुबारा पढ़ा. इन कविताओं का, खासकर ’लगभग जयहिंद’ का, यह ’schizophrenic’ पाठ बड़ा ही दिलचस्प लगा, अपने पढ़े से बिलकुल अलग, अपने पढ़े (सिधे-साधे) ’राजनीतिक’ पाठ से अलग मगर कविताओं के प्रयोजन को एक घुमावदार पहाड़ी रास्ते से ले जा कर भी सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंचाता प्रतीत हुआ. सन ७१ के आसपास के ’लोकतंत्र’ की व्याख्या क्योंकी मुल्तवी रखी गई है इसलिये ये कहना तो फ़िलहाल संभव नहीं कि उस परिदृश्य के आईने में ये पाठ कितना सटीक बैठता मगर फिर मैं खुद से भी पूछने लगता हूं कि ’कब’ लिखी गई क्या ये ज्यादा महत्वपूर्ण है या ’कब’ पढ़ी गई अर्थ उससे निकलता है? और ’कब’ लिखी गई अगर ये महत्वपूर्ण है भी तो क्या उस कब में सिर्फ़ ’७१’ जैसे कुछ साल ही समाहित होंगे? मुझे नहीं लगता कि इन कविताओं में, जिस ’असंगती’ और विश्रृंखलता’ को रेखांकित किया गया है, वो समय सापेक्ष है या अर्थ के उत्पादन के लिये उसकी जरूरत भी है. और शायद यही वजह है कि अभी पिछले साल ही इन कविताओं को पढ पाने के बाद भी ये ’आज’ की ही कविता जान पड़ी थी. आपने जिस तरह इन कविताओं को ’छिन्न-भिन्न’ (कविता में अवस्थित जिस सिज़ोफ़्रेनिया की ओर आपका इशारा है उसके लिये यही शब्द उपयुक्त लग रहा है) किया है , उससे विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवि की कई दूसरी कविताओं के लिये भी अब ’डाऊट्स’ भी पैदा हो रहे हैं और उनमें उतरने के झरोखे भी.
और देर आयद दुरुस्त आयद कहना तो जरूरी है, देर से आया ये व्यक्तिगत खुशी की भी बात है क्योंकि २०१० में आता तो बहुत संभव था कि मिस हो गया होता और विनोदजी का संग्रह ’वह आदमी....’ भी तो पिछले ही साल Maheshजी की लाईब्रेरी से फ़ोटोकॉपी करा कर पढने का मौका मिला.
लीक से हट कर और वाकई धैर्य के साथ लिखे गये इस आलेख के लिये मुबारकबाद स्विकारें.
मिथिलेश शरण चौबे ने कहा…
लेख तो अच्छा है ही,पहली कविता भी बहुत सुन्दर है|
RV1926 ने कहा…
Pura lekh kaha se milega

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