रविकान्त की कविताएँ
1975 में जन्में कवियों से एक ख़ास तरह का मोह होना मेरे लिए स्वाभाविक ही है. फिर लगभग एक जैसी सामाजिक परिस्थितियों में रहते हुए राजनीतिक सामाजिक बवंडरों से भरा साझा नब्बे का दशक बहुत करीब ले आता है. रविकांत से पहली मुलाक़ात के बहुत पहले यह आत्मीयता उनकी कविताओं से जोड़ चुकी थी मुझे.
वैसे भी रविकांत हमारे समय की बहुत सारी स्थापनाओं का विलोम हैं. दिल्ली में रहते हैं लेकिन साहित्यिक आयोजनों से अक्सर अनुपस्थित रहते हैं. यह गुण चेतनक्रान्ति और देवी प्रसाद मिश्र के अलावा मुझे किसी में नहीं मिलता. फिर फेसबुक पर हैं लेकिन अपने कवि रूप को लेकर आत्मप्रचार तो छोडिये परिचय की हद तक भी सचेत नहीं. साहित्यजगत में कोई दो दशकों से हैं लेकिन तमाम गुणा भाग से दूर. अब यह अवगुण भले बन गया हो लेकिन एक कवि के लिए यह कितना ज़रूरी है इसे लगातार मैं महसूस कर पा रहा हूँ.
रविकांत की कवितायें ऊपर से एकदम सहज लगती हैं. हमारे समय के उन कवियों से बिलकुल अलग जो सहज न दिखने के चेतन प्रयास में अपने कवि की लगातार ह्त्या किये जा रहे हैं. फिर उनकी कविताओं में मनुष्य से जो प्रेम है, शब्दों और भाषा से जो विरल लगाव है और जो समकाल की काव्यात्मक समझ है वह आसानी से हासिल होने वाली चीज़ नहीं. रविकांत एक पत्रकार हैं और ईमानदारी से इसका निर्वाह करते हैं. इसीलिए उनकी कविता में दृश्यों के विश्वसनीय विवरण हैं जो दृश्यों की ज़रुरत के अनुसार गद्यात्मक होते हैं किन्तु अंतिम वाक्य आते ही पिछली सारी पंक्तियाँ काव्य पंक्तियों में किस तरह बदलती हैं, यह हुनर हिंदी युवा कविता में दुर्लभ है. पहली ही कविता में इसे देखा जा सकता है. काफी अनुरोधों के बाद उन्होंने मुझे अपनी कई नई पुरानी कविताएँ उपलब्ध कराई हैं तो एक पोस्ट से काम नहीं चलने वाला.
यहाँ उनकी ज्ञानपीठ से नवलेखन पुरस्कार के तहत 2009 में प्रकाशित कविता पुस्तक "यात्रा" के ब्लर्ब से एक ज़रूरी पैरा देकर असुविधा पर उनका स्वागत कर रहा हूँ "रविकान्त उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जिसे पता है कि ‘किसी को नहीं पता है / कि कौन सी हथकड़ी उसके / किस वर्तमान को जकड़ लेती है।’ सदी के दुःस्वप्नों से उबर कर रचनाशीलता के अछोर संसार में दाख़िल होने वाले प्रत्येक रचनाकार की तरह रविकान्त यथार्थ को उसके वास्तविक रूपाकार में पहचानते हैं। पुराने आदर्श शीर्ण पत्तों की तरह गिर रहे हैं और नयी सामाजिकता की कोपलें सामने हैं। व्यक्ति में विश्व तक परिवर्तन का चक्र इतनी तीव्रता से घूम रहा है कि सिद्घान्त, निष्ठा, स्वप्न और प्रतिबद्धता के अर्थ अपने ‘आन्तरिक सत्यों’ से विचलित हो रहे हैं। रविकान्त समय के चेहरे पर उतरते-उभरते भावों-प्रभावों से बाख़बर हैं। उनकी प्रायः प्रत्येक कविता किसी न किसी ‘मानुष सत्य’ का निर्वचन करती है। "
संजीव हुसैन
मै पंजाबी हूँ
मेरा नाम संजीव है
कुछ ही दिन पहले की बात है
मुझे एक अपरिचित घर में जाना पड़ा
उस घर के सब बड़े सदस्य
काम पर गए थे,
मुझे वहां
केवल दो बच्चे मिले. दो भाई.
मैंने उनसे उनका नाम पूछा, तो
बड़े ने बताया- तद्बीरुल हुसैन
छोटे ने बताया- तन्वीरुल हुसैन.
छोटा बहुत नटखट था
उसने झट से पूछा-
और आपका नाम ?
मेरा नाम सुनकर शायद
उसे कुछ अधूरा-सा लगा हो
उसने बहुत खुश होते हुए
इसे पूरा किया- संजीव हुसैन !
बयान
इसमें संदेह नहीं कि मेरा प्रेम सच्चा है I
पर सच्चे प्रेम में भी
हमारे समय के कुछ सामान्य तत्व तो होंगे ही ना !
अब चौबीस कैरेट के सच्चे प्रेम की मांग तो
मूर्खता ही कही जाएगी I
अफ़सोस है कि मेरी प्रेमिका एकदम मूर्ख है I
वह इस घोर आधुनिक समय में भी
सच्चे प्रेम की मांग करती है
और वह भी
जाने किस ज़माने की परिभाषा के अनुसार !
फ़िलहाल मैं
अपनी प्रेमिका के
खतरनाक सच्चे प्रेम
को झेलने में
पापड़ हुआ जा रहा हूँ I
चाँद
1
चाँद तुमको सीने से लगाता हूँ
और फिर
जैसे किसी पतंग को
छीने जाने से बचाता हूँ I
2
चाँद को बाहर ही छोड़
रात में अंतिम बार
घर का दरवाज़ा बंद करना
अच्छा नहीं लगता I
3
तुम चन्द्रमा हो मेरी
मैं चाँद तुम्हारा
चांदनी है - प्रेम हमारा I
चाँद में जो धब्बे हैं
--शिकायतें हैं एक दूसरे से हमारी I
4
तुम्हें खोने का डर नहीं है I
तुम्हें और और पाना है I
तुम्हें
और न पाना ही
तुम्हें
खो देना है I
5
अमावस्या से पूर्णमासी तक
निहारता हूँ
तुम्हें
चाँद जब खिल जाता है पूरा
ख़ुशी से झूमता हूँ मैं
लहराता हूँ
कि जैसे
मुझ अरमानों से लबालब को
देख लोगी तुम
उदार हो जाओगी बेवजह
पुकार लोगी
लग जाओगी गले
कि जैसे प्रेम की सलाहियत आ जाएगी मुझमे
प्रेम सीख जाऊंगा मैं
निर्दोष हो जायेगा मेरा प्रेम...मेरे भीतर....
तुम्हारे प्रेम के तेज से
चुंधियाया रहता हूँ आठों पहर I
6
तुम तो थी मेरी बाँहों में
मुझसे रूठ कर कहाँ चली गई ओ मेरी चाँद !
खिड़की से, छत से,
रास्तों से तुम्हे देखता हूँ
देखता हूँ तुम्हे आँखें बंद करके
चूमता हूँ
सल्यूट करता हूँ तुम्हें
आह भरता हूँ
संकल्प लेता हूँ
कि खुश करूँगा तुम्हें, कैसे भी
अपनी धरती पर उतारूंगा
एक बार फिर
और
हमेशा के लिए I
हमारा जोड़ा
हमने एक-दूसरे में देखे
तमाम विरोधाभास
एक साथ नहीं चल सके I
हमारे मूल्य एक हैं
मेयार हैं अलग
अलग-अलग है हमारी राह
हमारा जोड़ा नहीं बन सका I
हम एक दूसरे से करते हैं प्रेम I
जिसे कहते हैं प्रेम
किसी और से नहीं कर सकते कभी I
अब भी
मन ही मन
एक-दूसरे से कहते हैं हम
-
आई लव यू वेरी मच I
एक दूसरे के बिना
नहीं जी रहे हैं हम I
तुम आओ, मेरी चाँद
मेरी चाँद...
बहुत सारे शहर
तुम्हे याद करने की यादों से भरे हैं
नदियाँ और उनकी ओर जाती नदियाँ तमाम...
जैसे
हरिद्वार
गंगा और उसके घाट
श्रीनगर की धूप, चौराहे
अमरनाथ की सुनहरी बर्फ
मेरे माथे से लगी एटा की धूल
महेंद्र नगर के चौड़े बाज़ार का सूनापन
संभलपुर की डरावनी रात
पुरी के तट पर तुम्हारे नाम को समेट कर ले जाती लहरें
देवबंद की गलियों की भटकन
बनारस का सबकुछ
इलाहाबाद की लू
लखनऊ की तपिश
दिल्ली की खटास
चंडीगढ़ की हवा
पानीपत के नाले
बागेश्वर की सरयू...
चन्द्रमा हर बार तुम्हारे दूर होने को असह्य बनाता है...
तुम्हे याद करने की यादों से भर चुका है मेरा
जहाँ ....
तुम आओ मेरी चाँद ...
अपनी यादों को बेदखल करने
उनमे नया अर्थ भरने
अपने दोनों हाथों से मुझे थाम लेने के लिए...
मेरी चाँद...
तुम आओ मेरी चाँद ...
अपनी यादों को बेदखल करने
उनमे नया अर्थ भरने
अपने दोनों हाथों से मुझे थाम लेने के लिए...
मेरी चाँद...
ये प्रेम की जंग है
सिर्फ प्रेम से जीती जा सकती है I
किसी और हिकमत से नहीं I
हर जंग
प्रेम की जंग है I
चेहरा
मैं कुछ बहुत बड़ा-सा बनना नहीं चाहता I
ऊंची ख्वाहिश नहीं है मेरी
जैसे हर कोई चाहता है आईने में सुन्दर दिखना
वैसे ही मैं भी चाहता हूँ I
चाहता हूँ
सूर्य के तेज और चाँद के नूर से खिला
विनम्र
एक मेहनती चेहरा I बस I
कि जिसमें
अपनों के दर्द की लकीरें हों बारीक
आँखों में संघर्ष के धागे हों
जिनसे बुनी जा रही हो
क्रांति की इबारत I
तिरंगा
न तो 26 जनवरी है
और न 15 अगस्त I
पडोसी ने अपनी छत पर
ऊंचा भव्य तिरंगा फहराया है I
हालाँकि, छुप कर, सैल्यूट कर आया हूँ
कई बार निहार आया हूँ
खिड़की से, पेड़ों को डोलता
देख
भागता हूँ बाहर
पर न जाने क्यों
इस सीधे-सादे भले-से पडोसी को लेकर
अनेक शंकाएं जाग उठी हैं
सरकारी मामला है कुछ !
किस दल में गया ?
किसी आयोग का मुखिया बन गया हो शायद !
जुटेगी भीड़ रोज़
हल्ला होगा
अब ठीक से पेश आएगा या नहीं !!
उधार
क़र्ज़ मैंने कभी लिया नहीं I
पढ़ा था-
करना चाहिए धरती का क़र्ज़ अदा
करो देश का क़र्ज़ अदा
माँ का क़र्ज़ चुकाया नहीं जा सकता
परिवार के कर्जदार हैं हम
दोस्तों का क़र्ज़ है हम पर
जिस किसी ने दिया तिनके का सहारा
कहीं कभी
जिसने भी ली खोज-खबर
पूछा हाल
बैठने दिया अपने पास
की दो बात
क़र्ज़ है उन सब का हम पर I
यह सब जान कर भी
नहीं जान पाया
कैसी होती है
क़र्ज़ न अदा कर पाने की तड़प
क्योंकि
क़र्ज़ माँगा ही कहाँ था मैंने
लिया ही नहीं मैंने कभी
किसी से उधार !
मोटा उधार
फ्रेम दर फ्रेम
दो दशक बीत गए...
देखते ही देखते
हाथ से
हालांकि ज़बरदस्त मोल-तोल के साथ
करीब बीस वर्ष खर्च हो गए...
हर तीन वर्ष पर
एक उम्र जी लेने का अहसास होता है
मुझे...!!!
सात जन्मों से
सोच रहा हूँ
आखिर क्यों नहीं
तन कर खड़ा हूँ अपने साथ ?
सिर्फ उपरोक्त सवाल
ही बचता है
हर जन्म के बाद,
जैसे बचता हो कोई मोटा उधार
किसी के मरने के बाद
उसकी
संपत्ति की जगह
अपने साथ भी
-
बेहयाई निरंतर !!
घी, गुड, तेल, पनीर, शीरे आदि-आदि के
एक अजीब चिपचिपे रसायन के दलदल
के भीतर से आ रहे
किसी कामुक खिंचाव से
अवश हो...
अपने साथ भी
-
क्रूर धोखे !!!
अपने साथ ही
-
अहम के छुद्र टकराव नित्य !
(
शेष सब सबल लोगों के आगे तो अब
समर्पण भी कर चुका हूँ
अपने अह्मों का I
कि
नुकसान अब सह्य नहीं है मुझको...
कैसा भी )
दुनिया का कहा इतना ज्यादा मानना पड़ता है
कि अब
सिर्फ अपनी आवाज़ को दबा कर ही
बॉस होने कि संतुष्टि मिलती है I
अपनी अंतश्चेतना के आदेशों को नकार के ही
अपना मालिक आप होने की
ठसक पूरी होती है I
कांच पार
दिल्ली है !
मै कार के भीतर हूँ
खिड़की का कांच चढ़ा है
बाहर भीख मांगती एक माँ है
अपने बच्चे को गोद में लिए
बच्चा फटी आँखों से मुझे देख रहा है
और माँ
पथराई हुई उम्मीद से I
दिन हुए दिल्ली में
अब मै खिलंदड़ा हो गया हूँ...
इन्हें देख छोभ में आने, लजाने
आँखे न मिला पाने से
आगे निकल गया हूँ...
अब तो इन्हें देख
मोबाईल के टू मेगा पिक्सल कैमरे से
उतारने लगता हूँ
माँ-बेटे का फोटू !
पथराई उम्मीद का फोटू
फटी आँखों का फोटू
अपनी गैरत का फोटू
अपनी आत्मा का फोटू
अपनी इन निजी तस्वीरों के सहारे
टटोलता हूँ अपने देश की तस्वीर
और ऐसा करते हुए
खुद को
देश के निर्माताओं में
शामिल न करने की
सदाशयता के चक्कर
में नहीं पड़ता I
मृत्यु
हमारा किया हर काम
या तो पक्ष में
या विपक्ष में है
मृत्यु के I
हम रोज़ मृत्यू से दो-चार होते
हैं I
रोज़ हमको घेरती है मृत्युI
हमारी जिजीविषा लडती है रोज़ I
हमारा उत्साह लड़ता है I
हमारा दिल-दिमाग-खून
रेशा-रेशा हमारा लड़ता है
मृत्यु के खिलाफ I
मृत्यु के हज़ार-हज़ार हाथों से
लड़ते हैं हम I
क्षण-क्षण I
मृत्यु हमको सीधे नहीं मारती I
मृत्यु इकहरी नहीं होती I
मृत्यु चलती है हज़ार चालें I
मृत्यु मारने से पहले
हमको राज़ी करती है मरने के लिए I
इतिहास
इस झील को ऐसे पहले
नहीं देखा था !
तैरती नौकाएं
शिकारे
हॉउस बोटें
बतखें
सैलानी
कैमरे
और, ज्यादा से ज्यादा
झील के एक ओर निकला
जाता
पानी में पनपता
घास-जाल ....
खुला मौसम
नीला आसमान
ठंडी हवा....
लेकिन...
क्या कुछ डुबा दिया
गया इस झील में !!
इतिहास कुछ इतना ही
बताता है-
एक साथ मारे गए
विरोधियों के बालों
की पोटली
का वज़न - सात मन,
उनके
धर्म-ग्रन्थ
पाण्डुलिपि
और
चिन्ह...
आज इस झील को देख कर
याद आ रहे हैं
अलग-अलग शहरों के
कुंएं, पोखर, तालाब, बावड़ी
पेड़, चौक, गली, मैदान
कितनी ही रेलें....
लाखों के रेले....
अनंत किस्से
दर्द के समंदर
घृणा के बगूले...
पूर्वजों का संघर्ष व
कशमकश
और
मुहब्बत को लेकर
हमारा अनिर्णय....
सारी कायनात को
बाँहों में ले कर
बैठा हूँ
मन उदास है.
अनफ्रेंड
जल्द ही मैंने फेसबुक
पे रहने की तमीज़ सीख ली
जल्द ही मैंने जान
लिया की ये निठल्लों का देश नहीं
ठीक पृथ्वी के आकर का
एक घर है नया
हम यहाँ रहें बेलौस
घर के संस्कारों को
त्यागे बिना.
जल्द ही मैंने जाना
कि इस पर
रिश्ते जुड़ते तो हैं
नए
पर
ये अपने सबसे करीबी
रिश्तों में भी
ला दे सकता है खटास
आप जान भी नहीं पाते
कि
आपका
गाहे-ब-गाहे किया गया
अपनी दोस्तों के
स्टेटस
या फोटो पर
एक-दो लाइक
किसी को कितना नागवार
गुज़रता है.
मैं तो सच में
ये सब तब ही जान पाया
जब मेरी सच्ची दोस्त
ने
एक दिन मुझे कर दिया
- अनफ्रेंड.
इस अनफ्रेंड किये
जाने की चुभन
आप वास्तव में नहीं
समझ सकते.
समझ सकता है सिर्फ वो
जो हुआ हो कभी
किसी अपने से
- अनफ्रेंड
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परिचय
8 सितम्बर 1975 को इलाहाबाद में जन्में रविकांत ने इलहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में परास्नातक किया और छात्र जीवन से ही साहित्यिक गतिविधियों में जुड़ गए. सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. आजीविका के लिए पत्रकारिता चुनी और फिलहाल एक न्यूज चैनल में. कविता की पहली किताब "यात्रा" भारतीय ज्ञानपीठ से 2009 में नवलेखन पुरस्कार के तहत प्रकाशित हुई. इन दिनों दिल्ली में रहनवारी .
मेल संपर्क : ravikantstr@gmail.com
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