अरुण श्रीवास्तव की कविताएँ
हिंदी कविता में इधर जो बिलकुल युवतर कवि आए हैं उनमें अरुण श्रीवास्तव की ओर मेरा ध्यान उनकी कच्चे दूध की सी महक वाली भाषा और एक ईमानदार दीखते तनाव के चलते गया है. उन्हें सोशल साइट्स पर लगातार पढ़ते हुए उस तड़प और आत्मसंघर्ष की तमाम विश्वसनीय छवियाँ दिखाई देती हैं जिसके भरोसे यह विश्वास किया जा सकता है कि यह कवि सच में किसी देवत्व की तलाश में हिंदी कविता के बीहड़ वन प्रान्तरों में भटकने और साधनारत होने नहीं आया है. एक खास तरह का रुमान जो उनके यहाँ है वह स्वाभाविक सा लगता है और उम्मीद भी जगाता है कि समय के साथ यह परिपक्व भी होगा और इन बीहड़ों को थोड़ा समतल बनाने की कोशिशों में हमकदम भी.लम्बे अरसे बाद ब्लॉग को अपडेट करते हुए मैं पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ और उम्मीद करता हूँ उनका स्नेह पहले सा ही मिलता रहेगा.
आवारा कवि
अपनी
आवारा कविताओं में -
पहाड़
से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन !
हवाओं
में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध !
पत्थरों
को काट पगडण्डी बनाता हूँ !
लेकिन
सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम तो देह लिखता हूँ !
जैसे
खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना !
और
जब -
मैं
उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -
कविताओं
को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा !
आवारा
नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है !
रहस्य
नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र !
चाँद
की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है !
चुगलखोर
सूरज पसर जाता पहाड़ों के आंगन में !
जल-भुन
गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ !
बाढ़
में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ !
मैं
तय नहीं पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी !
किसी
अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की !
आवारा
लड़की को ढूंढते हुए मर जाता है प्रेम !
अभिशाप
खोंस लेता हूँ मैं कस कर बांधी गई पगड़ी में ,
और
लिखने लगता हूँ -
अपने
असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ” !
लेकिन
-
मैं
जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ !
प्रेम
नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से !
अपवित्र
दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगता कोई योद्धा !
दुर्घटना
के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं -
उस
आवारा लड़की को भूल जाऊंगा एक दिन ,
और
वो दिन -
एक
आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा !
विस्मृत होते पिता
कभी
कभी -
विस्मृतियों
से निकल सपने में लौट आते हैं पिता !
पूछते
है कि उनके नाम के अक्षर छोटे क्यों हैं !
मैं
उन अक्षरों के नीचे एक गाढ़ी लकीर खिंच देता हूँ !
जाते
हुए अपना जूता मेरे सिरहाने छोड़ जाते हैं पिता !
मैं
दिखाता हूँ अपने बनियान का बड़ा होता छेद !
और
जब -
मैं
खड़ा होता हूँ संतुष्टि और महत्वाकांक्षा के ठीक बीच ,
मेरे
पैर थोड़े और बड़े हो जाते हैं !
मैं
देखता हूँ पिता को उदास होते हुए !
कभी
कभी -
अहाते
में अपने ही रोपे नीम से लटके देखता हूँ पिता को !
अधखुली
खिडकी से मुझे देखती पिता की नकार दी गई रूह -
बताती
है मुझे नीम और आम के बीच का अंतर !
कुछ
और कसैली हो जाती है कमरे की हवा !
मैं
जोर से साँस अंदर खींचता हूँ ,
खिडकी
की ओर पीठ कर प्रेयसी को याद करता हूँ मैं !
लेकिन
सीत्कारों के बीच भी सुनता हूँ खांसने की आवाजें !
पिता
मुस्कुरा देते हैं !
कभी
कभी -
मैं
अपने बेटे से पूछता हूँ पिता होने का अर्थ !
वो
मुट्ठी में भींची टॉफियाँ दिखाता है !
मुस्कुराता
हुआ मैं अपने जूतों के लिए कब्र खोदता हूँ !
अपने
आखिरी दिनों में काट दूँगा नीम का पेड़ भी !
नहीं
पूछूँगा -
कि
मेरा नाम बड़े अक्षरों में क्यों नहीं लिखा उसने !
उसे
स्वतंत्र करते हुए मुक्त हो जाऊंगा मैं भी !
अपने
पिता जैसे निराश नहीं होना चाहता मैं !
मैं
नहीं चाहता कि मेरा बेटा मेरे जैसा हो !
प्रेम पर एक जरूरी कविता
अनचिन्हे रास्तों पर पदचिन्ह टांकता मैं -
मानचित्र पसारे अपने बीच की दूरी माप रहा हूँ !
और तुम -
यही दूरी बाहें फैलाकर मापती हो !
मैं भीगते देखता हूँ समन्दरों वाला हिस्सा !
और अधगीले कागज पर लिख देता हूँ -
दहकते सूरज की कविता !
आखिरी खत में सिर्फ चाँद उकेरा तुमने ,
मेरे नाम के नीचे !
मैं धब्बों का रहस्य खोजने लगता हूँ !
किसी रहस्यमयी शिखर से -
कुछ पुराने खत पढूंगा किसी दिन
कि तुम्हारा मौन पराजित हो तुम्हारे ही शब्दों से !
निर्माणीय कोलाहल से नादित कविताओं के सापेक्ष
अधिक मुखर है तुम्हारा मौन !
चलो अच्छा , मैं लौट आता हूँ !
फेक देता हूँ दहकती , चीखती कविताएँ ,
शब्दों के कूडेदान में !
और तुम -
वही से संवाद की सम्भावनाएं तलाशो !
तुम्हारे रुदन और मौन के बीच खड़ा कवि
लिखना चाहता है -
प्रेम पर एक जरूरी कविता !
मानचित्र पसारे अपने बीच की दूरी माप रहा हूँ !
और तुम -
यही दूरी बाहें फैलाकर मापती हो !
मैं भीगते देखता हूँ समन्दरों वाला हिस्सा !
और अधगीले कागज पर लिख देता हूँ -
दहकते सूरज की कविता !
आखिरी खत में सिर्फ चाँद उकेरा तुमने ,
मेरे नाम के नीचे !
मैं धब्बों का रहस्य खोजने लगता हूँ !
किसी रहस्यमयी शिखर से -
कुछ पुराने खत पढूंगा किसी दिन
कि तुम्हारा मौन पराजित हो तुम्हारे ही शब्दों से !
निर्माणीय कोलाहल से नादित कविताओं के सापेक्ष
अधिक मुखर है तुम्हारा मौन !
चलो अच्छा , मैं लौट आता हूँ !
फेक देता हूँ दहकती , चीखती कविताएँ ,
शब्दों के कूडेदान में !
और तुम -
वही से संवाद की सम्भावनाएं तलाशो !
तुम्हारे रुदन और मौन के बीच खड़ा कवि
लिखना चाहता है -
प्रेम पर एक जरूरी कविता !
मेरा अभीष्ट
मेरे
जीवित होने का अर्थ -
- ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ
!
- ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को !
ध्रुवीकरण
को मानक आचार नही माना जा सकता !
मानवीय
कृत्य नहीं है परे हो जाना !
मैं
तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !
संभव
है कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !
मेरा
अभीष्ट देवत्व नहीं है !
टिप्पणियाँ
धन्यवाद !
भावों की....
सत्य ही लगती है...!