नीरू असीम की लम्बी कविता - उखड़ा हुआ आदमी

नीरू असीम की कविताएँ असुविधा के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं. बहुत कम लिखने वाली और उससे भी कम शाया होने वालीं नीरू कनाडा में रहते हुए पंजाबी और हिंदी में लिखती हैं. भाषा और कहन की उनकी परिपक्वता मानीखेज कथ्य के साथ मिलकर एक गहरा प्रभाव रचती हैं. पहली बार कविता पोस्ट करते हुए मैंने लिखा था "उनकी कविताओं के अर्थ उतना शब्दों के बाहर नहीं जितना शब्दों के भीतर गूंजते मंद्र संगीत में हैं." 

ग्यारह खण्डों वाली इस लम्बी कविता में नीरू ने जिस उखड़े हुए आदमी का चित्र उकेरा है वह सिर्फ भौतिक विस्थापन का शिकार नहीं. वह सांस्कृतिक विस्थापन का भी शिकार है और मनोवैज्ञानिक विस्थापन का भी. जीवन के जटिलतम होते जाने और इसके साथ साथ दुनिया के कृत्रिमतम होते जाने की दोहरी चक्की से गुज़र मनुष्य इस नए देश काल में अपनी असल और बनती हुई पहचानों के बीच कहीं बस रहा दिखता हुआ गहरे उजड़ रहा है. कविता के सुधी पाठकों से इस लम्बी कविता को बहुत गौर से पढ़ने और इस पर खुल कर बात करने की उम्मीद है मुझे.  
मुकेश शर्मा की पेंटिंग साभार 


1.

कैसा होता है उखड़ा हुआ आदमी
परिभाषा...?

यहां आदमी लैंगिक अर्थ वाला नहीं
इसमें औरत भी है

कहने को मैं ऐसा भी कह सकती थी
कैसी होती है उखड़ी हुई औरत
और आगे कहती कि आदमी का होना इसी औरत में है
तो समझते तो तुम वही
बस आकलन में मशीनरी को ज़रा जादू-टोने से लाँघना पड़ता
जो हर वक्त किया रहता है
इस उस का
तो इस तरह कहा...

2.

तुम और मैं कौन हैं
यह कैसे तय होने वाला है

चेहरे, कपड़ों और एक्सेसरीज़ के बावजूद
सधी हुई शारीरिक भाषा और नपे तुले कथ्य के रहते भी
जहां से उखड़ता है उस बिंदु को धुरी आंकता
चक्कर काटते वहीं वहीं रहता
चलने को मीलों लम्बा चलता
एक ही दायरे का विज्ञ
दिखने में साबुत
दॄश्य पार टूटा हुआ

3.

उसके चौथे या पांचवे ड़ायमैंशन की तस्वीर कैसी आएगी

4.

वहां जहां बोलना और वो भी समझते हुए
आख़िरी और अकेला हल होता है
वहां चुप रहने से पैदा हुई गाँठों को लादकर
सारी उम्र बिताना
आख़िर किस मुश्किल का हल बताया था अम्मा ने
कुछ याद नहीं आ रहा

5.

सैल्फियाँ लेने की बात किस मोड़ से सूझना बंद होती है

6.

हर रास्ते के अंत में होता है
अंतत: अकेले हो जाना

अकेले व्यक्ति के पास से
उठ कर जाने वाला आख़िरी शख़्स वो ख़ुद होता है
पर अमूमन जाता नहीं
सारी महफिल इस के चले जाने की चाहत में सजती उठती है

माने न माने
उखड़ा रहता है एक आदमी
इस के रहते

7.

किन रास्तों से जाएगा
किस लिए और कहां तक
थकान तय करती है

थकने के लिए भागा कि भागने से थका
सोचते हुए उखड़ने लगता है
और घड़ी पर निगाह ड़ालता है
देखने के लिए
कितना समय जा चुका
कितना बचा

8.

रिहाई के एक छोटे से समय-फ्रेम में
पूरी तस्वीर बनाते हुए
ख़ुद को बाहर रहने देता है

अपनी या पराई
किसी दीवार पर टांग
आते जाते देखता रहता है
जब थकने लगता है
तो कैनवस उठा बाहर फेंक देता है
तस्वीर हवा में लटकी रह गयी है
या कैनवस पर चिपकी फिंक गई है
सोचता है उखड़ रहा आदमी

9.

हर बार अलहदा होता है
एक ही प्रजाति का नहीं होता
अन्य जातियों के साथ
संकरित होते हुए
नई समय सीमाओं के लिए
नये भ्रूण बनाता है
उखड़ा हुआ आदमी

10.

तफ़सील से आप उसे
देखते ही लाख पहचान लें
छिपता छुपाता रहता है
उखड़ा हुआ आदमी

11.

उपरोक्त रेखाओं में
बहुत धुँधला सा उभरता है
उखड़े हुए आदमी का चित्र
आप इस से ज़्यादा एक उखड़े हुए व्यक्ति से और उम्मीद भी क्या करेंगे
अपना चित्र कभी पूरा न कर पाएगा
उखड़ा हुआ आदमी

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 परिचय वही जो पिछली बार था 

हमने परिचय माँगा तो नीरू ने जो जवाब भेजा वह ज्यों का त्यों यहाँ संलग्न है 
बठिंड़ा, पंजाब मेरा जन्म स्थान है और तिथि 24 जून 1967 । मां श्रीमती सावित्री देवी और पिता स्वः श्री सत्य प्रकाश गर्ग।

पढ़ाई लिखाई एक यंत्रवत अनुभव था। समय का एक हिस्सा इससे चुकता किया। कविता माता पिता से मिली। सौभाग्य रहा होगा। जीवन माता पिता का ऋण है, जिसे मैं चाह कर भी नहीं चुका सकती, ऐसा अब तीव्रता से महसूस होता है।

पति, दो बेटे और मैं परिवार हैं।

पंजाबी में कविता की दो किताबें हैं। ‘भूरियां कीडियां’ और ‘सिफ़र’।

लिखना ज़रूरी है, ख़ुराक है, फिर भी भुखमरी के दिन रहते हैं। जिये गये में क्या था, देखने के लिए कविता यंत्र है। बस। देखना खोलता है, तोड़ता है। मुझे ज़रूरी है लिखना। ड्रग है लाईफ सेवर।

जीना देखने से अलग होता है क्या…!

पता नहीं…। कविताएँ न होतीं तो यह सवाल इस ख़्याल के साथ मेरे पास न होता।

यही परिचय स्वीकार करें।








टिप्पणियाँ

sheshnath pandey ने कहा…
चमकते समय में उखड़े हुए आदमी की बात करना वो भी इस संवेदित अंदाज में, भा गया. बहुत अच्छी कविता.
Onkar ने कहा…
बहुत सुन्दर
Onkar ने कहा…
बहुत सुन्दर

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