हम इतना मीठा बोलने लगते थे की मीठे को आने लगती थी शर्म- महाभूत चन्दन राय

महाभूत चन्दन राय हिंदी के एकदम युवतर कवियों में से हैं. अभी उनकी कविताएँ मैंने इंटरनेट पर ही पढ़ी हैं. जिस तरह उन्होंने लगातार लम्बी कविताएँ लिखी हैं और आश्चर्यजनक रूप से अपने आरम्भिक दौर में ही लम्बी कविता में बिखराव के ख़तरे से पूरी जिम्मेदारी से जूझते हुए कविता के तनाव को बिखरने या विगलित होने नहीं दिया है वह उम्मीद जगाता है. एक और गौर करने लायक चीज़ यह कि चन्दन भाषा या शिल्प के अतिरिक्त प्रयोग से बचते हुए भी लगातार जिस तरह बिम्ब विधान करते चले जाते हैं और साथ में भाषा को भी साधे रहते हैं वह उनकी तैयारी की ओर इशारा करता है, जो मेरी निगाह में इन दिनों कविता को तुरत फुरत हजम कर लिए जाने योग्य फ़ास्ट फ़ूड में तब्दील कर दिए जाने की कुछ महत्त्वाकांक्षी कोशिशों का रचनात्मक प्रतिउत्तर है. जब मैंने इस ब्लॉग का नाम 'असुविधा' रखा था तो बहुत सारे लोगों ने सवाल किए थे, अब भी गाहे ब गाहे पूछ लिया जाता है, लेकिन चन्दन की यह लम्बी कविता इस नाम के पीछे की सोच को मूर्त करती हुई सामने आई है. जिस दौर में समाज, राजनीति और यहाँ तक कि साहित्य में भी सुविधाजनक रास्तों से बड़े मुकाम की शांत यात्रा को बेहतर साबित किया जा रहा है, जिस दौर में कवियों को 'पचड़े' में पड़े बिना चुपचाप लेखन को एक व्यक्तिगत परियोजना के तहत किये जाने की सलाह दी जा रही है, चन्दन की यह कविता अपनी पूरी तुर्शी और एक युवा प्रतिकार के साथ असुविधाओं का आलिंगन करती हुई अपने पैरों पर खड़ी ही नहीं होती अपितु एक लम्बी और दुर्घर्ष यात्रा के लिए संकल्पबद्ध होती है. असुविधा पर इस युवा कवि का एहतराम करते हुए मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि कविता के घर में 'एक और हथौड़े वाला' दाख़िल हो चुका है.   






असुविधाएँ

हमारे हिस्से आयी कितनी ही अनाम असुविधाएँ हैं खतरनाक
हम बाथरूम में लोटे से मारी छींटों में बहा देते हैं जिनका होना
घुन की तरह धीरे-धीरे खोखला कर रही हैं जो हमें !
एक खतरनाक रोग की महामारी कि तरह
दाखिल हैं असुविधाएँ हमारे समाज के भीतर
पर हम सुकून भरी चादरें तान कर सो जाते हैं
हमारी समाजिक उत्तरदायित्वता बेशर्मियों से भरी
गुप्तवास में दुबक गईं हैं
हमारी संवेदनशीलता ने निष्ठुरताओं की
आत्म-मृत्यु का अंगीकार कर लिया है !
  
कमजर्फियां हमारी अभिशप्त पाकीजगी का भूषाचार हो चुकी हैं
हम अपनी मुर्दा पक्षधरता के साथ पक्षहीन जिन्दा है
भयातुर अनिर्णयों लाभ हानि नफा नुक्सान के घटा जोड़
के बीच हम करते आये है अपने गूंगे होने का अभिनय
हम अपने शर्मिंदा होने के जिन चुल्लू भर कुंडों में
डूब कर मर सकते थे
वहीँ हमारी अंतरात्माएं जाहिलों की तरह बेतकलीफ
मनुष्यता की घिनौनी बदहाली में पूरी सहजता के साथ जिन्दा थी
पर-पीडायें हमारी वियोग रिक्त छातियों को अब सालती नहीं है
मसलन ये की हत्या कमतर हत्या लगती है
खून कमतर खून लगता  हैं
आंसू कमतर आंसू

हमारे सामने हाशिये पर रखी मानुस-खोर चुनौतियां थी
तीसरे दर्जें की विक्षिप्तताएँ खुलेआम दिन दहाड़े
शहर के बीचो बीच कर रही थी नरसंहार
मगर हम हर हत्याकांड पर शांति के बहरूपिये शहंशाह बने
अपनी कृत्रिम सहानभूतियों के गुलाब चढ़ा कर खुश थे
इस जंगल होते शहर में जंगली हो चुकी
हमारी दुश्चिंताओं को बुद्ध हो जाने का लकवा मार चुका था
निष्क्रिय विषादों और उभय लिंगी प्रतिरोधों के साथ
हम कायरों की तरह साफ़ करते रहे थे उन्ही हत्यारों की जूतियाँ
हम इस महाविनाश के खिलाफ खड़े शिव हो सकते थे
मगर हमने अपने तेवरों का खुद ही बधिया करण कर लिया था
हम विद्रोह के विक्षोभ में डूबे सिकंदर हो सकते थे मगर अफ़सोस नहीं थे 


याद आता है वो सच्चा ईमानदार आम आदमी
सरेआम जिसकी पीठ में दागी गयी थी गोलियाँ
वो जिसका माथा सच्चाई की आदत में सनक गया था
जिसने कर दिया था इनकार
भेड़ियों की सल्तनत की जी हुजूरी करने से
आख़िरकार झूठे दरिंदों ने उसे शहर की अमन-शांति के खिलाफ
एक खतरनाक पागल साबित कर दिया था
उस पर बागी होने का आरोप था
जो निरंकुश तानाशाहों के तलवे चाटना नहीं जानता था
और वो ले गए उसे काले ताबूत में बंद कर के  
जिसकी भाषा दिलों में बगावत की चिंगारियां भड़काती थी
हमने खूब समझाया था उसे
कि ईमानदारी एक फ़िल्मी चीज है
तुम क्यों भगत सिंह बने परिवर्तन का झंडा लिए फिरते हो
दी थी उसे उसके मासूम बच्चों की भी दुहाईयाँ
मुझे याद है अब भी उसका
सुर्ख केसरिया तिरंगाई रंग में भीजा रक्त से लथ-पथ चेहरा
मुस्करा कर जिसने कहा था
यार ! असुविधा के लिए अ-खेद है

-व्यवस्था जस की तस जन रही हैं असुविधाएं   
हम सबसे बड़े लोकतंत्र के उस हिटलर युग  में  हैं
जहाँ हर लाश हर बलात्कार की विभत्सता
नो बाई नो के शूटिंग स्टूडियों की रंगारंग कार्यक्रम में खुबसूरत बना दी जाती है
हादसों या दुर्घटनाओं से उर्वरित अनाम असुविधाएं  
अपने सन्दर्भ सूचनाओं की इतनी अर्थवत्ता रखती थी की
की हम गर्दभियत से भरी परिचर्चा के पोस्टमार्टम में अपने हाथों में
अपनी बौद्धिक बकलौलियत की छुरा आरी गंडासा लिए
करते थे उन दुर्दांत असुविधाओं की बोटियाँ
और  इस तरह प्रायोजित दुःख समारोह और पैड वैचारिक विमर्शों के प्रतिभागी
हम अपने भीतर छुपे माँस के व्यापारीपर चढ़ा लेते थे
अपने समाज-सेवक होने का मुलम्मा
हमारा विज्ञयापनिक समाजिक सराकोर महज एक नाटकीय चिन्तन था
प्रधानगिरी पार्षद या विधायकी का चुनाव जीत सक लेने का शगूफा
इस तरह हर बार इस्त्री किये कोर्ट के बटन में ख़रीदा गुलाब लगाकर
हम खुद को सिद्ध  कर लेते थे एक अघोषित लोकनायक !

हम इतना मीठा बोलने लगते थे की मीठे को आने लगती थी शर्म
जबकि शहर इतना जल चुका था की हम की बो लेते एक नीम अपनी छाती में
या की जला सकते थे अपने बदन के ठन्डे पड़ चुके गोयठे
क्रूरता से भरे इन काले सूर्यास्तों में हमारा कोयला हो जाना  
आखिर कुछ तो उजाला करता  इन भयानक अमानुष अमावसों में
अब नहीं खौलता हमारा खून देखकर कोई भी जलियाँवाला बाग़
चिर परिचित हमारा विलाप हमारी ट्रेडमार्क बुतपरस्ती है
हम चंद हस्ताक्षर अभियानों और मोमबत्तियां मार्च करते हुए
छूट जाते हैं दुःख के हर भयानक प्रतिघात से  
हम मनुष्यता के खून की बनी नदियों में
अपनी अवसरवादी डुबकियाँ लगाते रहे
और हमारे खून सने हाथ हाथ धोते रहे हर जिम्मेदारी से

हम पिछलग्गुओं की तरह दुबक जाते है हर गीदड़ चाल में  
जबकि जरुरत थी भीड़ से अलग हमारे पुरजोर चीखने की
क्योंकि चीखना भी एक विद्रोह है 
मगर हम कीड़ों तरह रेंकते रहे
अपनी परिभाषित की समाजिक सुविधाओं की नालियों में
जबकि हमारा आदमी होना देश की पहली जरूरतों  में था !
और आदमी होना इतना ही था की
हम सच को सच कह पाते 
और झूठ को झूठ
अपनी एक आजाद विचारधारा के साथ अमूल्य बने रहना
आदर्शों की बिकवाली से बने तम्बुओं और झंडे से अलग खड़े दिखना !

हम अपने हाथों में व्यक्ति-पूजन की  चिमटा सारंगी लिए
निकल पड़ते हैं पार्टी-पूजक रैलियों और जुलूसों के राजनैतिक रंगशालाओं में
हम राजनैतिक झंडों और बैनर लिए भजते हैं अपने ईष्ट-देवों की व्यक्तिवादिता
दासता की आदि हो चुकी हमारी  बे-जमीर चेतनाओं को
हो चुका है आनहर श्रद्धेय का कुष्ठ-रोग
हममें शेष नहीं है हमारा अपना कुछ भी न विचारधारा न प्रतिरोध
यहाँ तक कि हमारी आवाज का भी हमने कर लिया पार्टी-करण
हम थाली के बैंगनों की तरह बँटे रहे अलग-अलग खेमों  में
हम अपनी छातियों में उनके नाम की क्रेता गुदवाए
और माथे पे चाक किये उन के प्रति हमारी कठमुल्ला प्रतिबद्धता
पालतू कुत्तों कि तरह भौंकते रहे
उनकी सामंती महानता की अनुनायिक भाषा
हमने तोतों की तरह उनके पास गिरवी रख दी अपनी जबान भी !

हम चाश्नियों में भिगोते हैं कुछ शब्द
और डिब्बाबंद प्रोडक्ट की तरह चमकीले रैपरों में
बैकते है हमारी राष्ट्रीयता
हम बरसाती मेढकों की तरह चीखते है इन्कलाब
और बुजदिली के आरामगाह कुओं में लौट  जाते  हैं
हम मशीनों की तरह दुःख व्यक्त करते हैं
और साँपों की तरह प्रकट करते हैं अपनी सुविधाई निंदा
दांत चियार देना हर सवाल पर निकम्मे नेवलों की तरह
गोया बेशर्मी नहीं हुई हमारे होंठों की लाली हो गयी

हमारी अंधी आस्थाओं ने ही चोर-उचक्कों की जमात
को अवसर दिया किया की वो हमारे माथे पर
मूते अपनी मुनाफे की नीतियां
हमारे कन्धों पर बैठे हमे गुलामों कि तरह हांके
जबकि कोई भी परम-उपदेश अंतिम नहीं
अकाट्य नहीं उनका कोई भी स्व-घोषित त्रिकाल सच
हमारी अंतर्दृष्टियां तौल सकती थी उनकी महात्मयता
मगर स्वगत गर्त में डूबती हमारी महत्वकांक्षाओं ने
हमारी कर्त्तव्यपरायणता का समूल नाश कर दिया !
स्वार्थ भय और लोभ कि गदहापचीसी के विदूषक हम
अपनी अस्तित्व-ह्त्या के आत्म-हत्यारे है
हमारे   होने  की दुखद  त्रासदी
एक हास्यास्पद सच  कि हम जिन्दा  हैं 

बहरहाल दूरदर्शन पर प्रसारित होते दृश्यों कि क्षणांतर अदला बदली में
जैसे हमारी आवेगित उत्तेजनाएं विचार-बोध से छूट जाती हैं
ठीक इसी तरह कि विषाद-हीनता कि अभ्यासरत हो चुकी हैं हमारी जीवन शैलियाँ
ह्रदय विदारक सूचनाओं और धारवाहिकों के सनसनीखेजनामें के व्यवसायिक दृश्यांतरों में
हमारी भावुकता में भी घुस चुकी है निष्ठुरताओं की व्यवसायिकता
हमारे अंतरात्मा में असभ्यता और सभ्यता कुछ यूँ घुलमिल  गयी हैं कि
यूँ घुल मिल मिल घुल मिल मिल घुल घुल मिल
माफ़ कीजिय ये  एक  किस्म  कि असुविधा थी आपको जांचने के लिए
असुविधा के लिए खेद है मगर
देखिये आप भी उब कर झल्ला उठे न
चल  दिए  थे न अपना पल्ला झाड़  के
ख़ैर कविता आगे भी आपके मनोरंजन के लिए……

मसलन असुविधाएं आपकी मक्कारियों का हाट बाजार हो सकती है !
चाट बाजार भी
आप  अपनी छद्म दुश्चिंताओं की सार्वजानिक प्रदर्शनियों से
कुछ मुर्गे चुर्गे गुर्गे फांस सक सकते हैं
किसी मुफलिस का बहता खून आपकी कविता  को पुरस्कार दिला सकता है
दंगे की अधजली निर्वस्त्र लाशें बलत्कृत बच्चियों का मनस्विद दर्शन
आपके लिए औपन्यासिक प्रेरणा सकता है
अर्थात आप तीसरे दर्जे  के कहानीकार से सीधे प्रथम पंगत में
बैठ सकने वाले उत्तराधिकारी  हो सकते  हैं
असुविधाएं इतनी ही हानिकारक और लाभप्रद हैं
कि शोक नहीं शौक हैं
हमारी चित्त वृतियों में इतने  ही प्रतिक्रियाशील कि
आप जनवादी लोकधर्मी जननायक एक्टिविस्ट होने के
कुलीन शीर्षकों के नामंकन के ठेके उठा सकते हैं
ठेके से याद आया क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ
इंग्लिश का सबसे सस्ता पव्वा कितने का है
असुविधा के लिए अ-खेद है !


ख़ैर इससे पहले की आप मुझ पर भाषा-विद्रोह के पारम्परिक काव्य-मानों
की पदबंध सीमा तोड़ने का मुकद्म्मा ठोंक दें
कविता में यह दोष लिखने के अपराध
कि छूट के साथ मैं यहीं लिखते हुए पटाक्षेप करता हूँ
या  तो आपत्तियां खर्च कीजिये
आवाज भी
हाथों में उतारिये अवहेलनाओं की भंगिमा
नहीं तो कीजिये गाल आगे
और उठाईये तमाचे का लाभ
मैं लिखता रहूँगा यूँ ही
असुविधाजनक असुविधाएं

क्रमश 
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२५ नवम्बर १९८१ को बिहार के वैशाली जिले के बैकुंठपुर ग्राम में जन्में महाभूत पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर हैं और इन दिनों फरीदाबाद में रहते हैं. उनसे rai_chandan_81@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है  



टिप्पणियाँ

Onkar ने कहा…
अंतिम पंक्तियाँ बहुत प्रभावी हैं
nilayupadhayay@gmail.com ने कहा…
bahut achchhi kavita hai, vistar se baad me likhunga
कुछ नेट पत्रिकाओं में इन्हें पढ़ चुका हूँ ...|इस युवा स्वर से काफी उम्मीद है | सार्थक दृष्टि वाली अच्छी कविता | बधाई |
खूब दम है, महाभूत की इस कविता में. अपने समय को ढंग से पकड़ने की अपार क्षमता दिखती है यहां. भरपूर उम्मीद इस युवा कवि से !
महाभूत ने कहा…
अशोक भाई जी ... मुझे अपनी कविता पर हमेशा उस कवितात्मक समीक्षा की प्रतीक्षा थी । जो मेरे तय किये जा रहे कविता-पथ की दिशा का भान देती…
जीवन में ऐसे भी क्षण आये,जब मेरा विश्वास भरपूर डोला...पर कविता के "एक हथोड़े वाले" से ||हथोड़े वाले || की संज्ञा पा लेना …मुझे यह भान कराता है की मेरे चुने रास्ते के और भी साथी है ! इसी बात के साथ आपका धन्यवाद करते हुए ये वादा है
इस हथोड़े की आवाज आएगी और भरपूर आएगी …फ़िलहाल के लिए
…ठक…ठक…ठक…ठक…ठक…ठक
महाभूत ने कहा…
सभी सम्मानित साथियों का कोटिश: आभार ! आपने समय-समय पर मुझे आपके शब्दों और भावनाओं से प्रेरित किया है

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