मेरी खुश्क आंखों में कुछ पत्थर से ख्वाब हैं - प्रतिभा कटियार
प्रतिभा कटियार की यह कविता मुझे मेल से कुछ दिन पहले मिली थी. पुस्तक मेले की भागदौड़ के बीच पढ़ तो लिया था लेकिन पोस्ट नहीं कर सका. आज 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' पर यह अचानक फिर याद आई. बसंत, जो हमारी परम्परा और साहित्य में राग रंग और प्रणय के उत्सव की तरह दर्ज है, इस कविता में उस परम्परा के प्रतिआख्यान की तरह. यह एक स्त्री की निगाह से देखा-भोग वसंत है जिसे पुरुष की निगाह से अलग होना था. यहाँ ख़्वाब पथरीले हैं जिनसे लहू रिसता है. यह पुरुषों की दुनिया से 'अन्या' स्त्री का दुःख है जिसका शमन उसके अनन्या बनने के साथ ही हो सकता है. ये ख़्वाब एक बराबरी की दुनिया में ही सुनहले और फूलों से आच्छादित हो सकते हैं जिनसे खुशबू रिसे और दुनिया को हसीन बना दे.
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मेरी खुश्क आंखों में कुछ पत्थर से ख्वाब हैं
मुझे माफ़ कर देना प्रिय
इस बार बसंत के मौसम में
मेरी हथेलियों में नहीं हैं
प्रेम की कविताएं
बसंत के सुंदर कोमल मौसम में
मेरी आंखों में उग आये हैं
पत्थर से कुछ ख्वाब
ख्वाब जिनसे हर वक्त रिसता है लहू,
जो झकझोरते हैं
उदास मौसमों को बेतरह
ख्वाब जो चिल्लाकर कहते हैं कि
बसंत का आना नहीं है
सरसों का खिल जाना भर
नहीं है बसंत का आना
राग बहार की लहरियों में डूब जाना
कि जरूरी है
किसी के जीवन में बसंत बनकर
खिलने का माद्दा होना
मुझे माफ करना प्रिय कि
कानों में नहीं ठहरते हैं सुर,
न बहलता है दिल
खिले हुए फूलों से
न अमराइयों की खुशबू और
कोयलों की कूक से
सुनो, जरा अपनी हथेलियों को आगे तो करोे
कि इनमें बोनी है प्यार की फसल
फैलाओ अपनी बाहें
मुझे आलिंगन में लेने के लिए नहीं
अपनी तमाम उष्मा मुझमें उतार देने के लिए
आओ हम मिलकर तोड़े दें
जब्त की शहतीरें
निकलें नये सफर पर
और ढूंढकर लाये ऐसा बसंत
जो हर देह पर खिले
धरती के इस छोर से उस छोर तक
ऐसा बसंत
जिसे ओढ़कर
सर्द रातों की कंपकंपी कुछ कम हो सके
और जिसे गुनगुनाने से
नम आंखों में उम्मीदें खिल सकें
इस बार मेरी अंजुरियों में
नहीं सिमट रही
पलाश, सेमल, सरसों के खिलखिलाहट
मेरी खुश्क आंखों में
कुछ पत्थर से ख्वाब हैं
तलाश है उस बसंत की
जो समय की आंख से आंख मिलाकर
ऐलान कर दे कि
मैं हूं, मैं रहूंगा....
टिप्पणियाँ
एक अच्छी रचना…
एक चाह है जो कही गई भी है
रुक्षता है
अर्ज भी
एक आश है भरे-भरे बसंत की
जो अपने होने की मुनादी कर जाए
खोज है बसंत की
बसंत जो साथ रहे किसी के भी, सभी के…
एक मुखर मनःस्थिति से
निकलते ताज़ा उदगार
एक निजात का सा एहसास
एक निवेदन
प्रतिभा कटियार जी कि अनुभूति का
अभिव्यक्ति का एक सार्थक्य सी
है यह कविता…