कोठागोई : क़िस्सागोई : जिन बाबू ने दिया रुपइया वो हैं मेरे दिल के अंदर/ मैं हूँ उनकी हेमा मालिनी वो मेरे धरमेंदर!
प्रकाशन से पहले ही चर्चा में आ चुकी प्रभात रंजन की किताब क़िस्सागोई से एक हिस्सा पाठकों के लिए। किताब इसी महीने वाणी प्रकाशन से आनी है।
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कौन नगर से पानी लाए कौन नगर से दाना
कौन नगर का जोड़ा जामा कौने गाम ठिकाना
जनकपुर से पानी लाए दरभंगा का दाना
मधुबनी का जोड़ा जामा सरसिउ गाम ठिकाना
‘जे लागत से दियाई/ बाकी बाजत रसनचौकी...’
बरसों लोग इस कहावत
को दोहराते रहे। कहावतें शायद इसी तरह बनती हों और किस्से-कहानियों में ढलकर लोक
का हिस्सा बनकर पीढ़ियों स्मृतियों में बची रह जाती हों।
कहानी है माँ सीता की
जन्मभूमि सीतामढ़ी से तीस कोस पश्चिम अदौरी गाँव की। बाबू राम निहोरा सिंह की बेटी की शादी तय हुई
नेपाल के धनुषा अंचल के वैदेही गाँव के जमींदार विंदेश्वर ठाकुर के एकलौते बेटे से
तय हुई थी, लड़का कोलंबो प्लान से इंजीनियरिंग की पढ़ाई
कर रहा था।
क्या कीजिएगा विषय के
साथ विषयांतर हो ही जाता है। इस किस्से का ताल्लुक उसी शादी के किस्से से जुड़ा हुआ
है। 40 साल से ऊपर हो गए होंगे। लेकिन भूले बिसरों को आज भी कभी कभी वह जलसा याद आ
जाता है जिसके उन्होने किस्से सुने थे। इस किस्से ने बाबू राम निहोरा सिंह को अमर
कर दिया,
उनकी बेटी की उस शादी को न मिटने वाली स्मृति का हिस्सा बना दिया।
कहते हैं जन राम
निहोरा सिंह के समधी ने अपने समदिया के मार्फत उनसे पूछवाया कितना बाराती लाएँ।
रामनिहोरा सिंह का जैसे खून खौल गया। एक तो पहले से ही मन ही मन इस बात को लेकर
दुखी चल रहे थे कि इतना पैसा-ऊंचा खानदान कुछ काम नहीं आया। लड़की के लिए अपने
इंडिया में कोई ढंग का लड़का नहीं मिला, बेटी की
शादी नेपाल में करनी पड़ी। ऊपर से यह हरकत!
अपनी मूँछों को हल्का
सा छूते हुए उन्होंने कहा- ‘गाँव में भाई कम पड़ जाएँ
तो आसपास के गाँव के भाइयों को भी न्योता दे देने के लिए कहना समधी साहब को! और
हँसते हुए यह भी जोड़ दिया कि अगर आदमी कम पड़ जाएँ तो कहना मर्दाना कपड़ा पहना कर
जनाना लोग को भी ले आयें।‘ उनका कहना था कि वहाँ बैठे सभी
लोग ठठाकर हँस पड़े। ‘हम हौसला रखते हैं, न्योता-पेहानी में पीछे नहीं हटते, न स्वागत सत्कार
में!’ समदिया को इस संदेश के साथ 51 रुपये दिये और विदा कर
दिया।
‘जे लागत से
दियाई बाकी बाजात रसनचौकी!’ जाते-जाते समदिया के कानों में
यह आवाज आई थी और समवेत ठहाके की गूंज!
समदिया ने जाने किस
ढंग से जाकर अपने मालिक विंदेश्वर बाबू को यह संदेश सुनाया कि उन्होने आव देखा न
ताव आसपास के पाँछ गाँव के भाइयों को बारात में चलने का न्योता दे दिया। उन दिनों
बारात में भाई यानी जात-बिरादर वालों को ही ले जाने का चलन था। कहते हैं 1500 लोग
बाराती में आए थे।
खाने-पीने ठहरने के
इंतजाम को भी लोगों ने बरसों याद किया। शर्बत के लिए कहते हैं कुओं में चीनी की
बोरियन उलट दी गई थी। तीन दिन तक बरातियों के स्वागत के लिए तरह-तरह के इंतजाम किए
गए थे। लेकिन याद रह गया चतुर्भुज स्थान की छोटी पन्ना का ‘मोजरा’। बाबू बिंदेश्वर ठाकुर ने खास फरमाइश की थी
अपने समधी साहब से- दूरा, मरजाद में थोड़ा बहुत एन्ने-ओन्ने
हो जाये तो कोई बात नहीं बाकी पन्ना का मोजरा जरूर होना चाहिए बाबू साहब।‘
नेपाल में राजशाही का
जमाना था। शादी-ब्याह, परब-त्योहार पर नाच-गान के
आयोजन की साफ मनाही थी। उस जमाने में नेपाल के बाबू साहब लोग जब अपने बेटे का
बियाह सीमा पार करते तो उसके पीछे उनका यह लोभ भी छिपा रहता था कि चतुर्भुज स्थान
की किसी बाई का नाच देख लें, गाना सुन लें। दहेज में तो
थोड़ा-बहुत हेरफेर मान जाते थे, लेकिन मरजाद के बाद मोजरा न
हो तो...
जो बाबू साहब इसके
लिए तैयार नहीं होते थे उनके यहाँ शादी बियाह की बात आगे नहीं चल पाती थी। राम
निहोरा सिंह मान गए थे। तीन रात बरातियों के रमन-चमन के लिए अलग-अलग इंतजाम किए गए
थे। पहली रात रही कव्वाली की। बाबू राम निहोरा सिंह कव्वाली के बड़े शौकीन थे। एक
बार तो गुलाम फरीद खान की कव्वाली सुनने के लिए ट्रेन पकड़ कर दिल्ली निकल पड़े थे।
तो उन्होने नेपाल से आए बरातियों के लिए खास तौर बन्ने भारती की कव्वाली का
प्रोग्राम रखवाया था। मुजफ्फरपुर जिले के बन्ने भारती उनके हिसाब से आसपास के
इलाके के सबसे अच्छे क़व्वाल थे।
बारात की मांग थी कि
तीनों दिन नाच के अलग-अलग आइटम रखे जाएँ। लेकिन सीमा के इधर के बाबू लोगों में नाच
करवाने को लेकर अभी भी हिचक सी रहती थी। पुराना रिवाज जो था। खानदानी जमींदार
परिवार गायक-गायिकाओं को बुलाने में यकीन रखते थे। तिरहुत-मिथिला के जमींदार लोग
कनरसिया कहलाते थे। मुजफ्फरपुर से लेकर बनारस तक उनके पसंद की गायिकाएं बिखरी हुई
थी। जब मौका मिलता, जितनी हैसियत होती उस हिसाब
से सब अपने पसंद की गायिकाओं को बुलाते, अपने परायों के साथ
बैठकर गाना सुनते।
इन परिवारों में इस
बात को ही गिरावट के रूप में देखा गया था कि शुद्ध शास्त्रीय राग-रागिनियों की
परम्पराओं को बरसों सहेजने वाले परिवारों में गीत-गज़लों का दौर शुरू हो गया था।
लेकिन मोजरा…. जमींदारों के घर में नाच को शहराती रमन
चमन माना जाता था। ऑफिस में काम करने वाले, गोला-गद्दी
संभालने वाले, स्टोर चलाने वालों का मनोरंजन। शाम में दो-तीन
घंटे नाच देखे, उछले-कूदे, घर आकर
चित्त। संगीत के रतजगों, महफिलों के लिए न तो उनके पास वक्त
होता था न राग रागिनियों की वह समझ जिसके कारण उनके पुरखों को कनरसिया कहा जाता
था। उनके लिए संगीत जीवन के प्रसंगों से जुड़ा हुआ था, इनके
लिए बस मनोरंजन।
अब तो गाँव-देहातों
में शादियों में दिखाने के लिए सर-सोलकन भी नाच करवाने लगे थे- रामनिहोरा सिंह
कहते। मोजरा नाच सब एक हुआ जा रहा था। कहाँ गीत संगीत की बैठकी कहाँ मोजरा-नाच का
हो हल्ला। फिर भी मोजरा नाच से अलग होता था। उसमें न रुपैया लुटौअल होता था, न फूहड़ इशारे। कुछ तो गरिमा बनी रहती थी।
ऐसे में रामनिहोरा
बाबू जैसे जमींदार खुद को इस नई शहराती संस्कृति से अलग दिखाने के लिए मोजरा का
नाम आते ही नाक भौं सिकोड़ लेते थे। कहते ई सब लफुआ कल्चर का असर है। लेकिन क्या
करें समधी साहब की खास फरमाइश थी। कोलंबो प्लान में पढ़ा हुआ इंजीनियर दामाद। शाही
नेपाल वायु सेवा निगम की नौकरी। ऐसे में तो थोड़ा आँख तो दबाना ही पड़ता है न।
रामनिहोरा बाबू ने आँखें दबाई और बारातियों के लिए दूसरी रात पूड़ी जलेबी के भोज के
बाद छोटी पन्ना का मोजरा हुआ।
‘वादा हमसे किया दिल किसी को दिया/
बेवफा हो गए हो तो जाओ पिया’-
फिल्म सरस्वतीचन्द्र
के इस मुजरे के साथ पन्ना ने जब ठुमका लगाया तो नेपाली बाराती जैसे बुत बन गए- उस
रात के बरसों बाद जब अदौरी गाँव के पाहुन जोगिंदर महतो जब उस शादी, उस बारात की कहानी सुनाते तो ऐसे सुनाते जैसे अभी कल ही देखा हो उन्होंने।
बाराती-सराती सबके लिए जलेबी उनके परिवार वालों ने ही छानी थी।
रात भर पहले जब बन्ने
भारती क़व्वाल की महफिल सजी तो आधे घंटे के भीतर आधे लोग सोने चले गए थे। अरे एतना
दूर से कोई भजन-कव्वाली सुनने थोड़े न आए थे। जगरना तो उस रात हुआ। पन्ना एक के बाद
एक आइटम देती गई। लोग आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे। देखते रह गए... बीच बीच में
पान खाने,
पानी पीने के लिए विराम लेती तो उसके साथ आई मंडली का प्रोग्राम
शुरू हो जाता। पन्ना को चाय पीने की लत थी जैसे। आइटम पूरा हुआ नहीं कि गरम चाय का
कप हाजिर। राजा साहब ने तो एक आदमी को चाय बनाने पर ही बिठाये रखा। खास दार्जिलिंग
वाला अंदर से निकाल कर लाये थे। मेरा छोटा वाला बेटा बिशराम इसी में लगा रहा-
जोगिंदर के अंदर वह कहानी जैसे सिनेमा के रील की तरह भरी हुई थी। एक एक सीन दिखाने
लगता।
चार बजे भुरकुवा फूटा
और उसने शुरू किया-
कहवाँ से आए सवेरे सवेरे/
आँखों में लाली गले में गुलहार है/
मस्त मस्त चाल चलो/
गालों में सुर्खी लगाए हो/
बता दो...
कंहवा से आए सवेरे सवेरे...’
आखिरी आइटम पेश करके
इधर पन्ना ने प्रोग्राम खतम किया उधर समधी साहब ने समधी मिलन किया- जोगिंदर की
कहानी ने छोटी पन्ना के जलवे की एक बानगी दिखाई।
उस रात सीमा पार के
पाँच गाँव के बाराती अचरज से देखते रह गए थे। जैसा गला वैसे ही पैर। लगता था जैसे
कोई चलती फिरती बिजली गा रही हो। कहते हैं बारात में कई लोग डर गए थे और पीछे की
तरफ चले गए थे। उनको विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई चलती फिरती औरत ऐसा नाच कर
सकती है। 4-5 घंटे प्रोग्राम देने के बाद भी थकान का कहीं कोई नामो निशान नहीं। 10
मिनट के अंदर मोटर स्टार्ट हुआ और ये जा ओ जा...
बाद में अदौरी गाँव
से लेकर न्योता पेहानी में जितने लोग आए थे उन सबके गाँव में इस बात को लेकर बड़ी
हंसी भी होती थी कि राजा साहब ने एतना पैसा खर्च किया, इंजीनियर दामाद लाये, स्वागत सत्कार में लाखों लुटा
दिया। बाकी एक बात है लड़का के उधर के लोग मोटा चाल वाला है। पन्ना का मोजरा देख कर
डर गए। कह कर सब खूब हँसते। पछिमाहा लोग- कहते।
यही कह कर हाथ जोड़
प्रणाम करता हूँ सारे बाबू, सारे साहब लोगन को-
जिन बाबू ने दिया रुपइया
वो हैं मेरे दिल के अंदर
मैं हूँ उनकी हेमा मालिनी
वो मेरे धरमेंदर!
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