मृत्युंजय की नई कविता - निजलीला

 मृत्युंजय हमारी पीढ़ी के एक अलहदा प्रकृति के कवि हैं. अलहदा शिल्प में भी और अपनी प्रतिबद्धता में भी. जिन दिनों लोक वगैरह को लेकर अक्सर अर्थहीन बहसें हवा में हैं मृत्युंजय लगभग अकेले लोक लय को साधने की अपनी दुष्कर कोशिश के साथ हमारे बीच उपस्थित हैं, वह भी किसी अलग ब्रांडिंग की आकांक्षा से मुक्त. अक्सर सीधे व्यवस्था से टकराने की मुद्रा में रहे कवि की यह नई कविता पढ़ते हुए आप उसके आत्मसंघर्ष की परतें देख पायेंगे. यहाँ वह आत्मधिक्कार जैसा है जो इस अमानवीय और रोज़ अधिक संहारक होती जा रही व्यवस्था के सीधे प्रतिरोध की जगह उसके हिस्से के रूप में परिणत होते जाने के अभिशाप से उपजती तो हम सब में है लेकिन अक्सर इसे मुद्रा और शब्दों के जादू के ज़रिये छिपा लिया जाता है.



निजलीला

सीरिया के पेंटर मुनीर अल शारानी की पेंटिंग इंटरनेट से साभार 

[क]
भोर के भयानक सपने में कैद हैं दुख की गाथाएँ, कारण-निवारण पुतलियों को जकड़े कीचड़ का ब्रह्मपाश सर दर्द से और दिल गर्द से पटा जा रहा है
[ख]
ज्ञान-गुदरी गोबरैली अमलगम सत्य-सत्ता जोड़ता हूँ और भत्ता जोड़ता हूँ
[ग]
कारपोरेटी समाजी जिम्मेवारी के नृत्यांगन में वर्दीली आत्मा चमकती चौंधियाती काव्य द्युति में ‘सार्वजनिक-निजी साझा’ काव्यभाषा जब कहती है प्रेम उसका मतलब निजी के पक्ष में खास तरह की हत्या होता है
[घ]
रंगसाजों की उबलती कढाई से बने श्रम से रंगा मैंने नीचताओं का पटंबर चमचमाता उन लोगों से दूर कहीं मैंने खोली है वह दुकान प्रतिबद्धता वगैरह जहां बिका करते हैं सस्ते-मद्दे
[ङ]
मध्यवर्ग की चकमक-चकमक दलदल में प्रमुदित मन छप-छप-छप करता ज्ञानी-विज्ञानी सर्वज्ञालोचक, मैं टेढ़ा-ऐंठा जाता हूँ मन रंजन करने जनसंहारों, विभीषिका के गाँव दिल की आँखों में कोंच सनसनी की अंगुलियाँ रो लेता खुश हो लेता अंडे सेता हूँ चुभलाता हूँ अपने सड़ियल संवेदन का हाड़
[च]
फिर बैठे-बैठे प्रमुदित मन नौकरी किए जाता हूँ फिर उसी नौकरी की टुच्ची महदाकांक्षा का सुआ बेधता जन संघर्षों के हिरदय में आखिर राजा के चरणों में प्रणति प्राप्त करता हूँ वहीं से सुविधाओं की नदी निकलती है
[छ]
फिर बहस अभागी जिह्वाग्रों पर बंधक, हम मध्यवर्ग के मध्यवर्ग को मध्यवर्ग के द्वारा मध्यम मार्ग बताते गरियाते समझाते दुलराते आते लाते भर-भर संतुष्टि घरों में रोज रात सोने से पहले खुश यह पराक्रमी कर्कट गाथा घर की आदिम गुलाम के कानों में भरता हूँ
[ज]
इतिहास की घायल जुबानों की कथा कह संक्षेप में अपनी व्यथा को बरतरी देता नम्रता की खाल ओढ़े बाघ सा चुपचाप पीछा कर रहा हूँ अकादमियों-संस्थाओं-पुरस्कारों का झपट्टे का समय निश्चित
[झ]
हजारों ख़्वाहिशों में बजबजाता मन उफनता हृदय की नालियों में बाढ़ वर्जनाएं एक दूजे से गले लग भर रहीं मस्तिष्क सत्ता के अनोखे चतुर चारण का निजी आदर्श चमका दूर तक
[ञ]
पोथियां पढ़ ज्ञान बकता आत्म के परितोष में डूबा हुआ बंजर भाव-धरती चाल बिच्छू सी हरबा उठाए अपने से कमजोरों पर उसी सत्ता से प्रेम युद्ध उसी से उसके सब गुण वांछित लांछित उससे सत्ता को एकाग्र समर्पित यह सब वह सब सब कुछ सब कुछ
[ट]
सांझ होने को हुई है एकता में भी दुई है

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मृत्युंजय समकालीन हिन्दी कविता के सबसे प्रखर प्रतिबद्ध स्वरों में से हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े मृत्युंजय छात्र जीवन से ही रेडिकल वाम की राजनीति से जुड़े हैं और इन दिनों भुवनेश्वर में पढ़ा रहे हैं। उनकी कविताएँ आप पहले भी असुविधा पर पढ़ चुके हैं ,

टिप्पणियाँ

रीतेश मिश्र ने कहा…
मृत्युंजय को पढ़ने का अपना सुख है। कविता आत्मचिंतन करती है जैसे भूख !
कृष्ण कल्पित ने कहा…
कविता तो खुली नहीं, लेकिन मृत्युंजय मेरा प्रिय कवि है ! उसने जो भी लिखा होगा , दरवाज़े पर सिर पीट रहा हूँ
Anupam ने कहा…
गंभीर, दिल तक उतर जाने वाली कवितायेँ जो आगे बिना पढ़े नहीं जाने देतीं !

अनुपमा तिवाड़ी
बेनामी ने कहा…
गंभीर, रोक लेती हैं,एसी कवितायें आगे जाने नहीं जाने देतीं बिना पढ़े !

अनुपमा तिवाड़ी
कृष्ण प्रताप सिंह ने कहा…
कमाल है भाई। कविता ऐसे भी होती है / ऐसी ही होती है
हमारे समय का सच ...| अपने भीतर झांकना पीड़ादायक तो होता है , लेकिन आवश्यक भी | तो शुक्रिया मित्र इस कविता के लिए
santosh chaturvedi ने कहा…
अपना इतना गहन आत्मावलोकन मृत्युंजय जैसा युवा कवि ही कर सकता है. युवा कवियों में मेरा प्रिय कवि जिसमें अपार संभावनाएं हैं. बधाई मृत्युंजय को और आभार अशोक भाई का.
Digamber ने कहा…
यह कविता-कोलाज अभ्यन्तर और बाह्य जगत के रेसे-रेसे को खोलती खुद पर और दूसरों पर भी तल्ख़ और मारक कटाक्ष करता है, आत्मधिक्कार नहीं, आत्मकातर भी नहीं, बाहर-भीतर निहारती बतकही है. ऐसी कविताओं का न खुलना ही निरापद है, इनका खुलना उस बक्से का सीधे चेहरे के आगे खुलना है, जिसके नीचे से एक स्प्रिंग लगा घूंसा तेज़ी से बाहर आता है. शुक्रिया लिखने-पढाने के लिए.
Digamber ने कहा…
इस ज़टिल प्रक्रिया में मेरी कितनी ही टिप्पणियाँ गायब हो गयीं....उफ़
सुशील ने कहा…
मुक्तिबोध और गोरख पाण्डे को एक साथ पढ़ लेता हूँ आपकी भाषा में ... अलहदा ... सच में यही शब्द
सुशील ने कहा…
मुक्तिबोध और गोरख पाण्डे को एक साथ पढ़ लेता हूँ आपकी भाषा में ... अलहदा ... सच में यही शब्द
हमारे समय के सच को अपनी अलग तरह की ही भाषा में बयान करतीं विलक्षण कविताएँ । बधाई ।
हमारे समय के सच को अपनी अलग ही भाषा में बयान करती विलक्षण कविताएँ । बधाई ।
आनंद ने कहा…
सुन्दर कवितायेँ हैं स्व के बहाने प्रवत्तियों पर चोट करती हुई !
अरे, भई, मृत्युंजय, ग़ज़ब कविता लिख दिए हो. क्या तो भाषा का जलाल है, सच में कमाल है. कैसा जीवंत चित्र खींच दिए हो, अपने समकाल का, अपने इर्द-गिर्द का. सहेजकर रख लेने लायक़ है यह कविता. मेरी ढेर सारी मुबारकबाद लो, दिल से. समृद्ध हुआ हूं इसे पढ़कर.
Dr. Paritosh ने कहा…
ऐसा शि‍ल्‍प और ऐसा कथ्‍य सच कहूं तो पहली बार पढ़ा। ये कवि‍तायें प्रतीक हैं कि‍ अब भी बहुत कुछ कहा जाना शेष है। कवि‍ता से अकवि‍ता तक के दौर में ऐसा कई बार लगा कि‍ अब दुहराव बहुत हो रहा है, कथ्‍य के स्‍तर के साथ - साथ शि‍ल्‍प के स्‍तर पर। पर इन कवि‍ताओं नें सोचने को वि‍वश कि‍या कि‍ अब भी बहुत कुछ नया सामने आ सकता है। देखने में छोटे लगे, घाव करें गंभीर.....को चरि‍तार्थ करने वाली कवि‍ता.............धन्‍यवाद अशोक
विजय गौड़ ने कहा…
Sundar kavitain he. Ham jahan nhi hona chahte, jeevan jine ki vivashta hame wahan dhakelti rahti he. Madhywargiye dwchitappan kese hamare bheetr m.anushyta ke Josh kharosh ko dhire dhire chinta rahta he Mritunjay us anubhaw me kareeb se guitar rahe he . Rachnatmk imandari yahi he ki lagatar apne bheetr she hi moothbhed ki jaye. Jesa is kavi me yahN Sikh raha he . Khud ko mayavi bahaw sebacha lene me ESE. Bhi madad milti he.
अरुण अवध ने कहा…
सशक्त और प्रभावशाली कवितायेँ ...ऎसी कवितायेँ कुनैन की कड़वी दवा की तरह हैं जो आत्म-परिष्कार के लिए बहुत जरूरी होती हैं |
मृत्युंजय ओ हार्दिक शुभकामनाएँ और ब्लागस्वामी अशोक का आभार |
kshama ने कहा…
प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण…. अद्भुत मारक क्षमता और ताज़ा स्वर
बार-बार पढने को बाध्य करती कवितायेँ
kshama ने कहा…
प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण…. अद्भुत मारक क्षमता और ताज़ा स्वर
बार-बार पढने को बाध्य करती कवितायेँ
Amit sharma upmanyu ने कहा…
वाह! बहुत बढ़िया!
parmanand shastri ने कहा…
मृत्युंजय की कविता 'निजलीला 'वास्तव में कविता लेखन में लीला (वैसे मैं किसी लीला में यकीं नहीं करता )है .समय के निष्ठुर यथार्थ के रूबरू करवाती कविता !
प्रदीप कांत ने कहा…
गम्भीर और आत्मचिंतन की माँग करती कविताएँ
ईमानदार प्रतिबद्धता...एक साथ कई मोर्चे खोलती/अँधेरे और कीच में छटपटाती अगुंलियां/ सच और रोशनी को टटोलने की विकल कोशिश
ईमानदार प्रतिबद्धता...एक साथ कई मोर्चे खोलती/अँधेरे और कीच में छटपटाती अगुंलियां/ सच और रोशनी को टटोलने की विकल कोशिश

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