और मैं तो कविता भी नहीं लिख सकता तुम जैसी...

(आज बहुत दिनों बाद अपनी एक कविता असुविधा पर)
मेरा नया संकलन पुस्तक मेले में उपलब्ध होगा 



एक हारी हुई लड़ाई को उखड़ी साँसों तक लड़ने के बाद लौटता हूँ वहाँ जहाँ सांत्वना सिर्फ़ एक शब्द है

लौटना मेरे समय का सबसे अभिशप्त शब्द है और सबसे क़ीमती भी
इस बाज़ार में बस वही है बेमोल जो सामान्य है
प्रेम की कोई क़ीमत नहीं और बलात्कार ऊँची क़ीमत में बेचा जाता है
हत्या की ख़बर अखबार में नहीं शामिल आत्महत्या ब्रेकिंग न्यूज़ है
अकेला आदमी अकेला रह जाता है उम्र भर और भीड़ में शामिल होते जाते हैं लोग

मैं अकेला नहीं हूँ भीड़ में भी नहीं जाने जाने का उत्साह अभी अभी नाली में खँखार आया हूँ
जो जानते हैं मुझे भूल ही जाएँगे एक दिन जो नहीं जानते उन्हें आये तो आये याद
की एक चेहरा था रोज़ उसी वक़्त उसी जगह से उन्हीं कपड़ों में गुज़रता नहीं दीखता इन दिनों
कौन जाने उनमें से किसी ने कभी सोचा हो मुस्कराने का और अपनी मशरूफियत में भूल गया हो

मैं देश के सबसे मशहूर शहर में हूँ सबसे गुमनाम
मैं एक बड़े से घर में रहता हूँ जो छोटा है सबसे बड़े घर की रसोई से

मैं जो कविता लिखता हूँ वह ख़त्म हो जायेगी आख़िरी शब्द के साथ उसका होना कोई ख़बर नहीं. उस किताब के मोल को कविता का मोल न समझिये. मोल कागज़ का होता है, छपाई का,जिल्द का, रंग का, स्याही का कविता को अनमोल कहकर छुपाई जाती है उसकी इज्ज़त. आपको परदा कहानी याद है?

मैं शीशे को काटने वाला हीरा हूँ और सारे हीरासाज़ सो चुके हैं इस वक़्त. आत्महत्या भी सबकी नहीं होती बिकाऊ. जब बस्तियाँ सो जाती हैं मौत की नींद तो बस एक पंक्ति में सिमट जाता है विदर्भ.

शोला होने के भरम में जीता हूँ
राख होने तक ख़ुद को पीता हूँ

एक रात है यह जाड़े की राजधानी में जिसने दिन के गुनाहों पर काला पर्दा डाल दिया है
यह जो शराब का आखिरी गिलास है मेरे हाथों में
इसके ठीक बाद निकल पडूँगा मैं उसी लड़ाई में संभाले हुए अपनी साँसें

कहो शिरीष
कहो गिरिराज
कहो अनुपम
कहो मेरे समय के धुरंधर कवियों
क्या कर रहे हो तुम ठीक इसी वक़्त
जब तुषार अपने लहू जैसे रंग से दीवानावार बनाए चला जा रहा है चित्र
और उड़ीसा के उस बोझिल एकांत में मृत्युंजय नागार्जुन का बोझ लिए सीने पर चीख रहा है लगातार

बस करो कम्बख्तों
मैं भी जानता हूँ कि इस साउंडप्रूफ कमरे में चीखने भर से काम नहीं चलने वाला
और मैं तो कविता भी नहीं लिख सकता तुम जैसी...




टिप्पणियाँ

कविता होती है या कहीं लिखी गई है क्या?
Unknown ने कहा…
कविता की सार्थकता के मायने व्यक्त करती कविता.यहाँ आकर लगता है कविता एक्टिविस्ट के माफिक बर्ताव करती है (एक दो जगह वर्तनीगत अशुद्दी है फिर देख लिजिएगा )
neera ने कहा…
शायद ऐसी ही कविताएं कवि के छलनी हुए सीने के छेद गिना देती हैं यहाँ तो शोला और राख का भी हिसाब-किताब है!
नए संकलन का इंतज़ार रहेगा। अशोकजी बहुत -बहुत बधाई …
वे कमबख्त भी यही कहेंगे कि आप जो लिख सकते हैं, वह सिर्फ आप ही लिख सकते हैं | बहुत अच्छी | बधाई देना बनता है दोस्त |
ANULATA RAJ NAIR ने कहा…
बेहतरीन..............

सादर
अनु
siddheshwar singh ने कहा…
निरन्तर निगलने की कला में मुग्ध और मुदित दुनिया के बीच खँखार कर निकल आना और अपनी टेक पर बने रहना...कविता लिखना नहीं कवि होना है। और क्या कहूँ इतनी जल्दी..। कुछ बार इसे और पढ़ने दो..
GIRIJESH TIWARI ने कहा…
साथी अशोक, क्या यह केवल कविता ही है !
यह तो सम्वाद है काल से, दोस्तों की गवाही के साथ...
कवि के अन्दर योद्धा का उमड़ता-घुमड़ता बोध बोल उठा है...
जीवन की जटिलता का जीवन्त एहसास इस सजीव शब्दांकन में देखते ही बनता है...
GIRIJESH TIWARI ने कहा…
साथी अशोक, क्या यह केवल कविता ही है !
यह तो सम्वाद है काल से, दोस्तों की गवाही के साथ...
कवि के अन्दर योद्धा का उमड़ता-घुमड़ता बोध बोल उठा है...
जीवन की जटिलता का जीवन्त एहसास इस सजीव शब्दांकन में देखते ही बनता है...
Anupama Tripathi ने कहा…
दुनियादारी नहीं निभा सकती कविता ....बस कराह के रह जाती है ...!!
गहन भाव ...!!
Anupama Tripathi ने कहा…
दुनियादारी नहीं निभा सकती कविता ....बस कराह के रह जाती है ...!!
गहन भाव ...!!
बिना किसी आडम्बर के अपनी व्यग्रता को जीते हुए अपने आपको कहीं गहरे तलाशती हुई ,गहरे कुरेदती हुई एक सार्थक कविता जिसे लिखना आसान ही होता बिल्कुल...।
Unknown ने कहा…
शोला होने के भरम में जीता हूँ
राख होने तक ख़ुद को पीता हूँ

bahut khoob
शोला होने के भरम में जीता हूँ
राख होने तक ख़ुद को पीता हूँ
बेहतरीन....!!
Onkar ने कहा…
बहुत प्रभावशाली कविता
Onkar ने कहा…
बहुत प्रभावशाली कविता
उस किताब के मोल को कविता का मोल न समझिये.ऐसे संसार में जहाँ सांत्वना सिर्फ एक शब्द बनकर रह जाये कवि एक आश्वस्ति को तलाश रहा है और वह जानता है उसके साथी कौन हैं. जाड़े की सुबह में अलाव की राख भी भली लगती है क्योंकि वह रोशनी और आग से गुजर कर आयी है. एक सशक्त कविता के लिए बधाई..
उस किताब के मोल को कविता का मोल न समझिये.ऐसे संसार में जहाँ सांत्वना सिर्फ एक शब्द बनकर रह जाये कवि एक आश्वस्ति को तलाश रहा है और वह जानता है उसके साथी कौन हैं. जाड़े की सुबह में अलाव की राख भी भली लगती है क्योंकि वह रोशनी और आग से गुजर कर आयी है. एक सशक्त कविता के लिए बधाई..
Parul Chandra ने कहा…
बहुत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है अपने विचारों को..पढ़कर अच्छा लगा। शुभकामनाएं
Bhavana Lalwani ने कहा…
jaisa aapne comment box ke upar tag line di hai ki khulkar kahein toh kuchh isi andaaz mein khulkar aapne likha hai jisme apne aas paas kadvahat aur badrang tasveerein saaf dikhti hain.
बेनामी ने कहा…
jis tkleef ko dhundhati hui aayi thi....wh aur bhi gahre ja rhi hai...shbdon se baaher !
शोले की तरह गुज़र जाती है सीने पे खरोंचे डाल के ... कविता को नए मायने देती जानदार रचना ...
harpreet kaur ने कहा…
hamesha kee tarah bahut behatar.........

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