विपिन चौधरी की ताज़ा कविताएँ

विपिन चौधरी समकालीन कविता का प्रमुख स्त्री स्वर हैं. इधर लगातार उन्होंने अपनी कविताओं से न केवल ध्यान खींचा है बल्कि समकाल पर मानीखेज टिप्पणियाँ भी की हैं. उनकी भाषा सघन हुई है और सम्बद्धता स्पष्ट. इन कविताओं को पढ़ते हुए आप उनके सामजिक सरोकारों का ही नहीं कविता की परिपक्वता का पता पा सकते हैं. असुविधा को हमेशा से ही उनका सहयोग मिला है और आगे भी मिलता ही रहेगा.

Sonia Delaunay की पेंटिंग Market at Minho (1915) यहाँ से 



1. जब तुमने  ईश्वर को खारिज़ कर दिया था 
(कवि अंशु मालवीय के लिये) 

एक साथ सर जोड़े बैठ
सैंकड़ों  कोशिकाएं  
अपने अपने कामों का बंटवारा करने में जुटी  थी 

जीवन,
पहली बार हस्ताक्षर करना सीख  इतराने लगा था
सप्त ऋषियों ने आकाश पर धूनी रमा कर एक बड़ी चिलम भरी
और एक ठिकाने के तौर पर 
वनस्पतियों, निशाचरों  ने धरा को चुन लिया

यह सब देख जल-भुन कर ईश्वर ने अपने आप को बराबर- बराबर बांटा और
खलनायको जैसे  सख्त जूतों समेट
मनुष्यों की छाती पर आ चढ़ा  


एक समय को तो ईश्वर इतना शक्तिशाली हो गया
कि लोग उसके काट कर अलग किये गये नाखूनों से भी डरने लगे
लोग ईश्वर को अपने दरवाजे पर चित्रित करने लगे
भीति चित्रों में ईश्वर
सड़क के कोनो पर ईश्वर
रसोईघर घर में ईश्वर
नवविवाहित जोड़ो के बिल्कुल करीब बैठा ईश्वर
राम ईश्वर
काम ईश्वर
धाम ईश्वर
साम दाम दंड ईश्वर
यहाँ तक ही शौचालयों  तक में भी एक अदद ईश्वर
इसी ईश्वरमय समय के  मुहाने पर उकडू बैठ
एक सक्षम कवि ने अपने
दरवाजे पर टाँक दिए
फूलों और  सुंदर वनस्पतियों के रंग- बिरंगे, सुंदर महीन बेल- बूँटे
और  ईश्वर के प्रतीक चिन्हों को कर दिया
सही ही खारिज

कवि की गली का रास्ता भूलने के अलावा अब
ईश्वर के पास कोई दूसरा कोई जतन नहीं  बचा है
(यही तो वह कवि बरसों से चाहता है)  



2 .      यहाँ विफलता नहीं संघर्ष को याद किया जाता है  


           प्रार्थना  के लिए दोनों हाथों  को खाली होना चाहिए
           यह मान्यता उस वक़्त धूल-दूसरित हो गयी थी 
जब तुम  यासर अराफात 
अपने एक हाथ में फूल और
दूसरे  में पिस्तौल लिए 
येरूशेलम में प्रार्थना की इच्छा में उमगे थे 

लुभाता था मुझे 
बचपन में तुम्हारा वो काला- सफ़ेद चैक वाला साफा
वो दरअसल  फिलिस्तीन का नक्शा  निकला 
तब तो यह भी नहीं जानती थी  कि 
दो सीमाओं की लड़ाई 
एक नेता को जन्म देती आयी है     

जितने रूप एक इंसान के हो सकते हैं उससे कहीं अधिक में
तुम  दिखते  यासर अराफात 


रिफूजी कैम्पों में भटकते हुआ
यासर अराफात 
युद्ध पीड़ितों को अपनाता हुआ 
यासर अराफात 
अपने ही देश में सैनानी 
यासर अराफात 
प्रदेशों को अधिकार से बांधता 
यासर अराफात 
सीरिया टुनिशिया के चेक पॉइंट पर खड़ा 
यासर अराफात  
मिश्र से बदूंकों की तस्करी करता 
यासर अराफात 
साल दर साल यात्राओं पर चल निकलता 
यासर  अराफात 
युद्धों, आत्मघाती हमलों, कार और विमान दुर्घटनाओं से साफ़ बच निकलता यासर  अराफात 


ठीक है तुम हमारे देश के नहीं थे पर
तुमसे प्रभावित न होने ही यह वजह नहीं हो सकती 
           और वैसे भी तुम भी जानते यासर अराफात  कि 
            कुछ वजहें कभी  पकड़ में न आ सके तो बेहतर

3.  बाबा आदम का  ज़माना 


दूध उबलते हुए और भी निखर जाता है 
ठीक वैसे ही 
बाबा आदम का  ज़माना आज और भी  धवल रूप में याद आता है 


हम आज भी एक लम्बी सी ठंडी आह के साथ 
बाबा का उस सस्ते ज़माने की बातें  करते हैं 
जिसकी कल्पना मात्र से ही बदन पर सनसनी चढ़ती-उतरती है 


हम तीन सौ रूपये के किलो घी वाले ज़माने से 
सीधे बाबा आदम के ज़माने में जाते और
एक आना में एक सेर  देसी घी की बात करते न अघाते 

बाबा तुम्हारे उस खरे - खांटी -पारदर्शी- सरल ज़माने में नज़दीक खुदा  
कपास का एक सूत भी नहीं चाहता था 
पर तुम्हें तो एक  लम्बा-चौड़ा संसार बसाना था 


उन दिनों  बाबा आदम ने जान लिया 
सपनों को आकाश की खूंटी पर टांग कर 
धरती पर पाँव पसार सोया जा सकता है 
और भी कई बातें बाबा  और उसके   
चेलो ने जान ली 



पर ठीक आदम- हव्वा  के शाप से मिलता-जुलता शाप बाबा आदम को मिला 
कि हम उनके पूर्वज 
बाबा को याद  करते ही एक चकव्यूह में उलझ जाते हैं 
और उससे बाहर निकलते हैं तो सांसारिक माल असबाब के साथ 


ओह तुम बाबा आदम और 
तुम्हारा वो ज़माना  


4.  उस भाषा के लिये 

दिवंगत  होने से ठीक पहले तक प्रेम,  
यादों की ढेरों अस्थियां अपने पीछे छोड़  देता है 


एक नदी दम तोड़ते समय    
अपने सूखे हुए सीने पर   
सीपियाँ, घोंघे और तड़पती हुयी मछलियों के अम्बार बिखेर जाती हैं 


एक डूबा हुआ  गाँव    
विस्थापितों के आँसूं 
दहेज़ के लिए जोड़ा गए सामान और 
जीवन की तह लगा कर रखी हुयी उम्मीदों को बहा ले जाता  है   


एक देश की भाषा पुरानी हो 
सूखते ही एक शुष्क शब्दकोष छोड़ जाती है  
फिर बरसों उस भाषा के शब्द बसंत का इंतज़ार किया करते हैं 

और जब मैं भावपक्ष से हक़ीक़त की ओर लौटती हूँ 
तो  दीमक की सभी चिरपरिचित  प्रजातियां  अपना काम कर गुजरती हैं   
और  मेरे  संस्कृत प्रेम
को कबाड़ी के तराजू की भेंट होने से पहले चट कर जाती हैं  



अपनी दसवीं की संस्कृत-पाठ्य पुस्तकों को 
अपने से अलग करने में दुःख होता था 
तब नहीं जानती थी भाषा का दुःख भी चंद बड़े दुखों में से है  

मेरी आँखों में संस्कृत द्वारा उड़ेला गया विनय का जल आज भी हिलोरे ले रहा  है  
संस्कृत ने  मुझे सबसे पहले बताया, 
विद्या ददाति विनयम 
और भी कई भूल चूक जो इस भाषा के  ज्ञान की वजह से 
जीवन की देहली पर से ही वापिस हो ली 

जब सूखी  नदियों में पानी औटाया जा सकता है 
तब संस्कृत के  शब्द दुबारा अंकुरित क्यों नहीं हो सकते ?  


5 .  बल्लियों के उस पार जनता, इस पार प्रधानमंत्री  

लोकतंत्र का एक बड़े से पंडाल में 
दंगों  के बाद प्रदेश का जायजा लेने आये हैं 
दूल्हे  ही तरह सजे  हमारे प्रधानमंत्री जी 


बल्लियों के उस पार  
खुद में डूबी  जनता है   

प्रधानमंत्री के एकरस चेहरे को देख 
पीड़ित ठिठकते हैं 
लेकिन रुलाई लय को तोड़ कर उमड़ पड़ती है   
शोक  के दलदल में पूरी तरह डूबे लोग सुबकने लगते हैं   
एक दो जन रुंधे गले से बड़बडाने लगते हैं 
दंगे 
पुलिस 
पिटाई 
लूट 
बलवाई 
उनकी कराह से  प्रधानमंत्री एक दो पल को द्रवित होते हैं 
पर भीतर की तरलता बाहर नहीं झलकती  


एक कन्धा धपधपा कर प्रधानमंत्री आगे चल देते   हैं 
फिर एक ठौर रुकते हैं 
शायद दुखड़ा रोने कोई इस बल्ली के करीब आये
इस बार जनता 
फटी आँखों से दूर खड़ी उन्हें  देखती है    
प्रधानमंत्री फिर दाईं तरफ देखते हैं 
एक दो कदम चलते हैं 
फिर देखते हैं 
इस समय जनता की यह चुप्पी प्रधानमंत्री को खलती जरूर  होगी 

कोई उन्हें बताये  
इस जनतंत्र में जुबान भी  किसी- किसी के पास है 
वरना तो इस देश में सब 
आपकी तरह  चुप्पी को अपने बगल में लिए चलते हैं 
और सही वक़्त आने पर  अपनी वाक् शक्ति खो चुके होते हैं

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विपिन चौधरी

दो कविता संकलन प्रकाशित. कई कहानियाँ भी प्रकाशित. माया एन्जेल्यो की विपिन द्वारा लिखी जीवनी शीघ्र ही दखल प्रकाशन से प्रकाश्य.

संपर्क : vipin.choudhary7@gmail.com

टिप्पणियाँ

अरुण अवध ने कहा…
धारदार और सशक्त कवितायेँ |विपिन चौधर को बधाई |
satyaketu ने कहा…
विपिन की पांचों कविताएं सुगठित और सुविचारित हैं। सोच की व्यापकता और वृहत्तर सरोकारों को देखते हुए विपिन चौधरी को समकालीन कविता का प्रमुख स्वर ही कहा जाए....प्रमुख स्त्री स्वर से एक खास दायरे का बोध होता है।
शिरीष मौर्य ने कहा…
अच्‍छी कविताएं। विपिन का स्‍वर ख़ूब सधने लगा है अब।
सुंदर कविताएं हैं। विपिन की कविता का फलक बहुत व्‍यापक है और इन कविताओं में यह बखूबी जाहिर है। बधाई

अनुपमा पाठक ने कहा…
सशक्त कवितायेँ...!
वाह!
anupriya ने कहा…
सब कवितायेँ सार्थक और सुन्दर हैं।
के सी ने कहा…
बाबा आदम के लोक को संबोधित कविता पढ़ते हुए खूब सुख आया। मैंने इसे कई बार पढ़ा। इस कविता को पढ़ते हुए कोई कथ्य मुझे बार बार छूता है।

बाकी कवितायेँ अपने अलग संसार और ज़रूरतों की है। खूब अच्छी।
Unknown ने कहा…
Teesri aur chauthi kavita khoob pasand aai! Baaqi bhi achhi hain!Dili daad!
Unknown ने कहा…
Teesri aur chauthi kavita bataur-e-khaas pasand aai. Baaqi kavitayen bhi umda hain! Dheron daad!
कवितायेँ कई शिराओं को साथ चल रहीं हैं. यहाँ धूप कम और गर्मी ज्यादा है. बधाई
नर्म धूप और गर्म एहसास वाली कवितायेँ. बधाई
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कहीं ठंड आप से घुटना न टिकवा दे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

siddheshwar singh ने कहा…
विपिन की कविताओं को देखना व पढ़ना सिर्फ़ देखना और पढ़ना भर नहीं है। यह कवि का रास्ता है कविता के जरिये बनता और अक्सर बने हुए पर संकेतित करता जाता...
Triloki Mohan Purohit ने कहा…
बढ़िया और प्रभविष्णुता से सम्पन्न कविताएं । बधाई।
Amrita Tanmay ने कहा…
प्रभावित करती कविताएँ ।

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