सुजाता की नौ कविताएँ
दिल्ली विश्विद्यालय के श्यामलाल कालेज में पढ़ा रही सुजाता ब्लॉग जगत में अपने चोखेरबाली नामक स्त्रीवादी ब्लॉग के लिए जानी जाती हैं. मेरे लिए उनका कवि रूप चौंकाने वाला था. उनकी इन शीर्षकहीन कविताओं से गुज़रते हम एक चेतन मध्यवर्गीय महिला के निजी और सार्वजनिक जीवन के बीच बेचैन आवाजाही से रु ब रु होते हैं. वह अपने कथ्य को लेकर इतनी उद्विग्नता से भरी हैं कि अक्सर शिल्प के उलझावों में नहीं फंसती. हालांकि यह एक सीमा भी बनाता है. हिंदी में ज़ारी स्त्री विमर्श में प्रेम के मुहाविरे में लिखी ये विद्रोहिणी कवितायें मुझे एक ज़रूरी हस्तक्षेप सी लगती है. असुविधा पर उनका स्वागत
(1)
तुम्हे
चाहिए एक औसत औरत
न कम न ज़्यादा
न कम न ज़्यादा
नमक की तरह ।
उसके ज़बान हो
उसके दिल भी हो
उसके सपने भी हो
उसके मत भी हों, मतभेद भी
उसके दिमाग हो ।
उसके भावनाएँ भी हों
और आँसू भी ।
उसके ज़बान हो
उसके दिल भी हो
उसके सपने भी हो
उसके मत भी हों, मतभेद भी
उसके दिमाग हो ।
उसके भावनाएँ भी हों
और आँसू भी ।
ताकि वह पढे तुम्हे और सराहे
वह बहस कर सके तुमसे और
तुम शह-मात कर दो
ताकि समझा सको उसे
कि उसके विचार कच्चे हैं अभी
अभी और ज़रूरत है उसे
तुम- से विद्वान की ।
तुम शह-मात कर दो
ताकि समझा सको उसे
कि उसके विचार कच्चे हैं अभी
अभी और ज़रूरत है उसे
तुम- से विद्वान की ।
ताकि तुम सिखा सको उसे बोलना और
सिखा सको कि कैसे पाले जाते हैं
आज़ादी के सपने।
ताकि वह रो सके
तुम्हारी उपेक्षा पर।
और तुम हँस सको
उसकी नादानी पर कि कितना भी कोशिश करे औरत
औसत से ऊपर उठने की
औरतपन नहीं छूटेगा उससे।
सिखा सको कि कैसे पाले जाते हैं
आज़ादी के सपने।
ताकि वह रो सके
तुम्हारी उपेक्षा पर।
और तुम हँस सको
उसकी नादानी पर कि कितना भी कोशिश करे औरत
औसत से ऊपर उठने की
औरतपन नहीं छूटेगा उससे।
तुम्हारी जीत उस समय सच्ची जीत होगी।
कुल मिलाकर
तुम्हे एक औसत औरत में
अपनी औरत गढने का सुख चाहिए।
तुम्हे एक औसत औरत में
अपनी औरत गढने का सुख चाहिए।
(2)
बेगैरत
भाषा से
आजकल मुझे चिढ हो गई है
मेरे शब्दों के खाँचे वह
तुम्हारे दिए अर्थों से भर देती है बार बार
नामुराद !
आजकल मुझे चिढ हो गई है
मेरे शब्दों के खाँचे वह
तुम्हारे दिए अर्थों से भर देती है बार बार
नामुराद !
देखो ,
जब जब तुमने कहा -आज़ादी
क्रांतिकारी हो गए,
द्रष्टा ,चेतन ,विचारक !
जब जब तुमने कहा -आज़ादी
क्रांतिकारी हो गए,
द्रष्टा ,चेतन ,विचारक !
मैंने धीमे स्वर में
धृष्टता से बुदबुदाया -
स्वतंत्रता !
धृष्टता से बुदबुदाया -
स्वतंत्रता !
और भाषा चौकन्नी हो गई
इतिहास चाक चौबंद ।
इतिहास चाक चौबंद ।
जन्मी भी नही थी जब भाषा
तब भी
मैं थी
फिर भी इतिहास मेरी कहानी
नहीं कह पाता आरम्भ से।
किसी की तो गलती है यह !
तब भी
मैं थी
फिर भी इतिहास मेरी कहानी
नहीं कह पाता आरम्भ से।
किसी की तो गलती है यह !
भाषा या इतिहास की ?
मैं यही सोचती थी
कि जो भाषा में बचा रह जाएगा ठीक ठाक
उसके इतिहास में बचने की पूरी सम्भावना है
लेकिन देख रही हूँ
भाषा का मेरा मुहावरा
अब भी गढे जाने की प्रतीक्षा में है ।
कि जो भाषा में बचा रह जाएगा ठीक ठाक
उसके इतिहास में बचने की पूरी सम्भावना है
लेकिन देख रही हूँ
भाषा का मेरा मुहावरा
अब भी गढे जाने की प्रतीक्षा में है ।
इतिहास से लड़ने को
कम से कम भाषा को तो
देना होगा मेरा साथ ।
कम से कम भाषा को तो
देना होगा मेरा साथ ।
(3)
वे
आत्ममुग्ध हैं ,
वे घृणा से भरे हैं।
वे पराक्रम से भरपूर हैं।
वे नहीं जानते अपनी गहराई।
वे घृणा से भरे हैं।
वे पराक्रम से भरपूर हैं।
वे नहीं जानते अपनी गहराई।
जो उपलब्ध हैं स्त्रियाँ उन्हें
वे हिकारत से देखते हैं ,
और थूक देते है उन्हें देख कर
जिन्हें पाया नही जा सका ।
वे हिकारत से देखते हैं ,
और थूक देते है उन्हें देख कर
जिन्हें पाया नही जा सका ।
वे ज्ञानोन्मत्त हैं
ब्रह्मचारी !
ब्रह्मचारी !
कोमलांगिनियों के बीच
योगी से बैठे हैं
अहं की लन्गोट खुल सकती है कभी किसी वक़्त भी।
योगी से बैठे हैं
अहं की लन्गोट खुल सकती है कभी किसी वक़्त भी।
उन्हे नहीं पता कि
हमें पता है
कि वे कितनी घृणा करते हैं हमसे
जब वे प्यार से हमारे बालों को सहला रहे होते हैं।
हमें पता है
कि वे कितनी घृणा करते हैं हमसे
जब वे प्यार से हमारे बालों को सहला रहे होते हैं।
उन्हें पहचानना आसान होता
तो मैं कह सकती थी
कि कब कब मैंने उन्हें देखा था
कब कब मिली थी
और शिकार हो गयी थी कब !
तो मैं कह सकती थी
कि कब कब मैंने उन्हें देखा था
कब कब मिली थी
और शिकार हो गयी थी कब !
(4)
पिछली
सदियों में
जितना खालीपन था उससे
मैं लोक भरती रही
तुमसे चुराई हुई भाषा में और चुराए हुए समय में भी।
जितना खालीपन था उससे
मैं लोक भरती रही
तुमसे चुराई हुई भाषा में और चुराए हुए समय में भी।
तुम्हारी उदारता ने मेरी चोरी को
चित्त न धरा ।
न धृष्टता माना।
न ही खतरा।
चित्त न धरा ।
न धृष्टता माना।
न ही खतरा।
हर बोझ पिघल जाता था
जब नाचती थीं फाग
गाती थी सोहर
काढती थी सतिया
बजाती थी गौना ।
जब नाचती थीं फाग
गाती थी सोहर
काढती थी सतिया
बजाती थी गौना ।
मैं खुली स्त्री हो जाती थी।
मुक्ति का आनंद एक से दूसरी में संक्रमित होता था।
कला और उपयोग का संगम
गुझिया गोबर गीत का मेल
अपने अभिप्राय रखते थे मेरी रचना में
इतिहास मे नहीं देती सुनाई जिसकी गूँज
मुक्ति का आनंद एक से दूसरी में संक्रमित होता था।
कला और उपयोग का संगम
गुझिया गोबर गीत का मेल
अपने अभिप्राय रखते थे मेरी रचना में
इतिहास मे नहीं देती सुनाई जिसकी गूँज
मैं लिखना चाहती हूँ
उसकी चींख जो
मुझे बधिर कर देगी जिस दिन
उससे पहले ही।
उसकी चींख जो
मुझे बधिर कर देगी जिस दिन
उससे पहले ही।
मुझे अलंकरण नहीं चाहिए
न ही शिल्प
सम्भालो तुम ही
सही कटावों और गोलाइयों की
नर्म गुदगुदी
अभिभूत करती कविता !
न ही शिल्प
सम्भालो तुम ही
सही कटावों और गोलाइयों की
नर्म गुदगुदी
अभिभूत करती कविता !
मुझसे और बोझ उठाए नहीं उठता।
नीम के पेड़ के नीचे
चारपाई पर औंधी पड़ी हुई
सुबह की ठंडी बयार और रोशनी के शैशव में
आँख मिचमिचाती मैं
यानि मेरी देह की
दृश्यहीनता सम्भव होगी जब तक
मैं तब तक नहीं कर पाओँगी प्रतीक्षा
मुझे अभी ही कहना है कि
मुझे गायब कर दिया गया भाषा का अपना हिस्सा
शोधना होगा अभी ही।
नीम के पेड़ के नीचे
चारपाई पर औंधी पड़ी हुई
सुबह की ठंडी बयार और रोशनी के शैशव में
आँख मिचमिचाती मैं
यानि मेरी देह की
दृश्यहीनता सम्भव होगी जब तक
मैं तब तक नहीं कर पाओँगी प्रतीक्षा
मुझे अभी ही कहना है कि
मुझे गायब कर दिया गया भाषा का अपना हिस्सा
शोधना होगा अभी ही।
(5)
नहीं हो सकेगा
प्यार तुम्हारे-मेरे बीच
ज़रूरी है एक प्यार के लिए
एक भाषा ...
इस मामले में
धुरविरोधी हैं
तुम और मैं।
जो पहाड़ और खाईयाँ हैं
मेरी तुम्हारी भाषा की
उन्हें पाटना समझौतों की लय से
सम्भव नहीं दिखता मुझे
किसी भी तरह अब।
इसलिए तुम लौटो
तो मैं निकलूँ खंदकों से
आरम्भ करूँ यात्रा
भीतर नहीं ..बाहर ..
पहाड़ी घुमावों और बोझिल शामों में
नितांत निर्जन और भीड़-भड़क्के में
अकेले और हल्के ।
आवाज़ भी लगा सकने की तुम्हें
जहाँ नहीं हो सम्भावना ।
न कंधे हों तुम्हारे
जिनपर मेरे शब्द
पिघल
जाते हैं सिर टिकाते ही और
फिर आसान
होता है उन्हें ढाल देना
प्यार में ...
नहीं हो सकता प्यार
तुम्हारे मेरे बीच
क्योंकि कभी वह मुकम्मल
नहीं आ
सकता मुझ तक
जिसे तुम कहते हो
वह आभासी रह जाता है
मेरा दिमाग प्रिज़्म की तरह
तुम्हारे शब्दों को
हज़ारों रंगीन किरनों में बिखरा देता है।
(6)
जाने क्यों बढते हैं फासले
हमारे बीच
ज्यो ज्यों खुलती हैं
ज़ुल्फों की घनेरी पंक्तियाँ
और बिखर जाती हैं
पन्नों पर |
आँखों की चमक और लहक
आँचल की बढती है ज्यों ज्यों
चेहरे का नमक बन कर
पिघल जाते हैं
एहसास कविता के
पर तुम क्यों बैरी हो जाते हो पिया ?
(7)
तुमने
कहा
बहुत प्यार करता हूँ
बहुत प्यार करता हूँ
अभिव्यक्ति हो तुम
जीवन हो मेरा
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं
संदेह से भर गया मन मेरा
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या
फिर कभी नहीं पनपा
प्यार का बीज मेरे मन में
कभी नहीं गाई गई
मुझसे रुबाई
प्यार का बीज मेरे मन में
कभी नहीं गाई गई
मुझसे रुबाई
सोचती हूँ
इस भाषा से खाली संबंध में
फैली ज़मीन पर
किन किंवदंतियों की फसल बोऊँ
कि जिनमें
उग आएँ आइने नए किस्म के
दोतरफा और पारदर्शी
क्योंकि तुमने कहा था
जो आएगा बीच में
उसकी हत्या होगी ।
इस भाषा से खाली संबंध में
फैली ज़मीन पर
किन किंवदंतियों की फसल बोऊँ
कि जिनमें
उग आएँ आइने नए किस्म के
दोतरफा और पारदर्शी
क्योंकि तुमने कहा था
जो आएगा बीच में
उसकी हत्या होगी ।
(8)
छू
कर चट्टान
वापस लौटता है कौन पहले
लहरों में होड़ थी।
यह खेल तभी तक था
जब तक चट्टान अडिग थी।
वापस लौटता है कौन पहले
लहरों में होड़ थी।
यह खेल तभी तक था
जब तक चट्टान अडिग थी।
कैसा होता किसी पल चट्टान पिघल जाती ?
लहरें आत्मविस्मृति में ठहर ही जातीं।
चट्टानें इस खेल से नहीं डरतीं
तटों की अडिग प्रहरी
चट्टानों का इनर्शिया तोड़ने को
लहरों को अभी खेलना होगा
सदियों यही दौड़ा दौड़ी का खेल
चट्टानों का इनर्शिया तोड़ने को
लहरों को अभी खेलना होगा
सदियों यही दौड़ा दौड़ी का खेल
अभी और शिद्दत से।
(9)
ऊबी
हुई हूँ मैं प्रेम से
सच्चा या झूठा
कैसा भी
अब आह्लादित नहीं करता मुझे प्रेम्।
सच्चा या झूठा
कैसा भी
अब आह्लादित नहीं करता मुझे प्रेम्।
रूमानियत तुम्हारी
घिसी पिटी कविता जैसी
मुझे खुजली देती है...
कॉफी टेबिल पर पड़ी पत्रिका
तुम अभी अभी जिसमें छपे हो
अपने पंख फडफड़ाना चाहती है..
घिसी पिटी कविता जैसी
मुझे खुजली देती है...
कॉफी टेबिल पर पड़ी पत्रिका
तुम अभी अभी जिसमें छपे हो
अपने पंख फडफड़ाना चाहती है..
क्यों न चला दें हम रेडियो
कुछ देर के लिए
शायद वह सचमुच ही सो जाए
अगर उड़ नहीं सकी तो...
कुछ समझ नहीं आने पर
सो जाना कितना सुकून भरा होता है।
कुछ देर के लिए
शायद वह सचमुच ही सो जाए
अगर उड़ नहीं सकी तो...
कुछ समझ नहीं आने पर
सो जाना कितना सुकून भरा होता है।
मैं कब से प्रतीक्षा में हूँ
कभी तो छलक जाए तुम्हारी कॉफी
इतना सजग
कैसे रह लेते हो तुम
कि एक भी लफ्ज़ की स्याही
तुम्हारी कूची से नहीं टपकती कभी भी...
तुम्हारे होशमंद रहने पर
सम्मोहित नहीं हूँ मैं आज...
कभी तो छलक जाए तुम्हारी कॉफी
इतना सजग
कैसे रह लेते हो तुम
कि एक भी लफ्ज़ की स्याही
तुम्हारी कूची से नहीं टपकती कभी भी...
तुम्हारे होशमंद रहने पर
सम्मोहित नहीं हूँ मैं आज...
मैं फिराक में हूँ
उस बेकल कविता को दोनों हाथों में पकड़ कर
ऊपर उड़ा देने की
जो उनींदी हो चली है
खत्म हो चुकी कॉफी के मग की
गरमाई से।
उस बेकल कविता को दोनों हाथों में पकड़ कर
ऊपर उड़ा देने की
जो उनींदी हो चली है
खत्म हो चुकी कॉफी के मग की
गरमाई से।
टिप्पणियाँ
जो उपलब्ध हैं स्त्रियाँ उन्हें
वे हिकारत से देखते हैं ,
और थूक देते है उन्हें देख कर
जिन्हें पाया नही जा सका ।
Waah - waah
जो उपलब्ध हैं स्त्रियाँ उन्हें
वे हिकारत से देखते हैं ,
और थूक देते है उन्हें देख कर
जिन्हें पाया नही जा सका ।
Waah - Waah
है । बहुत खूब। बधाई ।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रसिद्ध कथन 'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ! निज भाषा उन्नति बिना मिटे न हिय को शूल' पर उपेक्षित तथा दबे कुचले वर्गों की भावनाओं और उनसे संबंधित घटनाओं के परिप्रेक्ष्य मे एक शोध अथवा बहस की तत्काल आवश्यकता है।