शरद कोकास की कविताएँ


शरद कोकास अपनी विशिष्ट लम्बी कविताओं के लिए जाने जाते हैं, पुरातत्ववेत्ता जैसी कविता तो खैर अब इतिहास में दर्ज़ है. यहाँ उन्होंने मष्तिष्क का उत्खनन किया है. मनुष्य की निर्मिति के सबसे संश्लिष्ट और सबसे रहस्यमय हिस्से को परत दर परत किसी कुशल शल्य चिकित्सक की तरह खोलते और सहेजते शरद उन गहराइयों तक पहुँचने की भरपूर कोशिश करते हैं जहाँ से मनुष्य और समाज के अंतर्संबंधों की पड़ताल संभव होती है. ये कविताएँ कुछ दिनों पहले नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुईं थीं और अब आज उनके जन्मदिवस पर  ब्लॉग जगत के पाठकों के लिए.

André Desjardins की  पेंटिंग गोल्डन माइंड गूगल से साभार 


मस्तिष्क के क्रियाकलाप 

दृष्टि 

एक बच्चे सा विस्मय था जब मनुष्य  की आँखों में
रात और दिन के साथ वह खेलता था आँख मिचौली
समय की प्रयोग शाला में सब कुछ अपने आप घट रहा था

देखने के लिये सिर्फ आँख का होना काफी था
और प्रकाश छिपा था अज्ञान के काले पर्दे में
पृथ्वी से अनेक प्रकाश वर्षों की दूरी के बावज़ूद
सूर्य लगातार भेज रहा था अपनी शुभाशंसाएँ

अब जबकि ऐसा घोषित किया जा रहा है
कि ज्ञान पर पड़े सारे पर्दे खींच दिये गए हैं
और चकाचौंध से भर गई है सारी दुनिया
समझ के पत्थर पर लिख दी गई हैं इबारतें
आँख प्रकाश और दिमाग़ के महत्व की
जैसे कि घुप अंधेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझता
अंधेरे में बस दिखाई देता है अंधेरा
कोई फर्क नहीं पड़ता आँखें खुली या बंद होने से
यह मस्तिष्क ही है जो अंधेरे से बाहर सोच पाता है

दृश्य और आँखों के बीच प्रकाश के रिश्तों में
अंधेरे से बाहर झाँकता है विस्मय से भरा संसार
दृश्य के समुद्र में तैरता है वर्तमान

यह दृश्य में रोशनी की भूमिका है
जो अदृश्य है विचारों के दर्शन में
यहाँ रोशनी का आशय भौतिक होने से नहीं है

अंधेरे में भटकते बेशुमार विचारों की भीड़ में
दृष्टि तलाश लेती है अक्सर कोई चमकता हुआ विचार

मानव मस्तिष्क के विशाल कार्यक्षेत्र में
जहाँ समाप्त होती है ऑप्टिक नर्व्स की भूमिका
वहाँ दृष्टि की भूमिका शुरू होती है
ज्ञान की उष्मा में छँटती जाती है असमंजस की धुन्ध
यहाँ मस्तिष्क प्रारम्भ करता है
दृश्य में दिखाई देते विचार का विश्लेषण

यहीं से शुरू होती है
मुक्तिबोध की कविता अन्धेरे में ।



श्रवण

यहाँ साफ सुनाई देती है अतीत की शंखध्वनि
इतिहास की मीनारों से आती
वक़्त की अज़ान सुनाई देती है
वेदमंत्रों की आवाज़ यहाँ तक पहुँचने की सज़ा के रूप में
कानों में पिघला सीसा डाले जाने पर
निकली चीख़ भी यहीं सुनाई देती है
मानव मस्तिष्क का श्रवण केन्द्र है यह
कानों में प्रवेश करती ध्वनि
घुमावदार रास्तों से गुज़रकर
यहाँ तरंग बनकर पहुंचती है

वायलीन पर बजती है एक उदास धुन
शहर के शोर में डूब जाती है कोई कराह
ठहाकों और अट्टहासों की जुगलबन्दी में
देहरी पर दम तोड़ देती हैं कई चीखें
कोई भेद नहीं यहाँ
प्रार्थना और प्रताड़ना के स्वरों में
दुलार और फटकार के स्वर पहचानने की
कोई क्षमता उपस्थित नहीं

हर ध्वनि के लिए मौन स्वीकार है यहाँ
एक भिक्षुक की तरह स्वीकारता है मस्तिष्क  
हर तरह की आवाज़ों का दान

शब्दों की शक्ल में यहाँ मंडराते हैं ख़तरे
बार बार सुने गए बेहिसाब झूठ
सच बनकर दर्ज होने की सम्भावना होती है
चाशनी सी मीठी आवाज़ में छुपा विष भी
यह अक्सर अमृत समझकर ग्रहण करता है

यह श्रव्य की सत्ता का केन्द्र है
जिसे सदैव दृष्य की सत्ता से कमतर आँका गया
बेड़ियों की आवाज़ जहाँ से आती थी इस तक
उसी उद्गम से निकलती है अब नारों की आवाज़
उसी उद्गम से निकलते हैं प्रतिरोध के स्वर
अब सीख रहा है यह आवाज़ों में अंतर करना
सीख रहा है लोरियों और गालियों में भेद करना ।
                

कल्पना                         

मस्तिष्क के डार्करूम में
विगत और आगत की डोरियों पर लटके हैं
अतीत, वर्तमान और भविष्य के तमाम देखे-अनदेखे चित्र
रूप, रंग, रस, गन्ध ,ध्वनि और स्पर्श की अनुभूतियाँ
अपनी जटिल क्रियाओं में
यहाँ कल्पनाओं में ढल रही हैं

जैसे जॉर्ज बुश या ओबामा का नाम सुनते ही
जेहन में उभरता है
तथाकथित विश्वचौधरी का चेहरा
अमिताभ  बच्चन का ज़िक्र आते ही
एक एंग्री यंग मैन सम्वाद बोलता नज़र आता है
कल्पना में शामिल होते हैं लोग दृश्य और वस्तुएँ
या उन्हीं की सादृश्य भौतिक वस्तुएँ और प्राणि
जो कभी न कभी हमारे देखे सुने होते हैं
उदाहरण के लिए अन्धों का हाथी
जिसके पाँव , कान और पूँछ
ठीक इसी प्रक्रिया में
खम्भे , सूप और रस्सी में बदलते हैं  

मस्तिष्क के इसी भाग में ढलती हैं                                               

साहित्यकारों व कलाकारों की कल्पनाएँ
जो हू ब हू समा जाती हैं औरों के मस्तिष्क में
वैज्ञानिकों का सहारा बनती है कल्पना नई खोज में    
संकल्पनाओं में व्यक्त होता है मनुष्य का संसार
विचारों का सृजन कर प्राकल्पनाएँ
जगत के संज्ञान में मदद करती हैं 

मूर्त से अमूर्त तक की यात्रा करते हैं हम यहाँ से
कल्पनाओं का वर्गीकरण कर उन्हें
धर्म ,विज्ञान , कला जैसे खानों में बाँटते हैं
पृथ्वी पर जन्मे हर मनुष्य की तरह
पहले मनुष्य के जन्म की कल्पना कर सकते हैं हम
और उस पहले मनुष्य के मन में जन्मी
ईश्वर की कल्पना भी कर सकते हैं हम
इसी मस्तिष्क से   ।

यही तो है मस्तिष्क का कमाल
जहाँ पढ़े हुए शब्दों
और देखे - सुने यथार्थ के आधार पर
हम कल्पना कर सकते हैं आगत और विगत की
बेसिर-पैर की कल्पना से इतर
समाज की बेहतरी से जुड़ी कल्पना कर सकते हैं हम
शोषित और दमित वर्ग की ज़िन्दगी के अलावा
यहीं से कर सकते हैं हम उन बुरे दिनों की कल्पना
जो इस मनुष्य जाति ने देखे हैं
आने वाले अच्छे दिनों की कल्पना भी
हम यहीं से कर सकते हैं 

पहचान

मनुष्य का नाम मनुष्य नहीं था जब
मस्तिष्क का नाम भी मस्तिष्क नहीं था
नदी, पेड़, चिड़िया इसी दुनिया में थे और
नदी, पेड़, चिड़िया  नहीं कहलाते थे
गूंगे के ख्वाब की तरह बखानता था मनुष्य
वह सब कुछ जो दृश्यमान था

अनाम चित्रों से भरी थी मस्तिष्क की कलावीथिका
और मनुष्य उन  चित्रों के लिए शीर्षक तलाश रहा था

हवाओं ने उसे कुछ नाम सुझाए
धूप ने छाया में कुछ शब्द कहे
बारिश की बूंदों ने गुनगुनाए कुछ गीत
इस तरह शुरू हुआ नामकरण का सिलसिला
पहाड़ का नाम उसने पहाड़ रखा
और आसमान का आसमान
दिखाई देने वाली हर वस्तु के साथ
एक नाम जोड़कर उसने उससे पहचान कायम की
बहुत सारी वस्तुएँ जिनके होने में उसे सन्देह था
या जिनका अस्तित्व उसकी चेतना से बाहर था
या जिन्हें वह कभी  देख नहीं पाया था
या जिनका अस्तित्व था ही नहीं
उनके भी उसने आकार गढ़े और नाम रखे
जैसे ईश्वर का नाम उसने ईश्वर रखा

यहीं से शुरू हुई रिश्तों के साथ उसकी पहचान
स्त्री सी दिखने वाली एक स्त्री उसकी माँ कहलाई
और एक पुरुष को पहचाना उसने पिता के रूप में

जानवरों में भेद करते हुए उसने
उन्हें बाँटा हिंसक और अहिंसक की श्रेणियों में
प्राणियों और वस्तुओं पर लागू  
मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली को फिर उसने
मनुष्यों पर भी लागू किया  


हर दाढ़ी वाला उसे मुसलमान नज़र आया
चोटी- जनेउ वाला हिन्दू और पगड़ीधारी सिख
हर अश्वेत की पहचान उसने अफ्रीकी के रूप में की
सूटधारी को इसाई और गोरे को विदेशी जाना
फटे कपड़े वालों को पहचाना उसने मुफलिस के रूप में
और अच्छे कपड़े पहनने वालों को अमीर जाना

ग़नीमत है हज़ारों साल बाद उसने ख़ुद को पहचाना
युद्ध , दंगों और चुनावों से इतर समय में ही सही
उसने मनुष्य के रूप में मनुष्य को पहचाना
पहचानने की इसी क्षमता से अब मनुष्य
पहचानेगा अपने दोस्त, पहचानेगा अपने दुश्मन
पहचानेगा अपने रक्षक , पहचानेगा अपने हत्यारे ।

संवेदना

पृथ्वी की अनगिनत परतों की तरह
अभी अनछुए हैं संवेदना के कई गहरे धरातल
अभी अटका है मनुष्य अपनी सभ्यता में
सिर्फ दिखाई देने वाली ऊपरी सतह पर
छुपा है सहनशीलता के एक छद्म आवरण के भीतर  

बड़ी बड़ी घटनाओं की आशंका से भरे जीवन में
किसी भी क्षण घटित होने की सम्भावना लिए
मंडराती हैं छोटी-मोटी घटनाएँ
जिनके घटित होते ही
मस्तिष्क का सोमेटोसेंसरी क्षेत्र सक्रिय हो उठता है
उष्मा,प्रकाश, ध्वनि,पदार्थों के अणु
ज्ञानेन्द्रियों पर प्रभाव डालते हैं
विद्युत रासायनिक आवेग के रूप में
तंत्रिका मार्ग से पहुँचते हैं मस्तिष्क के इसी केन्द्र में

महात्माओं सा धैर्य धारण करने वाला मनुष्य भी
तिलमिला उठता है एक मच्छर के दंश से
ज़रा सी चोट लगते ही कराह उठता है
चिहुंक कर हाथ खींच लेता है
भूल से गरम वस्तु पकड़ लेने पर
आँख में धूल जाते ही आँख मलता है
  
असंख्य तंत्रिकाओं के विशाल जाल में
यह इन्द्रीय संवेदनाओं का केन्द्र है
वस्तुगत जगत की वस्तुओं में अंतर्निहित गुण
यहीं से महसूस करते हैं हम
तप्त देह पर पड़ी बूंद से उपजी सिहरन
शीश पर हाथों के स्नेह भरे स्पर्श का सुख
प्रेम में पगे चुम्बन का रोमांच
पाँव में चुभे काँटे की चुभन
गाल पर पड़े तमाचे की जलन
यहीं से अनुभूतियाँ अपने होने का प्रमाण देती हैं

अपनी संवेदना के असीमित विस्तार में
यहाँ से महसूस कर सकते हैं हम संवेदन की गहनता  
अपने अलावा औरों के दुख भी
यहीं से महसूस कर सकते हैं हम  
और उनके शरीर पर पड़ रहे कोड़ों की मार भी
अपने शरीर पर महसूस कर सकते हैं ।

सामंजस्य

लोहा अपने गुणधर्म में                                                                                  
फैल जाना चाहता है उष्मा मिलते ही
अपने अणुओं में सिमट जाना चाहता है शीत पाकर

प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाये रखना
प्रकृति के घटकों का गुणधर्म है

पहाड़ों से आती हैं सर्द हवाएँ टकराती हैं देह से
हम अपने भीतर कैद होने की कोशिश करते हैं
वहीं जेठ की गर्म हवाओं में
निकल जाना चाहते हैं अपनी ही देह से बाहर

इस देह का अधिष्ठाता है मस्तिष्क
स्वयं अपना अधिष्ठाता है जो
उसके संस्कारों में शामिल है
वातावरण के मुताबिक स्वयं को ढालना

यह गुलामी में भी जी सकता है
स्वीकार कर सकता है शोषण की स्थितियाँ
फटेहाली में भी खुश रह सकता है

लेकिन यहीं कहीं उपस्थित हैं प्रतिरोध के संस्कार
जैसे ठंड का मुकाबला करते हैं हम आग जलाकर
गर्मी से बचने के इंतज़ामात करते हैं
सूखना चाहते हैं हम बारिश में भीगकर भी

उसी तरह मुखरित करना चाहते हैं हम
प्रतिरोध के स्वर स्थितियों के विरुद्ध
कि हम समझते हैं सुविधा और प्रतिरोध में अंतर
ख़त्म करना चाहते हैं न सिर्फ हम अपनी बदहाली
बल्कि उन कारणों को भी
जिन्होंने हमें सामाजिक सामंजस्य के नाम पर
मुठ्ठी भर लोगों का गुलाम बनाए रखा ।
  
आदेश

अपने राजतंत्र में असीमित अधिकार लिए
मस्तिष्क की सर्वोच्च सत्ता का केन्द्र है आदेश केन्द्र
हर अंग को आदेश देने का सामर्थ्य इसके पास है

देह की नदियों में बहता रक्त
जब नींद के मौसम में उदास होता है
चेतना से लैस मस्तिष्क का यह आदेश केन्द्र
जागता है अपने निरंकुश अधिकार में

शरीर पर मच्छर मक्खी या कोई कीट बैठते ही
हाथ की माँसपेशियों को हुक्म देता है
उठो बढ़ो और हत्या कर दो
चीटियों को मसलने का आदेश यही देता है
साँप ज़हरीला हो न हो
उसे कुचलने का आदेश यह देता है
अपनी क्रूरता की चरम सीमा में
यह आदेश बदल जाता है
मनुष्यों को मार डालने के आदेश में

इसके फरमान लेकर नसों में दौड़ती हैं तरंगें
इन्द्रियाँ इसका हुक्म बजाती हैं
जिव्हा इसके गीत गाती है
सर झुकते हैं इसके आदेश पर
इसके आदेश पर घुटने टिकते हैं

पांवों को बढ़ने का आदेश देता है यह
यही आदेश देता है रुकने का
खाने-पीने, सोने-जागने ,रोने - हँसने
आँखों को देखने , कानों को सुनने
दाँतों को चबाने और
नाखूनों को खुजाने का आदेश भी यही देता है

यहाँ कोई जगह नहीं अवमानना के लिए
फिर भी हृदय इस के कहे नहीं धड़कता
रुकी साँस पल भर में विद्रोह कर बैठती
आंतरिक अंग चल रहे होते स्वाभाविक प्रक्रिया में
संवेदना शून्य होने की स्थिति में
बाह्य अंग भी नहीं मानते इसका आदेश

अपने अंतरिम समूह की लोकतांत्रिक व्यवस्था में
मस्तिष्क के अन्य हिस्सों को आदेश देता यह
देखो देह के दूरस्थ अंगों से आये हैं हरकारे
उनकी लाई खबरों को देखो परखो विचार करो
यह उन हिस्सों की संवेदन क्षमता पर निर्भर होता है
वे कितना जानते बूझते समझते हैं ।

शोषकों को ज़ुल्म करने का आदेश देता यह
वहीं शोषितों को ज़ुल्म सहने का भी
फिर शोषितों, दमितों ,वंचितों को
लामबन्द होने का आदेश देकर
ज़ुल्म के ख़िलाफ हथियार उठाने का आदेश भी
मानव मस्तिष्क का यही केन्द्र देता है ।

योजना

आनेवाले कल की अपरिचेय अनुभूतियाँ यहाँ हैं
वर्तमान  के स्टैण्ड पर रखे हैं भविष्य के अधूरे चित्र
जिनमें अभी रंग भरना शेष है
मस्तिष्क के द्रव्य में तैर रहे हैं कुछ खुशनुमा ख़्वाब
एक बेहतर ज़िन्दगी और कष्टहीन मृत्यु के
भविष्य के चित्रों में शामिल हैं
बच्चों की मुस्कान और सुरक्षित बुढ़ापा
वहीं फ्रेम के बाहर घट रहा है अघोषित यथार्थ

मक्खन सा नर्म है दिमाग़ का यह भाग
जिस पर रखी जा रही भारी भरकम योजनाओं  की नीव
यहाँ एक दुनिया बस रही है
जहाँ अपनी बारी की प्रतीक्षा में हैं सुख चैन  
जिस देह के लिये जुटाई जा रही हैं सुविधाएँ
अपात्र होती जा रही वह उनके उपभोग के लिए

यह सब कुछ उनके भीतर भी घटित हो रहा है
हर सुबह जिनके भीतर एक स्वप्न जन्म लेता है
जो रात गए अपनी ही हत्या के पाप में डूब जाता है
उत्तराधिकार में मिलतीं हैं उन्हें अधूरी इच्छाएँ
और वे इसे धोखे का नाम भी नहीं दे सकते  

उनके मस्तिष्क के इस भाग की क्षमता को
सदैव कम करके आँका गया और इसके लिए
उनकी नस्ल को ही दोष दिया गया कि उन्हें पता था  
यह जैविकी  के नियमों के खिलाफ है

वे जीवन भर आत्महीनता के अहसास से दबे रहे
और नहीं पहचान पाए कि उनके भविष्य के लिए
योजनाएँ बनाने वाले
अपने मस्तिष्क के इसी हिस्से से उनके लिए रचते रहे
कभी न समाप्त होने वाला आजीवन कारावास ।

लेकिन यह परम्परा में शामिल नहीं था इसलिए
कि योजनाओं के विरुद्ध भी बनती रही योजनाएँ  
और उनके बीच ही कोई ऐसा था इसलिए
कि जिसके मस्तिष्क में जन्म लेती थी विद्रोह की योजनाएँ
कि ऐसा मस्तिष्क भी जन्म लेता रहा बार बार
और चलती रही विचारों की यात्रा अविरल
स्पार्टकस से भगतसिंह तक ।


तर्कक्षमता

एक समाधानकारी उत्तर की प्रतीक्षा में
सदियों से उपस्थित है मस्तिष्क में एक प्रश्नचिन्ह
मनुष्य की भूख में जिसका सीधा हस्तक्षेप है
अपनी पूरी मुस्तैदी में अंध आस्था रोके हुए
न बच्चों सी सरलता है इसमें
न दुष्टों सी कुटिलता
बस उपस्थित है एक सहज सम्भावना
कि जहाँ धुआँ है वहाँ आग भी अवश्य होगी
जब घंटियों के स्वर भी मन नहीं बहलाते
और सजदे में शुमार हो जाती है रोटी की फिक्र
दिमाग़ के इस टुकड़े पर गिद्धों की नज़र चुभती है
और यह केवल इसलिए नहीं कि इससे
उनकी शाश्वत भूख मिटेगी
वे इसके बदले देंगे मनुष्य  को
प्राणिमात्र पर दया और सर्वधर्मसद्भाव की शिक्षा
और यह प्रश्नचिन्ह
उनके सुख में खलल नहीं डालेगा

वे इस हिस्से से हटा लेना चाहते हैं तमाम आधार
ताकि न हम सन्देह कर सकें ना तर्क कर सकें कोई  
सिर्फ आँखें बन्द कर किया जानेवाला विश्वास जन्म ले सके
और वे जब कहें काले को सफेद तो
खुली आँख वाले तमाम लोग इसे दोहरा सकें 

जैसे कि अवैध कब्ज़ों पर चलाए जा रहे बुलडोज़र
ज्ञान को बेदखल कर रही हैं सूचनाएँ
मस्तिष्क का यह भाग उनके निशाने पर है
जिनके मस्तिष्क के इसी हिस्से में इन दिनों
फासिज़्म के कैक्टस उग रहे हैं ।

व्यवहार

कुछ मैले चीथड़े ,टीन का डिब्बा और एक फटा कम्बल
यदि कविता में आ जाए तो
आहत हो सकता है आपका सौन्दर्यबोध
उसका क्या जो यह आभूषण धारण कर
पागलों सा भटकता है शहर की सड़क पर
आसमान की ओर देख कर कहकहे लगाता
मानो हँस रहा हो ईश्वर पर
अपने आप से बातें करता बड़बड़ाता
जैसे दुनिया में कोई बचा न हो बात करने लायक
राख के ढेर कुरेदता मानों कोई चिंगारी ढूंढ रहा हो

विज्ञान की भाषा में कहें तो
निष्क्रिय है उसके मस्तिष्क का व्यवहार नियंत्रण केंद्र
कि अपनी शारीरिक हरकतों पर उसका नियंत्रण नहीं
फिर भी उसे पता है घात और आत्मघात में फर्क
अपने नखशिख में जुगुप्सा उत्पन्न करता हुआ
अपनी दयनीयता में इस क़दर विस्मृत और उपेक्षित
कि इतिहास में कहीं दर्ज़ नहीं

जिन मनुष्यों ने रचा है यह संसार
उन्होंने ही रचे हैं व्यवहार के मापदंड
और दावा किया है पूरे मस्तिष्क को जान लेने का
उनकी चालाकी यह कि वे एक ऐसा संसार रचें
जहाँ सब उनकी ही भाषा बोलें
उनका ही गुणगान करें उनके कहने पर मुँह खोलें
उनकी कठपुतली की तरह हो सबका व्यवहार

उनके चेहरे आकर्षक, उनका व्यवहार सौम्य
उनकी सामाजिकता की व्याप्ति जन जन तक 
कि हम कभी नहीं देख पाए
उनके दिमाग के इस हिस्से में होनेवाली गड़बड़ियाँ
उनके व्यवहार का शिकार होते रहे करोड़ों करोड़ लोग
मनुष्यता के आंगन में घटित होते रहे
तमाम युद्ध , विध्वंस और नरसंहार
एक नारा बुलन्द होता रहा मानवता के उद्धार का
और जीने का तथाकथित सलीका तय कर दिया गया

मस्तिष्क के इस भाग के अनियंत्रित होने के उदाहरण
अपने प्रकट रूप में कभी नहीं पड़े दिखाई
अपने अनुयायियों और समर्थकों के पर्दे में
वे सदा बने रहे नस्ल और संस्कृति के उद्धारक
हिटलर , मुसोलिनी , मुहम्मद बिन तुगलक
और फासिज़्म की राह पर चल रहे उनके आधुनिक वंशज ।

भाषा

अपने सीमित शब्दज्ञान और बालसुलभ उत्सुकता में
बिटिया पूछती है पहेली
क व त इन अक्षरों से कोई शब्द बनाइये
पिता कहते हैं कवित्त मै कविता कहता हूँ
यही है मस्तिष्क के इस हिस्से का काम
आप चाहें तो इसकी अद्भुत क्षमता से
इन्ही अक्षरों से कुवैत गढ़ सकते हैं

स्मृति भंडार में एकत्रित अक्षर
शब्दों में ढलते है यहाँ
शब्द वाक्य के समूह में बाहर निकलते हैं
मनुष्य की भाषा का कारखाना है
मास्तिष्क का यह भाग

अतीत में गूंजते हुए शब्द जब केवल ध्वनि थे
और कोई अर्थ भी  आरोपित नहीं था उनमें
सर्र सर्र बहती थी हवाएँ दुलराती थीं
झर झर बहते थे झरने
पानी रिम झिम रिमझिम बरसता था
चूँ चूँ करती थी चिड़िया
छनछन छनकती थी पायल
टप टप टपकते आँसुओं में
दुख को ज़बान मिलती थी

इतिहास के नदी में भाषा के उद्गम की तलाश में
कई खोजी निकले और लौट आये
वहीं पत्थरों पर खुदे मिले अनजाने शब्द
भाषा ही भाषा को बूझने का प्रयास करती रही

यह मस्तिष्क ही था जो एक भाषा को
दूसरे मस्तिष्क में स्थानांतरित करता रहा
उसने दिया स्वरनलिका को आदेश
शब्द ध्वनि में बदल गये
उंगलियों के हिलते ही पत्थरों पर उतर गये

विज्ञान की प्रयोगशाला में इस हिस्से की खोज
ब्रोका नामके वैज्ञानिक ने की थी
और ब्रोकास एरिया कहलाया

यद्यपि भाषा  पहले से विद्यमान थी
मस्तिष्क के इस हिस्से की खोज से पहले
जैसे कागज़ पर आने से पहले यह कविता ।

स्मृति

स्मृति के इतिहास में पहली बार ऊगा सूरज
अपनी सम्पूर्ण उष्मा और प्रकाश सहित
मानव मस्तिष्क के इसी हिस्से में दर्ज हुआ

यहीं कहीं दुबकी हुई है
नग्नता को छाल से ढँकने की पहली कोशिश
विश्वस्तरीय फैशन शो के आगे शर्मसार होती हुई
शिकार के लिये भाला बनाने की खुशी पर
पानी फेरता परमाणु बम बनाने का आनन्द

जीवन में घटित हुआ हर पल
आँखमिचौली खेलता हुआ
दुबक जाता है मस्तिष्क के किसी कोने में
और समय की आवाज़ पर बाहर निकल आता है

वस्तुओं की तरह भौतिक जगह नहीं घेरती स्मृतियाँ
भूख और हवस की स्मृतियों के साथ
सहअस्तित्व बनाती हैं प्रेम और करुणा की स्मृतियाँ

किसी भी सुपर कम्प्यूटर से बड़े स्मृति भंडार में
लाखों वर्षों का इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर लिये
मनुष्य का यह मस्तिष्क
भविष्य के हर  खतरे के लिये खुद को सतर्क पाता है
स्थायी और तात्कालिक स्मृतियों के द्वन्द्व से
नये आयाम खोजती है मनुष्य की जिजीविषा

स्मृतियाँ जीवित रहती हैं
और प्रकट होती हैं
कविता की किसी पंक्ति में
किसी जानी पहचानी आवाज़ में
प्रिय लगने वाली किसी गन्ध में
बार बार पुनर्जन्म होता है उनका ।  

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दुर्ग में रहने वाले शरद कोकास हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठ कवि हैं. उनका ताज़ा संकलन "हमसे तो बेहतर हैं रंग" हाल ही में दख़ल प्रकाशन से आया है.

  

टिप्पणियाँ

yashoda Agrawal ने कहा…
असुविधा
दें सुविधा
मेरे डेसबोर्ड पर ये लिखा मिला
शैलजा पाठक की कविताएँ
माऊस से उसे छुआ
तो अपने आपको वापस अपने ही
डेसबोर्ड पर पाया
यह शिकायत नहीं है मेरी
वरन अफसोस है कि मैं शैल दी की कविताओं ले वंचित रह गई

सादर

deep nirmohi ने कहा…
Bahut sarl nazar aati yeh kavitye gambheer samvaad chedne me saksham hai
मुझे अच्‍छा लगा कि कविताओं का विन्‍यास जटिल बौद्धिक-सा प्रतीत होते हुए भी, उतना जटिल है नहीं। यहां हरमुमकिन संवाद हर कहीं उपस्थित है। मस्तिष्‍क की हलचलों के विवरण दिलचस्‍प लेकिन पर्याप्‍त तार्किक हैं। इन कविताओं को पढ़े और महसूस किए जाने में कहीं कोई बाधा नहीं है जबकि विषय वस्‍तु के लिहाज से ऐसा हो जाने की पूरी संभावना थी। शरद भाई को जन्‍मदिन मुबारक हो।
शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…
मुझे अच्‍छा लगा कि कविताओं का विन्‍यास जटिल बौद्धिक-सा प्रतीत होते हुए भी, उतना जटिल है नहीं। यहां हरमुमकिन संवाद हर कहीं उपस्थित है। मस्तिष्‍क की हलचलों के विवरण दिलचस्‍प लेकिन पर्याप्‍त तार्किक हैं। इन कविताओं को पढ़े और महसूस किए जाने में कहीं कोई बाधा नहीं है जबकि विषय वस्‍तु के लिहाज से ऐसा हो जाने की पूरी संभावना थी। शरद भाई को जन्‍मदिन मुबारक हो।
अभी बहुत बार आना पड़ेगा - पढ़ना पूरा कहां हुआ है !
Unknown ने कहा…
sabhi rachnayein ek se badhkar ek..
bahut khoob
Dr. Rajeev K. Upadhyay ने कहा…
आपकी रचना चर्चामंच charchamanch.blogspot.in पर चर्चा हेतु 4-10-2014 को प्रस्तुत किया जाएगा। स्वयं शून्य
कविता रावत ने कहा…
शरद जी के जन्मदिवस पर उनकी चुनिंदा रचनाओं को साझा करने हेतु धन्यवाद!

कविता रावत ने कहा…
शरद जी के जन्मदिवस पर उनकी चुनिंदा रचनाओं को साझा करने हेतु धन्यवाद!

Vaanbhatt ने कहा…
सुन्दर सार्थक प्रस्तुति...इतनी गहन लम्बी रचनाओं से सामना पहली बार हुआ...
Unknown ने कहा…
Sir मुझे लगभग समझ कर पढने में लगभग 1 घंटे लगे। पर मै लय बध हो कर नही पढ़ पाया कृपा कर सहायता कर।

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