और कितने यौवन चाहिए युयुत्सु?
यह कहानी प्रतिलिपि आनलाइन मैगजीन और पक्षधर वार्ता के प्रिंट वर्ज़न में छप चुकी है. फिर भी यहाँ दे रहा हूँ जिसकी कुछ ख़ास वजहें हैं. यह सिर्फ कहानी नहीं हम कुछ दोस्तों की संयुक्त आत्मकथा है.
john seed की पेंटिंग गूगल से साभार |
·
इतनी मार! ऐसा अत्याचार! जैसे
किसी बनैले सुअर का शिकार कर रहे हों. और गालियाँ...सिगड़ी के कोयले सी धधकती आँखों
से टपकती नफ़रत. काले नाग सी फुंफकारती बेल्टों की सपाट बक्कल से निकलकर तीनों
शेरों ने जैसे एक साथ हमला कर दिया हो (अचानक से ‘लोकतंत्र के चौथे शेर’ की याद आई
थी कि ठीक उसी वक़्त माथे के पिछले हिस्से पर जोर से बक्कल की चोट लगी और फिर उसके
बाद कुछ याद नहीं रहा)
आखिर ऐसा क्या कसूर था मेरा?
बस एक फोटो खींचने की इतनी बड़ी सज़ा? मुझे क्या पता था कि ऐसे एन वक़्त पर वह बेर
उठाने के लिए झुक जायेगी और उसकी आँखों की जगह कैमरे में ....... अब तकदीर भी तो
साली फूटी ही थी न कि ठीक उसी वक़्त मोबाइल भी घनघना उठा और चोरी पकड़ी गयी. फिर
उसका चीखना, कम्यून की बाड़ के कँटीले तारों में शर्ट का उलझना, खून, पकड़ो, भागने
ना पाए, गद्दार, जासूस, चोर, सड़क, जीप, रिक्शा, नाली, पुलिस, मोबाइल, गद्दार,
पकड़ो, साला, कमीना, थप्पड़, जूते, बेल्ट, बक्कल, शेर, खून...उफ़!
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
पाँच घंटे पुराना यह किस्सा
दरअसल पूरे आठ साल पहले शुरू हुआ था जब गोरखपुर से 45 किलोमीटर दूर एक छोटे से
कस्बे के राजकीय इंटर कालेज की आठवीं ख के क्लास-टीचर सादिक मियाँ के मझले बेटे
अफजल खान ने अपनी बारहवीं की जीव विज्ञान की ‘सफ’ कापी के आखिरी पन्ने पर अपनी पहली
प्रेम कविता लिखी थी
चाहता
हूँ तुम्हें प्रेम करना
तुम्हारी
झील सी आँखों में डूब कर
पार
कर लेना चाहता हूँ यंत्रणा की गहरी खाइयाँ
तुम्हारे
देह की अतल गहराइयों में
चैन
से सो लेना चाहता हूँ उम्र जितनी लंबी एक रात
सारी
निराशा, सारे अभाव, सारी चिंताएं
बहा
देना चाहता हूँ तुम्हारे प्रेम के आवेग में
इतना
मुश्किल नहीं यह सब कुछ
पर
क्या करूँ इतना गहरा दाग है इस कलेजे पर...
तुम्हारी
एक हँसी के बरक्स हज़ार परेशान सी छायाएँ
रुदालियों
के अनंत विलाप
तुम्हारी
एक छाँह के साथ
मीलों
फैला दुखों का रेगिस्तान
हृदय
की एक आकांक्षा के बरक्स
आत्मा
की देह पर घाव हज़ार
शान्ति
के उस एक पल के मुक़ाबिल
आवाजों
और चीत्कारों के आक्षितिज बियाबान
मैं
चाहता तो हूँ
हो
जाना तुम्हारा शरणागत
पर
अभिशप्त युग के बाशिंदे
कब
पा पाते हैं
चाही
हुई विश्रान्ति!
फिर
जैसा कि अकसर होता है, रात में अफजल के सो जाने के बाद सादिक मियाँ ने उनकी शर्ट और पैंट की ज़ेबों,
स्कूल के बैग और दराज़ की जाँच करने के बाद टेबल पर पड़ी कापियाँ पलटीं और यह कविता
पकड़ी गयी. सादिक मियाँ ने सरसरी तौर पर कविता पढ़ी और फिर ‘या अल्लाह’ करते हुए जो
कटे पेड़ की तरह धम्म से बिस्तर पर गिरने नुमा बैठे तो अफजल एकदम से उठ बैठा.
सादिक
मियाँ दोनों पंजों के बीच अपना चेहरा छुपाये लगभग सुबक रहे थे...अफजल की नज़र खुली
हुई कापी पर पड़ी तो सारा माजरा समझ में आ गया. वह उठा और छिटक कर कोने में खड़ा हो
गया. अब तक अम्मी भी आ चुकीं थीं....बार-बार पूछा तो सादिक मियाँ ने वही पन्ना आगे
बढ़ा दिया...अम्मी ने उलटा-पुल्टा पर उन्हें क्या समझ में आता? उनके लिए तो लिखा
हुआ हर हर्फ़ एक जैसा था...सादिक मियाँ देर तक वैसे ही बैठे रहे...अम्मी ‘सब ठीक हो
जाएगा’ की धीमी सी बेबस राग अलापती वहीं ज़मीन पर पड़ गयीं और अफजल उसी कोने में
वैसे ही खड़ा रहा. फिर अचानक सादिक मियाँ उठे...और अफजल की ओर देखते हुए कहा उसकी
माँ से ...’बेवकूफ...अब कुछ ठीक नहीं होगा...इश्क हो गया है तुम्हारे साहबजादे
को...मुदर्रिस की औलाद और बीमारी इश्क की... तुम्हारे मायके का यही असर होना था
हमारी जिंदगी पर...हम क्या-क्या उम्मीदें लगाए बैठे हैं और ये चले हैं इश्क
लड़ाने’...अंतिम वाक्य जैसे द्रुत लय में कहा गया और इसके खत्म होते-होते
जीवविज्ञान की वह कापी अफजल के सर पर तबले की अंतिम थाप की तरह गिरी और लगभग उसी
गति से सादिक मियाँ कमरे से बाहर निकल गए. अम्मी कुछ देर तक सुबकती रहीं फिर दुप्पट्टे
से आँसूओं को सहारा देती वह भी बाहर निकल गयीं. दोनों के जाने के बाद अफजल ने पहले
तो बड़ी फुर्ती से कापी से वह पन्ना अलग करके पैंट की जेब में ठूंस दिया फिर चैन से
बैठकर सोचने लगा कि आखिर उसे इश्क हुआ किससे है? लेकिन ख्याल मोहल्ले की सारी
लडकियों के चेहरे पार करके ज़हीर मामू की कोठी तक पहुँच गए. वही कोठी जिसके सबसे
बाहर वाले कमरे में मामू का दफ्तर था. वही दफ्तर जिसमें किताबों की वह हैरतंगेज
दुनिया थी जिसमें गोते लगाने वह पागलों की तरह जाया करता था...अब्बू की इजाजत के
बगैर किया जाने वाला इकलौता काम.
अब्बू
जहीर मामू से बेइन्तिहाँ नफ़रत करते थे. वैसे भी कामरेड ज़हीर उल हक से इश्क और नफ़रत
करने वालों की कोई कमी न थी. मजलिसों में उन्हें खुलेआम काफिर कहा जाता था तो
मंचों पर उनकी एक आवाज़ पर सैकड़ो लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते थे. दरमियाना कद,
फ्रेंच कट दाढ़ी, पान से चौबीसों घंटे सुर्ख होठ और आँखों पर मोटा चश्मा. मामू
बोलते तो फिर अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती. बारह साल पहले जब उन्होंने एक
ब्राह्मण लड़की से शादी की थी तो वह कस्बे का पहला प्रेम विवाह’ था. अपराजिता
शुक्ला इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की सबसे ख़ूबसूरत लडकियों में शुमार थीं और ज़हीर वहाँ
उन दिनों इन्कलाब की अलख जगाते घूम रहे थे. छात्रसंघ के चुनाव में शहर के एम एल ए
और खानदानी कांग्रेसी रामायण मिश्र के प्रपौत्र को हराकर जब वह अध्यक्ष बने तो शहर
की राजनीति में जैसे भूचाल आ गया...लेकिन जब उन्हीं मिश्रा जी की ममेरी नतिनी से
उनके इश्क के चर्चे फैले तब तो जैसे जान पर बन आई. खैर मामू ठहरे मामू...शादी
हुई...गोलियाँ चलीं...दंगे बस होते-होते रह गए...और मामू को शहर छोडना पड़ा. फिर जो
कस्बे में लौटे तो यहीं रह गए. हिंदुओं की लड़की उड़ाने से खुश रिश्तेदारों को जब
मज़हब और दीन पर मामू के ख्यालात मालूम पड़े तो उनका भी भ्रम टूट गया. मामू अपनी
किताबों, वकालत और मजदूर आंदोलन में ऐसे डूबे कि रिश्तेदारों का उनकी ज़िंदगी में
कोई खास मतलब ही नहीं रह गया.
मामू
से अफजल का रिश्ता अजीब था. मज़हब के बारे में वह उनसे एक लफ्ज सुनने को तैयार नहीं
था लेकिन इसके अलावा हर मसाइल पर मामू का कहा अंतिम सत्य था उसके लिए. मामू और
मामी के पास दुनिया के हर सवाल का जवाब था. उनकी किताबों में सारी दुनिया थी.
प्रेमचंद, अमरकांत, यशपाल, मंटो, निकोलाई आस्ट्रोवस्की, हावर्ड फास्ट, बर्तोल्त
ब्रेख्त, मार्केज, डी एच लारेंस, तालस्ताय, केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन, येहूदा
आमीखाई, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, पाश, कुमार विकल....जो मिलता वह पागलों की तरह
पढता चला जाता. सस्ते कागजों पर छपी तमाम पत्रिकाएं जिनमें कई बार तो कवर भी ब्लैक
एंड व्हाईट होते. उनमें छपी मामी की कविताएँ पढते हुए उसे लगता कि काश कभी यहाँ
मेरा नाम होता....यह कविता उन्हीं पत्रिकाओं और किताबों की मोहब्बत से जन्मी थी और
बिना मामी को दिखाए वह इसे नष्ट नहीं होने दे सकता था. कहीं वह मामी से ही तो इश्क
नहीं कर बैठा था...यह ख्याल आते ही एक गुलाबी सी मुसकराहट चेहरे पर आई और फिर तुरत
ही कानो तक पहुंचे हाथों ने तौबा कर लिए.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
तब
लगता था अब्बा मुझे समझने की ज़रा भी कोशिश नहीं करते. अब सोचता हूँ कि बाप-बेटे के
रिश्ते में समझने-समझाने की गुंजाइश ही कहाँ होती है? आपने फ्रेंजन की करेक्शन पढ़ी
है? इतने खुले दिमाग वाला अल भी कितना समझ पाया अपने बच्चों को और उसके बच्चे भी
कहाँ समझ पाए उसे ...और समझा तो क्या ही पाते वे खैर एक दूसरे को...खूंटों से बंधे
जानवर लड़ाई में सिर्फ अपना नुक्सान करते हैं. तो अब्बा ने ब्लडप्रेशर की बीमारी
पाल ली और मैंने घर छोड़ दिया.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
पागल
हो गया था लड़का. चौबीसों घंटे खुराफात. न आज का होश न कल का ख्याल. पता नहीं कौन
सा नशा था. किताबें हमने भी पढ़ी हैं...लेकिन किताब के फार्मूले ज़िंदगी में नहीं
चलते. चाँद में बैठी अम्मा के हाथ का काता कपड़ा पहना है किसी ने आज तक? लेकिन इनके
पाँव तो थे ही नहीं ज़मीन पर. जहन्नुम मिले इस ज़हीर और बाभनी को. अपने खानदान की
नैया डुबो कर चैन नहीं मिला तो मेरे बेटे के ही पीछे पड़ गए. ठीक है...ज़हीर ने जो
किया सो किया. पर पढ़ाई तो ढंग से की. बाप की जायदाद है, अच्छी प्रैक्टिस है,
दिल्ली तक पहुँच है तो उनका कोई क्या कर लेगा? लेकिन ये जनाब...बारहवीं में
चौहत्तर फीसदी नंबर लाने के बावजूद जाके गोरखपुर यूनिवर्सिटी में बी ए में नाम
लिखा आये...क्या सब्जेक्ट लिए हैं – इतिहास, दर्शन और हिन्दी! फिलासफर बनने का शौक
चर्राया है. चार-चार आने की सडी हुई पत्रिकाओं में छपकर खुद को कवि समझने लगे हैं.
जब सारी दुनिया इंजीनियर, डाक्टर, एम बी ए और न जाने क्या-क्या बनने पर लगी है तो
ये न जाने कौन से सपने पाले बैठे हैं...पहले लगा था कि इश्क-विश्क का चक्कर है.
लेकिन ये जनाब तो इससे भी आगे निकल गए हैं. कहते हैं दुनिया बदल डालेंगे. इनके
बदलने से बदल जायेगी दुनिया...बड़े-बड़े तो थक हार के बैठ गए अब ये चले हैं दुनिया
बदलने! कौन समझाए इन्हें कि दुनिया ऐसे ही चलती रहती है अपनी चाल से. कितने
हो-हल्ले मचे लेकिन हुआ कुछ नहीं. ज़मींदारी चली गयी कागजों से पर खेत पर काबिज
जमींदार रहे. जाति-पाति मिट गयी कागज़ पर लेकिन बाभन-बाभन रहा और मेहतर मेहतर.
संविधान में लिख दिया गया सेकुलरिज्म लेकिन ज़मीन पर दंगे होते रहे मुसलसल. कितना
लड़े ज़हीर साहब शूगर फैक्ट्री के मजदूरों के लिए...पर हुआ क्या? दिल्ली-लखनऊ की एक
कलम के आगे सब बेबस...देखते-देखते वीरान हो गयी फैक्ट्री. इस दुनिया में कामयाब
वही है जिसने अपने लिए एक महफूज कोना खोज लिया. लड़ने वाले सिर्फ इतिहास की किताबों
में इज्जत पाते हैं, ज़िंदगी तो समझौतों से चलती है. बीस साल से हिंदुओं के कालेज
में पढ़ा रहा हूँ...सरकारी है तो क्या हुआ...मेरे और सलीम मेहतर के अलावा एक
कर्मचारी नहीं रहा कभी मुसलमान. दांतों के बीच में जीभ सा रहता हुआ मैं जानता हूँ
हकीक़त इस मुल्क की. सोचा था पढ-लिखकर एक लड़का किसी ढंग की नौकरी में आ जाएगा तो
ज़िंदगी चैन से गुजर जायेगी. एक तो वैसे ही किसी मुसलमान के लिए नौकरी वैसे भी
मुश्किल है और ऊपर से इसके ऐसे लक्षण...पता नहीं क्या होगा इसका? सुनता भी तो
नहीं...थोड़ी सख्ती की कोशिश की तो घर ही छोड़ दिया...पता नहीं कैसे रहता होगा बिना
पैसों के...अल्लाह अक्ल दे इस नादान को...वह कमबख्त तो अब तेरे वजूद से भी इंकार
करता है...लेकिन तू तो परवरदिगार है मालिक...अब तेरे करम का ही भरोसा है वरना तो
कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आती...
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
आपने
उम्मीद की शक्ल देखी है?
उन
दिनों हमें वह बिलकुल सी पी की आँखों जैसी लगती थी.
अजीब
से दिन थे. चौबीस घंटों में छत्तीस की ऊर्जा...लगता कि एक पल भी चुके तो इन्कलाब
सदियों दूर चला जाएगा. सी पी को सुनते हुए हम सारी ज़िंदगी गुजार सकते थे उन दिनों.
सिगरेट के धुंए से भरे कमरों में सारी-सारी रात चलने वाली स्टडी
सर्किल्स...कालेजों-स्कूलों के गेटों पर नुक्कड़ नाटक, भीड़ भरे चौराहों पर आम
सभाएँ, परचे-पोस्टर-अख़बार...बहसें...तैयारियाँ...और क्या होती है ज़िंदगी इसके
सिवाय? आप नहीं समझेंगे यह सब ... आप कहाँ मिले किसी सी पी से सोलह की उम्र में?
हमारे लिए तो बस कम्यून ही ज़िंदगी थी.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
इसके
आगे की कहानी न अफजल बता पायेगा न अब्बू ... कुछ चीजें थोड़ी दूर से ही साफ़ दिखाई
देती हैं.... पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर पहाड़ की ऊँचाई का अंदाज नहीं लग सकता. भीतर
से जो कम्यून लगता था, वह बाहर से देखने पर शहर के एक पुराने मोहल्ले का मकान लगता
था जिसकी मिल्कियत कभी देवयानी के पिता के पास थी और जिसके उत्तराधिकार के लिए
हाईकोर्ट में मुकदमें चल रहे थे तो बहुत दूर से देखने वालों को यह एक ऐसा अनैतिक
अड्डा लगता था जिसमें लड़के-लडकियाँ साथ रहते थे. कुल सात कमरों वाला एक पुराना
मकान जिसके बाहर एक छोटा सा बरामदा था और पीछे एक किचन गार्डन जिसके चारों ओर की
सात फुट ऊँची चहारदीवारी पर कँटीले तारों की तीन फेरों वाली बाड़ लगी थी. इसमें ही रहते
थे अफजल, श्रीकांत, अभय, राजेश, निहाल, रत्ना, निशिता, रंजना और अनामिका. बाहर का
कमरा संगठन के दफ्तर की तरह उपयोग में लाया जाता था. अंदर जाते ही बाईं ओर का सबसे
पहला और बड़ा कमरा सी पी और देवयानी के लिए था. वे जब यहाँ आते तभी उसे खोला जाता.
उससे लगे दोनों कमरे लडकियों के लिए थे. दाहिनी ओर के पहले कमरे में लाइब्रेरी थी
और दूसरा संगठन का स्टोर रूम. बाक़ी दोनों कमरे लड़कों के थे जिसके ठीक बाद किचन था.
बीच के आँगन में एक पुरानी खाने की मेज थी जिसका उपयोग खाने के लिए कम और बैठकों
के लिए अधिक किया जाता था. घर का खर्च चलाने के लिए सभी कुछ न कुछ करते थे.
ज्यादातर ट्यूशन पढ़ाते...निहाल किसी सेठ के यहाँ रोज दो घंटे एकाउंट्स का काम करता
था, निशिता एक प्रेस के लिए कम्पयूटर पर डिजाइनिंग करती थी. बस अनामिका के बारे
में किसी को कुछ पक्के तौर पर मालूम नहीं था. वह शायद अनुवाद का काम करती थी...काम
अकसर रात में ही करती थी वह तो उसके लिए सी पी वाला कमरा उपयोग करने की छूट थी. जब
सी पी या देवयानी नहीं होते तो वह रात को उस कमरे में चली जाती जहाँ से देर रात तक
टेपरिकार्ड से गानों की आवाज़ और खिड़की के शीशों से रौशनी आती रहती. रहना तो मैं भी
चाहता था वहाँ लेकिन फिर संगठन के काम से मुझे हास्टल में ही रहने को कहा गया. तब
कितना बुरा लगा था...अब लगता है कि सच में जो होता है अच्छे के लिए ही होता है
क्या? फिर यह बाकियों के साथ क्यूँ नहीं हुआ? कम से कम अफजल के साथ तो होना ही
चाहिए था.
एहसास
तो मुझे पहले ही हो गया था कि अफजल के लिए आसान नहीं वहाँ रह पाना. निहाल और
निशिता के अलावा और कोई नहीं था वहाँ जिससे उसकी पटती हो. महीने के अंत में होने
वाली बैठकों को लेकर वह जिस तरह तनाव में रहता था, मैंने कई बार उससे यह कहना चाहा
कि वह हास्टल में आ जाए लेकिन कभी कह नहीं पाया. सी पी से कहने की कोशिश की तो वह
बोले कि ‘कम्यून के सदस्यों में सबसे ज़्यादा सुधार की ज़रूरत अफजल में ही है. वह
अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के चलते दोहरी दिक्कतों का सामना कर रहा है. एक तरफ
तो उसके परिवार की निम्नमध्यवर्गीय पृष्ठभूमि तो दूसरी तरफ जहीर उल हक जैसे
संशोधनवादियों का प्रभाव उसकी सारी राजनीतिक समझदारी को प्रभावित करता है. तुम्हीं
सोचो कि आखिर उसे ट्यूशन क्यों नहीं मिल पाते? क्यूँ वह इतनी अधिक भावुकता का
शिकार है? तुम्हें याद है न अभियान के दौरान गर्ल्स कालेज के गेट पर उसका व्यवहार?
इसकी जड़ें उसकी मानसिक बुनावट में हैं. इससे लड़ने के लिए उसका आलोचना-आत्मालोचना
के गहन और तीखे दौर से गुजरना ज़रूरी है. मैंने जब आशंका ज़ाहिर की कि कहीं वह टूट न
जाए तो सी पी ने जो कहा वह सुनकर मैं भीतर तक हिल गया – ‘यह क्रान्ति की लड़ाई है
कामरेड...कमजोरों के लिए इसमें कोई जगह नहीं.’
कमजोरों
के लिए कोई जगह नहीं? इस एक वाक्य ने मुझे हफ़्तों सोने नहीं दिया. क्या हम सिर्फ
मज़बूत लोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या हम उस सेना की तरह हैं जहाँ घायलों को उनकी
हालत पर छोड़ दिया जाता है? कमजोरों के हक की लड़ाई में कमजोरों के लिए कोई जगह
नहीं! कमजोर तो था अफजल. पढते-पढते उसकी आँख में आंसू आ जाते, जेब में बचा आखिरी
नोट भी वह किसी परेशान दोस्त पर खर्च कर देता, बसों में अकसर किसी बुजुर्ग के लिए
सीट खाली कर देता, संगठन के सख्त निर्देश के बावजूद अगर ज़हीर मामू शहर में आते तो
किसी भी तरह उनसे मिल लेता और छुप-छुपाकर अम्मी से फोन पर बात कर ही लेता महीने-दो
महीने में...एक आरोप तो कविता लिखने का भी था...सीधे कोई कुछ नहीं कहता लेकिन जब
पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ छपतीं तो कुछ दिनों के लिए उसकी पैरोडियाँ कम्यून में
गूंजती रहतीं...उस दिन गर्ल्स कालेज के गेट पर खोमचा लगाने वाले ने जब उसके भाषण
के बाद अपनी दिन भर की कमाई उसे चंदे में दे दी तो उसकी आँखें भर आईं और उसने
उसमें से एक दस का नोट निकालकर बाक़ी सारे पैसे वापस कर दिए. शाम की बैठक में सी पी
से इस बात की शिकायत हुई तो उन्होंने उसकी सार्वजनिक भर्त्सना का प्रस्ताव रखा और
उसे आत्मालोचना का आदेश मिला. वह भरी आँखों से बस इतना कह पाया कि ‘बहुत गरीब था
बेचारा’...राजेश इसे आत्मालोचना मानने को तैयार नहीं था. मैंने एक दिन का समय
माँगा अफजल के लिए तो सी पी ने मुझे भी चुप करा दिया और फिर उसे दंड मिला - अगले
पूरे हफ्ते अभियान से बाहर रहकर कम्यून के सारे काम अकेले करने का और साथ में
लाइब्रेरी में उसके प्रवेश पर पाबंदी. उसी
दौरान एक शाम जब बाकी सदस्य अभियान में मिले पैसों की गिनती करने और फिर देवयानी
के नए संग्रह से कविताएँ सुनने में लगे थे तो बर्तन मांजते हुए उसने मुझसे कहा था,
‘ मुझे पता है संजय मैं कमजोर हूँ. छोटा था तो भाई और दोस्त भी मेरा मजाक उड़ाते
थे. मैं फिल्में देखते-देखते रोने लगता, कुर्बानी के लिए लाए गए बकरे को हफ्ते भर
प्यार से पालने के बाद उसका गोश्त मेरे गले से नीचे नहीं उतरता था. सब मजाक उड़ाते
लेकिन ज़हीर मामू कहते थे कि यह तेरे इंसान
होने का सबूत है. हो सकता है ज़हीर मामू भी कमजोर रहे हों...मैंने देखा है उन्हें
अकेले में रोते हुए जब शूगर फैक्ट्री बंद हुई थी. क्या आंसू इतने बुरे होते हैं?
मैं कोशिश कर रहा हूँ... शुरुआत कर भी दी है मैंने...पिछले तीन महीनों से एक भी
कविता नहीं लिखी...लेकिन सब तो मेरे वश में नहीं. क्या करूँ अगर नहीं मिलते मुझे
ट्यूशन? हो सकता है मुझे ठीक से पढाना ही न आता हो...हो सकता है मुझमें इतना
आत्मविश्वास ही न हो...निहाल कहता है कि छह दिसंबर के बाद लोग अपने घर में किसी मुसलमान
का प्रवेश नहीं चाहते...अनामिका इसे बकवास कहती है...वह सही कहती है...आखिर
कामरेडों के घर भी तो नहीं पढ़ा पाया मैं ठीक से. सी पी भी सही कहते हैं. दिक्कत
मेरी पृष्ठभूमि में ही है. लेकिन क्या मैं जिम्मेदार हूँ अपनी परवरिश के लिए? पर
सुधारना तो मुझे ही होगा...शायद अब तक संघर्ष से भागता रहा हूँ मैं...मुझे लगता है
कि अब मुझे अपने माजी से दूरी बनानी होगी. चलो नहीं मिलूँगा अब मामू-मामी से.
अम्मी को फोन भी नहीं करूँगा. कोशिश करूँगा कि मज़बूत बन सकूँ. लेकिन यह नहीं जानता
कि कभी कामयाब हो सकूंगा कि नहीं. जानते हो...कभी सोचता हूँ कि जब राज्यसत्ता से
सीधी जंग होगी तो मैं क्या करूँगा...क्या गोली चला पाऊँगा मैं किसी इंसान पर? अपनी
तमाम नफ़रत के बावजूद कहीं मेरी उँगलियाँ काँप तो नहीं जाएँगी...मैं सो नहीं पाता
सारी-सारी रात यही सोचकर कि क्या इन्कलाब की इस लड़ाई में मैं सच में किसी काम का
नहीं. फिर सोचता हूँ कि किसी और को नहीं मार सकता तो क्या खुद को तो मार सकता हूँ
न. पीठ पर बम बांधें कूद जाऊँगा जहाँ सी पी कहेंगे.’
ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने
क्या कहा था उस वक़्त. बहुत कुछ कहने की स्थिति में था ही नहीं मैं शायद. शायद पहली
बार मेरे मन में संगठन के पूरे ढाँचे और सीपी को लेकर तमाम सवालात उफन रहे थे. उस
रात मैं लौटकर हास्टल नहीं गया. सीधे नरेन दा के कमरे पर चला गया. वह बेहद लंबी
रात थी...नरेन दा की छत पर चाँद जैसे ठहर कर हमारी बातें सुन रहा था... उस उमस भरी
रात में सब कुछ ठहरा हुआ था...बस नरेन दा की आवाज़ थी जो सिगरेट के धूंए के साथ
सीने के भीतर कहीं गहरे जज्ब होती जा रही थी.... ‘ इन्कलाब के मानी क्या हैं? आखिर
किस लिए इन्कलाब? क्या सिर्फ इसलिए कि हमारे पुरखे मार्क्स ने कहा था कि इन्कलाब
होना चाहिए...तो उसके किसी सपने को पूरा करने के लिए हम इन्कलाब की लड़ाई में लगे
हैं... क्या दुनिया को बदलने का मतलब बस यही है? जो दुनिया आज है उससे बेहतर
दुनिया अगर हम नहीं बना सकते तो क्या मतलब इस कवायद का? किसके लिए यह लौह-अनुशासन?
जानते हो जनता लेनिन के पीछे क्यूँ आई थी? क्योंकि उसे भरोसा था कि वह उसके लिए
जार से बेहतर ज़िंदगी देगा. वह उनके पैरों की बेड़ियाँ काट डालेगा और उनकी जबान को
आवाज़ बख्शेगा...और उसने यह किया. तुमने सुना होगा तमाम लोगों से कि ‘इससे तो
अंग्रेजों का शासन बेहतर था’...क्यूँ कहते हैं ऐसा लोग? क्योंकि उन्हें महसूस होता
है कि आज हालात उस वक़्त से भी बदतर हैं...यह सिर्फ पुराने मालिकान के प्रति
श्रद्धा से नहीं उपजा है संजय...जनता किताबें नहीं पढ़ती...उसे दर्शन की गहराइयों
से मतलब नहीं. उसे तो अपनी ज़िंदगी में बेहतरी चाहिए. और यह बेहतरी कैसे हासिल हो
सकती है? कोई बुरा कारीगर कभी अच्छा घर नहीं बना सकता. बेहतर इंसान ही बेहतर
दुनिया बना सकते हैं. हम अगर बेहतर इंसान नहीं तो हम कभी क्रांतिकारी नहीं हो
सकते. यह युद्ध का मैदान नहीं समाज है संजय. यहाँ की लड़ाइयां युद्ध के नियमों से
नहीं जीती जातीं. तुम जो अफजल के बारे में बता रहे हो वह उसके अच्छे इंसान होने का
सबूत हैं. ज़हीर को मैं इलाहाबाद के ज़माने से जानता हूँ. उसकी राजनीति से कभी सहमति
नहीं रही लेकिन उसके अच्छे इंसान होने में कोई शक नहीं. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के
अध्यक्ष का रुतबा जानते हो तुम? अगर चाहता तो बस रामायण मिश्रा से थोड़े बेहतर
सम्बन्ध रखने थे उसे और सत्ता के गलियारे खुले हुए थे उसके लिए. अपराजिता को वह
समझौते में स्टेक की तरह उपयोग कर सकता था लेकिन उसने कोई समझौता नहीं किया. वह
उसके लिए कोई ‘पीली छतरी वाली लड़की’ नहीं थी जिसे उसने रामायण मिश्रा से बदले के
लिए फँसाया हो. उसने प्रेम किया और उसके लिए बलिदान किया. लेकिन शूगर मिल वाली
लड़ाई एक अच्छा इंसान होने के बावजूद वह नहीं जीत सका. क्योंकि केवल अच्छा इंसान
होने से भी काम नहीं चलता. वह अब भी नेहरूवादी समाजवादी माडल पर भरोसा कर रहा था,
राज्य की सदाशयता और क़ानून पर भरोसा कर रहा था...वह देख ही नहीं पाया कि नब्बे के
बाद चीजें कैसे बदल गयीं हैं और वह हारा.
इस लड़ाई में जीतने के लिए सही राजनीति चाहिए और उसे लागू करने के लिए सच्चे इंसान
जिनके सीने में इंसानियत के लिए बेपनाह मुहब्बत हो. चे को पढ़ा है न तुमने? प्रेम
को कितनी ऊंची जगह दी है उसने... उसकी बरसी पर फिदेल ने जो कहा था पढ़ना कभी. यह सब
वही कह सकते हैं जिनके दिल में मुहब्बत का जज्बा हो. जानते हो चे ने क्यूबा की
मुक्ति की लड़ाई का एक मेमायर लिखा है. उसमें एक प्रसंग आता है जब उनके बीच का एक
साथी गद्दार निकलता है और उसे मारना पडता है. वह युद्ध का समय था, जीवन-मरण का
प्रश्न... फिर भी उस साथी के लिए चे के मन में जो करुणा है, मानव मात्र के लिए
फिदेल के मन में जो करुणा है वह वहाँ साफ दिखाई देती है. सत्ता में आने के बाद उस
साथी के बच्चे और परिवार को वह सारी सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जिस पर एक आम
क्यूबाई का हक है और जिस समय चे लिख रहा था इस किताब को वह बच्चा क्यूबा में एक
अधिकारी बन चुका था...ब्रेख्त कमजोर था क्या? फिर क्यूँ लिखा उसने -- कमजोरियां/ तुम्हारी कोई नहीं थीं/मेरी थी एक/ मैं
करता था प्यार…तनाव और संघर्ष के उस दौर में
वह यह कविता लिख सकता था और
हम शांतिकाल में बेहद धीमे स्तर पर चल रहे जनांदोलनों में भी सहिष्णु नहीं रह
पाते? कभी सोचा है क्यूँ?
वह
घर जिसे सी पी कम्यून कहता है, क्या सच में कम्यून है? जिम्मेदारियां तो बराबरी
में बंट जाती हैं लेकिन क्या सच में वहाँ सबका बराबर का हक है? अगर देवयानी मुकदमा
हार गयी तो सबको वहाँ से निकलना होगा लेकिन अगर जीत गयी तो? मैं ज़्यादा कुछ नहीं
कहूँगा लेकिन यह हमेशा ध्यान रखना कि जो बलिदान तुम कर रहे हो वह सही उद्देश्य के
लिए है या नहीं. जिस समय आंदोलन में बिखराव होता है, जनता की इससे दूरी बढ़ती चली
जाती है उस समय तमाम ऐसे तत्व हावी हो जाते हैं जिनका कोई दीर्घकालीन उद्देश्य
होता ही नहीं. ऐसा नहीं कि ये पहले दिन से ही ऐसे ही रहे हों. लेकिन समय के
साथ-साथ ये विकृतियाँ बढ़ती जाती हैं और फिर एक दिन उनकी पूरी चेतना पर हावी हो
जाती हैं. यह उस इंसान की ही नहीं राजनीति की भी कमजोरी होती है. दुर्भाग्य से यह
ऐसा ही दौर है, संगठनों में टूट-फूट, बिखराव बढ़ता ही चला जा रहा है. हर बार एक
राजनीतिक संघर्ष का हवाला दिया जाता है, दूसरा ग्रुप एक नई लाईन लेकर सामने आता है
और फिर अलग हो जाता है या कर दिया जाता है. हालत यह है कि इस देश में जितने प्रदेश
हैं उससे कई गुना अधिक लाईनें क्रान्ति के लिए हमारे सामने उपस्थित हैं, खांची भर
दस्तावेज़ हैं...लेकिन इन्कलाब कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आता. जनता को कुछ नहीं पता
कि कौन उनकी लड़ाई लड़ रहा है, उसकी आँखों में परिवर्तन का कोई ऐसा सपना नहीं. कभी सोचा
है ऐसा क्यूँ? क्यूँ हमेशा युद्ध का विरोध करने वाले हमारे संगठन युद्ध की भाषा
में बात करते हैं? कभी गौर से सोचना जनगीत हों, हमारी रोज ब रोज की राजनीतिक
शब्दावली, हमारी बैठकों के तरीके, संगठन में नेतृत्व की अप्रश्नेयता यह सब सब किस
तरह युद्ध की शब्दावली और मनोविज्ञान से संचालित होता है...जानते हो मुझे हमेशा
लगता है कि हम विश्वास नहीं अविश्वास से शुरू करते हैं. किसी नए साथी के प्रति
पहले तो एक नक़ली और अतिउत्साही एप्रोच दिखाया जाता है फिर जब लगाने लगता है कि अब
यह हमारे बीच आ गया तो शुरू होता है व्यक्तित्व रूपांतरण के नाम पर उसके अपने
व्यक्तित्व को पूरी तरह से खत्म कर एक बने-बनाए साँचे में ढालने का काम शुरू होता
है. यहाँ खुद में शामिल करने का मतलब खुद जैसा बना लेना होता है. यह कैसी रोबोटों
की फौज बना रहे हैं हम? ये एक जैसा सोचने वाले नहीं हैं संजय... ये एक दिमाग के
नियंत्रण से संचालित हृदयहीन लोग हैं जिन्हें जनता से, समाज से इस कदर काट दिया
जाता है कि वे खुद को किसी और दुनिया का वासी समझने लगते हैं. ये भीड़ भरे शहर के
बीच में उगे टापू हैं जिन पर रहने वाले दुनिया को मूर्ख समझते हैं और दुनिया वाले
उन्हें अजूबा... और अजूबे दुनिया नहीं बदलते संजय.
सोचो
तो संजय कैसी होगी वह दुनिया जहाँ सब लोग एक जैसे होंगे... क्या ऎसी किसी दुनिया
के लिए लड़ रहे हैं हम? क्या यही चाहते थे हमारे पुरखे? क्या यही मतलब होता है
हज़ारो फूलों को खिलने देने का... मुझे खून देखकर डर नहीं लगता. मैंने तो बन्दूक की
ट्रिगर से ही सीखा था इंकलाब...लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ इतना खून क्यूँ है हमारे
इतिहास में? इन्कलाब के पहले की लड़ाइयां समझ में आती हैं. विश्वयुद्धों और
उपनिवेशों के ज़माने में पुरानी सामंती सत्ताओं से लड़ते हुए युद्ध के अलावा कोई
चारा नहीं था. लेकिन अपनी सत्ताएं बनने के बाद? मैं लाशें गिनकर स्टालिन और हिटलर
को एक पांत में बिठाने वालों को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन सही उद्देश्य के बाद
भी अगर सत्ता को बनाए रखने और इन्कलाब को बचाए रखने का हमारे पास भी यही एक रास्ता
है तो इतिहास हमें हत्यारों से कैसे अलग करेगा? कैसे हमारे शासक भी इतने हृदयहीन
बन जाते हैं? इसकी जड़ें कहाँ हैं संजय...सोचना...मैं भी सोच रहा हूँ बरसों से. कोई
जवाब मिल गया है यह तो नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि सवाल अब साफ़ हो रहे
हैं. ‘सोचना’ संगठन के अनुशासन का उल्लंघन नहीं हो सकता कभी...जिनके पास अपने सवाल
उठाने की हिम्मत नहीं वे इन्कलाब की किसी लड़ाई के सिपाही नहीं हो सकते कभी...और
फिर अचानक वह ठहाका लगाकर हँसे...देखा तुमने यह युद्ध की शब्दावली किस तरह हमारी
भाषा का हिस्सा बन गयी है...बुश जब कहता है कि ‘हमारे साथ या हमारे खिलाफ’ तो हम
उसे फासीवादी कहते हैं...और बड़े शान से पोस्टर लगाते हैं अपने कमरे में कि ‘बीच का
कोई रास्ता नहीं होता’....काले और सफ़ेद के बीच एक लंबा और बेहद उर्वर धूसर मैदान
है संजय...हम उसे बंजर क्यूँ बनाना चाहते हैं?
रात
के तीन पहर बीत चुके थे. चाँद की थकान साफ़ झलक रही थी और उसकी जगह लेने आ रहे सूरज
की धीमी आहटें सुनाई दे रही थीं. छत की कमजोर रेलिंगों के सहारे सर टिकाये नरेन दा
के मोटे चश्मे के पीछे की बंद आँखों से
जैसे परावर्तित होकर प्रकाश पूरी छत पर फैल रहा था. उनकी लंबी पतली उंगलियों में
फँसी सिगरेट के आधे राख और आधे साबुत हिस्से के बीच एक चिंगारी कसमसा रही थी. थोड़ी
देर पहले भरी गिलास अब तक उतनी ही भरी थी और उस शराब में चाँद का एक छोटा सा अक्स
झिलमिला रहा था. अचानक मुझे लगा कि रौशनी के कितने रूप हो सकते हैं. सब सूरज हो
जाएँ ज़रूरी तो नहीं...लेकिन सिर्फ इसलिए कि इनमें सूरज जितनी आग नहीं है क्या हम
इन्हें रौशनी कहेंगे ही नहीं? मैंने धीमे से उनकी उँगलियों से सिगरेट ली...राख को
ज़मीन पर झाड़ कर एक गहरा कश लिया तो वह छोटी सी रौशनी मेरे सीने में झिलमिला
उठी...वह गिलास उठाकर हलक से उतारा तो जैसे चाँद मेरी नसों में उतर गया.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
उस
दिन रविवार था. निशिता के आने का दिन. उसके प्रेस से थोड़ी दूरी पर सुकांत का कमरा
था. पिछले चार महीनों से रविवार की शाम दो घंटे वह हमारा कमरा हो जाता था. कम्यून
से बिना बताए कहीं जाने की इजाजत नहीं थी. उसने सबको बता रखा था कि प्रेस रविवार
को भी खुला रहता है और इस झूठ के सहारे हमारे प्रेम को यह अबाध स्पेस मिलता था....
ऐसा नहीं कि हमारा प्रेम छुपा हुआ था. संगठन में सब जानते थे. नियमों के अनुसार
हमने एक दुसरे की रजामंदी के बाद इसे सी पी को रिपोर्ट कर दिया था. सी पी ने आगे
बढकर मुझे गले लगाया था और निशिता से गर्मजोशी से हाथ मिलाया था. यह वही दौर था जब
कम्यून की योजना बन रही थी. इस योजना में सबसे पहले मेरा नाम था लेकिन जब कम्यून
के बाबत अंतिम बैठक हुई तो प्रस्ताव में मेरा नाम कहीं नहीं था. उस समय न जाने
क्यूँ मुझे कुछ दिन पहले सी पी का कहा वह वाक्य याद आया – ‘प्रेम मनुष्य के जीवन
की एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है संजय. लेकिन एक क्रांतिकारी के लिए सबसे महत्वपूर्ण
है उसका लक्ष्य. इसलिए वह किसी रिश्ते को इस लक्ष्य के रास्ते की बाधा नहीं बनने दे
सकता. उसे प्रेम भी डिटैच होकर ही करना चाहिए.’
ठीक
पाँच बजे निशिता आई. उसके साथ शाम की नर्माहट भी कमरे के भीतर आ गयी थी. हम सुबह
साथ थे एक अभियान में लेकिन इस समय वह दूसरी निशिता थी जिसकी आँखों में आग नहीं एक
नरम सी चिंगारी थी. जिसके हाथ हवा में मुट्ठियों के सहारे नहीं लहरा रहे थे मेरी
गर्दन के चारों ओर लिपटे थे किसी नरम लता की तरह. जिसके होठों पर नारे नहीं एक
नर्म लालसा थी प्रेम की जो मेरे होठों की नर्म प्यास से मिलकर एक मौन संगीत में
तबदील हो गयी थी. वह संगीत उस कमरे में चारों ओर पसर गया. किताबों के उस बेतरतीब
ढेर में, सिगरेट की अनगिन ठूठों से भरे एश ट्रे में, कुर्सी पर लदे कपड़ों की
गुम्साइन गंध में, दीवार पर लगी मधुबाला की मुसकराहट में, टेबल फैन से बिखरती हवा
में. पुरानी सी चद्दर से ढंका वह बिस्तर पियानो बन गया था और हमारी देह बीथोवेन.
उस दिन बीथोवेन जैसे राग मालकौंस बजा रहा था. किसी नौसिखुए तबलावादक की तरह हम
उसका पीछा कर रहे थे. ज्यों ही संगत मिली उसने छोटा ख्याल गाना शुरू कर दिया. वह
द्रुत स्वर में गाये जा रहा था और हम उसका साथ निभाने के लिए जूझ रहे थे. वह हमसे
आगे निकलता जा रहा था और हम उसका पीछा नहीं कर पा रहे थे....हम उसका पीछा करना ही
नहीं चाहते थे. हम चाहते थे उस पल कि वह सबसे आगे निकल जाए...हमारी चेतना से,
हमारे वजूद से, हमारी परेशानियों से, हमारी चिंताओं से...सबसे आगे...सबसे दूर.
घड़ी
देखी तो पौने छः बज गए थे. उसने कपड़े पहने और दीवार पर लगे छोटे से शीशे में बालों
को सुलझाने लगी. मैंने गैस स्टोव पर चाय चढ़ा दी.
तुम्हें
पता है आज दुकान पर अपराजिता जी आईं थीं.
अच्छा....
प्रेस
क्लब में उनका और देवयानी का काव्य पाठ था ... वहीं से देवयानी उन्हें दूकान पर ले
आई थी.
ओह...
अफजल
भी था वहाँ
अच्छा
जानते
हो जब देवयानी जी ने उसे अपने नए संकलन की कापी देनी चाही तो उसने क्या किया?
क्या?
वह
बिफर पड़ा...बोलने लगा...यह संशोधनवादी बकवास अपने पास रखिये. ये कविताएँ नहीं है
ये सत्ता की चाकरी में लिखी गयी छिछोरी बकवास है. एक जनविरोधी प्रलाप. और उसने
किताब फ़ेंक दी. अपराजिता जी को तो जैसे काटो तो खून नहीं. देवयानी ने भी कुछ नहीं
कहा. सब चुपचाप बैठे रहे. बिचारी भरी आँखें लिए वापस लौट गयीं.
अरे...मैं
जैसे नींद से जागा...अफजल ऐसा कैसे कर सकता है? वह तो कितना चाहता है अपने
मामू-मामी को...उसने ऐसा कैसे किया निशिता...
वह
बहुत बदल गया है संजय. बिलकुल राजेश के नक्शेकदम पर चल रहा है. मुझे डर लगता है
उससे इन दिनों. तुम एक बार बात करो उससे. बहुत अकेला हो गया है वह. किसी से भी बात
नहीं करता. निहाल से दूर-दूर रहता है...मुझसे भी. इन दिनों बस अनामिका और राजेश से
बातें करता है. उनकी हाँ में हाँ मिलाता है. लिखना-पढ़ना सब बंद है उसका. मुझे सच
में डर लग रहा है संजय. हम जैसे सामान्य लोग रह ही नहीं गए हैं. कम्यून के भीतर
तनाव, शक, षडयंत्र ऐसे पनपने लगे हैं कि वहाँ एक अजीब सी घुटन होने लगी है. सब
एक-दूसरे की जासूसी करते हैं. एक कृत्रिम मुसकराहट ओढ़े हम एक-दूसरे की गलतियाँ
ढूँढने में लगे रहते हैं कि सप्ताहांत की रिव्यू बैठक में उन्हें कटघरे में खड़ा कर
सकें. कभी-कभी लगता है कि भाग जाऊं वहाँ से. माँ की बहुत याद आती है इन दिनों. फिर
लगता है कहीं मैं ही तो कमज़ोर नहीं. तुम्हारे अलावा कोई नहीं जिससे कह सकूँ यह सब.
इधर कुछ दिनों से अनामिका तुम्हें लेकर पता नहीं क्या-क्या कहती रहती है. कहीं ये
लोग हमें भी तो....उसका गला रूँध रहा था...
मैंने
आगे बढ़कर उसके माथे को चूम लिया...कुछ नहीं होगा. तुम निश्चिन्त रहो. मैं सी पी से
बात करूँगा.
निशिता
का यह रूप मुझे भीतर तक हिला गया. मजबूती के ये कैसे मानदंड हैं जिनके आगे हर कोई
अपने को कमजोर महसूस कर रहा है?...उसके जाने के बाद मैं देर तक सोचता रहा.
परिवर्तन तो मैं भी बहुत देख रहा था अफजल में और दुसरे साथियों में भी...लेकिन
मामी वाली घटना पर तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. तो क्या नरेन दा की बात सच हो रही
है? हम सब धीरे-धीरे एक रोबोट में बदल रहे हैं.
उस
रात मैंने एक भयावह सपना देखा.
सबसे
आगे सी पी है. उसके ठीक पीछे राजेश, फिर अफजल, श्रीकांत, अभय, राजेश, मैं, निहाल,
रत्ना, निशिता रंजना और अनामिका ... उसके पीछे और भी तमाम साथी हैं... दूर-दराज के
गाँवों, फैक्ट्रियों और दफ्तरों में काम करने वाले साथी. सी पी अपनी जगह पर कदमताल
कर रहा है. उसके पैरों के साथ हम सारे कदम मिला रहे हैं. धीरे-धीरे हम सबके पैर
लोहे के होते जाते हैं चमकते फास्फोरस की तरह फिर कमर, पेट, सीना, गला और अंत में
हमारे चेहरे भी. अब किसी को पहचान पाना मुश्किल है. सी पी के साथ हमारे कदमों की
गति बढ़ती चली जाती है. फिर सी पी अचानक सामने एक कुर्सी पर बैठ जाता है, उसके ठीक
बगल में देवयानी. दोनों एक दुसरे को देख कर मुस्कराते हैं. सी पी की भारी आवाज़
गूंजती है – नंबर एक आगे आओ...नंबर एक आगे आ जाता है...सी पी कहता है...हंस के
दिखाओ...वह चुपचाप कदमताल करने लगता है. फिर सी पी की आवाज़- अब रोओ...वह कदमताल और
तेज कर देता है...एक-एक कर सारे आगे आते हैं...किसी को कदमताल के अलावा और कुछ
नहीं आता. वह हँसते-हँसते ठहाके लगाने लगता है- गुड...अब सब तैयार हैं इन्कलाब के
लिए. कमज़ोर भावनाओं को पूरी तरह खत्म कर दिया गया है. इस लड़ाई में कोई जगह नहीं कमजोरों
के लिए. सारे रिश्ते-नाते भूल जाओ... जाओ...अब सारे बिखर जाओ दुनिया भर
में...कालेजों में, स्कूलों में, फैक्ट्रियों में, दफ्तरों में..अपने जैसे इंकलाबी
तैयार करो...इन्कलाब जिंदाबाद...देवयानी भी साथ में ठहाके लगा रही है...हँसी की
आवाज़ तेज और तेज होती जाती है...तभी पता नहीं कहाँ से सामने ज़हीर मामू और नरेन दा
आ जाते हैं. वे सी पी से कुछ कहना चाहते हैं. सी पी उन्हें देखकर मुस्कुराता है और
फिर अचानक हुक्म देता है. नंबर दो आगे आओ ....नंबर दो आगे आता है...इस संशोधनवादी
को मार डालो...नंबर दो एक तेज धार वाला चाकू निकाल कर ज़हीर मामू के सीने में उतार
देता है...चारों तरफ बस खून ही खून...वह ज़हीर मामू की लाश पर पाँव रखते हुए लौट
आता है... फिर से हुक्म आता है ... नंबर छह आगे आओ ... नंबर छः आगे आता है...इस
गद्दार को मार डालो...इसे पार्टी से निकाला गया था...यह ट्राटस्की की औलाद
है...गद्दार है...इसे मरना ही होगा...नंबर छह भी एक चाकू निकालता है...नरेन दा
उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हैं...उसके चेहरे का लोहा गलने लगता है...अरे यह तो मेरी
शक्ल है...मैं चाकू फेंककर नरेन दा की ओर दौडता हूँ लेकिन सारे मिलकर मुझे पकड़
लेते हैं. देवयानी जोर-जोर से नारे लगा रही है—इंकलाब जिंदाबाद...मैं चीख रहा
हूँ...सब मिलकर मेरे ऊपर चाकू से हमला कर देते हैं...उनकी शक्लें बदलने लगती
हैं...हिटलर, मोदी, स्टालिन, चौसेस्कू, सुहार्तो, खुमैनी, बुश, फूजीमोरी........
नींद
खुली तो पूरा बदन पसीने से भींगा हुआ था.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
मैंने
फैसला कर लिया था. अब सी पी से बात करनी ही होगी. लेकिन उसके पहले मैं अफजल से बात
करना चाहता था. विश्विद्यालय में मिलना मुमकिन नहीं था क्यूँकि कक्षाएँ वह अटेण्ड
नहीं कर रहा था और कभी-कभार जब आता तो उसके साथ अनामिका या राजेश होते. निहाल से
मैंने एकाध बार उसे सन्देश भेजने की कोशिश की लेकिन वह नहीं आया. ज़हीर मामू भी
बेहद परेशान थे. उन्होंने सी पी से भी बात करने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें जवाब
भिजवा दिया गया था कि अफजल उनसे मिलना नहीं चाहता. इधर कई बार अलग-अलग बहानों से
मैं कम्यून भी गया लेकिन औपचारिक सलाम-दुआ के अलावा और कोई बात नहीं हो सकी. इस नए
अफजल को पहचान पाना भी मुश्किल हो रहा था. न केवल इसलिए कि उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी,
सिगरेट अब लगातार पीने लगा था, आँखों पर चश्मा चढ गया था बल्कि इसलिए भी कि अब वह
न तो पहले की तरह मुस्कुराता था, न हंसता और न ही अपनी किसी नई कविता को सुनाने के
लिए छत पर चलने की जिद करता था , उसके चेहरे पर जो पथरीले भाव आकर ठहर गए थे वे
मेरे लिए बिलकुल नए थे. उसके बोलने में, उसके चलने में, उसके मुस्कराने में यहाँ तक
कि हाथ मिलाने भी एक अजीब सी यांत्रिकता आ गयी थी. सामने पडने पर पहले वह ‘संजय’
कहकर गले लग जाता था...लेकिन अब वह ‘’कैसे हैं साथी’’ कहकर अजीब तरीके से
मुस्कराता और फिर हास्टल की कार्यवाहियों के बारे में बात करने लगता. बात भी ऐसे
कि कई बार लगता वह कुछ सुन ही नहीं रहा है. एकाध बार मैंने उससे उस दिन की घटना पर
बात करने की कोशिश की तो वह टाल गया. उससे बात हो पाने की अब कोई सूरत नज़र नहीं आ
रही थी. मैंने उसे पत्र लिखने का फैसला किया...और सी पी से बात करने के लिए अर्जी
लगा दी.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
अर्जी
लगाए पूरे बीस दिन हो गये थे. पहले राजेश ने बताया कि वे शहर के बाहर हैं. फिर जब
उनके लौटने की खबर मिली तो देवयानी ने बताया कि वह किसी दस्तावेज के सिलसिले में
आये हैं और व्यस्तता के कारण मिलना संभव नहीं होगा. फिर बताया गया कि उनके गले में
कुछ समस्या है तो बात करना संभव नहीं. लेकिन इस बार तो सीधे मना कर दिया...सी पी
अभी किसी से बात नहीं करना चाहते...जो देना है लिखित में दे दो या फिर उन्हें जब
इच्छा होगी तो सूचना दे दी जायेगी....
सात
सालों में ऐसा पहली बार हुआ था.
और
अब तो न जाने कितने साल गुजर गए. उस दिन बेहद उदास था. डायरी पलटता हूँ तो यह लिखा
मिलता है....
सात
साल...कहने में दो-दो अक्षरों के दो शब्द और जीने में एक पूरा युग. बाबूजी के साथ
झोले में थोड़े से बर्तन और दूसरे सामान, घर के इकलौते हैंडबैग में दो-तीन जोड़ी कपड़े
और किताबें लिए इस शहर में पहली बार आया था तो जैसे हर चीज़ अजनबी सी लगती थी. गाँव
से निकालकर जब बस कस्बे को पार करती हुई इस महानगर में घुसी तो कांच के पार
ऊँची-ऊँची इमारतें, जगमगाती दुकानें, आलीशान मोटरकारें जैसे आँखों में समा ही नहीं
रहीं थीं. शायद आज के लड़के तो उस मंजर को समझ ही नहीं पाएँगे. अब तो टी वी पर इतना
कुछ देख लेता है इंसान कि शहर तो क्या हिमालय को भी देख के लगे कि कहीं देखा हुआ
है. पर सात साल पहले! गाँव से दो कोस दूर के इंटर कालेज में पढते हुए इस दुनिया के
बारे में बस सुना था केमिस्ट्री मास्साब से. घर से कालेज...कालेज से घर. बस इतनी
सी थी दुनिया. अम्मा रात को बालू से माज-माज के लैम्प का शीशा चमकाते हुए
गातीं...’बबुआ पढ़िहें त बनिहें कलट्टर त जियरा जुडइहें हो...कटिहें करज क फंदा कि
बबुआ विलायत जइहें हो...’ बाबूजी सुबह सूरज उगने से पहले उठकर गाय-भैंस का
सानी-पानी करते फिर साइकल पर लादकर पास के कस्बे में बेचने जाते, दिन भर खेतों में
खटते लेकिन तमाम परेशानियों और गाँव वालों के ताने के बावजूद मुझे कभी हल पर हाथ
नहीं रखने देते. दसवीं के रिजल्ट के बाद केमिस्ट्री मास्साब के कहे को मन्त्र की
तरह गाँठ बाँध लिया था उन्होंने ‘रामचरित बहुत होनहार है तुम्हारा बेटा. इसे खूब
पढ़ाना. नाम करेगा तुम्हारा. हल नहीं कलम चलाने के लिए जन्म हुआ है इसका.’ इंटर में
जब पूरे प्रदेश में पाँचवाँ स्थान आया तो उन्हीं के कहने पर बी एस सी में दाखिले
के लिए बाबूजी मुझे शहर ले आये. केमिस्ट्री मास्साब के मित्र थे डा त्रिपाठी. बस
उनके नाम की चिट्ठी और थोड़े से रुपये के भरोसे पिताजी जब शहर के लिए चले तो अम्मा
ने उसमें सुरक्षा का एक और हथियार जोड़
दिया – डीह बाबा का ताबीज.
कितना
हंसी थी निशिता इस ताबीज को देखकर...
राजेश
ने जब पहली बार मिलवाया था तो बताया था ‘ ये निशिता है बी ए फाइनल इयर में
...छात्र मोर्चे पर तो सक्रिय है ही, नारी सभा में भी सक्रिय है और कविताएँ भी
लिखती है. और निशिता ये है संजय...बी एस एसी सेकण्ड ईयर में...अभी हास्टल वाले
आंदोलन में बहुत सक्रिय था...’ उसकी बात पूरी होने से पहले मेरे हाथ नमस्ते की
मुद्रा में आ गए थे और बात खत्म होते-होते ‘नमस्ते दीदी’ फूट चुका था...पहले तो
थोड़ी देर सब शांत रहे फिर मिलाने के लिए आगे बढ़े हाथ से तालियाँ बजाते निशिता ने
जो एक बार हंसना शुरू किया तो वह छोटा सा दफ्तर ठहाकों से ठसाठस भर गया. फिर बहुत
दिनों बाद एक शाम जब वह बेहद उदास थी दफ्तर के उसी कमरे में मेरी उँगलियों से
सिगरेट लेते हुए उसने कहा था ‘...नहीं जानती संजय कि उस दिन तुम्हारे दीदी कहने पर
क्यूँ इतना हँसी थी मैं...पहली बार घर के बाहर किसी ने कोई रिश्ता जोड़ा था. पापा
कहते थे कि सबसे बड़ा रिश्ता होता है कामरेडशिप का. उसी माहौल में पैदा
हुई...पली-बढ़ी...बचपन याद करती हूँ तो माँ-पापा कोई जनगीत गाते हुए याद आते हैं और
खुद को किसी कामरेड की गोद में पाती हूँ...कब बड़ी हो गयी...कब खुद वही गीत गाने
लगी पता ही नहीं चला...फैक्ट्री में काम पापा करते थे... लेकिन लगता हम सब वहाँ
काम करते हैं...फिर उस एक्सीडेंट में पापा का जाना...लगा जैसे ज़िंदगी से सारे मानी
ही चले गए...माँ ने यहाँ भेज दिया...सी पी तब सी पी अंकल थे...फिर यहाँ कामरेड बन
गए...लेकिन कभी ढाल नहीं पाई खुद को इस माहौल में...ऐसा लगता है बस पापा का कोई
अधूरा सपना पूरा करने के लिए चले जा रही हूँ...और उस दिन कैसे तुमने एक रिश्ता
जोडने की कोशिश की तो हम सब उसका मजाक उड़ाने लगे...कुछ है इस जगह में...यहाँ कुछ
सहज हो ही नहीं सकता. चलो...यहाँ से चलो संजय...कहीं भी’...और वह मेरा हाथ खींचते
हुए बाहर निकल गयी थी. आधी रात तक उसकी स्कूटी पर यूं ही घूमते रहे थे हम न जाने
कहाँ-कहाँ...
पर
लौट कर तो यहीं आना था...
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
सुबह
से बादल घिरे हुए थे. बीच-बीच में बादलों का पर्दा हट जाता तो सूरज जैसे गुस्से से
झाँकता और फिर से ओट में चला जाता. देखने में खुशगवार लगने वाले इस मौसम की
खूबसूरती धोखादेह थी. भारी उमस और हवा का कहीं नामोनिशान नहीं. शरीर का पसीना
सूखने का नाम नहीं ले रहा था. मौसम विभाग से बारिश की संभावना की सूचना मिलते ही
लाईट कट जाती थी. सी पी से मिलने की व्यग्रता में शायद मुझे कुछ ज्यादा ही पसीना आ
रहा था. इन सात सालों में औपचारिक-अनौपचारिक कितनी मुलाकातें हुई थीं उनसे. एक
साधारण कार्यकर्ता से होलटाइमर बनने के इस दौर में सी पी मेरे लिए इतने अलभ्य कभी
नहीं रहे. यह अलग बात है कि कितनी ही मुलाकातों के बाद ऐसा लगा था मानो उनसे पहली
बार मिला हूँ लेकिन मिलने मात्र को लेकर इतनी व्यग्रता कभी नहीं रही. तमाम सवाल
मेरे दिमाग में चक्रवात की तरह घूम रहे थे और फिर जैसे अचानक गति के कम हो जाने से
एक दूसरे में गड्डमड्ड हो रहे थे. देवेन दा की बातें, अफजल का बदला हुआ रूप,
निशिता का डर... इन सबके साथ कोई नितांत निजी डर मेरा भी था और शायद चक्रवात का
केन्द्र भी वही था. इस डर का चेहरा मेरी आँखों के सामने था लेकिन मैं उसे पहचान
नहीं पा रहा था. इस डर की सिहरन मेरी नसों में थी लेकिन मैं उसे महसूस नहीं कर पा
रहा था. मुझे डर था कि वह मेरे और सी पी के बीच किसी ऎसी अदृश्य दीवार की तरह न
खड़ा हो जाए जिससे मेरे प्रश्न उस पार तक की यात्रा ही न कर पायें.
रात
आठ बजे...कम्यून में सी पी के कमरे में...जाना तो था ही.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
सी
पी कमरे के बीचोबीच रखी चौकोर मेज के उस तरफ बैठे थे. पुराना आबनूस का बना फर्नीचर
किसी संग्रहालय के एंटीक पीस जैसा लगता था. चौकोर मेज के आमने-सामने रखी चार
कुर्सियाँ, एक कोने में बड़ी सी स्टडी टेबल जिसके ठीक सामने की खिड़की से गैलरी में
लगे गुलाब और रजनीगन्धा के पेड़ दिखाई देते थे, टेबल से लगी दीवार पर जमीन से छत तक
बनी रैकों में किताबें बड़े करीने से सजी हुई थीं, दूसरी तरफ के कोने में पीतल का
एक बड़ा सा वास और उसके ठीक ऊपर फाइव ग्रेट्स की पेंटिंग, सामने छः बाई चार का
आबनूसी पलँग जिस पर झक सफ़ेद चद्दर बिछी हुई थी और दीवार पर एक लंबी सी आब्सट्रेक्ट
पेंटिंग जो सी पी के किसी विदेशी दोस्त ने भेंट की थी. मेज पर एक तरफ कुछ
पत्रिकाएं और बीच में चार्म्स की पैकेट, माचिस और कछुए की पीठ की शक्ल का ऐश ट्रे
रखे थे. सी पी ने सिगरेट सुलगाई और खड़े होकर पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाया. मैं
सामने की कुर्सी पर बैठ गया.
कैसे
हो संजय?
अच्छा
हूँ कामरेड....
कहो...
जी...
अरे
भाई तुम्हें कुछ बात करनी थी न...बोलो
जी
... मैं असल में ...मैं अफजल पर कुछ बात करना चाह रहा था...
अफजल
पर तुम्हारी चिंता से मैं वाकिफ हूँ...और कुछ भी है....
जी...
सिगरेट
लोगे...
हाँ...मैंने
अपनी चार्म्स की डिब्बी निकाली ...एक सिगरेट जलाई...उस धूंए के पीछे सी पी की
आँखें नीली सी दिख रही थीं....एकटक मुझे घूरती हुई...मैं सहम सा गया...लेकिन सीने
में उतरती गरमी ने जैसे हिम्मत सी बंधाई...
बोलो........
सी
पी...कभी आपने कहा था कि संगठन में कमजोर लोगों की कोई जगह नहीं?
हाँ...बिलकुल...कमजोर
लोग कोई लड़ाई नहीं लड़ सकते...
लेकिन
मज़बूत होने का मतलब संवेदनहीनता है क्या? मेरे कहने का मतलब यह है कि एक संवेदनशील
आदमी की संवेदना को नष्ट करके क्या हम उसे बेहतर बना रहे होते हैं?
जिसे
तुम संवेदना कह रहे हो वह कोरी भावुकता है संजय. एक पेटी बुर्जुआ लिजलिजी भावुकता.
क्रांतियां भावुकता से नहीं होतीं. यह आरपार की लड़ाई है. जब मैदान में गोलियाँ चल
रही हों तो आप दुश्मन के शरीर के घाव नहीं गिन सकते...
चे
ने तो दुश्मनों के घायल सैनिकों का भी इलाज किया था. मार्क्स का वह किस्सा भी आपने
ही सुनाया था जब प्रूदों उनके घर आया था और उसके स्वागत के लिए वह अपना इकलौता कोट
गिरवी रखने को तैयार हो गए थे. लेकिन उस दिन प्रूदों के पास पैसे थे जिससे उसने
मार्क्स की पसंदीदा शराब और खाना मंगवाया और फिर दोनों ने रात भर बहस की...
तुम
बातों को उलझा रहे हो. यह मार्क्स का समय नहीं और चे के प्रति पर्याप्त सम्मान के
बावजूद मैं उसे मध्यवर्गीय रूमान का शिकार मानता हूँ. इसीलिए वह मारा गया और वहाँ
क्रान्ति भी सफल नहीं हुई.
सफल
तो हम भी नहीं कामरेड. ढाई दशक हुए नक्सलबारी को और दो दशक से अधिक समय हुए हमारे
संगठन को बने...क्या आधार है हमारा इतने दिनों में? ऐसा नहीं लगता कामरेड की हमारे
पास आलोचनाएं तो बहुत अच्छी हैं लेकिन हम उसमें से अपने लिए कुछ कारगर नहीं निकाल
पाते? आखिर माओ ने कहा था कि क्रान्ति की लड़ाई में मोर्चे पर लड़ने वाले से लेकर
घोड़े की लीद साफ़ करने वाले सभी का महत्व है...फिर हम यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकते
हैं कि तथाकथित कमजोर लोगों को एक खास तरह के मोल्ड में ढाल कर ही इस लड़ाई का
हिस्सा बनाया जा सकता है? ऐसा कैसे हो गया कि प्रेम करने वाले और कविता लिखने वाले भी अब हमारे लिए बेकार के लोग
हो गए?
तुम
भगोड़ों की तरह बात कर रहे हो संजय. यहाँ- वहाँ से संदर्भहीन तथ्य और कोटेशन
निकालकर अपनी कमजोरी को ढंकने की कोशिश कर रहे हो. इंकलाब कोई भैंस नहीं है कि
सुबह चारा डालो और शाम को दूह लो. हर क्रान्ति के पीछे तैयारी का लंबा दौर होता
है. भारत जैसे देश में यह और भी मुश्किल काम है. कामरेडों की स्टील टेम्परिंग उसी
तैयारी का हिस्सा है. विपर्यय और संक्रमण के इस काल में कमजोरों का भागना कोई नई बात
नहीं. इस विपरीत समय में वही टिका रहता है जिसने अपने व्यक्तित्वांतरण की कठिन
लड़ाई ईमानदारी से लडी हो. कविताओं और लिजलिजी भावुकता के सहारे जीने वाले
मध्यवर्गीय जंतुओं के सहारे यह लड़ाई लडी भी नहीं जा सकती. लगता है पी एच डी के बाद
मास्टरी का सपना तुम्हारे सर चढ़ कर बोलने लगा है. सरकारी घर, सुन्दर प्रगतिशील
बीबी, अच्छी तनख्वाह और बुद्धिजीवी होने का तमगा...यह लालच कम नहीं है. अपने
बहानों को तर्क मत बनाओ संजय....
बहाने?
मैं सवाल कर रहा हूँ कामरेड. सात साल से इस लड़ाई का हिस्सा हूँ और जीवन भर रहने का
इरादा है...क्या मुझे अपने जेनुइन सवाल उठाने का...अपने साथियों के जेनुइन
अधिकारों की बात करने का भी हक नहीं?
जेनुइन
सवाल? जेनुइन अधिकार? क्या अधिकार चाहते हो तुम? कविता लिखने का अधिकार...
हाँ...क्यूँ
नहीं...अगर देवयानी कविता लिख सकती है तो अफजल क्यूँ नहीं?.....उफ़! यह बात कैसे
आ गयी मेरी जबान पर...
सी
पी के चेहरे पर एक अजीब सी कठोरता आ गयी. उँगलियों में फँसी अधजली सिगरेट उन्होंने
ऐश ट्रे में मसल दी. उठकर स्टडी टेबल तक गए और फिर मेरी तरफ घूमे...
तुम्हें
क्या लगता है कि मुझे तुम्हारी गतिविधियों की कोई खबर नहीं? मैं जानता ही नहीं कि
आजकल तुम किन लोगों से मिल रहे हो. अब तक हम यह सब चुपचाप देखते रहे तो सिर्फ
इसलिए कि हम देखना चाहते थे कि तुम्हारा असली मकसद क्या है...जब अफजल ने तुम्हारी
चिट्ठी मुझे दी थी तभी मैं तुम्हारी योजना के बारे में समझ गया था. फिर जब तुमने
बात करने के लिए समय माँगा तो मेरा शक पक्का हो गया. युद्ध की भाषा से आपत्ति है
तुम्हें? तुम्हें आपत्ति है कि अफजल ने कविताएँ लिखना क्यूँ छोड़ दिया? तुम उसे उस
संशोधनवादी जहीर से बात करने की सलाह दे रहे हो और खुद उस गद्दार नरेन् से मिल रहे
हो. उसे अपनी पढ़ाई ठीक से करने की सलाह दे रहे हो...कविता लिखने की सलाह दे रहे
हो...उधर निशिता को भड़का रहे हो...निहाल को भी प्रभावित करने की कोशिश की है
तुमने. लोवर लेवल यूनिटी बनाने का तुम्हारा षडयंत्र साफ़ समझ में आ रहा है....
षडयंत्र?
... मैं अब भी जैसे मामले की गंभीरता को नहीं समझ पा रहा था... अपने
साथियों से बात करना षडयंत्र है? क्या मैंने संगठन तोडने की कोई बात की है? अगर एक
संगठन के भीतर तमाम साथी घुटन महसूस कर रहे हैं तो क्या इसमें संगठन के लिए
पुनर्विचार की कोई ज़रूरत नहीं...
घुटन?
जिन्हें घुटन महसूस हो रही है वे जाकर खेत-खलिहानों और विश्विद्यालयों की ठंढी
हवाओं में दर्द भरे नगमे सुनें... यह इन्कलाब का मोर्चा है कोई मनोरंजन केन्द्र
नहीं. उस नरेन की तरह नौटंकी का अड्डा नहीं चला रहा मैं...यहाँ जिनके दिल-गुर्दे
मजबूत हैं वही चल सकते हैं....
दिल-गुर्दे
मजबूत हैं या फिर मर चुके हैं? ईमानदारी से कहिये साथी ये मशीनें इन्कलाब के लिए
मुफीद हैं कि आपके लिए? ये कम्यून....
सी
पी की अचानक बिलकुल चुप हो गया. उसके चेहरे पर एक धूर्त मुसकराहट खिल गयी. वह उठा
और स्टडी टेबल के पास जाकर खड़ा हो गया. भारी शोर-शराबा मच गया. कमरे में अफजल,
राजेश और दूसरे कई लोग आ चुके थे. अफजल ने पीछे से मेरे हाथ पकड़ लिए, राजेश और
श्रीकांत मुझे लात-घूंसों से मार रहे थे...अचानक मुझे सी पी की चमकती आँखें
दिखीं...ऐसा लगा कि मैंने ये आँखें पहले कहीं देखी हैं...ब्लू?....पामुक का ब्लू?
...मैंने अचानक जोर लगाया और कोने में रखा वास हाथ में उठाकर सी पी को दे
मारा...उसका माथा कट गया और खून बहने लगा...सब उसकी तरफ भागे...रास्ता मिलते ही
मैं भी भागा...बाहर निशिता थी...मैंने एक नजर उसकी ओर देखा लेकिन रुका नहीं...अभी
सड़क पर पहुंचा ही था कि एकदम से जोर से बारिश होने लगी....अचानक...चारों और घुप
अँधेरा...बीच-बीच में किसी वाहन की हेडलाईट चमक उठती...किसी बरसाती कीड़े की
आवाज़...सड़क पर पैदल भींगते हुए अपनी साइकल की याद आई जो मैं जल्दीबाजी में वहीं
छोड़ आया था...मन में ही कहा ...’जाओ यह अंतिम चीज़ दी तुम्हें...एक जीवन दर्शन
सिखाया है तुमने...उन अद्भुत किताबों से परिचय कराया है...गुरु हुए तुम
मेरे...पिता सामान गुरु...यह नचिकेता तुम्हें अपनी गुरुदक्षिणा देता है
युयुत्सु.... अब बचा यौवन नहीं दे सकता...’
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
अफजल
को इश्क हो गया था....निशिता ने बताया
अफजल
का दिमाग फिर गया है ....निहाल ने खबर दी
अफजल
पगला गया है .... राजेश ने विश्वविद्यालय में एक मित्र से कहा
अफजल
घर लौट आया है...ज़हीर साहब ने फोन करके बताया....
मैं
अफजल से मिलना चाहता था. मिलना ही था. नरेन दा और निशिता भी आना चाहते थे...लेकिन
मैंने उन्हें मना कर दिया...मैं उससे अकेले मिलना चाहता था...बिलकुल अकेले. सुबह
की बस थी. पहले सोचा था कि एकाध दिन रुक जाऊँगा. फिर तय किया कि सुबह पहुँच कर शाम
को लौट आऊँगा.
दरवाजा
अम्मी ने खोला. मैने फोन कर दिया था तो परिचय नहीं देना पड़ा. अब्बू कालेज गए हुए
थे. मुझे बैठक में ही रुकने को कहा गया. टीचर्स कालोनी का साधारण सा घर. बैठक में
पुराने तरीके का एक सोफा पड़ा था जिसकी पतली फोम की गद्दियों पर क्रोशिये की
फुलकारी का कवर था. सामने रैक पर अफजल और उसके भाइयों की अलग-अलग उम्र की तस्वीरें
और ट्राफियां रखी थीं. एक तस्वीर में अफजल राज्यपाल से पुरस्कार ले रहा था एक अन्य
तस्वीर में कुशीनगर के बौद्ध विहार के सामने माँ की उँगली पकडे खड़ा था. एक पुरानी
तस्वीर शायद अब्बू की थी जिसमें हाथ में गोलियाई हुई डिग्री लिए और चोगा पहने वह
खड़े थे. रैक के ऊपर मक्का-मदीना की आयतों वाला एक बड़ा सा पोस्टर था. सामने मेज पर
बीचोबीच में एक कांच का गुलदान जिसमें प्लास्टिक का एक पुराना गुलाब रखा था. ऊपर
चल रहा पंखा भी सरकारी था जिससे हवा कम और आवाज़ अधिक आ रही थी. पहले पानी
आया...फिर चाय...सबसे बाद में अफजल.
लुंगी-कुर्ते में दो-तीन दिनों की बढ़ी दाढ़ी के खूंटों के बीच काले से पड़ गए
उसके चेहरे से टपकती शर्म और उलझन ने उसे थोड़ी देर रोके रखा फिर ‘संजय भाई’ कहते
हुए लिपटा तो आँखों से जैसे बरसों से जमा दुःख सारे पुल-किनारे तोड़कर बहने लगा. उन
आंसुओं ने ही कहा...’आई एम सारी संजय’....मेरे हाथों ने उसके बालों से
गुजरते हुए कहा ‘कोई नहीं...मैं जानता हूँ वह तुम नहीं थे...तुम्हारे भीतर कोई
और था’... लेकिन जो अफजल आज मिला था वह भी कोई दूसरा ही था...
उसकी
बातें समझ में ही नहीं आ रही थीं. अचानक बहुत उत्साहित हो जाता फिर उदास. उसकी
बातों का सिरा पकड़ पाना मुश्किल था. अचानक उसने पूछा
तुम्हारे
पास मोबाइल है?
नहीं...मोबाइल
तो नहीं... क्यूँ?
सोहैल
के पास है...सोहैल को जानते हो न...मेरा छोटा भाई
अच्छा
हाँ...
बहुत ख़ूबसूरत मोबाइल है... चाइना वाला...और जानते हो उसमें कैमरा भी है...पाँच
मेगापिक्सल का
कैमरा...
अच्छा
हाँ...उसने
रजिया की फोटो भी खींची है...
कौन
रजिया?
अरे
उसकी रजिया से शादी होने वाली है भाई...वह खिलखिलाकर हँसा तो उसका चेहरा जैसे
विकृत हो गया
और
सुनाओ क्या चल रहा है...मैंने बात बदलने की गरज से पूछा...इधर कुछ लिखा-पढ़ा?
कुछ
खास नहीं. ग़ज़लें कहीं हैं कुछ...आजकल सोहैल के साथ उसके एन जी ओ में काम कर रहा
हूँ. हम गरीब बच्चों को पढ़ाते हैं. यहाँ बस्ती में एक स्कूल खोला हुआ है...शाम को
चार घंटे चलता है. तुम चलना शाम को स्कूल...मज़ा आएगा...
नहीं
शाम को निकालना है..
अरे
मुझे लगा रुकोगे
नहीं
यार...फिर आना होगा...अभी काफी काम हैं वहाँ
अच्छा...अनामिका
से मिले...उसने बहुत धीमे से पूछा
नहीं...उससे
तो इधर मुलाक़ात नहीं होती. निहाल मिलता है...
ओह...उसकी
आवाज़ अचानक उदास हो गयी...
वहाँ
से निकल कर मैं सीधा ज़हीर मामू के घर पहुँचा. वे अभी कचहरी में थे घर पर अपराजिता
मिलीं. पहली बार किताबों की वह दुनिया देखी जिसने अफजल को गढा था. चारों तरफ जमीन
से दीवार तक किताबें ही किताबें. वहाँ टालस्टाय थे तो पामुक भी, गोर्की थे तो
मुराकामी भी, ब्रेख्त थे तो बोर्हेस भी, नेरुदा भी और मार्खेज भी. प्रेमचंद थे तो
अल्पना मिश्र भी, मुक्तिबोध थे तो अनामिका भी, चोमस्की थे तो अरुंधती राय भी...
दुनिया भर की किताबें जिनका बस नाम सुना था. साहित्य, इतिहास, दर्शन, अर्थशास्त्र,
विज्ञान....मैं जैसे सम्मोहित हो बस देखे जा रहा था. अपराजिता जी की आवाज़ से टूटा
सम्मोहन
कैसा
है अफजल?
हूँ...ठीक
ही है....
वह
ठीक नहीं है संजय. जिस दिन दुकान पर वह घटना हुई उसी दिन मुझे ये लक्षण दिखे थे.
लेकिन तब वह सी पी के प्रभाव में इस क़दर डूबा था कि कुछ कह पाना, कुछ कर पाना
मुमकिन नहीं था. जब लौटकर आया तो सीधे यहीं आया था. लगभग अर्धविक्षिप्त सा. कोई
साथ भी नहीं था. ऐसा लगता था महीनों से न ठीक से खाया है न सोया है. ज़हीर ने सादिक
साहब से पहले डाक्टर को बुलवाया. उन्होंने शायद नींद की कोई दवा दी थी तो घंटों
सोता रहा. सपने में न जाने क्या-क्या बडबडाता था. बार-बार अनामिका का नाम लेता था
और तुम्हारा भी. पूरे दो दिन बाद थोड़ा सामान्य हुआ तो सादिक साहब को खबर की. लेकिन
वहाँ भेजकर जैसे गलती कर दी हमने.
क्यों?
मुझे तो सब ठीक ही लगा. उसने बताया कि वह किसी एन जी ओ में काम कर रहा है...
कोई
काम नहीं कर रहा. सोहैल उसके कंधे पर रखकर बन्दूक चला रहा है. उसने गरीब मुसलमानों
के बच्चों को पढाने के नाम पर जम के फंडिंग कराई है. दिखाने के लिए एक स्कूल खोल
रखा है. शाम को भेज देता है अफजल को दो-तीन घंटों के लिए. वह बिचारा समाज सेवा
समझकर काम करता है. सादिक साहब दिन रात ताने मारते रहते हैं. सोहैल के सामने उसे
नीचा दिखाते हैं. सोहैल ने उसे झाँसा दे रखा है कि इस काम के अच्छे पैसे मिलेंगे.
वह बिचारा इन दोनों के बीच पिस रहा है....सी पी ने बहुत बुरा किया उसके साथ संजय...फिर
जैसे कुछ याद आया उन्हें ... बुरा तो तुम्हारे साथ भी किया था बहुत...लेकिन
तुम संभल गए. यह सीधा था...टूट गया.
ओह...मुझे
तो पता ही नहीं था ज़्यादा कुछ. वह विश्विद्यालय आता नहीं था और निशिता के कम्यून
छोड़ देने के बाद मेरा वहाँ और कोई संपर्क रहा नहीं. वहाँ क्या कुछ हुआ मुझे कुछ
पता ही नहीं चला.
ज़हीर
मामू आये तो उन्होंने खींच कर गले लगा लिया. उसी पल मुझे लग गया था कि आज रात
रुकना ही होगा.
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
ठण्ड
रात के अंधेरों में चुपके-चुपके पाँव पसारने लगी थी. बुढ़ाते जा रहे साल की कमजोरी
का फ़ायदा उठाकर जैसे वक़्त पर काबिज हो जाना चाहती हो. मामू की बैठक में दीवान पर
अधलेटा सा मैं कभी सामने सोफे पर बैठे
मामू की ओर देखता था तो कभी सामने की रैक पर सजे दुनिया भर के दीवानों की तरफ.
मामू बिलकुल खामोश बैठे थे. चश्मों के भीतर उनकी आँखें जैसे कितना कुछ कहना चाहती
थीं. मैं जानता था कि यह तूफ़ान से पहले की शान्ति है. शाम को उन्होंने मुझे लुई
अल्थ्यूजर की पालिटिक्स एंड हिस्ट्री पढ़ने को दी थी. शाम से उलट-पुलट रहा था और अब
भी वह हाथ में थी. अचानक उस सन्नाटे में मामू की आवाज़ गूंजी...बैग में रख लो वरना
यहीं छोड़ जाओगे.
तुम्हें
क्या लगता है संजय ... अफजल के साथ क्या हुआ?
मैं
सच में नहीं जानता. हाँ वह जिस तरह से बदल गया था मुझे भी उसकी बहुत चिंता थी.
लगता है इस दबाव को वह झेल नहीं पाया.
हूँ....बहुत
सेंसिटिव लड़का था वह बचपन से ...जैसे उनकी आवाज़ कहीं बहुत दूर से आ रही
थी...अतीत के किसी झरोखे से ... सादिक मियाँ हमेशा उसे मुझसे दूर रखना चाहते
थे. लेकिन भागा चला आता था. तुम अंदाजा नहीं लगा सकते हो संजय कि किताबों से कितनी
मुहब्बत थी उसे. पढता नहीं चाट जाता था वह. दीवानगी की हद तक की थी उसने पढ़ाई. जब
गोरखपुर गया तो सोचा था कि यह सब उसे और परिपक्व बनाएगा. सी पी के साथ गया तो एक
डर तो था पर लगता था कि ये किताबें उसे रौशनी दिखाएंगी और वह सही रास्ता
चुनेगा...लेकिन....ऐसा नहीं हुआ. तुम अल्थ्यूजर के बारे में जानते हो?
ज्यादा
नहीं. बस नाम सुना है सी पी के मुह से एकाध बार
हूँ...पढ़ना...फ्रांस
की कम्यूनिस्ट पार्टी में था वह. जब स्टालिन के बाद पार्टी ख्रुश्चेव के प्रभाव में
थी और मार्क्सवाद को और मानवीय बनाने के लिए स्टालिन को ठुकराया जा रहा था तो उसने
ग्रेट डिबेट में माओ का पक्ष लिया था. बहुत आक्रमण हुए उस पर. लगभग अकेला पड़ गया
लेकिन अपनी बात पर अडिग रहा. उसका मानना था कि मनुष्य चूंकि सामाजिक निर्मिति है
तो यह देखना ज़रूरी है कि किस तरह समाज किसी मनुष्य की अपनी छवि उसकी दृष्टि में
निर्मित करता है. यह कम्यून के नाम पर जो समाज बनाया है सी पी ने उसका ही प्रभाव
है कि अफजल जैसे लड़के खुद को अपनी नज़र में वैसे ही देखते हैं जैसा वह समाज दिखाता
है. वह उस समाज का आदर्श नागरिक बनना चाहता था. बन नहीं पाया... अब उसके पिता उसे
इस समाज का आदर्श नागरिक बनाना चाहते हैं...सोहैल जैसा...मुझे डर है वह भी नहीं बन
पायेगा. अगर संभव हो तो उसे फिर से यूनिवर्सिटी ले जाओ संजय. उसकी पढ़ाई शुरू
करवाओ. पैसों की चिंता मत करना. मैं मैनेज कर लूँगा. मुझे उसकी बहुत चिंता हो रही
है साथी.
मैं
बात करूँगा उससे...
हूँ...और
बताओ...क्या चल रहा है वहाँ...तुम और नरेन मिलकर सुना कुछ नया काम शुरू कर रहे हो?
हाँ...
अभी तो सांस्कृतिक मोर्चे पर ही. राजनीतिक फ्रंट पर कोशिश जारी है. तमाम लोगों से
बात हो रही है. जो अब तक के अनुभव हैं उनकी रोशनी में ही कुछ नया तलाशना चाहते हैं
हम लोग. आपसे भी बात करना चाहता था.
मुझसे...उन्होंने
अपनी आँखें मुझ पर जमा दीं. फिर उठकर आलमारी तक गए. एक किताब निकाली और सोफे पर
बैठकर कुछ ढूँढने लगे. मनचाहा पन्ना मिल जाने पर मेरी ओर एक बार फिर देखा...सुनो
ब्रेख्त की एक कविता है...’नई पीढ़ी के प्रति मरणासन्न कवि का संबोधन’... उसी से ये
लाइनें हैं...गौर से सुनो...
इसलिए
मैं सिर्फ यही कर सकता हूं
मैं, जिसने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली
कि तुम्हें बता दूं
कि हमारे सड़े हुए मुंह से
जो भी बात निकले
उस पर विश्वास मत करना
उस पर मत चलना
हम जो इस हद तक असफल हुए हैं
उनकी कोई सलाह नहीं मानना
खुद ही तय करना
तुम्हारे लिए क्या अच्छा है
और तुम्हें किससे सहायता मिलेगी
उस जमीन को जोतने के लिए
जिसे हमने बंजर होने दिया
और उन शहरों को बनाने के लिए
लोगों के रहने योग्य
जिसमें हमने जहर भर दिया
मैं सिर्फ यही कर सकता हूं
मैं, जिसने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली
कि तुम्हें बता दूं
कि हमारे सड़े हुए मुंह से
जो भी बात निकले
उस पर विश्वास मत करना
उस पर मत चलना
हम जो इस हद तक असफल हुए हैं
उनकी कोई सलाह नहीं मानना
खुद ही तय करना
तुम्हारे लिए क्या अच्छा है
और तुम्हें किससे सहायता मिलेगी
उस जमीन को जोतने के लिए
जिसे हमने बंजर होने दिया
और उन शहरों को बनाने के लिए
लोगों के रहने योग्य
जिसमें हमने जहर भर दिया
कविता खत्म होते-होते उनकी आवाज़ कमजोर पड़ चुकी थी...रात भी गहरा रही
थी. पास की मस्जिद से नमाज-ए-अशा की आवाज़ आ रही थी. जहीर मामू ने एक नज़र उस ओर
डाली थी और फिर किताब सामने की मेज़ पर रख आँखें मूँद कर सोफे पर अधलेटे हो गए.
अपराजिता ने एक बार उन्हें देखा फिर मुझे.
हम सब जानते थे कि अब सिर्फ रात बाक़ी है...बात खत्म हुई!
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
फिर वह दिन....
कोई ग्यारह बज रहे होंगे जब अफजल मेरे दरवाजे पर अचानक नमूदार हुआ.
बेहद खुश दिख रहा था. सामने पड़ते ही ‘संजय भाई’ कहता हुआ लिपट गया. निशिता से
गर्मजोशी से हाथ मिलाया. सामान्य से लगते सबकुछ के बीच बस उसकी मौलाना कट दाढ़ी
जैसे नज़र में चुभ रही थी. हाल-चाल...शिकवा-शिकायतों के बीच अचानक उसने अपना मोबाइल
निकाला. चाईनीज मोबाइल...उसने बताया...’पाँच मेगापिक्सल का कैमरा है इसमें. दो
हज़ार नंबर की मेमोरी और ओ जी बी का डेटाकार्ड...बस ब्लूटूथ नहीं है बाक़ी सारे
फीचर्स हैं.’...फिर उसमें सबकी तस्वीरें दिखाने लगा...अम्मी-अब्बू-फैजल....एन जी ओ
के किसी कार्यक्रम में खींची कुछ तस्वीरें थीं जिसमें स्थानीय विधायक और शहर-काजी
भी शामिल हुए थे. वह सबके बारे में बता रहा था.. बिना रुके ... लगातार. उसकी
वाचालता थोड़ा शक भी पैदा कर रही थी लेकिन जिस विस्तार और स्पष्टता से वह सारी
चीजों के बारे में बता रहा था, उससे यह शक निराधार भी लग रहा था. मैंने उससे जहीर
साहब के बारे में पूछना चाहा तो बस ‘वह भी ठीक हैं’...कहकर उसने विषय बदल दिया.
बातों-बातों में ही शाम हो गयी. मैंने कई बार उससे पढ़ाई फिर से शुरू करने के बारे
में या फिर राजनीति के बारे में बातें करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहा. शायद
पाँच बज रहे होंगे तब जब वह अचानक चलने की बात करने लगा. मैंने रोकने की कोशिश की
तो कहने लगा कि ‘एक काम है छोटा सा निपटा कर निकलना है’....
फिर अचानक पूछा...’अनामिका से मिले तुम’....
’नहीं तो’....
’ओह..वह आई थी हमारे शहर में’...
’अच्छा’...
’हाँ...अपनी दीदी के साथ’...
’दीदी? यानि देवयानी?’...
’हाँ... एक कार्यक्रम था...लेकिन मुझे पता ही नहीं था...तो जा नहीं
पाया...दीदी साथ नहीं होती तो वह मुझसे मिलने ज़रूर आती’...
ओह...अचानक मुझे कुछ सूझा ... ‘तो क्या तुम मिलने जाओगे
उससे?’
हाँ...नहीं मिलूँगा नहीं...बस एक बार देखकर लौट जाऊँगा...मुझे अपने
कैमरे में उसकी एक तस्वीर चाहिए बस...
पागल मत बनो अफजल
नहीं...किसी को पता नहीं चलेगा...शाम को रोज वह किचन गार्डन में ज़रूर
बैठती है एकाध घंटे...बस तस्वीर लेकर चला आऊँगा...
विश्वास कीजिए मैंने रोकने का हर संभव प्रयास किया. लेकिन सुबह से
सामान्य लग रहा अफजल अब कतई सामान्य नहीं था. वह गया...
फिर?
फिर क्या?
वही........
उसका चीखना, कम्यून की बाड़ के
कँटीले तारों में शर्ट का उलझना, खून, पकड़ो, भागने ना पाए, गद्दार, जासूस, चोर,
सड़क, जीप, रिक्शा, नाली, पुलिस, मोबाइल, गद्दार, पकड़ो, साला, कमीना, थप्पड़, जूते,
बेल्ट, बक्कल, शेर, खून...उफ़!
टिप्पणियाँ