देवयानी भारद्वाज की नई कविताएँ

एक स्त्री का फोन टेप किया जाता है कि एक शक्तिशाली पुरुष उस पर एकाधिकार जमाना चाहता है, एक शक्रिशाली पुरुष अपनी अधीनस्थ से बदतमीजी करने को अपने अधिकार की तरह समझता है और इन सब के बीच देश के महानगरों से कस्बों-गाँवों तक सत्ता और पितृसत्ता के मद में चूर कितनी ही अपराध कथाएँ. इन सब के बीच मुझे देवयानी की ये कविताएँ एक सकर्मक प्रतिरोध की तरह लगती हैं जो किसी घटना विशेष पर फौरी प्रतिक्रिया की जगह पितृसत्तात्मक समाज के भीतर एक जबरदस्त उथल पुथल की इच्छा से जन्मी हैं. यह आकंठ डूबने के लिए आतुर इच्छा नदी के पुल पर खड़ी स्त्री है जिसने यहाँ तक पहुँचने की राह में आये अवरोधों से संघर्ष किया है और आगे आने वाले अवरोधों से भी सावधान है. उनकी कविताएँ आपने पहले भी असुविधा पर पढ़ीं हैं...इन्हें उसी क्रम में पढ़ा जाना चाहिए.






अपने बेटे से 

1
कल की सी बात है 
जब पहली बार मेरी बांहों ने 
जाना था उस नर्म अहसास को 
जो तुम्‍हारे होने से बनता था 

टुकुर टुकुर ताकती 
वे बडी बडी आंखों 
अब भी धंसी है मेरी स्‍म़ति में 

सल्‍वाडोर डाली के चित्रों में 
नहीं पिघलता समय 
उस तरह 
जिस तरह उस वक्‍त 
समूचा संसार 
मेरे भीतर पिघल रहा था 

व़ह क्षण 
जिस में डूब कर रहा जा सकता था 
उसे तो बीत ही जाना था 
तुम्‍हें तो लांघ ही जाना था एक दिन 
उम्र के सारे पायदानों को कुलांचे मारते हुए 
लांघ ही जाना था मेरी लंबाई को 

कुछ दिन पहले 
मेरे कंधे से कंधा जोड कर देखते और 
मायूस हो जाते थे तुम
मेरे कान के बराबर नाप कर खुद को 
आज मैं सराबोर हूं 
यह देख कर कि 
तुम्‍हारें कांधे पर टिका सकती हूं अपना सर 


2
यह जो तुम सुंदर युवक में तब्‍दील हुए जाते हो 
यह जो तुम्‍हारी नाक के नीचे और गालो पर 
नर्म राएं उगने लगे हैं 
यह जो तुम बलिष्‍ठ दिखने लगे हो 
इतना मुग्‍ध होती हूं मैं तम्‍हें देख कर 
कि मन ही मन उतार लेती हूं तुम्‍हारी नजर 
अक्‍सर ही तुम्‍हारे माथे पर दिठौना लगा देती हूं 


लो 

संस्‍कार विचार 
यह लो  
एक छलनी है तुम्‍हारे पास 

करना 

मैं जो करती हूं 
मुझे वहीं करना था
तुम करना वही 
जो करना है तुम्‍हें 


संज्ञान 

जब आंखे खोलो तो 
पी जाओ सारे दृश्‍य को 
जब बंद करो 
तो सुदूर अंतस में बसी छवियों 
तक जा पहुंचो 

कोई ध्‍वनि न छूटे 
और तुम चुन लो 
अपनी स्‍मृतियों में 
संजोना है जिन्‍हें  

जब छुओ 
ऐसे 
जैसे छुआ न हो 
इससे पहले कुछ भी 
छुओ इस तरह 
चट्टान भी नर्म हो जाए 
महफूज हो तुम्‍होरी हथेली में 

जब छुए जाओ 
बस मूंद लेना आंखें 

हर स्‍वाद के लिए 
तत्‍पर 
हर गंध के लिए आतुर तुम


इच्छा नदी के पुल पर खडी स्त्री

इच्छा नदी का पुल 
किसी भी क्षण भरभरा कर ढह जायेगा 
इस पुल मे दरारें पड गई हैं बहुत 
और नदी का वेग बहुत तेज़ है 

सदियों से इस पुल पर खड़ी वह स्त्री 
कई बार कर चुकी है इरादा कि 
पुल के टूटने से पहले ही लगा दे नदी मे छ्लांग 

नियति के हाथों नहीं 
खुद अपने हाथों लिखना चाहती है वह 
अपनी दास्तान 

इस स्त्री के पैरों में लोहे के जूते हैं
और जिस जगह वह खडी है 
वहाँ की ज़मीन चुम्बक से बनी है 
स्त्री कई बार झुकी है 
इन जूतों के तस्मे खोलने को 
और पुल की जर्जर दशा देख ठहर जाती है 
सोचती है कुछ 

क्या वह किसी की प्रतीक्षा में है 
या उसे तलाश है 
उस नाव की जिसमें बैठ
वह नदी की सैर को निकले 
और लौटे झोली मे भर-भर शंख और सीपियाँ 

नदी किनारे के छिछले पानी में छपछप नहीं करना चाहती वह स्त्री  
वह आकंठ डूबने के बाद भी  
चाहती है लौटना बार बार
उसे प्यारा है जीवन का तमाम कारोबार 

 सूखे गुलमोहर के तले

चौके पर चढ कर चाय पकाती लडकी ने देखा 
उसकी गुडिया का रिबन चाय की भाप में पिघल रहा है
बरतनों को मांजते हुए देखा उसने 
उसकी किताब में लिखी इबारतें घिसती जा रही हैं 
चौक बुहारते हुए अक्‍सर उसके पांवों में 
चुभ जाया करती हैं सपनों की किरचें 

किरचों के चुभने से बहते लहू पर 
गुडिया का रिबन बांध लेती है वह अक्‍सर 
इबारतों को आंगन पर उकेरती और 
पोंछ देती है खुद ही रोज उन्‍हें 
सपनों को कभी जूडे में लपेटना 
और कभी साडी के पल्‍लू में बांध लेना 
साध लिया है उसने 

साइकिल के पैडल मारते हुए 
रोज नाप लेती है इरादों का कोई एक फासला 
बिस्‍तर लगाते हुए लेती है थाह अक्‍सर 
चादर की लंबाई की 
देखती है अपने पैरों का पसार और 
वह समेट कर रखती जाती है चादर को 

सपनों का राजकुमार नहीं है वह जो 
उसके घर के बाहर साइकिल पर चक्‍कर लगाता है 
उसके स्‍वप्‍न में घर के चारों तरफ दरवाजे हैं 
जिनमें धूप की आवाजाही है 
अमलतास के बिछौने पर गुलमोहर झरते हैं वहां 
जागती है वह जून के निर्जन में 
सूखे गुलमोहर के तले 



खाइयाँ और रस्सियाँ

बाजीगर से नज़र भले ही आते हों 
बाजीगरी आती नहीं है हमें 

यह ऐसा लगता है मुझे 
जैसे स्पाइडर मैन की तरह दौड़ लगाते हुए 
पहुँच जाते हैं हम 
ऐसे कगारों पर 
जहाँ दो इमारतों के बीच 
सिर्फ एक डोर बँधी होती है पतली सी 
और हमारे पास नहीं होता हुनर 
स्पाइडर मैन की तरह 
मकड़ी के जाल की रस्सी फेंक 
झूल सकें जिसके सहारे 
और टार्जन की तरह जा पहुँचे दूसरे सिरे पर 

समय हमेशा कम होता है 
और पहुँचना ही होता है उस दूसरी इमारत तक 
न नीचे गिरने का विकल्प होता है 
न पीछे लौटने का 
न साथ लाया कोई सामान ही छोड़ सकते हैं कहीं 
हम सबके पास अपनी-अपनी खाइयाँ हैं लाँघने के लिए 
कोई कम गहरी कोई ज़्यादा 
कोई कम चौड़ी कोई ज़्यादा 
हम सबके पास हैं रस्सियाँ भी 
किसी के पास मजबूत किसी के पास कमज़ोर 
हम सब सधे  कदम चलते हैं 

लड़खड़ाते हैं कभी 
कई बार फिसल जाता है पाँव भी 
हम हाथमुँहदाँत सबका प्रयोग करते हुए 
बनाए रखते हैं खुद को 
रस्सी के ऊपर 
बने रहते हैं बाजीगर 

कुछ लोग हैरान होते हैं जुझारूपन पर
बाजीगर मान लेते हैं हमें 
कुछ और लोग 
जिनकी अपनी खाइयाँ कुछ सँकरी और कुछ कम गहरी हैं 
वे अपनी दुबली रस्सी के सहारे भी जल्दी पार उतर जाते हैं 
या सीख लिए हैं उन्होंने पार उतरने के 
दूसरे तरीके 
वे हँसते हैं हमारी धीमी गति और डगमगाती चाल पर 
अपनी खाई के मुहाने से

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Vakai bahut achhi kavitayein hain...

AjAy Kum@r
बहुत ताजगी भरी और सरल-सहज कविताएं लगीं...तब जबकि जटिल होते समय में कविताओं को भी जटिलता में पढ़ते हुए ऊब होने लगती है।
Unknown ने कहा…
सहज और सुन्दर अभिव्यक्ति
Unknown ने कहा…
क्या बात है ! बिल्कुल सहज़​, मन से उगी हृदय स्पर्शी कविताएं. कोई बोद्धिक व्यायाम नहीं, जटिलता नहीं, झरने की तरह कल कल बहती सी..... बहुत सुन्दर​. बधाइयां.
Unknown ने कहा…
बहुत अच्‍छी कविताएं हैं देवयानी की। मैं निरंतर पढ़ रहा हूं, बहुत तेज़ी से देवयानी की कविताएं अपना असल रूप लेती जा रही हैं। बधाई और शुभकामनाएं।
Umesh ने कहा…
"कुछ और लोग/ जिनकी अपनी खाइयाँ कुछ सँकरी और कुछ कम गहरी हैं/ वे अपनी दुबली रस्सी के सहारे भी जल्दी पार उतर जाते हैं/ या सीख लिए हैं उन्होंने पार उतरने के/ दूसरे तरीके
वे हँसते हैं हमारी धीमी गति और डगमगाती चाल पर/ अपनी खाई के मुहाने से कुछ और लोग
जिनकी अपनी खाइयाँ कुछ सँकरी और कुछ कम गहरी हैं" सरलता से भरी मार्मिक कविताएँ … इनसे गुजरते हुए अच्छा लगा …
वे अपनी दुबली रस्सी के सहारे भी जल्दी पार उतर जाते हैं
या सीख लिए हैं उन्होंने पार उतरने के
दूसरे तरीके
वे हँसते हैं हमारी धीमी गति और डगमगाती चाल पर
अपनी खाई के मुहाने से
sreedevi ने कहा…
देवयानी
बहुत सुंदर ..............शायद हर मा ऐसे ही इतराती होगी अपने बड़े होते बच्चे की बातें सुनकर, मैं अब बड़ा हो गया हूँ, मुझे बच्चा मत बोलो, बेटे की इन बातों से बीते हुए समय पर मुसकुराती हुई माँ के लिए आपकी कविता एक बहुत सुंदर अनुभव है ...............
श्रीदेवी

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