द पियानो टीचर: स्त्री की दमित इच्छाओं का उच्छास

  • विजय शर्मा जी ने पहले भी असुविधा पर फिल्मों के बारे में लिखा है जिन्हें यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है . पढ़िए उनका एक और आलेख



पियानो एक यूरोपीय वाद्य है जो वहाँ प्रत्येक कुलीन परिवार का हिस्सा होता है। भारतीय वाद्य न होते हुए भी यह भारतीय संस्कृति का अंग बना हुआ है। जब अंग्रेज यहाँ आए तो जाहिर-सी बात है वे अपने साथ अपनी सभ्यता-संस्कृति भी लेते आए। भारत के उच्च और उच्च मध्य वर्ग ने अपने आकाओं से काफ़ी कुछ ग्रहण किया, पियानो से लगाव उसका एक हिस्सा है। इंग्लिश माध्यम के स्कूलों में इसे सीखने-सिखाने का काम अब भी चलता है। इन स्कूलों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का यह एक अनिवार्य भाग होता है। इसी तरह हिन्दी फ़िल्मों में भी पियानो अहम भूमिका अदा करता है। बचपन में जब मैं फ़िल्म में पियानो बजता देखती थी तो समझती थी कि यह अवश्य ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड की तरह का बाजा है, जिसे चला कर छोड़ दिया जाता है और वह चलता रहता है, क्योंकि अक्सर हीरो-हिरोइन पियानो बजाना शुरु करते, फ़िर नाचने लगते और पियानो बजता रहता। हाँ, कुछ फ़िल्मों में बाकायदा इसे गाना खतम होने तक बराबर बजाते हुए दिखाया जाता था। फ़िर बड़े होने पर फ़िल्मों की कुछ समझ आई तो इसका राज पता चला कि यह फ़िल्म विधा का एक हिस्सा है। बाद में पियानो नाम और उससे जुड़ी कुछ फ़िल्में देखी जिन्होंने काफ़ी गहरा प्रभाव डाला। हॉलोकास्ट की भयावहता और पियानो बजाने के जुनून पर आधारित द पियानिस्ट’ को कई-कई बार देखा, उस पर लिखा भी। इस फ़िल्म को देखना एक भिन्न अनुभव से गुजरना है। द पियानो’ नामक फ़िल्म के अनोखेपन को जानने-समझने के लिए उसे भी एक से अधिक बार देखा। इसी तरह नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार एल्फ़्रिड जेलेनिक के उपन्यास द पियानो टीचर’ पर इसी नाम की फ़िल्म कई बार देखी।
२००१ में कान फ़िल्म समारोह में फ़िल्म निर्देशक माइकल हैनेक की द पियानो टीचर’ पर बड़ी भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुई। कुछ दर्शकों ने तालियाँ बजाई, कुछ भौचक थे, कुछ घृणा से भरे हुए,  कुछ फ़िल्म छोड़ पहले ही जा चुके थे, बिना पूरी फ़िल्म देखे ही। यह फ़िल्म २००४ की नोबेल पुरस्कार पाने वाली साहित्यकार एल्फ़्रिड ज़ेलेनिक के इसी शीर्षक के आत्मकथात्मक उपन्यास पर बनी है। वे घोषित नारीवादी हैं। ज़ेलेनिक नारी जगत को बड़ी सूक्ष्मता और मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करती हैं। उनके अनुसार स्त्री खुद को पुरुष के नजरिए से देखती हैं क्योंकि उसका अपना कोई नजरिया है ही नहीं। मौका मिलने पर स्त्री ठीक पुरुष की तरह सत्ता और शक्ति के खेल भी खेलने लगती है, भले ही वह माँ की भूमिका में क्यों न हो। इस उपन्यास की नायिका एरिका ठीक ऐसी ही स्त्री है। वह पहले अपनी माँ के द्वारा दमित होती है और अवसर मिलते ही अपने अधिनस्थों का दमन-शोषण करती है, उन पर तरह-तरह के अत्याचार ढ़ाती है। मैंने यह फ़िल्म फ़्रेंच भाषा में इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ देखी। सताई हुई स्त्री भीतर से असुरक्षित होती है। इस असुरक्षा को ढ़ाँपने के लिए अपने अधीनों को शारीरिक, मानसिक और भावात्मक रूप से प्रताणित करती है। इसमें वह सुख और अधिकार पाती है। उसे खुद को सिद्ध करने का अवसर मिलता है, अपने अस्तित्व का भान होता है। इस फ़िल्म में माँ की भूमिका में अभिनेत्री ऐनी गिराडॉट ने पहले आधिकारिक रूप से हावी रहने वाली स्त्री और बाद में एक लाचार स्त्री की भूमिका का बड़ा सटीक अभिनय किया है। आसुरी लीडरशिप की विशेषताओं से लैस एरिका एक प्रतिभावान उत्कृष्ट पियानो टीचर है। माँ की महत्वकांक्षा के बावजूद वह सर्वोच्च संगीतवादक नहीं बन पाती है। संगीत के गढ़ वियेना में भयंकर प्रतियोगिता है और वह इसमें कामयाब नहीं हो पाती है। फ़लस्वरूप वह एक बहुत कठोर शिक्षिका है, अपने छात्रों से बहुत निर्ममता से व्यवहार करती है। अपने छात्रों को नष्ट करने में तनिक भी नहीं हिचकती है। अपनी माँ का प्रतिशोध वह अपनी एक छात्रा से लेती है क्योंकि इस छात्रा की माँ भी बहुत महत्वाकांक्षी थी।
द पियानो टीचर’ में माँ-बेटी का रिश्ता वर्जित यौन संबंधों (इंसेस्ट) की सीमा का स्पर्श करता है। दोनों परस्पर निर्भर होते हुए भी एक-दूसरे के प्रति आशंका से भरी हुई हैं। संगीत के प्रति जुनून एरिका को पागलपन तक ले जाता है, उसका पिता इसी जुनून में पागल होकर मर चुका है। शायद यह पागलपन उसके परिवार में समाहित है। प्रौढ़ावस्था की एरिका यौन कुंठा और ताक-झाँक में मजा (वोयूरिज्म) लेती है। दर्शन रति से परेशान यौन संतुष्टि के लिए अजीबो-गरीब उपाय करती है।
भरत मुनि ने कुछ क्रियाएँ मंच के लिए वर्जित ठहराई थीं, मल-मूत्र त्याग उनमें से एक है। मगर पश्चिम की फ़िल्मों का यह एक अहम न सही पर हिस्सा अवश्य होता है। वैसे यूरोप और अमेरिका की देखा-देखी आज भारतीय फ़िल्मों में भी यह आवश्यक मान लिया गया है। मल न सही मूत्र त्यागते दिखाए बिना शायद ही कोई फ़िल्म आजकल बनती है। द पियानो टीचर में भी कई ऐसे वर्जित सीन प्रदर्शित हैं। एरिका पोर्नोग्राफ़ी फ़िल्में देखती है और उस क्यूबिकल के डस्टबिन में पहले के किसी ग्राहक की फ़ेंकी गई वीर्य से सनी नैपकीन उठा कर सूँघती है। कभी ड्राइव-इन फ़िल्म शो में जाकर अन्य युवा जोड़ों को प्रेम-क्रीड़ा में लिप्त देख सहन नहीं कर पाती है। जानबूझ कर उन्हें तंग करने के लिए खलखल की आवाज के साथ पेशाब करती है। उसे ऐसा करते देख कर कई लोग ताज्जुब और जुगुप्सा से भर उठते हैं।
सत्ता का खेल सब जगह चलता है। परिवार से ले कर राज्य तक चलता है। परिवार सामाजिक संरचना की मूल ईकाई है। सब सामाजिक संरचनाओं की भाँति यहाँ भी सत्ता का खेल चलता है। एरिका का परिवार मात्र दो प्राणियों, मात्र माँ-बेटी का है मगर यह परिवार भी सत्ता के खेल में लिप्त है, उससे अछूता नहीं है। एरिका की माँ उसे सांस लेने का भी स्पेस नहीं देती है उसकी सारी निजता पर निगाह रखती है। परिवार में उसकी स्थिति सत्ताहीन है, वह इस सत्ताहीनता की सारी कसर अपनी क्लास में अपने छात्रों के साथ पूरी करती है। सत्ता, सैक्स, हिंसा, क्रूरता आदमी के व्यक्तित्व के आदिम अंग हैं। आदमी सत्ता और शक्ति चाहता है। कभी प्रत्यक्ष रूप से तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से। सामने वाले पर अधिकार जमाना, दूसरे को अपने कब्जे में रखना आदमी की प्रकृति है। हर आदमी (औरत भी) गाँठों का पुलिंदा होता है। सैक्स को ले कर व्यक्ति के भीतर अजीबोगरीब भ्रम होते हैं। किसी में ये भ्रम ज्यादा होते हैं, किसी में कम होते हैं, मगर होते सब में हैं। सैक्स हिंसा का एक रूप है, सत्ता कायम करने का एक तरीका। एरिका हर तरह की सत्ता चाहती है। आइस हॉकी के एक खिलाड़ी, सत्रह वर्षीय हँसमुख युवा वॉल्टर क्लेमर (बेनोट मैगीमल) की निगाह एरिका पर पड़ती है, वह संगीत की कुशलता का कायल है। कम आयु और अनुभवहीन वॉल्टर कल्पना करता है कि वह एरिका से प्रेम करता है। वह जिद करके एरिका की क्लास में प्रवेश लेता है और अवसर मिलते अपना प्रेम निवेदन कर डालता है। आकर्षित तो एरिका भी उसकी ओर है मगर वह प्रेम में भी अपनी सत्ता कायम करना चाहती है, खुद पर और अपने साथी पार पूर्ण नियंत्रण रखना चाहती है। वह प्रेम के दरमयान भी संगीतकार शुबर की अपनी शिक्षा कायम रखना चाहती है। कहती है कि शुबर बहुत गत्यात्मक है, वह चीखने से फ़ुसफ़ुसाने की ओर जाता है, नम्रता की ओर नहीं’। एरिका इस युवक को हुक्म देती है कि उसे कैसे और कितना प्रेम किया जाए।
वह उसे अपनी यौनैच्छाओं की संतुष्टि की एक फ़ेहरिस्त थमाती है। इसमें वह उसे आत्मनियंत्रण के विभिन्न नुस्खे लिख कर देती है। इन तरीकों से वह अपनी उत्तेजना जगाना चाहती है। वह अपनी माँ को भरपूर सताने का यह तरीका अपनाती है। वॉल्टर के साथ का सारा प्रेम व्यापार वह अपनी माँ की दृष्टि और श्रवण सीमा के भीतर करती है। एरिक परपीड़न में सुख पाती है। यौन संबंध के चरम पर ले जाकर वह अपने साथी को पटकनी देती है, ऐसी पटकनी कि वह चूर-चूर हो जाए। ऐसा बहुत समय तक नहीं चलता है। जल्द ही भूमिकाएँ बदल जाती हैं। शोषक शोषित और शोषित शोषक में परिवर्तित हो जाता है। बहुत जल्द वॉल्टर एरिका की बात सुनना बंद कर देता है, उस पर खूब मनमानी करता है। एरिका पर जम कर अत्याचार करता है। माँ-बेटी दोनों उसके सामने लाचार हो जाती हैं। इन सैडिस्ट तरीकों से एरिका की इच्छाएँ पूरी होती हैं। उसने कभी नहीं सोचा था कि ऐसे उसकी यौनेच्छाएँ पूरी होंगी। वह वॉल्टर के अत्याचार देख, पा कर अचम्भित रह जाती है। सारा कुछ अनुभव उसकी कल्पना से बहुत भिन्न होता है। योजनाबद्ध औपचारिक रूप से की गई परपीड़न रति और कामोत्तेजना से क्रोधित व्यक्ति के अत्याचार-बलात्कार में बहुत अंतर होता है। वॉल्टर कामावेश में एक बौराये हुए साँड़ की तरह व्यवहार करता है और एरिका को धमकी भी देता है।
एरिका के बिल्कुल विपरीत वॉल्टर धनी, खूबसूरत, प्रतिभावान, आत्मविश्वास से लबरेज, संतुलित और शांत प्रकृति का युवा है। इसी कारण एरिका उससे भयभीत है, उसे घृणा करती है साथ ही उसकी ओर बुरी तरह से आकर्षित भी है। दोनों का एक-दूसरे के प्रति व्यवहार बहुत विचित्र है, जबकि परम्परागत रूप से एक प्रौढ़ा का किसी युवक की ओर झुकाव कोई नई बात नहीं है। यहाँ सैक्स सीन सामान्य फ़िल्मों से बहुत अलग है। इनमें एक-दूसरे का अपमान, बेढ़ंगापन शामिल है। एरिका वॉल्टर से जुड़ना चाहती है लेकिन जानती नहीं है कैसे जुड़ा जाता है। यह एक गैरपरम्परगत फ़िल्म है। फ़िल्म में एरिका के विचित्र व्यवहार की व्याख्या नहीं है जबकि उपन्यास विस्तार में जाता है, एरिका के अतीत, बचपन को चित्रित करता है।
एरिका एक कुंठित स्त्री है, वह आत्मयंत्रणा में सुख पाती है। एक ओर वह पुरुषसत्ता का उपयोग करती है, दूसरी ओर स्त्री को मिलने वाला प्यार-दुलार चाहती है। वह इतनी भ्रमित है कि यौनसुख पाने के लिए स्वयं अपने जननांग को उस्तरे से चीरती है। हालाँकि फ़िल्म में दर्शक को यह सब मात्र झलक के रूप में ही दिखाया गया है। पूरी फ़िल्म में कहीं भी भौंडापन नहीं है और न ही सैक्स का खुला प्रदर्शन है। फ़िल्म में व्यक्ति के एकाकीपन, उसकी हताशा को दिखाने के लिए इन बातों को फ़िल्माया गया है। निर्देशक हैनेक ने एरिका और उसकी माँ के बेतुके व्यवहार को प्रदर्शित करने के लिए इन दृश्यों का सहारा लिया है। बरसों से एरिका की कामाच्छाएँ दबी हुई थीं, जब-तब वह उन्हें अप्राकृतिक उपायों से शमित करने का प्रयास करती है। वह वॉल्टर से कहती है कि न जाने कब से वह मार खाने की, प्रताड़ित होने की तमन्ना पाले हुए है। असल में वह प्रेम पाना चाहती है मगर बहुत भ्रमित है।
जब इन इच्छाओं के पूरा होने का समय आता है तब वह कला और जीवन को विलगा नहीं पाती है। अंतरंग क्षणों में भी वह अपने साथी को सीख और आदेश देने लगती है। उसका मकसद हर हाल में अपने साथी को नियंत्रित करना है। वह वॉल्टर को कष्ट दे कर खुद सुख पाना चाहती है। वॉल्टर के अनपेक्षित व्यवहार से एरिका का आत्मविश्वास डिगने लगता है। फ़िल्म के अंत की ओर वह वॉल्टर के हाथों अपमानित-प्रताड़ित हो कर रसोई से चाकू उठाती है। वह चाकू लिए हुए कंसर्ट हॉल में बेसब्री से किसी का इंतजार कर रही है। दर्शक निष्कर्ष निकालता है कि वह वॉल्टर को मारना चाहती है। उसकी कठोर मुखमुद्रा सारे समय दर्शक को संशय में डाले रखती है। वॉल्टर आता है, वह ऐसा बेफ़िक्र व्यवहार करता है मानो उन दोनों के बीच कुछ घटा ही न हो। एरिका वॉल्टर को घायल न करके खुद को चाकू मारती है। मगर ऐसा मारती है कि उसके मरने की संभावना न के बराबर है। वह खुद को घायल करती है मगर नाममात्र को। हाँ, उसे चोट अवश्य पहुँची है। शायद यह भी खुद को प्रताड़ित करने का उसका एक तरीका है। जेलिनिक और माइकेल हैनेक एक ऐसी स्त्री की कहानी बता रहे हैं जो भीतर से बहुत उलझी हुई है, जो विशिष्ट है, प्रतिभावान है मगर गाँठों का पुलिंदा है। उसे खुद भी नहीं मालूम है कि आखीर वह चाहती क्या है। उसे भले ही यह पता न हो कि वह क्या चाहती है मगर एक बात बहुत स्पष्ट है कि वह हर हाल में अपनी डोमीनेटिंग माँ से छुटकारा पाना चाहती है। चाहने से सब कुछ नहीं होता है। एरिका अंत तक अपनी दबंग माँ से छुटकारा नहीं पा पाती है। माँ की महत्वाकांक्षा ने उसके जीवन को जकड़ लिया है। पति की मृत्यु के बाद यह स्त्री बेटी को अपनी गिरफ़्त में ऐसे ले लेती है मानो एरिका के लिए उसके अलावा दुनिया में कुछ और न हो। वह बेटी पर पूरी तरह से छाई हुई है। माँ उसे संगीत-पियानो वादन की सर्वोत्तम ऊँचाई पर देखना चाहती है, इसके लिए उसने एरिका को पूरी तरह से ब्रेन वॉश किया हुआ है। शुरु से उसकी दुनिया को पियानो वादन तक ही सीमित करने का काम माँ करती है, एरिका ने बचपन नहीं जान है। बेटी बड़ी होने पर अपने मन के कपड़े नहीं खरीद सकती है। बेटी विद्रोह करना चाहती है पर माँ को दु:खी नहीं करना चाहती है। दोनों का रिश्ता बहुत उलझा हुआ है।
चरित्रों के लिए कलाकारों का चुनाव भी फ़िल्म की सफ़लता-असफ़लता का जिम्मेदार होता है। द पियानो टीचर’ में उम्रदराज एरिका के रूप में बौद्धिक, प्रतिभावान, कुशल फ़्रेंच अभिनेत्री इसाबेला हप्पर्ट का चुनाव निर्देशक की बुद्धिमानी को दर्शाता है। इसाबेला इसके पूर्व कई फ़िल्मों में काफ़ी बोल्ड अभिनय कर चुकी थीं। उन्हें डेस्टनीज’, स्कूल ऑफ़ फ़्लेश’, तथा सेरेमनी’ जैसी फ़िल्मों में अति उत्तम अभिनय के लिए सराहा जाता रहा है। कभी न मुस्कुराने वाली, अकडू, ईर्ष्यालू, कठोर-कुशल टीचर, असहाय-दमित बेटी, विकृत यौनेच्छा वाली, प्रेमाकामांक्षी, शारीरिक अत्याचार में सुख पाने वाली तमाम तरह के अभिनय को साकार किया है इस फ़िल्म में इसाबेला ने। इन विभिन्न रूपों में उसका अभिनय लाजवाब है। नाममात्र का मेकअप इस फ़िल्म तथा इस अभिनेत्री की एक और विशेषता है। सारे समय कैमरे का फ़ोकस एरिका के चेहरे और उसके हाथों पर है। हाथ जो पियानो बजाने में कुशल है जिनका वह कई निकृष्ट कामों के लिए प्रयोग करती है। इन्हीं हाथों से वह अपनी छात्रा के भविष्य को नष्ट करने का प्रयास करती है और सफ़ल रहती है। इसाबेला को उस साल कॉन अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार प्राप्त हुआ था। पियानो टीचर की भूमिका बहुत कठिन भूमिका है। इस खतरनाक, लीक से हट कर होने वाली भूमिका के लिए अत्यंत साहस और भरपूर प्रतिभा की आवश्यकता है। इसाबेला में प्रतिभा है और उसने साहस का जम कर प्रदर्शन किया है। किताब की एरिका को परदे पर साकार कर दिया है। एरिका की दमित कामुकता और स्व-हिंसा तथा परपीड़ा की इच्छाओं को अभिनेत्री ने बड़ी कुशलता से अभिनीत किया है।
फ़िल्म में दमघोटूँ वातावरण (क्ल्स्ट्रोफ़ोबिया) दिखाने के लिए फ़िल्म को सारी बंद जगहों में फ़िल्माया गया है। एरिका का कमरा, माँ का कमरा, टीवी कमरा, वीडिओ पार्लर, क्लासरूम-वाशरूम, चेंजरूम सब बंद स्थान हैं। माँ-बेटी एक ही कमरे में दो सिंगल बेड पर अगल-बगल सोती हैं और एक-दूसरे पर नकारात्मक और चिढ़े हुए प्रहार करती रहतीं हैं। पूरी फ़िल्म सघन दृश्यों की एक लंबी शृंखला है। एक पल के लिए भी हल्कापन, नरमी-नाजुकता का भान तक नहीं होता है। फ़िल्म विधा में क्रम का बहुत महत्व होता है, क्रम बहुत अर्थ रखता है। पियानो टीचर में यह बहुत ध्यानपूर्वक आया है। कुछ उदाहरण दिलचस्प होंगे: एरिका खुद को दूसरों से बचा कर रखती है, वह नहीं चाहती है कि कोई उसके स्पेस में प्रवेश करे। उसकी दृष्टि में दूसरे सब लोग हेय है, निकृष्ट हैं। एक बार राह चलते उसका कंधा एक आदमी से टकरा जाता है। वह बेख्याली में अपना कंधा बार-बार हाथ से झाड़ती जाती है। एक अन्य उदाहरण: एरिका कंजरवेटरी के सभ्य-शालीन, सुसंस्कृत वातावरण में शुबर की संगीत त्रयी का अभ्यास करवा रही है, अगले पल वह एक सैक्स दुकान में खड़ी है। इसी तरह माँ-बेटी एक-दूसरे को थप्पड़ मारती हैं, एरिका माँ के बाल खींचती है, दूसरे क्षण वह देखना चाहती है कहीं माँ के बाल उखड़ तो नहीं गए हैं। वॉल्टर के जाने के बाद वह माँ से लिपटती है। अपनी छात्रा को ईर्ष्यावश घायल करती है। घायल करने का नायाब तरीका अपनाती है। पुरुषसत्ता कितनी आक्रमक होती है इसे एक छोटे से दृश्य में प्रदर्शित किया गया है। आइस स्केटिंगरिंग में दो लड़किया प्रफ़ुल्लित मन और उन्मुक्त भाव से स्केटिंग कर रही हैं, तभी वहाँ हॉकी स्टिक लिए लड़कों का एक झुंड भड़भड़ाता हुआ आ जाता है। उनका आक्रमक रुख लड़कियों को संकुचत कर देता है, वे धीरे-धीरे किनारे हटती जाती हैं और अंतत: एरीना से बाहर चली जाती हैं। इसी दौरान वॉल्टर उनके प्रति तनिक नम्र रुख प्रकट करता है जो उसके व्यक्तित्व की कोमलता को उजागर करता है। यह दीगर है कि उसके भीतर भी हिंसा भरी हुई है।
निर्देशक हैनेक जर्मन हैं और खुद एक नाटककार हैं। वे पूरी फ़िल्म को एक विषय के रूप में, एक क्लीनिकल स्टडी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। फ़िल्म में दार्शनिक संवाद और सौंदर्य दोनों भरपूर है। कैमरे का प्रयोग बहुत गरिमामय है। कैमरा स्थिर रहता है लेकिन उसके शॉट्स चलायमान हैं। फ़िल्म सैक्स, शक्ति-सत्ता, दमन, पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति, उच्चस्तरीय कला और यौन संबंधों का बेहतरीन नमूना है। जो दर्शक फ़िल्म में सैक्स की सनसनी खोजने जाएगा उसे निराशा मिलेगी, नायिका कहीं भी अपने कपड़े नहीं उतारती है बल्कि पूरी फ़िल्म देखने के बाद मन पर एक गहरी उदासी तारी हो जाती है। इस बात का इहलाम होता है कि कला और जीवन दो भिन्न बातें हैं। इन दोनों का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। दोनों को अलग समझना होगा कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। जीवन नैसर्गिक होता है जबकि कला जीवन की नकल मात्र है। एरिका दोनों को एक समझने की भूल करती है और इसका परिणाम भुगतती है। द पियानो टीचर फ़िल्म के संगीतकार मार्टिन एचनबॉख हैं जबकि सिनेमेटिग्राफ़ी क्रिश्चियन बर्गर की है। इसे २००१ और २००२ में कई सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए। २००९ में जेनिस वाई.के.ली ने भी इसी नाम से एक उपन्यास लिखा जो खूब लोकप्रिय हुआ। मगर वह हॉगकॉग की पृष्ठभूमि में प्रेमकथा का एक सरल-सा उपन्यास है। जेलेनिक की प्रतिभा के टक्कर और मिजाज का नहीं है। दोनों में कोई तुलना नहीं, यहाँ यह मात्र सूचना के लिए लिखा है।
निर्देशक फ़िल्म का अंत दर्शकों के लिए खुला छोड़ देता है। खुद को चाकू मार कर एरिका कंसर्ट हॉल से बाहर की ओर निकल जाती है जबकि हॉल में सब उसके पियानो वादन को सुनने के लिए एकत्र हैं। एरिका कहाँ जा रही है? घर जा रही है? पोर्न देखने के लिए विडियो पार्लर जा रही है या स्कूल जा रही है? दर्शक तमाम अनुमान लगाने को स्वतंत्र है। फ़िल्म समाप्त हो कर भी समाप्त नहीं होती है दर्शकों को हॉन्ट करती है, एक बेचैनी उत्पन्न करती है, कई प्रश्न छोड़ती है। द पियानो टीचर किताब पढ़ना और इसी नाम की इस उपन्यास पर बनी फ़िल्म देखना एक त्रासदी से गुजरना है। इन्हें एप्रिशिएट करने के लिए जिगरा चाहिए। नैतिकतावादी बड़ी नाक-भौं चढ़ाएँगे। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि फ़िल्म देखने की सलाह देने से पहले यह अवश्य जान लें कि जिसे आप सलाह दे रहे हैं वह इस लायक है भी या नहीं। किताब पढ़ने की सलाह आप बेखटके दे सकते हैं क्योंकि पक्की बात है जिन्हें आप सलाह देंगे उनमें से निन्यानवे प्रतिशत पढ़ेंगे नहीं। फ़िर भी सलाह दे रही हूँ कि पढ़ लें, देख लें। शायद जीवन-कला और स्त्री के प्रति नजरिए में थोड़ा फ़र्क आ जाए। किताब अब हिन्दी में भी उपलब्ध है मगर थोड़ी डायल्यूट हो कर।
०००
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टिप्पणियाँ

hindi-nikash.blogspot.com ने कहा…
बहुत शानदार...... विजय जी के लेखन का मैं ज़बरदस्त फैन हूँ.......
hindi-nikash.blogspot.com ने कहा…
बहुत शानदार...... विजय जी की लेखनी का मैं ज़बरदस्त फैन हूँ......
शेखर मल्लिक ने कहा…
बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक तरीके से लिखा है दीदी. अब फिल्म देखनी है. फिल्मों पर हमारी समझ ऐसे ही बढाती रहिये...
Kumar Ambuj ने कहा…
बेहतर और दृष्टिसंपन्‍न आलेख।
rajkumar ने कहा…
बहुत बढ़िया लिखा है
बेनामी ने कहा…
मैंने उपन्यास भी पढ़ा है और फिल्म भी देखी है. यूरोप का साहित्य और सिनेमा वास्तविकता को प्रदर्शित करता ही हैं चाहे वो वास्तविकता कितना ही घिनोनी क्यों न हो. हेनके ने फिल्म आर्ट सिनेमा स्टाइल में ही बनाई है. उपन्यास के शब्द प्रभाव छोड़ते है. फिल्म और उपन्यास दोनों ही लाज़वाब है.

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