प्रेमचंद गाँधी की लम्बी कविता - भाषा का भूगोल

भाषा क्या है? अभिव्यक्ति का साधन मात्र? ऐसा साधन जो मनुष्यों को धरती के दूसरे जीवों से श्रेष्ठ साबित कर देता है? ज़ाहिर है यह है तो इसके आगे भी बहुत कुछ है. वर्ग विभाजित असमानता आधारित समाज में दूसरी तमाम चीज़ों की तरह भाषा भी इस वर्गीय असमानता को बनाए रखने और बढ़ाने वाले औज़ार की तरह उपयोग की जाती है. वह जितना जोडती है उससे कहीं अधिक तोड़ने लगती है कई बार. भारत जैसे जाति और धर्म विभक्त और अनेकानेक उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं वाले देश में भाषा का सवाल अक्सर बहुस्तरीय होता चला जाता है. 

प्रेमचंद गाँधी की यह लम्बी कविता इस गद्योचित विषय को बड़े परिश्रम से कविता में ढालती है और बौद्धिक बहस से कहीं आगे जाती है. यह पाठक से बहुत धीरज और लगाव की मांग करती है, मानसिक श्रम की भी. असुविधा का अनियमित हो चुका सिलसिला इस कविता से नियमित करने का हमारा संकल्प इस कविता की ताक़त पर भी आधारित है और प्रेम भाई के उस भरोसे पर भी कि लगभग एक साल हो जाने पर भी उन्होंने कोई उलाहना देने की जगह नया ड्राफ्ट दिया. 


भाषा का भूगोल


1.

बारह कोस पर बदलती है भाषा
बदल जाता उच्‍चारण
जीवन की टकसाल में ढलते हैं
शब्‍दों के सिक्‍के
हवा उड़ा ले जाती बीजों को
नदी-सागर की धाराओं में बहकर
कहीं से कहीं चले जाते बीजों की तरह
शब्‍द भी तय करते हैं अपना सफ़र
गोल पृथ्‍वी के वायुमंडल में
दुनिया के किसी भी कोने से
थोड़ा ऊपर जाकर सुनो
व्‍याकरण की स्‍वरलिपि में
अर्थ की लय में
गूंजता है हर कहीं
शब्‍दों का संगीत
किलकारी पृथ्‍वी का पहला शब्‍द
जहां से शुरु होती भाषा की यात्रा
एक ह्रदय-विदारक चीख
पृथ्‍वी का आखि़री शब्‍द
चीख़ और किलकारी के बीच
संभ्‍यता और संस्‍कृति के वितान में
फैली रहती है पृथ्‍वी पर भाषा
नदी-समंदर के किनारों पर
सघन हरे-भरे वनों में
थार, सहारा और स्‍तेपी के बियाबान में
पृथ्‍वी के सारे मौसमों में
अपने बहुमूल्‍य बीजों की तरह
भाषा पालती रहती है
अपने गर्भ में शब्‍दों को

2.

पृथ्‍वी पर भाषा
सभ्‍यता और संस्‍कृति का
एक सहस्रबाहु विराट वृक्ष जैसे
सातों महाद्वीपों में पैबस्‍त हैं
जिसकी गहरी मज़बूत जड़ें
मनुष्‍य की समस्‍त प्रजातियां
उसकी शाखों के सदा हरे पत्‍ते
विविध रंगों में महकते फूल
संवेदनाओं की सुगंधि
इस वृक्ष के फूल जब भी पक कर फल बनते हैं
सभ्‍यता का नया इतिहास लिखा जाता है
करोड़ों साल पुराने
इस महावृक्ष पर
असमय झड़ जाती हैं
कमजोर पत्तियां
सूरज, चांद, तारे, हवा, पानी
किसी का दोष नहीं इसमें
इसी महावृक्ष की छाया में
ना जाने कहां से उग आते हैं
ज़हरीले पौधे
जैसे मनुष्‍य में घृणा
शाश्‍वत हरी पत्तियों को ललचाते हैं वे
और डाली को डाली से लड़ा देते हैं
नफ़रत के कीड़े सड़ा देते हैं
चिरायु फलों को
एक समूची सभ्‍यता नष्‍ट हो जाती है
वायुमंडल के अरण्‍य में
दहाड़ें मारकर रोती है भाषा
करुणा से बहती अश्रुधारा
ठोस द्रव की तरह फूटती है
महावृक्ष के तने से
सचमुच यही गोंद है यही गम है
यही ग्‍लू है मानवता का



3.

अपनी ही भाषा में संभव था
ईश्‍वर को रिझाना
पराई भाषा में ख़ुश नहीं होते देवता
लेकिन कुछ लोगों के हाथ में था
ईश्‍वर का दंड
वे उसी से हांकते थे अनुयायियों को
काहिरा से लेकर सहारा तक
इस्‍तांबूल से वेटिकन तक
अरब सागर से बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर तक
धरती के चप्‍पे-चप्‍पे में
उन्‍होंने तय कर दिया
एक खास भाषा में ही होंगी
सभी प्रार्थनाएं
भावों को जोड़ने वाली भाषा
मज़हब की ज़ंजीरों में जकड़ गई
समय-चक्र चलता रहा
मनुष्‍य और ईश्‍वर के बीच
निरक्षर के लिए अबूझ लिपि की तरह
दीवार बन गई पराई भाषा
ना जाने कहां से आ गये
देवदूतों की तरह दरवेश
अपनी ही बोली-बानी में
उन्‍होंने फैलाया ईश्‍वर का प्रेम
हज़ारों के किस्‍म के आतताइयों से
त्रस्‍त थी पृथ्‍वी की जनता
अपनी ही भाषा का ईश्‍वर
उन्‍हें संतोष देता था
ईश्‍वर की ख़ास भाषा के पुजारी
बहुत कुपित हुए
इतने भ्रमित हुए कि उन्‍होंने
जनता को धर्म से ख़ारिज कर दिया

ईश्‍वर, एक सत्‍ता
उसकी विशेष भाषा, दूसरी सत्‍ता
इन दोनों को चलाने वाली तीसरी सत्‍ता
जनता बाहर थी हर सत्‍ता से
करोड़ों कंठों से फूटती
करुणा से लबालब
प्रेम में आकंठ डूबी जनभाषा
हर सत्‍ता के निशाने पर थी
ईश्‍वर की सत्‍ता में बहिष्‍कृत
साहित्‍य में अनुल्‍लेखनीय
शिक्षा और पाठ्यक्रम से बाहर
युगों-युगों तक छापाखाने से भी बाहर
वह भाषा सिर्फ कंठों में बची रह गई थी
और धीरे-धीरे कम होते जा रहे थे कंठ
भाषा के भूगोल में
तीन शताब्दियां ऐसी भी आईं कि
जमींदोज हो गई हजारों भाषाएं
थार के निर्जन अंधेरे से चलकर जैसे
स्‍तेपी के हिमाच्‍छादित बियाबान में खड़ी हो
भाषा की देवी

4.

हम मोहनजोदड़ो में हैं और मुर्दे हैं
हम हड़प्‍पा में हैं और मुर्दे हैं
हम कहीं भी होते
मुर्दे ही होते
हम मिश्र में भी मुर्दे हैं और मेसोपोटामिया में भी
हम काशी से लेकर तक्षशिला तक
हर जगह मुर्दे हैं
जिस ज़ुबान को नहीं पढ़ सका कोई
वह मुर्दों की भाषा है
हमारी लिपि आंसुओं से बनी है
इसीलिये सूख गये हैं उसके अर्थ
हमारे कंकालों के भीतर बहती
शताब्दियों पुरानी हवा जानती है
हम आंसुओं के साथ कैसे हंसते थे
यही हवा उड़ा ले गई है
ना जाने किस अंतरिक्ष में
हमारी सुंदर लिपि के अर्थ।



5.

ना जाने पृथ्‍वी के किस कोने में
किन लोगों ने मिलकर रची थी साजिश कि
शब्‍दों को उनके अर्थ से अलग कर दिया जाए
पृथ्‍वी को धरती माता नहीं
सौर मंडल का ग्रह कहा जाए
मां को मां
पिता को पिता और
संतान को पुत्र या पुत्री नहीं
एक जैविक संबंध कहा जाए
आंसुओं में से नमक निकाल दिया जाए और
प्रेम में से चुंबन
लिखी हुई हर इबारत एक पाठ है
और अर्थ से स्‍वतंत्र
आप पूजते होंगे
गेहूं की बालियों और धान की फसल को
कारोबारियों के लिए ये सब
एक जिंस से ज्‍यादा नहीं
इसलिए उन्‍होंने हर जगह लागू किए
व्‍यापार के नियम
पूंजी की भाषा
इस कदर हावी थी
तमाम भाषाओं पर कि
बीज को फ़सल से अलग कर दिया गया था
किसान बीज बोते थे और
भुखमरी की फ़सल होती थी
इतनी तेज़ी से बढ़ रही थीं
किसानों की आत्‍महत्‍याएं कि
सरकार ने ख़ुदकुशी जैसे शब्‍दों पर
प्रतिबंध लगा दिया था
आत्‍महत्‍या और भूख से हुई मौतों को
सिरे से नकारती थी सरकारें
कहते हुए कि मौत के कारण दूसरे थे
तेज़ी पर था
शब्‍दों को अर्थ से अलग करने का कारोबार
ग़रीबी की रेखा
बदली जा रही थी बार-बार
आदिवासी और नक्‍सली
एक-दूसरे का पर्याय हो गये थे
प्राकृतिक संपदा का दोहन
पूंजीपति का अधिकार था और
शहद का छत्‍ता तोड़ना
कानूनी अपराध
अपने हक के लिए लड़ना
राज्‍य के विरुद्ध षड़यंत्र माना जाता था
महुआ के फूल चुनना
आबकारी कानून के तहत जुर्म था
मामूली आदमी के सारे काम
अपराध माने जाते थे
प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह था
जिस कुरुक्षेत्र की धरती पर
विश्‍व के सबसे बड़े प्रेमी
कृष्‍ण ने दिया था उपदेश
वहीं खाटों पर खांप पंचायतें
दे रही थीं प्रेम के खि़लाफ़ आदेश
धर्म, जाति और गोत्र से
प्रेम को अलग कर दिया गया था
फूलों से महक छीन ली गई थी
और वनस्‍पति से हरियाली
वह एक प्‍लास्टिक संस्‍कृति थी भरी-पूरी
कचकड़े के फूल-पौधों से हरी-भरी
भाषा और मुद्रा तक सिमट गई थी
प्‍लास्टिक के टोकन, कार्ड और पेन ड्राइव में
दो जीबी के पेन ड्राइव में
पांच एमबी का शब्‍दकोश लिए लोग
ख़ुद को मानते थे भाषाविद
कुरते को पायजामे से अलग कर
जींस से जोड़ने का युग था वह
फटी हुई जींस का फैशन था लेकिन
फटेहाल लोग
दुरदुराये जाते थे कुत्‍तों की तरह
और कुत्‍ते पाले जाते थे इंसान से ज्‍यादा

6.

कवि-लेखकों के पास थी
भाषा की पूंजी
उसी को लेकर इतराते फिरते थे
वे दुनिया भर में
पूंजी का युग था वह
जहां पूंजी की अपनी भाषा थी
दुनिया की किसी भी भाषा से ताक़तवर
एक बेहतरीन विज्ञापन
अंतिम कसौटी था
भाषा की ताक़त का
पूंजी की ताक़त प्रकाशकों के पास थी
वे कार्पोरेट हो रहे थे
उनके लिए हर किताब एक उत्‍पाद थी
और लेखक क़लम के कामगार
किताब को माल बना दिये गये काल में
होते थे अंतर्राष्‍ट्रीय जलसे
शराब, संगीत और सेलिब्रिटी की त्रिवेणी में
भाषाओं का बड़ा हाट था
जहां किताबों से ज्‍यादा
ऑटोग्राफ बिकते थे
सारी प्रतिबद्धता शराब में डूब जाती थी
पूंजी के प्रपंच में
ना जाने कहां खो गई थी संवेदना
आयोजकों के उत्‍साह में प्रायोजक ख़ुश थे
एक पूंजी दूसरी पूंजी पर हावी थी
यह इसी ग्रह की कहानी थी

7.

भाषा को इस कदर विकृत कर दिया गया था
उस युग में कि
पूंजी का श्रम से कोई संबंध नहीं रह गया था
बिना कुछ लिए-दिए लोग वैश्विक बाजार में
करोड़पति और कंगाल हो जाते थे
जिन्‍होंने सपने में भी नहीं देखे थे कपास के खेत
वे कपास के काल्‍पनिक सौदे करते थे
लोग कल्‍पना से कमाते थे और
हक़ीक़त में लुट जाते थे
कई किस्‍म की सहायता से
कुछ सवालों के सही जवाब देने पर
करोड़ों जीतने का युग था वह
जिसमें असली ग़रीब को
बीपीएल कार्ड तक नहीं मिलता था और
धनिकों के पास सारे कार्ड हुआ करते थे
जिनका कारोबार था देश-दुनिया के कोने-कोने में
उन पर मेहरबान थी सरकारें
इसलिये लंबी दूरी पर बात करना सस्‍ता था
लेकिन क़रीबी लोगों से बात करना महंगा
धरती एक ग्‍लोब में सिमट गई थी और
व्‍यापारियों के लिए वह एक माल भर थी
लोग चांद और मंगल तक पर
प्‍लॉट काटने लगे थे उन दिनों
भाषा इस कदर सांकेतिक थी कि
एक एसएमएस से अफ़वाह फैल जाती थी
लोग हर चीज से स्‍वतंत्र हो चुके थे
ज्ञान से स्‍वतंत्र लोग सूचना से काम चलाते थे
विवेक से मुक्‍त लोग एनजीओ चलाते थे और
नैतिक बंधनों से आजाद लोग
आंदोलन किया करते थे

फोटो : अभिषेक गोस्वामी 


8.

पूंजी अब हो चली थी वित्‍तीय पूंजी
जिसके घटाटोप में हर तरफ था
अंत का ही कारोबार
इतिहास, विचार और मूल्‍यों की मृत्‍यु का दौर था
विकास की निरंतर गतिशील प्रक्रिया को
नष्‍ट कर देने का युग था
लोग विभ्रम से निकल कर भ्रम में जीते थे
सांप से ज्‍यादा केंचुल पर यकीन करते थे
दुश्‍मन का पता नहीं था लेकिन
हथियारों का कारोबार चरम पर था
भविष्‍य के युद्धों के लिए
हथियारों की तरह
बीमारियां ईजाद की जाती थी
ज़मीन खाली कराने के लिए
सहारा लिया जाता था आपदाओं का
तूफान, आगजनी और सैलाब के मारे लोग
तंबुओं में चले जाते थे और
उनकी ज़मीनें व्‍यापारियों को
भाषा की चालाकियां ऐसी थीं कि
आतंक पैदा करने वाले ही
आतंकवाद से लड़ने का दावा करते थे
एक अजीब चौधराहट कायम थी
हरियाणा, राजस्‍थान से लेकर
अमेरिका और अरब देशों तक
लोग विद्रोह में खड़े होते थे
और ठगे जाते थे
अनजाने मतिभ्रम में मार डालते थे
लोग अपने ही नायकों को
और विदूषकों को पहना देते थे ताज़

भयानक प्रतियोगिता का दौर था वह
प्रतियोगिता कंपनियों में थीं लेकिन
सबके निशाने पर श्रमिक थे
कामगार अपने परिवार के लिए नहीं
कंपनी के लिए प्रतिबद्ध थे
इसीलिए मारा गया था
इतिहास, विचार और मूल्‍यों को, ताकि
मनुष्‍य को बना दिया जाए महज मशीन
जो करे जाए काम लगातार
बिना सोचे-समझे जुटा रहे

9.

बहुत खतरनाक थे जिंदगी के सवाल
एक तरफ तो लोग
मिट्टी के बिस्किट खाने को लाचार थे
और अरबपतियों की संख्‍या बढ़ती जा रही थी
आवारा हो गई थी पूंजी
देश-देशांतर की यात्रा करती थी
मुनाफा कमाकर कहीं भी चल देती थी
लोग गांव छोड़कर शहर आते थे
और भिखारी बन जाते थे
सरकारें इस बात पर बहस करती थीं कि
एक इंसान को कितनी कैलोरी चाहिए जीने के लिए
और कितनी मुद्रा चाहिए इसके लिए
जिंदगी के सारे सवाल जैसे
मुद्रा में सिमट गये थे
प्रेम को कंडोम की कीमत से आंकने का युग था वह
एक स्‍वस्‍थ बच्‍चे का मतलब था
विज्ञापित वस्‍तुओं का प्रयोग
अच्‍छी गृहिणी के घर में
कीटाणु नहीं होते थे
पिता हमेशा थक कर घर आते थे
और किसी विज्ञापित दवा-दारू से ही स्‍फूर्ति पाते थे
बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम थे हाई-फाई
जहां जाने की योजना
बहुत पहले ही जा सकती थी बनाई
सब कुछ भाषा के कौशल पर निर्भर था
तकनीक को विज्ञान मानने का युग था
और सारी वैज्ञानिकता टेक्‍नोलॉजी में सिमट गई थी
जुगाड़ को आविष्‍कार माना जाता था
कोई भी नया विचार
उपयोगिता के लिहाज से ही स्‍वीकार्य था
मनुष्‍य को समाज से अलग करके देखा जाता था
इंसान एक परम स्‍वतंत्र जैविक इकाई था
जिसे समाज नहीं
उसकी जीन संरचना चलाती थी
सिद्ध कर दिया गया था कि
पृथ्‍वी पर महज चार प्रतिशत मनुष्‍य हैं
जो इसे गतिमान रखते हैं
बाकी सब निठल्‍ले उपभोक्‍ता-नागरिक
ऐसे निठल्‍लों को कर्मवीर बनाने के लिए
चारों ओर फैल गये थे प्रबंधन गुरु
ऐसा जबर्दस्‍त गुरुवादी समय था कि
हर काम की सीख गुरु देते थे
विशाल विश्‍वविद्यालयों से लेकर
रामलीला मैदान और पांडालों तक में छा गये थे गुरु
आत्‍म संतोष, सफलता और परम आनंद के गुर
स्‍वस्‍थ, तनावरहित और परम दैहिक सुख के मंत्र
परिवार, समाज और देश-दुनिया से स्‍वतंत्र
आत्मिक सुख और संतुष्‍ट जीवन के मूल मंत्र
ऐसा भयानक कर्मवाद था उस युग में कि
लोग अठारह घंटे काम करते थे और
कंपनियां डूब जाती थीं
पता नहीं मेहनत कहां डूब जाती थी
असंख्‍य लोगों की गाढ़ी कमाई लेकर
कंपनियां भाग जाती थीं
किसानों की फसलें पूरी मेहनत के बाद
अकाल में सूख जाती थीं
बाढ़ में डूब जाती थीं
पूंजी के सामने
इस तरह जिंदगी हार जाती थी
सुखद भविष्‍य के लिए लोग बचत करते थे
लेकिन मुनाफा कमाने की जगह
वो घाटा उठाते थे
आम आदमी की सारी बचत
ना जाने किन रास्‍तों से
शेयर बाजार में चली जाती थीं
और बिना शेयर खरीदे लोग ठगे जाते थे
बंद कर दी गई थी
कर्मचारियों की पेंशन
पूंजी बाजार ने तय कर दिया था
फालतू काम है यह सरकारों का
कर्मचारी खुद के पैसों से लेगा पेंशन
और फंड मैनेजरों ने लगा दिया
श्रमिकों का पैसा शेयर बाजार में
लोग आश्‍वस्‍त थे कि
बुढ़ापे में कुछ तो मिलेगा लेकिन
सब कुछ शेयर बाजार पर टिका था
जो पूंजीपतियों के कंधों पर टिका था
पूंजी का महा-प्रपंची युग था वह
विरोध में लोग लामबंद होकर
आ गये थे वॉल स्‍ट्रीट पर
एक प्रतिशत पूंजीपतियों के खिलाफ थी
दुनिया की 99 प्रतिशत जनता
एक महायुद्ध की आशंका में घबराये थे
पूंजी के पैरोकार और
दुनिया भर की सरकारें
संघर्ष और इंकलाब जिंदाबाद जैसे शब्‍द
अभी भी पूरी ताकत के साथ बचाए हुए थे
भाषा का भूगोल।

10.

गरीब वह था
जिसने गरीबी का चुनाव किया
जो हर चीज के लिए सरकार पर निर्भर था
एक विराट जनगण को गरीब माना जाता था और
निठल्‍ला कहा जाता था
इस कदर दरिद्र थी भाषा कि
गरीबों को जाति से देखा जाता था
सवर्ण गरीब, दलित गरीबों से डरते थे
उन्‍हें लगता था कि
गरीबों के हिस्‍से का सारा सरकारी धन
दलित, पिछड़े और आदिवासी हड़प जाते हैं
11.
सब कुछ वैश्विक हो चला था गरीबी की तरह
यूरो-डॉलर जैसी मुद्राएं थीं वैश्विक
पूरा जीवन मुद्रामय वैश्विक था
जिंदगी की हर चीज मुद्रा में बदल गई थी और
मुद्रा का मतलब था
व्‍यक्ति का निजी सुख-भोग
जिंदगी के सारे सवाल मुद्रा तक सीमित थे
हर वस्‍तु का एक मूल्‍य था
जो मुद्रा में व्‍यक्‍त होता था
मनुष्‍य के सारे संबंध
मुद्रा से तय होते थे
जिंदगी इस कदर इकहरी थीं कि
कुछ भी पवित्र नहीं बचा रह गया था
ईश्‍वर तक को मनाने के लिए
चढ़ावे में देना होता था पैसा
जो जितना बड़ा भ्रष्‍ट था
उतना ही बड़ा दानी था
धार्मिक होना ही नैतिक होना था
जिसके पास धन नहीं था
वह न तो धार्मिक था और न ही नैतिक
धन ने इस कदर बदल दिया था
भाषा का विन्‍यास कि चोर
देवी-देवताओं को नंगा कर
उड़ा ले जाते थे उनके वस्‍त्राभूषण
न ईश्‍वर का डर था कहीं
और न ही समाज या अपनी ही शर्म

मनुष्‍य कहीं नहीं था वैश्विक कारोबार में
मजदूरों को पता नहीं था
वे किसके लिए बनाते हैं सामान
किसके लिए भेज रहे हैं इधर से उधर
क्‍यों बेच रहे हैं माल
खरीदारों को पता नहीं था
कहां का माल क्‍यों खरीद रहे हैं
लोग बाजार जाते थे और
गै़र जरूरी चीजें लेकर आते थे
एक भयानक संशयवाद में जी रही थी दुनिया
तर्क की नहीं थी कहीं कोई गुंजाइश
इसीलिए अजीब हो गये थे लोगों के विचार
जाति और धर्म के आधार पर तय होता था
कौन है ईमानदार या पेशेवर
अच्‍छे दलित-पिछड़ों को मेहनती कहते थे
सवर्णों के नाम थी संपूर्ण प्रतिभा
अल्‍पसंख्‍यकों को हत्‍यारा और
धर्म-प्रचारक माना जाता था
विदेशों से संबंध रखने वाले
सवर्ण अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यापारी थे और
बाकी सब को
जासूस, दलाल और एजेंट
माने जाने का महायुग था वह

12.

जिनके पास नहीं थी
किसी भी किस्‍म की विरासत
उन्‍होंने तय कर दिया था कि
बेकार है विरासत और अस्मिता
जिनके पास थी विरासत
उन्‍होंने एक इशारे पर लगा दी थी
पूंजी की सेवा में विरासत

पुरखों के बनाए उद्योग और निगम
कर दिये गये पूंजी बाजार के हवाले
कर्मचारी फुटपाथ पर थे और
डूबते जाते थे विराट उद्यम
इस तरह डुबो दी जाती थी विरासत कि
लोग मुक्‍त थे इतिहास की विरासत से
और वर्तमान में ही जीते थे
भविष्‍य की चिंता नहीं थी किसी को

13.

स्‍मृति और अतीत से मुक्‍त दुनिया
इस तरह जीती थी वर्तमान में कि
अपनी हर समस्‍या में लोग
किसी की साजिश देखते थे
जाति और संप्रदाय को माना जाता था
हर समस्‍या की जड़
सबको चिंता थी अपनी-अपनी अस्मिता की
चारों तरफ था अस्मिता का हाहाकारी विमर्श
इसी के आधार पर गोलबंद लोग
अस्मिताएं ले सड़कों पर उतर आये
सारे कर्मकांड और उत्‍सव
घर से निकलकर
चौराहों पर आ गये थे
खत्‍म हो गया था नागरिकता-बोध
सब गौरवान्वित थे जाति और धर्म को लेकर
अस्मिता की अग्नि जलाये रखने
आ गये थे नेता और संत
हर जगह छा गये थे वे
टीवी के चैनलों पर था
अस्मिता का कारोबार
नहीं बचा रह गया था कोई उपाय
लोग अपनी अस्मिता को लेकर
दूसरी अस्मिता वालों से लड़ते थे सरे-आम
पड़ौसी या सहकर्मी की अस्मिता
तरक्‍की में बाधक मानी जाती थी
ऐसा घोर अंधविश्‍वासी युग था
जिसमें भाग्‍य का ही सहारा बचा था
जिसे संवारने के लिए थी संतों की फौज
इतने प्रवचन-शिविर और
यंत्र-मंत्र थे बाजार में कि
उनसे ही भविष्‍य चमकने के दावे थे बेशुमार
बढ़ती ही जा रही थी
लोगों की आवश्‍यकताएं और
इच्‍छाओं का कहीं अंत नहीं था
अंध-इच्‍छाओं के उस दौर में
नष्‍ट हो रही थी प्रज्ञा और प्रबुद्धता
आत्‍मनिर्भरता, सहकारिता और स्‍वदेशी जैसे शब्‍द
बेमानी हो गये थे
बदल गये थे शब्‍दों के मानी
पूंजी का अर्थ था वित्‍तीय पूंजी
धर्म का अर्थ था कट्टरता और
जाति का मतलब था जातिवाद

14.

ऐसी मूल्‍यहीनता का युग था वह कि
लोगों को पता नहीं था
मिला क्‍या है कीमत के बदले
इस्‍तेमाल करो और फेंक दो की भयावह संस्‍कृति थी
कविता लिखने के बाद कलम फेंक दी जाती थी
और पढ़ने के बाद किताब
आत्मिक संतोष और आध्‍यात्मिक सुख की चिंता का
महान युग था वह
मनुष्‍य के मन को लोभ और लालच से
मुक्‍त करने में किसी का नहीं था यकीन
सारे प्रवचन शीर्ष पर जाने के थे
लेकिन कितनों को रौंदकर जाना है
किसी को नहीं था मालूम।

15.

देखे हुए से नहीं मिलता था ज्ञान
ना देखने से उपजती थी संवेदना
सड़क पर घायल को कराहता छोड़ चलने का चलन था
किसी के हालात से नहीं सीखता था कोई
लोग सपनों में जीते थे और
यूटोपिया की बात करते थे
बहुत ही तर्कहीन युग था
तर्कहीन कहानियों से छाये हुए थे कहानीकार
विवेक सिर्फ नामवाचक संज्ञा थी और
दृष्टि चश्‍मे से आती थी
सर्वनकारवादी और निषेधवादी दौर था वह
बिना प्रेम किये लोग
प्रेम कहानियां लिखते थे
और अदावत को प्रेम कहते थे
जिन्‍हें एक सरल वाक्‍य लिखना नहीं आता था
वे कविताएं लिखने के उस्‍ताद थे
लोग शब्‍दों को ऐसे खर्च करते थे
जैसे भूखी भैंस भकोस लेती है चारा
निर्बुद्धिकाल था लेखन का वह
मुक्‍त और निरपेक्ष चिंतन का
यही होना था हश्र
साहित्‍य, समाज और दुनिया को डूब जाना था
अराजकता और विसर्जन में
हर तरफ हरसूद था

फोटो : अभिषेक गोस्वामी 

16.

कला में छाई थी ग़ज़ब की बला
अतीत से मुक्ति का ऐसा आलम था वहां कि
लोग भूल गये थे परंपरा को
जिन्‍होंने थाम रखा था परंपरा का दामन
वे पिछड़े कहे जाते थे
जबर्दस्‍त दबाव था आधुनिकता का
थोक में पैदा हो रहे थे कलाकार और
थोक में ही था कला का बाज़ार

हर तरफ आकृतियां थीं अर्थहीन
अमूर्तन की अनसुलझी पहेलियां थीं
प्रयोगों की भरमार थी ऐसी कि
समाज में जो घट रहा था
उसका अंश तक नहीं था कला में

एक जैसी कलाकृतियां रची जा रही थीं
बाज़ार की मांग के मुताबिक
विशिष्‍ट होने की बीमारी थी कलाकारों में
चौंकाउ और चमत्‍कारिक गढ़ने का दौर था
कला ही क्‍या
समाज-संस्‍कृति का सारा चिंतन था
मनोविज्ञान के हवाले

समाज से कटे हुए कलाकार
मन के भीतर खोजते थे नयापन
ऐसे आत्‍मचिंतन से उपजती थीं
चमत्‍कारिक छवियां
गायब होती जा रही थी
जीवन की लय
दमित आकांक्षाएं सतह पर थीं
फूहड़ता को फैशन मानने का रिवाज था
और शोरगुल को संगीत

17.

हर चीज को सामान्‍य मानने का रिवाज था
अपराध, हिंसा और आतंक को
सहज भाव से लेते थे लोग
अब तो इसी के साथ जीना है

किसी भी चीज पर नहीं होता था
चिंतन या विचार
कोई नहीं जानना चाहता था कि
क्‍यों हो रहा है यह सब
घटनाओं का विश्‍लेषण बचा था
प्रवृत्तियों पर बंद हो चुका था चिंतन

एक अघोषित षड़यंत्र था
साधारण मनुष्‍य को विचार से दूर करने का
जिसमें समाप्‍त हो रही थी
अंतर्विरोधों को खोजने की दृष्टि

समाज के लिए जैसे
कोई काम का नहीं था विज्ञान
वह था पूंजी का विज्ञान
पूंजी की सेवा में लगा हुआ

साइकिल रिक्‍शा में
एक छोटी मोटर लगाकर
चालक के श्रम को कम करने में
नहीं थी किसी की रूचि
विज्ञान की सारी प्रतिभाएं
बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों और
नासा के लिए शोध करती थीं और
मोटा पैकेज पाती थीं

18.

बढ़ते ही जा रहे थे अंतर्विरोध
इसीलिये टूटते जाते थे संबंध

हर समस्‍या एक तात्‍कालिक हल चाहती थी
स्‍थायी को लेकर कोई चिंतित नहीं था
तात्‍कालिक को ही स्‍थायी बना देने का चलन था

साझे घर में पैसों का मामूली विवाद
नया परिवार बसा देता था
हर नये परिवार को बाजार ललचाता था
सुखी परिवार की एक धारणा थी
जो मीडिया में छाई थी

लोग विज्ञापित सुखी परिवार की कामना में
लगे रहते थे रात-दिन
अजीब प्रतियोगिता का दौर था वह
जहां पड़ौसी ही ईर्ष्‍या का केंद्र था

19.

आज़ादी एक छलावा था
हर उत्‍पाद मनुष्‍य को
आज़ाद करने का दावा करता था
और मनुष्‍य एक गुलाम उपभोक्‍ता था
स्‍वतंत्रता के नाम पर
थोपी जाती थी प्रभुता
उनकी स्‍वतंत्रता का एक ही दर्शन था
मनुष्‍य खुद न सोचे कुछ भी
उसकी सोच बनाएंगी कंपनियां
एक अच्‍छे मनुष्‍य को क्‍या चाहिए
यह बताती थीं कंपनियां
जहां भूख पेट से नहीं
दिमाग से पैदा होती थी
दिमाग वह सोचता था
जो मीडिया बताता था
मीडिया वह बताता था
जिसमें कंपनियों और मीडिया
दोनों का मुनाफा हो

मुनाफा और बस मुनाफा
यही था उस युग का महासत्‍य
लेकिन कोई सीमा नहीं थी मुनाफे की

पांच रूपये का टूथपेस्‍ट
सौ रूपये में बिकता था
लेकिन न्‍यनतम मजदूरी बढ़ाने पर
सालों विवाद चलता था

दस साल में बढ़ती थी
कर्मचारियों की तनख्‍वाह
और छह महीने में महंगाई भत्‍ता
लेकिन कोई सरकार नहीं पूछती थी कंपनियों से कि
किस आधार पर तय होते हैं
उनके उत्‍पादों के दाम
क्‍यों बनाती हैं वे
एक ही काम के लिए
इतने सारे सामान

20.

जल्‍दी कीजिये का नारा था
सबको जल्‍दी मची थी जैसे लूटने की
हां, जल्‍दी थी नकली ज़रूरतों को
अनिवार्य बना देने की
जल्‍दी थी अनिवार्य को
ग़ैर ज़रूरी बना देने की
अंधविश्‍वास को धर्म और
चिंतन को बेकार की चीज़
बना देने का एक युग था वह असमाप्‍त
भाषा की सारी चिंताएं
मनुष्‍य को बेहतर उपभोक्‍ता बनाने की थी
जागो ग्राहक जागो का नारा था
विद्यार्थी ज्ञान के उपभोक्‍ता थे और
कंपनियों में बदल गई थीं शिक्षण संस्‍थाएं
माता-पिता निवेशक थे शिक्षा के कारोबार में
भौतिकी, रसायन और गणित को भी
साहित्‍य और इतिहास की तरह
खारिज किया जा रहा था
पाठ्यक्रम से
मैनेजमेंट और मार्केटिंग का ही बोलबाला था
दुनिया भर की भाषाओं में
ईजाद किये जा रहे थे नये-नये शब्‍द
मनुष्‍य की चेतना को कुंद करने के लिये
पूंजी को सिर्फ इतनी चेतना चाहिये थी
जिसमें इंसान बस बना रहे उपभोक्‍ता
पूरी पृथ्‍वी पर ही नहीं
समूचे ब्रह्मांड पर था
पूंजी का साम्राज्‍य
और लाचार था
भाषा का भूगोल।
-----------------------------

संपर्क
प्रेमचन्‍द गांधी
220, रामा हैरिटेज, सेंट्रल स्‍पाइन, विद्याधर नगर, जयपुर 302 023
मोबाइल 09829190626
ई मेल prempoet@gmail.com


टिप्पणियाँ

कितना श्रम इसे लिखने में .... श्रम हमेशा सुन्‍दर होता है। इतनी लम्‍बी सांस साधना मुश्किल काम है। शुक्रिया प्रेम भाई हमारे लिए इसे सम्‍भव कर दिखाने के लिए। गो इसे पढ़ जाना भी एक सांस का काम नहीं, हमें सांस लेने की पाठकीय सुविधा है, कवि को अकसर नहीं होती, सलाम।
sheshnath pandey ने कहा…
लंबी नहीं बड़ी कविता है. बधाई प्रेमचंद जी को.
sheshnath pandey ने कहा…
लंबी नहीं, बड़ी कविता है. बधाई प्रेमचंद जी को.
santosh chaturvedi ने कहा…
प्रेमचन्द गाँधी की लम्बी कविता पढ़ गया. या यूं कह लीजिये कविता ने अपने को पढवा लिया. लम्बी होने के बावजूद इसमें कहीं झोल नहीं दिखा. भाषा के बहाने प्रेमचंद भाई ने जिन महत्वपूर्ण सवालों को उठाए हैं वह कविता की सफलता है. भूमंडलीकरण ने किस तरीके से भाषाओं को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है इसकी बानगी इन पंक्तियों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है-
बदल गये थे शब्‍दों के मानी
पूंजी का अर्थ था वित्‍तीय पूंजी
धर्म का अर्थ था कट्टरता और
जाति का मतलब था जातिवाद
इस लम्बी और श्रमसाध्य कविता के लिए प्रेमचंद भाई को बधाई और आपका आभार.
Unknown ने कहा…
भाषा के विधान और उसके वितान की एक पूर्ण कविता!!!
प्रज्ञा ने कहा…
बधाई। भाषा की हर नब्ज़ पकड़ी है।
प्रेरणा पाण्डेय ने कहा…
बहुत संवेदनशील कवितायें !बधाई प्रेमचंदजी
वर्षा ने कहा…
बहुत सारी बातों पर झकझोरती कविता। पता नहीं चलता कब हम इंसान से उपभोक्ता बन जाते हैं और कंपनियों के खेल में शामिल हो जाते हैं।
हरीश कुमार कर्मचंदानी ने कहा…
दहाड़ें मारकर रोती है भाषा
करुणा से बहती अश्रुधारा
ठोस द्रव की तरह फूटती है
महावृक्ष के तने से
सचमुच यही गोंद है यही गम है
यही ग्‍लू है मानवता का...
स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा…
यह कविता एक तरह से विचार यात्रा है और हमारे समय के संकट को बयान करती है।
नवीन रमन ने कहा…
किलकारी और चीख के बीच पसरी जिंदगी की जद्दोजहद के बीच जीवन-तत्व को तलाश करती कवि की नजर भाषा के जरिए गहरे पैठ करती हुई दृश्य-अदृश्य पद-बंधों के बीच गहराई से विचरने पर मजबूर करती है।
अरुण श्री ने कहा…
//आंसुओं में से नमक निकाल दिया जाए और
प्रेम में से चुंबन//

भाषा के मरने का इतना वीभत्स रूप पहले नहीं पढ़ा ! जबरदस्त कविता ! कविता क्या कवि की तपस्या का फल कहिए !
अंजू शर्मा ने कहा…
इसे पढ़ने में लगा वक़्त सार्थक हुआ। यह कविता नहीं, भाषा के माध्यम से लगभग सभी बिन्दुओं को समेटे हुये है कवि की विचार-यात्रा है। बहुत बहुत बधाई प्रेम जी, अपने समय की नब्ज़ की सटीक पहचान करती शानदार कविता।
Unknown ने कहा…
कविता का हर भाग सोचने पर मजबूर करता है , विशेषकर ये पंक्तियाँ -

ना जाने पृथ्‍वी के किस कोने में
किन लोगों ने मिलकर रची थी साजिश कि
शब्‍दों को उनके अर्थ से अलग कर दिया जाए
पृथ्‍वी को धरती माता नहीं
सौर मंडल का ग्रह कहा जाए
मां को मां
पिता को पिता और
संतान को पुत्र या पुत्री नहीं
एक जैविक संबंध कहा जाए
आंसुओं में से नमक निकाल दिया जाए और
प्रेम में से चुंबन
लिखी हुई हर इबारत एक पाठ है
और अर्थ से स्‍वतंत्र
आप पूजते होंगे
गेहूं की बालियों और धान की फसल को
कारोबारियों के लिए ये सब
एक जिंस से ज्‍यादा नहीं
Unknown ने कहा…
सबसे पहले इतनी लंबी कविता व अथक परिश्रम के लिए आप बधाई के पात्र हैं । कविता का हर एक भाग सोचने पर मजबूर करता है । पर मुझे कविता की ये पंक्तियाँ सबसे अच्छी लगीं -
ना जाने पृथ्‍वी के किस कोने में
किन लोगों ने मिलकर रची थी साजिश कि
शब्‍दों को उनके अर्थ से अलग कर दिया जाए
पृथ्‍वी को धरती माता नहीं
सौर मंडल का ग्रह कहा जाए
मां को मां
पिता को पिता और
संतान को पुत्र या पुत्री नहीं
एक जैविक संबंध कहा जाए
आंसुओं में से नमक निकाल दिया जाए और
प्रेम में से चुंबन
लिखी हुई हर इबारत एक पाठ है
और अर्थ से स्‍वतंत्र
आप पूजते होंगे
गेहूं की बालियों और धान की फसल को
कारोबारियों के लिए ये सब
एक जिंस से ज्‍यादा नहीं
बेनामी ने कहा…
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