मीरा : एक पुनर्पाठ - हिमांशु पांड्या

'आली री म्हारे णेणाँ बाण पड़ी'
(मीरा की कविता, ’प्रेम‘ के निहितार्थ और हिंदी आलोचना)

"कैथोलिक प्रतिष्ठान1 ने (वह) पुस्तक प्रकाशित की जिसे संभवतः मानवीय इतिहास की सबसे रक्तरंजित किताब कहा जा सकता है। ’मेलिस मेलिफिकेरम‘ अथवा ’विचेज़ हेमर‘ ने दुनिया के दिमाग में ’स्वतंत्रचेता महिलाओं के खतरे‘ भर दिए और पादरियों को निर्देश दिए कि उन्हें कैसे ढूँढा जाए, यातनाएँ दी जाएँ और खत्म कर दिया जाए। चर्च द्वारा ’चुड़ैल‘ घोषित की गई इन महिलाओं में अध्येता, पादरी, बंजारन, रहस्यवादी, प्रकृतिप्रेमी, जड़ीबूटियाँ ढूँढने वाली और वे सारी महिलाएँ आती थीं जो ’प्राकृतिक जगत से रहस्यमयी रूप से जुड़ीं‘ हुई थीं। दाइयों को भी उनकी विधर्मी गतिविधियों के लिए मार दिया गया, इसलिए क्योंकि वे अपने चिकित्सकीय ज्ञान का उपयोग प्रसव पीड़ा को कम करने के लिए करती थीं - एक पीड़ा जो भगवान द्वारा हव्वा को दी गई वाजिब सजा थी क्योंकि उसने ज्ञान के फल में भागीदारी कर (आदम के मन में) ’पाप‘ के विचार को जन्म दिया था। तीन सौ साल के विचहंटिंग के इतिहास के चर्च द्वारा हत्या की गई महिलाओं की संख्या पचास लाख से भी ज्यादा होगी।"2  - (पृष्ठ 173 द दा विंची कोड से उद्धृत) 
मोनिका शर्मा की यह पेंटिंग नेट से 


’’चैलिस3‘‘, उसने कहा, ’’किसी प्याले या बर्तन से मिलता-जुलता है, पर ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह औरत की योनि से मिलता जुलता है। यह स्त्रीत्व और उर्वरकता का प्रतीक है।‘‘ लेंग्डन अब सीधा उसकी ओर देख रहा था, ’’सोफी, किंवदन्ती है कि ’होली ग्रेल‘4 एक बर्तन है - एक प्याला। लेकिन ग्रेल का प्याले के रूप में चित्रण दरअसल ’होली ग्रेल‘ की वास्तविकता को सुरक्षित रखने के लिए काम में लिया गया एक रूपक है। यूँ कहें कि यह प्याला एक ज्यादा महत्वपूर्ण बात का प्रतीक है।‘‘ 

’’एक औरत का‘‘ सोफी ने कहा

’’बिल्कुल,‘‘ लैंग्डन मुस्कुराया, ’’ग्रेल स्त्रीत्व का प्राचीनतम चिह्न है और होली ग्रेल पवित्र स्त्रीत्व और देवी का प्रतीक है जो चर्च के संहार के बाद अब खो ही गई है। स्त्री की शक्ति और उसकी जीवन सृजन की क्षमता एक समय बेहद पवित्र थी लेकिन इससे मुख्यतः पुरुष प्रभुत्व वाले चर्च को खतरा महसूस हुआ और तब स्त्रीलिंग को ’गंदा‘ और ’शैतानी‘ कहा गया। यह ईश्वर नहीं आदमी था जिसने ’पाप‘ की अवधारणा गढ़ी जिसमें हव्वा ने फल खाया और मानव जाति के पतन का कारण बनी। औरत जो कभी जीवन दात्री थी अब दुश्मन बन गई।‘‘5  - (पृष्ठ 321-322 द दा विंची कोड से उद्धृत)

पिछले चार सौ वर्षों से मीरा की कविता के रूपकों का सही अर्थ ढूँढने के प्रयास जारी हैं। तस्वीरों, बचपन में सुनी कथाओं, फिल्मों, इतिहास में उल्लिखित विवरणों और साहित्यिक आलोचकों को पढ़, सुन, देख कर मीरा की एक छवि मन में आकार ले चुकी है। दीन दुनिया से परे, आध्यात्मिक रस में सराबोर, सामन्ती बन्धनों की परवाह न करने वाली जोगन मीरा की छवि। इस छवि को मन में बसाए एक सामान्य पाठक जब मीरा की कविता पढ़ता है तो उसे इन रूपकों में ऐसी छटपटाहट महसूस होती है जिसे अभी तक ठीक से व्याख्यायित नहीं किया जा सका है। 

मीरा की कविता जिस व्यापक भक्ति आंदोलन का अंग थी उसकी लोकोन्मुखता और मानवतावादी दृष्टि को रेखांकित करके हिंदी मानस में स्थापित करने का श्रेय हिंदी की प्रगतिशील आलोचना को जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति आंदोलन को हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग साबित करते हुए तुलसी के लोकमंगल, जायसी की लोकोन्मुखता और सूर के लोकरंजक काव्य को तो उद्घाटित किया किन्तु कबीर की ’अटपटी‘ बानी पर वे सहृदयतापूर्वक विचार नहीं कर पाए। उनके परवर्ती आलोचकों द्वारा की गई जाँच के बाद अब हम जानते हैं कि आचार्य शुक्ल का लोकधर्म दरअसल आर्य शास्त्रानुमोदित वर्णाश्रम धर्म ही था।6 यही कारण था कि वर्णाश्रम के विरुद्ध आवाज उठाने वाले निर्गुण साधकों को वे लोक विरोधी मानते रहे और उनके व्यापक योगदान को नहीं देख पाए। अतः आचार्य शुक्ल की दृष्टि की रूढ़ता के कारण कबीर को वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे और बाद में लोक और शास्त्र के द्वन्द्वात्मक संबंधों पर विचार करने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यह काम किया। इस आलेख में यह देखने का प्रयास किया जाएगा कि (अ) क्या हिंदी की प्रगतिशील आलोचना मीरा के मूल्यांकन के संदर्भ में किसी रूढ़ दृष्टि का शिकार रही है ? (ब) मीरा की कविता के व्यापक आयामों को उद्घाटित कर सके इस हेतु नवीन आलोचना दृष्टि को / द्वारा किन विचार बिन्दुओं को समेटना होगा / समेटा जा सकता है। 

सबसे पहले आचार्य द्विवेदी क्योंकि आचार्य शुक्ल की दृष्टि वर्णाश्रम की सीमाओं में आबद्ध थी अतः यह स्वाभाविक रूप से माना जा सकता है कि आचार्य द्विवेदी जिन्होंने ’सूर साहित्य‘ के माध्यम से कृष्ण भक्ति के लोक मर्यादा भंजक रूप की क्रांतिकारिता को उद्घाटित किया, अवश्य ही मीरा की कविता के सही मूल्यांकन में सक्षम होंगे। इसी उम्मीद के साथ मैंने ’हिंदी साहित्य की भूमिका‘ को उलटा-पलटा। ’भूमिका‘ में आचार्य द्विवेदी ने मीरा का उल्लेख दो जगह किया है। दोनों जगह अवान्तर रूप से मीरा का उल्लेख आया है - रैदास की शिष्या होने की संभावना पर। यह उल्लेख भक्ति आंदोलन की वर्ण की सीमाओं को तोड़ने की व्यापकता ही बताता है, मीरा पर कोई स्वतंत्र टिप्पणी नहीं करता। यह चुप्पी आश्चर्यजनक है। द्विवेदी जी ने मीरा की कविता को स्वतंत्र विचार लायक भी क्यों नहीं समझा जबकि उन्होंने कृष्ण भक्ति की परंपरा के विश्लेषण के माध्यम से वर्जना मुक्ति और क्रमशः स्त्री मुक्ति की बात उठाई थी ? हम यहाँ वैष्णव भक्ति परंपरा में झांक कर देखेंगे। 

वैष्णव भक्ति परंपरा और स्त्री की स्थिति  

वैष्णव भक्ति परंपरा में भागवत पुराण का विशेष महत्व रहा है। स्वयं आचार्य द्विवेदी इसे सगुण मतावलम्बी भक्तों का प्रधान उपजीव्य ग्रन्थ मानते हैं। उनके अनुसार क्या कवित्व शक्ति, क्या शास्त्रीय तत्व, क्या ज्ञान चर्चा - भागवत पुराण किसी में अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं मानता।.... समस्त भारतीय चिंता को इसने दूर तक प्रभावित किया है।7 इसके अतिरिक्त दूसरा प्रमुख आधार ग्रंथ है विष्णु पुराण। दरअसल भागवत पुराण विष्णु पुराण का ही विस्तार है। 
ये पुराण एक सहस्र वर्ष की लम्बी अवधि तक लिखे जाकर लगभग 1000 ई. के आस-पास अपने वर्तमान स्थिर रूप को प्राप्त हुए। इन पुराणों में पशुपालन से कृषि सभ्यता के बदलते उत्पादन संबंधों के साथ उपजे तनावों से जूझने की जद्दोजहद मिलती है। इस द्वन्द्व के कारण इन पुराणों में दो अन्तर्विरोधी बातें साथ-साथ मिलती हैं। इनमें कलयुग को मृत्यु, प्राकृतिक आपदा, राक्षसी शक्तियों के उभार, सामाजिक वैधानिक अराजकता के रूप में याद रखा गया है और इसके लिए शूद्रों और महिलाओं को जिम्मेदार ठहराया गया है। (क्योंकि वे वर्णाश्रम की दीवारों को धक्का दे रहे हैं ) वहीं दूसरी ओर शूद्रों और महिलाओं को कृष्ण भक्ति का स्वाभाविक दावेदार माना गया है क्योंकि दलित शोषित होने के नाते वे ’माया‘ से मुक्त हैं।8 

यह अन्तर्विरोध दरअसल सामाजिक पदक्रम को मिल रही चुनौती से निपटने का एक प्रयास है। सुवीरा जायसवाल ने अपनी पुस्तक ’वैष्णव धर्म का उद्भव और विकास‘ में वैष्णव धर्म की लम्बी समावेशी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि वैष्णव धर्म में उन विदेशियों व आदिवासी जातियों के आर्यीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिनका परवर्ती मुसलमानों की तरह न तो अपना कोई प्रबल धर्म या सम्प्रदाय था और न सुविकसित संस्कृति ही थी। भागवत पुराण में कहा गया है कि किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिंद, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खस तथा इसी प्रकार की अन्य दुराचारी जातियाँ विष्णु पूजन से पवित्र हो जाती हैं। इसी दौरान ब्राह्मणों ने लोक प्रचलित देवताओं की उपासना को भागवत धर्म में सम्मिलित कर लिया और इनकी पूजा के यदि विरोधी नहीं तो मूल रूप से उदासीन रुख को वैदिक परम्पराओं के अनुरूप बनाया जिसका पूर्ण प्रत्यक्षीकरण गुप्त युगीन वैष्णव धर्म में हुआ।9 ’महाभारत‘ में वासुदेव कृष्ण - जो कि अनार्य पशुपालक सभ्यता के जननायक थे - वैदिक देवता नारायण विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।10 
कुमकुम संगारी जिन्होंने मीरा पर लिखे एक महत्त्वपूर्ण लेख में वैष्णव परम्परा का विश्लेषण किया है - इन पुराणों के कलिवर्णन के सर्वाधिक ’चिन्तनीय’ पक्ष की ओर ध्यान दिलाती हैं। इनमें पितृसत्तात्मक मूल्यों के पतन पर गहरी चिन्ता है। विवाह की पवित्रता का खतरे में आना, पति-पत्नी संबंधों का बिगाड़, संयुक्त परिवारों का विघटन, यौन स्वच्छन्दता का खतरा आदि। ’त्रियाचरित्र‘ का काफी बखान इनमें मिलता है।11 

स्वकीया - परकीया प्रेम और मीरा की कविता 

विष्णु पवन की पेंटिंग नेट से साभार 
उच्च वर्णों की श्रेष्ठता स्त्री कोख पर नियंत्रण रख कर ही सुरक्षित रह सकती थी अतः शूद्रों को हीनता की स्थिति में छोड़ा जा सकता था पर स्त्रियाँ हीनता के साथ-साथ नियंत्रण भी भोगती थीं। मीरा जिस परिवेश से आती थीं उस राजपूत समुदाय में साम्राज्य विस्तार की नीति के तहत राजाओं द्वारा एकाधिक विवाह किए जाते थे। अतः विवाह सिर्फ ’फल प्राप्ति‘ के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान बन कर रह गया फिर चाहे वह फल भूमि हो या संतान। इस वर्जनशीलता का विरोध किसी न किसी रूप में तो फूटना ही था। परकीया प्रेम ऐसी ही लौकिक प्रतिक्रिया थी। देवीशंकर अवस्थी ने परकीया प्रेम की लम्बी परम्परा का उल्लेख करते हुए सी.एस.लेविस का एक महत्त्वपूर्ण कथन इस संदर्भ में उद्धृत किया है, ’’विवाह को मात्र उपयोगी मानने वाले समाज में यौन प्रेम का आदर्शीकरण निश्चित ही व्यभिचार के आदर्शीकरण से प्रारंभ होगा।‘‘12 
कृष्ण गोपियों का प्रेम इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि वहाँ प्रेम किसी फल प्राप्ति के लिए नहीं किया जा रहा - प्रेम ही फल है। यह कृष्ण का लोक से आया रूप था (जिसका उल्लेख हमने पहले किया ) जिसका समाहार वैष्णव भक्ति में अपने-अपने ढंग से किया गया।13 बहरहाल चैतन्य के वैष्णव सम्प्रदाय में भक्ति में परकीया प्रेम को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया पर समाज में इसका निषेध किया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि वैष्णव सम्प्रदाय परकीया प्रेम को आध्यात्मिक संदर्भों में ग्रहण करने की सिफारिश कर रहा था। इस संदर्भ में जीव गोस्वामी के सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये जीव गोस्वामी बाद में मीरा के गुरू हुए। प्रियदास के वर्तिका प्रकाश में प्रसंग है कि जीव गोस्वामी से मिलने मीरा जब उनके द्वार पर पहुँची तो उन्होंने मीरा से मिलने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वे स्त्रियों से नहीं मिलते थे। तब मीरा ने कहा, ’’अच्छा! मैं तो समझती थी वृन्दावन में एक ही पुरुष है बाकी सब गोपियाँ हैं‘‘ तब जीव गोस्वामी लज्जित होकर बाहर आए।14 इस कथा में एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दा छिपा है। ’गोपी भाव‘ की अवधारणा जीव गोस्वामी ने कृष्ण भक्ति के बचे-खुचे लैंगिक बोध को खुरचने के लिए की थी। उनके अनुसार, ’’गोपी भाव का तात्पर्य कृष्ण सुख है। गोपियों को निजेन्द्रिय सुख वा?छा नहीं थी, वे कृष्ण को ही सुख देने के लिए संगम और विहार करती थीं।‘‘15 मीरा ने न सिर्फ इस गोपी भाव की अवधारणा को लैंगिक समानता के लिए काम में लिया बल्कि अपनी कविता से पुनः लैंगिक आयाम को केन्द्र में लाया। 

वैष्णव परम्परा द्वारा परकीया प्रेम को आध्यात्मिक आवरण पहनाने की कोशिश तब छिन्न-भिन्न हो जाती है जब मीरा कविता करती है। 

म्हां मोहन रो रूप लुभाणी।।
सुन्दर बदन कमल दल लोचन, बांका चितवन णैणा समाणी। 

यहाँ कोई आध्यात्मिक संदर्भ नहीं है। एक स्त्री का एक पुरुष के प्रति निवेदन है जिसमें रूप सौंदर्य का वर्णन भी है और अपनी कामना का खुला चित्रांकन भी। धार्मिक मत जिस यौनेच्छा पर प्रतिबंध लगाना चाह रहा था भक्ति उस यौनेच्छा की अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रही थी।

कई पुरुष भक्तों ने भी जनाना भक्त स्वर काम में लिया था क्योंकि संबंध की प्रगाढ़ता दर्शाने के लिए उन्हें यह स्वर सर्वश्रेष्ठ लगता था और संभवतः सामाजिक संरचना में पुरुष / स्वामी के उच्च स्थान को भी इससे दृढ़ता मिलती थी। स्त्री का प्रेम जिस तरह एकनिष्ठ होता है वैसे ही भक्त पूर्ण समर्पित हो जाता था पर मीरा के यहाँ यही जनाना भक्त स्वर खुला और खतरनाक हो उठता है। भागवत पुराण की मूल स्थापना कि स्त्री पुरुष / पति की सेवा करके ही मोक्ष प्राप्त कर सकती है, खंडित हो जाती है। मीरा भगवान से सीधा संबंध स्थापित कर विवाह नामक संस्था को चुनौती दे रही थी। 

’कामिनी‘ स्त्री का भय 

असल बात यही है। मीरा का विद्रोह राजकुल की सामन्ती मर्यादा के प्रति तो विद्रोह था ही; उससे बढ़कर वह पारिवारिक संरचना के प्रति विद्रोह था, असमान विभाजन पर टिकी विवाह संस्था के प्रति विद्रोह था। 

डा. विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक ’मीरा का काव्य‘ मीरा पर प्रगतिशील धारा की सबसे उल्लेखनीय पुस्तक मानी जा सकती है। इसमें डा त्रिपाठी एकाधिक जगह पर बल देकर मीरा के पातिव्रत धर्म को स्थापित करते हैं और राणा द्वारा मीरा की मुखालिफ़त करने का कारण राजकुल मर्यादा का उल्लंघन बताते हैं। वे लिखते हैं, ’’मीरा भक्त थीं। भक्त होना न तो बुरी बात है न आपत्तिजनक। यदि वह सभी लोगों की तरह घर में रहकर पूजा-पाठ करके भक्ति करके अपना वैधव्य काटती रहतीं तो राणा को क्या आपत्ति होती ! आपत्ति का कारण साधु-संगति ही ज्ञात होता है। मीरा केवल भक्त नहीं थीं, वह राजमहल की वधू भी थीं। वह सामान्य भक्तिन की तरह सामान्य लोगों से मिलती-जुलती थीं तो राणा कुल की मर्यादा कैसे न भंग होती ?‘‘16 (इस कथन की तार्किक अन्विति यह निकलती है कि मीरा की कविता उसके लिए उठाए जा रहे जोखिम के कारण महत्वपूर्ण है, स्वयं कविता नहीं। हम आगे यह दिखाने का प्रयास करेंगे कि बंद दरवाजों के भीतर भी उनकी कविता ’खतरनाक‘ थी।) कुछ -कुछ इसी तरह की बात आचार्य शुक्ल भी अपने इतिहास में लिख चुके हैं, ’’कहते हैं कि इनके इस राजकुल विरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे।‘‘17 डा. त्रिपाठी न सिर्फ मीरा के पारिवारिक संरचना के प्रति विद्रोह के आयाम को अनदेखा करते हैं बल्कि कोई संदेह न रह जाए इसके लिए बल देकर कहते हैं, ’’मीरा पति प्रेम को सदाचार मानने वाली महिला थी। मीरा के विषय में कभी-कभी जो अतिरिक्त आधुनिक चिन्तन किया जाता है वह बेहूदा है। ऐसे छद्म आधुनिक विचारक यह समझ ही नहीं सकते कि मनुष्य शारीरिकता से ऊपर उठ सकता है।‘‘18 
डा. त्रिपाठी ने ’अतिरिक्त आधुनिक‘ यह पद एकल उद्धरण चिह्न के साथ नहीं लिखा है कि कोई तिर्यक अर्थ व्यंजित हो। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आधुनिकता एक सीमा से आगे जाए तो डा. त्रिपाठी मध्यकालीनता का पक्ष ले सकते हैं। मीरा ने विवाह के तुरंत बाद गिरधर नागर को अपना पति घोषित करके व कुलदेवी की अभ्र्यथना न करके परिवार में विरोध का सामना किया था। प्रियदास ने ’वर्तिका प्रकाश‘ में यह पूरा प्रसंग लिखा है जब सास ने शिकायत की थी, ’’यो बहू नहीं काम की‘‘ और श्वसुर मारने को उद्धृत हो गए थे।19 
’’मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई / जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई‘‘ लिखने वाली मीरा विवाह संस्था के औचित्य को स्पष्ट चुनौती दे रही थीं। ’पातिव्रत‘ के परम्परागत मानदण्डों पर मीरा खरी नहीं उतरती थीं और उन्हें इसकी परवाह भी नहीं थी। 

म्हां गिरधर आगा नाच्याँ री।।
णाच-णाच म्हां रसिक रिझावाँ, प्रीत पुरातन जाँच्याँ री।
स्याम प्रीत रो बाँधि घूंगर्या, मोहण म्हारो साँच्याँ री।
लोक लाज कुल रा मरजादा, जगमाँ णेक राख्याँ री।

यहाँ ’कुल मरजाद‘ से पहले जो ’लोक-लाज‘ है, वह मात्र घर से बाहर आने के बारे में नहीं है, वरन् एक परपुरुष को पति घोषित पितृसत्तात्मक समाज के सामने तन कर खड़ा होने का भाव है। यह बहुत आश्चर्यजनक है कि पुस्तक की भूमिका में आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने घोषित किया है, ’’मीरा का प्रेम शुद्ध आत्मदान है। रूपासक्ति से सीधे प्रेमासक्ति में प्रवेश होता है, कामासक्ति की गंध भी मीरा में नहीं मिलती।‘‘20 मीरा कृष्ण भक्ति की जिस परम्परा में थी वहाँ ’रागानुगा भक्ति‘ का अवलम्बन होता है, जिसके दो प्रकार हैं - कामरूपा और संबंधरूपा। आचार्य द्विवेदी के अनुसार, ’’विषय संभोग तृष्णा को काम कहते हैं। इन्द्रियार्थ ही बद्ध जीव का विषय है। इसलिए पंडित लोग इसे काम कहते हैं। जिस जगह परमतत्वरूप भगवान विषय रूप में वरण किए जाते हैं उस जगह विषय संभोग तृष्णा को काम कहा जाता है। ’काम‘ और ’प्रे्रम‘ में स्वरूपगत भेद नहीं है, केवल विषय मात्र का भेद है। नित्यसिद्ध जीव स्वरूप ब्रज गोपियों के प्रेम को ही ब्रज तत्व में ’काम‘ कहा गया है क्योंकि उनमें विषयान्तर का अभाव है - इनके ’काम‘ और ’प्रेम‘ में भेद नहीं है। गोपियों की रागात्मिका वृत्ति कामरूपा थी। उनकी भक्ति के अनुकरणकारी भक्तों की रागानुगाभक्ति को भी कामरूपा कहते हैं। कामरूपा रागानुगा भक्ति में कृष्ण सुख के सिवा अन्य किसी सुख का अन्वेषण या उद्यम नहीं रहता।‘‘21 
यदि जीव गोस्वामी की तरह ’कृष्ण सुख‘ का अर्थ सिर्फ ’कृष्ण को सुख पहुँचाना‘ लिया जाए तो ही मीरा की कविता को काम भावना रहित कहा जा सकता है ! 
’काम‘ - यही समस्या की जड़ है। यदि शुचितावादी आलोचकों के आरोप के जवाब में हम मीरा की ’पवित्रता‘ पुष्ट करने में जुट जाएँगे तो हम उनके तर्क को मान लेंगे। मीरा जिन्हें ’यह बदनामी मीठी‘ लगती थी, उनकी मूल भावना के साथ भी यह अन्याय होगा। 
हमारे यहाँ सदाचार को यौन शुचिता के साथ अनिवार्य रूप से सम्बद्ध कर दिया गया है। जिस तरह आज ’राष्ट्रवाद‘ की गूँज में ’मुस्लिम विरोध‘ की अनुगूँज सुनाई देती है, उसी तरह ’सदाचार‘ की ध्वनि में भी ’स्त्री विरोध‘ की अनुगूँज सुनाई देती है। डा. त्रिपाठी के यहाँ भी, ’’कनक और कामिनी दोनों की उपेक्षा भक्ति करती है।‘‘22 

औपनिवेशिक भारत, हिन्दी आलोचना और मीरा की छवि का मिथकीकरण 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का आकलन हिन्दी समाज के लिए आज भी एक मानक की हैसियत रखता है। इसने हिन्दी समाज के मानस निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अपनी पुस्तक ’गोस्वामी तुलसीदास‘ में तुलसी के बारे में उन्होंने लिखा है, ’’उन पर स्त्रियों की निन्दा का महापातक लगाया जाता है; पर यह अपराध उन्होंने अपनी विरति की पुष्टि के लिए किया है। उसे उनका वैरागीपन समझना चाहिए। सब रूपों में स्त्रियों की निन्दा उन्होंने नहीं की है। केवल प्रमदा या कामिनी के रूप में, दात्पत्य रति के आलम्बन के रूप में की है - माता, पुत्री, भगिनी आदि के रूप में नहीं। इससे सिद्ध है कि स्त्री जाति के प्रति उन्हें कोई द्वेष नहीं था। अतः उक्त रूप में स्त्रियों की जो निन्दा उन्होंने की है, वह अधिकतर तो अपने ऐसे और विरक्तों के वैराग्य को दृढ़ करने के लिए और कुछ लोक की अत्यंत आसक्ति को कम करने के विचार से।‘‘23 अर्थात् आसक्ति का आलम्बन महिलाएँ हैं, अतः वे निन्दा की पात्र हैं; और माता, पुत्री, भगिनी भी इसकी सीमा से बाहर नहीं है क्योंकि वे भी किसी न किसी के लिए तो आलम्बन रति की पात्र होंगी ही। 

यह काम विरोधी रुख अकेले आचार्य शुक्ल का नहीं है, नवजागरण काल के अन्य चिन्तकों पर भी इसका असर साफ देखा जा सकता है। स्वामी विवेकानंद ने कृष्ण भक्ति को त्याज्य बताते हुए कहा था कि इसने ’’पूरे भारत को स्त्रैण बना दिया है।‘‘24 

यह शक्ति का मर्दाना विमर्श था जो यूरोपीय प्रभुवर्ग के खिलाफ खड़ा होने की तैयारी में था। पार्थ चटर्जी ने अपनी पुस्तक ’नेशन एण्ड इट्स फ्रेग्मेंट्स‘ में भारतीय राष्ट्रवादी विचार के आंतरिक प्रश्नों पर विचार किया है।25 उनके अनुसार भारत में एक पढ़ा लिखा मध्यवर्ग अपने को राष्ट्र का स्वयंभू प्रतिनिधि मान चुका था। यूरोपीय प्राच्यवादियों द्वारा प्राचीन भारत के आध्यात्मिक वैभव की एक चमकदार तस्वीर परोसी गई जिसे उसने स्वीकार कर लिया। बेनेडिक्ट एण्डरसन ने स्थापना दी है कि तीसरी दुनिया के देशों में आया राष्ट्रवादी उभार यूरोप की धुरी से आक्रान्त था और उससे संचालित भी। पार्थ चटर्जी भारत के संदर्भ में इस सिद्धांत में संशोधन करते हैं। उनके अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद ने दो वृत्त निर्धारित किए - भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिक क्षेत्र में हमने पश्चिम का अनुकरण किया पर आध्यात्मिक क्षेत्र में हमने अपने स्वर्णिम अतीत को पुनर्जीवित करने की ठानी। यह ’घरे बाइरे‘ का भेद था, जिसमें घर में हमारे पारम्परिक मूल्य चलने थे। अतः गौरवशाली अतीत की यात्रा ने पुनरुत्थानवाद का मार्ग प्रशस्त किया और जातिगत भेदभाव, पितृसत्तात्मक मूल्य, सामाजिक आचार व्यवहार में ठोस के बजाय प्रतीकात्मक परिवर्तनों वरीयता देना जैसे रूढ़िवादी तत्व 19 वीं सदी के सुधार आन्दोलनों में देखे जा सकते हैं।

चारु गुप्ता ने हिन्दी क्षेत्र में आर्य समाज द्वारा चलाए गए संगठन और शुद्धि अभियान की पृष्ठभूमि में हिंदी साहित्यिक विमर्श में उभर रहे पितृसत्तात्मक मूल्यों का विश्लेषण किया है।26 जिस तरह वर्णाश्रम की शुद्धता स्त्री-नियंत्रण पर टिकी थी, वैसे ही नवीन राष्ट्रवादी विमर्श की सामुदायिक पहचान भी स्त्रियों की देह के जरिए निर्मित होती थी। समुदाय की एकमुखी पहचान बनाने के प्रयासों ने महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन का प्रयास कर रहे उदारवादी प्रकल्पों को उलट कर रख दिया। पार्थ चटर्जी के अनुसार ’बाहरी‘ उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षित थी किंतु ’भीतरी‘ सामाजिक विमर्श में उन्हें पारम्परिक भूमिकाओं तक ही सीमित रहना था। इस नवीन भारतीय स्त्री की यौनिकता रहित पूजनीय छवि भारतीय साहित्यिक विमर्श गढ़ रहा था। द्विवेदी युग पर आर्यसमाजी शुचिता बोध जबरदस्त हावी था, रीतिकाल के जबरदस्त विरोध के पीछे भी एक कारण यौनिकता बोध वाली स्त्री की समस्यामूलक छवि से छुटकारा पाना था। 

इसी दौरान मीरा की छवि का मिथकीकरण आरंभ हुआ। समाज में अपनी सजग उपस्थिति के कारण मीरा को साहित्यिक इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता था। अतः उनके कामनामूलक निहितार्थों को - जिनसे ग्लानिबोध उपजता था - दबाया गया और सामंती विरोध जैसे पक्षों को - जो नवीन मध्यवर्ग के आधुनिक बोध को गौरव से भर देता था - आगे किया गया। यहाँ भी यूरोपीय प्राच्यवादी विमर्श ने दिशा दिखाने का काम किया। परिता मुक्ता ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ’द कम्यूनिटी आॅफ मीराबाई‘ में मीरा के इस सुविधाजनक समावेश की राजनीति को विस्तार से दिखाया है।27 उनके अनुसार ’जेम्स टाॅड‘ के इतिहास ग्रंथ ’एनल्स एंड एटीक्रिटिक आॅफ राजस्थान‘ ने मीरा की परम्परागत आदर्श छवि का निर्माण किया था। चूँकि टाॅड राजपूती शौर्य को महिमामंडित कर रहे थे अतः मीरा की ऐसी छवि उनके अपने इतिहास बोध की माँग थी; हमारे उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से उभरे नवजागरणकालीन साहित्यिक विमर्श को वह अपने कारणों से उपर्युक्त लगी।28 

मीरा: समसामयिक संदर्भों में पुनर्मूल्यांकन की जरूरत 

गजानन माधव मुक्तिबोध ने किसी भी साहित्य के आकलन के तीन आयाम प्रस्तावित किए हैं: एक वह 
किन सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? (उद्भव) दूसरा, किन प्रेरणाओं -भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्त्व संपादित किए हैं ? (अन्तः स्वरूप) और तीसरे किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग दुरुपयोग किया है ? (प्रभाव) तुलसीदास की रचनात्मक ईमानदारी का सम्मान करते हुए भी वे यह चेताते हैं, ’’ध्यान रखना होगा कि साधारण जनता ने राम को अपना त्राणकर्ता भी पाया, गुह और निषाद को अपनी छाती से लगाने वाला भी पाया। एक तरह से जनसाधारण की भक्तिभावना के भीतर समाए हुए समान प्रेम का आग्रह भी पूरा हुआ किंतु वह सामाजिक ऊँच नीच को स्वीकार करके ही। राम के चरित्र द्वारा और तुलसीदास के आदेशों द्वारा सदाचार का रास्ता भी मिला। किंतु वह मार्ग कबीर के और अन्य निर्गुणवादियों के सदाचार का जनवादी रास्ता नहीं था। सचाई और ईमानदारी, प्रेम और सहानुभूति से ज्यादा बड़ा तकाजा था सामाजिक रीतियों का पालन।‘‘29 
क्या ये कहना गलत होगा कि ’सामाजिक रीतियों‘ का यही बोध (पितृसत्तात्मक मूल्यों के संदर्भ में) तुलसी और कबीर दोनों को एक छोर पर खड़ा कर देता है ? मीरा की कविता ’सामाजिक बोध‘ में अन्तर्निहित इसी पितृसत्तात्मकता पर प्रहार है; उसका नवीन मूल्यांकन भक्ति आंदोलन को समग्रता में समझने के लिए भी आवश्यक है और मूलगामी समतामूलक संघर्ष को दिशा देने के लिए भी। 



संदर्भ:
1. मूल अंग्रेजी में शब्द  Inqisition अर्थात् वह प्रतिष्ठान जो रोमन कैथोलिक चर्च ने अपने विश्वासों के विरोधियों को दबाने के लिए नियुक्त किया था। देखें आक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी (1996), आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस।
2. डान ब्राउन (2004), द दा विंची कोड, कोर्गी बुक्स, पृष्ठ 173
3. ऐसा बर्तन जो क्रिश्चियन कम्यून चर्च आदि में वाइन पीने के काम आता है; देखें आक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी, वही
4. वह प्याला जिसमें जीसस ने अपना ’लास्ट सपर‘ लिया था और किम्वदंती के अनुसार उनके ’क्रूसीफिकेशन‘ के बाद उनके अनुयायी ने जिसमें उनका रक्त इकट्ठा किया था। देखें आक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी, वही
5. डान ब्राउन, द दा विंची कोड, कोर्गी बुक्स, पृष्ठ 321-322
6. डा. नामवर सिंह (1994), दूसरी परम्परा की खोज, राजकमल प्रकाशन (पे.बै.),पृष्ठ79
7. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (1997), हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन (पे.बै.), पृष्ठ 74
8. कंकुम संगारी (1990), मीराबाई एंड द स्पिरिचुअल इकाॅनामी आॅफ भक्ति, इकाॅनामिक एंड पोलिटिकल वीकली, पृष्ठ 50-51
9. सुवीरा जायसवाल (1996), वैष्णव धर्म का उद्भव और विकास, ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ174
10. वही, पृष्ठ 11
11. कंुकुम संगारी, पृष्ठ 50; यहाँ कलिवर्णन दरअसल तात्कालिक काल ही है इसमें तो कोई संदेह नहीं। कलिवर्णन की सबसे ’भयावह‘ कल्पना बेहद मनोरंजक है: स्त्रियाँ पुरुषों से संख्या में ज्यादा हो जाएँगी !
12. देवीशंकर अवस्थी (1997), भक्ति का संदर्भ, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 79
13. इसकी परिणति महाभारत और श्रीमद्भागवद् गीता में देखने को मिलती है।
14. देवीशंकर अवस्थी, वही, पृष्ठ 94
15. जीवगोस्वामी ने सम्पूर्ण ’लीला‘ को आध्यात्मिक स्तर पर लेने की रिफारिश की है। उन्होंने पद्मपुराणादि के आधार पर स्थापना दी है कि ज्ञानियों, मुनियों, श्रुतियों ने इस लीला में भाग लेने की इच्छा व्यक्त की थी और उन्होंने ही गोपियों के रूप में अवतार लिया था। इस प्रकार ’लीला वर्णन‘ मर्यादा उल्लंघन नहीं था। देखें देवी शंकर अवस्थी, पृष्ठ 95 व हजारी प्रसाद द्विवेदी (1989), सूर साहित्य, राजकमलप्रकाशन, पृष्ठ 32
16. डाॅ. विश्वनाथ त्रिपाठी (1989), मीरा का काव्य, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 53,
17. आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1940), हिंदी साहित्य का इतिहास, इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ 223
18. विश्वनाथ त्रिपाठी, वही पृष्ठ 56
19. प्रियदास, उद्धृत, परिता मुक्ता, (1997), द कम्युनिटी आफ मीराबाई, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 22
20. आचार्य विद्यानिवास मिश्र, भूमिका, विश्वनाथ त्रिपाठी, वही
21. द्विवेदी, वही पृष्ठ 37-38
22. त्रिपाठी, वही पृष्ठ 39
23. आचार्य रामचंद्र शुक्ल (2004), गोस्वामी तुलसीदास, प्रकाशन संस्थान, पृष्ठ 47
24. डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल (1995), संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ 115
25. पार्थ चटर्जी (1995), नेशन एंड इट्सफ्रेगमेंट्स, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, अध्याय, ’हूज इमैजिंड कम्यूनिटी‘
26. चारु गुप्ता (2002), रिश्ता चोली दामन का: औपनिवेशिक भारत में महिलाएँ और हिंदू साम्प्रदायिकता, आलोचना, अंक 10-11
27. परिता मुक्ता, वही, पृष्ठ 174
28. इस संदर्भ में गाँधी द्वारा मीरा के समावेशीकरण का परिता मुक्ता ने विस्तार से उल्लेख किया है। गाँधी ने मीरा को ’सत्याग्रही‘ घोषित करते हुए उनके पदों का अपनी प्रार्थना सभाओं में प्रभावशाली इस्तेमाल किया, लेकिन पारिवारिक संरचना में गाँधी मीरा की दृष्टि के उलट पितृसत्तात्मक संरचना को ही प्रश्रय दे रहे थे। यह पार्थ चटर्जी की स्थापना को ही पुष्ट करता है। देखें अध्याय ’ए नेशन क्लीव्ड: द साँग बिट्रायड‘
29. गजानन माधव मुक्तिबोध (1998), मुक्तिबोध रचनावली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 294
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हिमांशु पंड्या

जसम से जुड़े हिमांशु इन दिनों डूंगरपुर में पढ़ाते हैं. कालेज के दिनों से ही प्रतिबद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता. अपने गंभीर और विश्लेषणात्मक लेखन के लिए जाने जाने वाले हिमांशु की कुछ अन्य रचनाएँ आप असुविधा पर यहाँ पढ़ सकते हैं.

टिप्पणियाँ

GIRIJESH TIWARI ने कहा…
पुरुषप्रधान समाजव्यवस्था के साहित्य में प्रभावी दखल देने वाली मीरा बाई के बारे में इस निबन्ध से एक नयी दृष्टि मिलती है.
GIRIJESH TIWARI ने कहा…
पुरुषप्रधान समाजव्यवस्था के साहित्य में प्रभावी दखल देने वाली मीरा बाई के बारे में इस निबन्ध से एक नयी दृष्टि मिलती है.
Unknown ने कहा…
हिमांशु ने बहुत-सी महत्‍वपूर्ण बातों को सही रूप में रेखांकित किया है, ख़ास तौर पर हिंदी आलोचना की मीरा को लेकर चुनी हुई, सामंती, मर्दवादी और अंतत: हिंदूवादी दृष्टि... जो कभी भी मीरा को समग्रता में समझने नहीं देती और खुले पाठ से कतराती हुई मध्‍यमार्ग अपनाती है। फिर भी मीरा की कविता में ही ऐसे प्रमाण हैं जिनके आधार पर उस बहुप्रचारित छवि को धक्‍का लगता है। सामंतवाद मीरा को नष्‍ट नहीं कर सका, लेकिन मीरा की वास्‍तविक छवि और वैचारिक पहचान को दबाने-छुपाने के काम में वह इस कदर सफल हुआ कि शताब्दियों के कालप्रवाह में भी मीरा-काव्‍य को उसके वास्‍तविक अर्थों में नहीं समझा जा सका। हिमांशु को बधाई इस विचारोत्‍तेजक लेख के लिए, लेकिन लगता है कि बहुत कुछ है जो वे भी इस परंपरा में छिपा ले गए हैं।
Santosh ने कहा…
संछिप्त परन्तु शोधपरक लेख लिखा है हिमांशु भाई ! खासकर "कामिनी स्त्री का भय " का अंश तो बहुत उद्वेलित करता है ! फिर आपने अंत में जैसा कहा कि समसामयिक सन्दर्भ में मीरा का पुनर्मूल्यांकन जरुरी है तो आशा करता हूँ इसे विस्तार आप देंगे ही देंगे ! बहुत बहुत आभार आपका !
kailash ने कहा…
मीरा और उस समय के साम्जिक जी
वन कि पडताल करता हुआ लेख जो मीरा का पुनर्मूल्यांकन करता हुआ ,स्त्री के योनी पर अधिकार के बहाने समूची सामजिक व्यवस्था की विकृति को सामने रखता है .तर्क मय तथ्य के रखते हुए सहमत कराता है .
मोहन श्रोत्रिय ने कहा…
लेख अच्छा है. मेहनत भी दिखती है, और दृष्टि भी. तुम्हारे पास जगमग भाषा है, बधाई. मीरा के विद्रोहिणी-रूप को, उनके पदों से पंक्तियां चुनकर पुष्ट करने की भी ज़रूरत है. दसेक साल पहले ईपीडब्ल्यू में दो या तीन लेख आए थे जिनमें इस काम को आगे बढ़ाने के सूत्र भी दिए गए थे. मैंने यह संकेत पहले कभी भी किया था जब तुमने मीरा पर एक नोट/लेख साझा किया था.
मृत्युंजय ने कहा…
बढ़िया लेख, मीरा को समझने की निगाह देता हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि राजस्थानी/हिन्दी की इस कवियत्री पर जितना अंग्रेजी में काम हुआ है, उतना हिन्दी में नहीं। आपका यह लेख इस कमी को पूरा करने की दिशा में कदम है, खुशामदीद। यौनिकता के सवाल को बेहद बहुत बेहतर ढंग से उठाया गया है, क्या ही अच्छा होता कि मीरा की पुरखिन कवि अक्कामहादेवी के भी संदर्भ से कुछ बातें होती। शुक्रिया...
किसी भी लेख को इतनी ही ईमानदारी और इतनी ही लगन से लिखा जाना चाहिए | यह अकादमिक लोगों के काम भी आ सकता है , और एक सामान्य पाठक के भी | बधाई आपको मित्र |
Unknown ने कहा…
मुझे ताज्जुब है कि यह लेख मैंने अभी तक पढ़ा क्यों नहीं
आज मीरां पर कुछ खोजते हुए यह मिल गया
Unknown ने कहा…
आपके निबंध ने मेरा मार्ग दर्शन किया है
धन्यवाद जी सर
मीरा बाई के काव्य में स्त्री भाषा सम्बन्धी सामग्री मूझे कहा से मिलेगी
कृपया बताएं

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