साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द--केदारनाथ सिंह
- सुधा उपाध्याय
मौसम
चाहे जितना ख़राब हो,/उम्मीद नहीं छोड़ती कविताएं/वे किसी अदृश्य खिड़की से/चुपचाप देखती रहती है/हर आते जाते को और बुदबुदाती है/धन्यवाद! धन्यवाद!
अभी-अभी 2014 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित केदारनाथ सिंह जी का
कविता संग्रह सृष्टि पर पहरा पूरी तरह समर्पित है ‘अपने गांव के लोगों को/ जिनतक यह किताब कभी नहीं
पहुंचेगी’....ये पंक्तियां बेचैन करती हैं दिल्ली जैसे महानगर में
रहने वाला कवि अपनी जड़ों में अपनी ताक़त ढूंढता है। उसकी जनता, उसकी भूमि उसके
परिवेश, उसका संपूर्ण लेखन इन्हीं गांव की स्मृतियों से समृद्ध होती हैं...
ग्लोबलाइजेशन के शिकार तमाम साहित्यसेवी और समाज चिंतकों के
बीच स्थानीयता को न केवल मुखर करने वाला बल्कि पूरी निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ स्थापित
करने वाला हक़ की लड़ाई लड़ने वाला लगभग 80 वर्ष का यह नौजवान जब कहता है----चलती
रहे वार्ता/होते रहे हस्ताक्षर/ये
सब सही ये सब ठीक/पर हक़ को भी हक़ दो/कि
ज़िंदा रहे वह….हक़ की लड़ाई….कभी सूर्य का हक़....कभी पानी का...कभी
कपास के फूल का...कविता के ताप का हक़...भाषा का हक़...बोली का हक़, लिपि का हक़,
पृथ्वी का हक़, सृष्टि का हक़...
एक पुरबिहा कितना सचेत है केवल पूरबवासियों के लिए नहीं देश के लिए....देशवासियों
के लिए नहीं...इंसान के लिए इंसानियत के लिए...कवि केदारनाथ सिंह संसार का अनुभव
लेकर प्रकृति की ओर लौट रहे हैं....उन्हें तमाम प्राकृतिक संसाधन सृष्टि को बचाने
के उपक्रम में संघर्षशील दिखाई देते हैं...कभी घास पूरी जीवटता से जिजीविषा की
पताका उठाए है...कभी कपास, पेड़, बांस के जंगल, भेड़ अपना विद्रोह प्रकट करते
दिखाई देते हैं....जैसे यकायक सारी जड़ चीजें सचेतन होकर खासा नाराज़ हैं इंसान की
जड़ता पर....इस्तेमाल कर उपेक्षा कर देने की फितरत पर उपभोग की संस्कृति ने लाखों
वर्श पुराने सूर्य को भी नहीं बख्शा....सृष्टि पर पहरा समर्पित है उन्हीं रौंदे
हुए, कुचले बेज़ुबान, सीधे निपट गंवार, आत्मीयजनों और प्राकृतिक संसाधनों पर....जिस
तंत्र के केदारनाथ सिंह हिमायती हैं वहां तमाम स्रोतों नैसर्गिक प्राकृतिक
संसाधनों की ठीक-ठीक पहचान हो जाने पर निरंतर जूझना पड़ रहा है आदिम हविस से....आज
घर में घुसा तो वहां अजब दृश्य था/सुनिए मेरे बिस्तर
ने कहा/यह रहा मेरा इस्तीफा/मैं अपने
कपास के भीतर जाना चाहता हूं/उधर कुर्सी और मेज का एक
संयुक्त मोर्चा था/दोनों तड़प कर बोले /जी अब बहुत हो चुका/आपको सहते-सहते हमें बेतरह याद आ
रहे हैं हमारे पेड़/और उनके भीतर का वह ज़िंदा द्रव्य/जिसकी हत्या कर दी है आपने/उधर आलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थीं/खोल दो हमें खोल दो/हम जाना चाहती हैं अपने बांस के जंगल/और मिलना चाहती
हैं/अपने बिच्छुओं के डंक और सांपों के चुंबन से/पर सबसे अधिक नाराज़ थी वह शॉल/जिसे अभी कुछ दिन
पहले /कुल्लू से खरीद लाया था/बोली—साहब,
आप तो बड़े साहब निकले/मेरा दुंबा, भेंड़ा मुझे कब से पुकार
रहा है/और आप हैं कि अपनी देह की क़ैद में लपेटे हुए हैं
मुझे/कि तभी नल से टपकता पानी तड़पा/अब
तो हद हो गई साहब/अगर सुन सकें तो सुनिए/इन बूंदों की आवाज़/कि हम यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी/आदमी की जेल से मुक्त होना चाहते हैं….
केदारनाथ सिंह बौद्धिकता को नहीं सरलता को चुनते हैं। जीवन
और प्रकृति में ज़रूरत से ज्यादा कृत्रिम हस्तक्षेप केदार जी को पसंद नहीं है। वे
चेतावनी देते हैं कि बंदी बनाकर हम प्रकृति तथा जीवन के सौन्दर्य को सक्रिय नहीं
रख सकते। यह सृजनात्मकता ही हमें सिखाती है कि ताक़तवर से कैसे लड़ना है और लगातार
उसकी उपेक्षा करते रहना शोषक वर्ग को नेस्तानाबूत करने में सक्षम है। कविता के लिए
उनकी एकमात्र यह उक्ति किसी सूक्ति वाक्य की तरह हमेशा याद रखी जाएगी
और वह आज
भी ज़िंदा है
मृत्यु की
तमाम घोषणाओं के बाद
केदार जी का रचना संसार आज के भारतीय समाज के प्रति गहरी
संवेदनात्मक उन्मुक्तता या लगाव प्रमाणित करने वाला संसार है....इनके पास जीवन के
प्रति एक निश्चित स्वीकारात्मक दृष्टिकोण है यही कारण है कि इनकी कविताओं में
निरंतर जीवन की सच्ची मानवीय विकलता के दर्शन होते हैं....जो आज के समय और समाज के
जटिलतम प्रश्नों चुनौतियों से टकराने के लिए हरदम तैयार मिलती हैं....इस घोर
अनास्था निषेधात्मक दौर उत्तर आधुनिक युग में केदार जी की कविता एक नई जीवन आस्था
का भी आविष्कार करती है....इनके लिए कविता ही एकमात्र वह हथियार है जो किसी दल बल
और छल का बड़े साहस और जीवटता से प्रतिकार करती है....दिल्ली आज की सीकरी है
संतप्रवर/तब तो एक थी/अब के
अंदर एक /जाने कितनी सीकरियां हैं/जानता
हूं समाधि से फूटकर/आता नहीं कोई उत्तर/फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूं/यह कैसी अनबन है
कविता और सीकरी के बीच/कि सदियां गुज़र गईं/और दोनों में आजतक पटी ही नहीं…..
यहां सवाल शासन तंत्र और बाज़ार पर भी है....जो निरंतर
कविता के खिलाफ खड़ा है...लिख देने भर से दायित्व पूरा नहीं हो जाता....जिनके लिए
लिखा गया है उन्हें ऐसी अप्राकृतिक और अमानवीय स्थितियों से कैसे बचाया जाए, हमें
यह केदार जी से सीखना होगा....
जड़ता और यथास्थिति का विरोध तो इनके कई समकालीन कवियों ने
किया, किंतु सचेतन के जड़वत होते जाने और जड़ को सचेतन विद्रोह जताते हम प्रत्यक्ष
देख रहे हैं....इनके रचना संसार को समझने के लिए 60 के बाद के ऐतिहासिक मोहभंग को
भी समझना होगा...जहां एक ओर प्रतिबद्ध कवि जटिल अमानवीय व्यवस्था अथवा तंत्र के
विरुद्ध संघर्ष कर रहा था वहीं अपने आक्रोश और विद्रोह के ऐतिहासिक कारणों की जांच
पड़ताल भी कर रहा था...केदार जी ने प्रतिपक्षधर्मी प्रतिबद्ध कविता को ऐतिहासिक
यथार्थ बनाकर जनजीवन, समय, समाज, कविता और राजनीति सबमें कुछ जीवंत मुहावरों की
तलाश की है....वृहत्तर देश में कई कसबे हैं....छोटे-बड़े नगर शहर हैं...गांव
हैं...ऐसे में हिंदी को अपनी वृहत्तर भूमिका निभानी होगी...केदार जी का वह पहलू जो
मुझे सबसे अधिक आंदोलित करता है वह भाषा की नहीं बोली के हक़ की लड़ाई...कहीं
राजभाषा के दबदबेपन में हमारी स्थानीय बोलियां दम न तोड़ जाएं...मेरा अनुरोध है/भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध/कि राज नहीं भाषा/भाषा सिर्फ भाषा रहने दो/मेरी भाषा को/इसमें भरा है पास पड़ोस/दूर दराज़ की इतनी ध्वनियों
का बूंद-बूंद अर्क….
हिंदी को समूचा देश मानने वाला कवि भोजपुरी को अपना घर
समझता है....
अब इस आवाजाही में
कई बार घर
में चला आता है देश
और देश में
कई बार छूट जाता है घर
ये और कुछ नहीं घर यानी
बोली के छूटते जाने की व्यथा है....कवि आगे और कहता है....
मैं दोनों से प्यार
करता हूं
और देखिए न
मेरी मुश्किल
पिछले साठ
वर्षों से
दोनों में
दोनों को खोज रहा हूं
तो मित्रों ये और कुछ नहीं
भाषा में यानी देश में घर यानी बोली के विला जाने की दुर्घटना है....हम अपनी
संततियों के लिए क्या सहेज कर रख पाएंगे....न तो प्राकृतिक संसाधन बचेंगे न जल न
जंगल न कपास न पेड़....और यहां तक की बोली को भी नहीं बचा पाएंगे...मैं यहां एक
बात कहना चाहती हूं कि केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे हमेशा रेणु याद
आते हैं...और याद आता है मैला आंचल...लेखन के ज़रिए भाषा और स्थानीयता की जो लड़ाई
रेणु ने लड़ी थी केदारनाथ सिंह जी उसी को आगे बढ़ाते रहे हैं....मैला आंचल उपन्यास
अपने जिन अहम मुद्दों के लिए आज भी पढ़ा जाता है उसमें सबसे महत्वपूर्ण है
भाषा...भाषा का मतलब क्या...सिर्फ बोली या कुछ और...भाषा दरअसल एक संस्कार है, उठने-बैठने
जीवन जीने की कला है...रेणु को पढ़ते हुए जिस तरह पाठक की भाषा और लेखक की भाषा
में संघर्ष होता है वही संघर्ष केदार जी को पढ़ने के बाद होता है....असल में ये
संघर्ष समाज के उन दो वर्गों के बीच का संघर्ष है जिसके बीच खाई है और दिनोदिन वो
खाई चौड़ी और गहरी होती जा रही है....भाषा का प्रश्न सीधा लोकतांत्रित दृष्टि से
जोड़कर देखा जाना चाहिए...केदारनाथ सिंह के सृष्टि पर पहरा की अंतर्वस्तु में यह
तर्क निहित है कि विशेष रूप से देशीय हुए बिना सार्वभौम होना और सामूहिक जीवन में
सक्रिय सहभागिता के बिना मानव अंतररात्मा की तलाश करना बंजर है....
क्या करें
इस कविता का
कि हवा दो
पानी दो
टैक्स में
दे दो चाहे जितनी छूट
पर वोट
मांगने जाओ
तो कभी
अपने पते पर मिलती ही नहीं
जाने कैसी
बनैली प्रजाति की लत्तर है
किसी
राष्ट्रीय उद्यान में खिलती ही नहीं
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
कविता संग्रह- सृष्टि पर पहरा
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशकपृष्ठ-120मूल्य-250
डॉ सुधा उपाध्याय
बी-3, टीचर्स फ्लैट
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज (दि.वि.वि)
सर गंगाराम अस्पताल मार्ग
नई दिल्ली-110060
फोन-+919971816506
टिप्पणियाँ