पिता के लिए : कृष्णकान्त की दो कवितायें
भारतीय समाज में पिता और पुत्र का संबंध ऊपर से कितना भी सरल लगे भीतर से बेहद जटिल है। पिता पर कविता लिख पाना भावुकता भर से संभव नहीं। राजनीतिक रूप से सचेत और समकालीन परिदृश्य पर गहरी नज़र रखने वाले युवा कवि और पेशे से पत्रकार (और अब प्रकाशक भी) कृष्णकान्त की ये कवितायें उनकी संवेदनशीलता के स्रोतों का पता देती हैं। कल उनका जन्मदिन था... पिता के शतायु होने की शुभकामनाओं सहित उनकी ये कविताएं...
1. बीमार पिता के लिए
पिता!
जीवन में सबसे बुरा है
तुम्हें कमज़ोर होते देखना
मैंने देखे हैं वे दिन
जब तुम कभी थकते नहीं थे
काम पर आने के मामले में
सूरज रोज़ हारता था तुमसे
तुम्हारे काम में लग जाने का खटका सुनकर
मां, भाई, बहन, पड़ोसी सब
उठते थे एक—एक करके
सूरज की लाली फूटने के साथ
मां मुझे खेत भेजा करती थी
तुम्हारे लिए पानी लेकर
सोचता था, इतनी सुबह प्यास कहां लगती है?
मां बेकार परेशान रहती है
बहुत बाद में जाना
कि सूरज के घोड़े
तुम्हारे बैलों से घंटों पीछे रहते थे
तुम्हें देख—देख कहते थे गांव के लोग
यह आदमी कभी थकता नहीं है
दादी भुनभुनाती थीं— 'दाढ़ीजार लगा दे नजर
तेरी जबान जले, बुरी नजर पर परे बजर...'
चढ़ी दोपहर में खेत से लौटकर
जब उतारते थे तुम कपड़े
थमा देते थे मुझे कुएं पर रख आने के लिए
जैसे पानी भरी बाल्टी से निकाले हों अभी
मैं हैरान होता था—
कहां से आता है पिता को इतना पसीना!
तुम्हारा दिया पहला मंत्र
याद है अभी तक
'जीवन है जब तक, तब तक है काम
हल से छूटो, कुदाल पर विश्राम...'
बचपन की पहली स्मृति के तौर
आंखों में बस गया है
काले उज्जर बैलों की जोड़ी के पीछे
हल संभाले हुए हांफता चलता
तुम्हारा लाल चेहरा
और सांसों में रह गई हैं तुम्हारे पसीने महक
पिता! मैं चाहता हूं कि कोई रोज़
फिर से चलो गांव के पास वाले खेत में
उसी तरह से मुझे फिर सिखाओ
हल की मूठ पकड़ना
एक—एक करके बताओ वे सलीके
कि कैसे बैल को चोट पहुंचाए बिना
हांकते रहना है
कैसे हल के फार से बचाने हैं उसके पांव
कब पिलाना है उसे पानी
कब दिखानी है उसे छांव
एक और पहेली सुलझानी है पिता
हमारी ज़बान हरदम लरजती ही रही तुम्हारे सामने
हमने हरदम देखीं हैं आपकी लाल आंखें
चेहरे पर रौब और अकड़
जबकि मां से सुना था कि मेरी बीमारी में
अंदर वाले कमरे में छुपकर रोए थे तुम
पर मुझे उस वक़्त भी डांटा था बुरी तरह
मैंने औरों की ज़बानी सुनीं तुम्हारी दी तारीफ़ें
बिस्तर पर पड़े—पड़े अब भी पूछते हो हदरम
कि मैं कहां हूं... फिर भी,
तुम मेरे लिए बहुत कम क्यों मुस्कराए?
सोचता हूं कि मां की तरह
कभी सीने से भींचते तुम तो कैसा लगता!
पिता!
तुमको कभी नहीं देखा हारते हुए
कमज़ोरी, बीमारी, बलाएं, मौत...
इन सबको जीतते रहे हो तुम
जिनका मैं गवाह रहा हूं
अब जब बांहें पकड़कर ले जाता हूं तुम्हें पखाने तक
जी करता है तुम्हें उन दिनों में ले चलूं
जब तुम मुझे दिखाते थे दिशाएं
बताते थे गुर कि कैसे जोतना है,
कैसे गोड़ना है, कैसे खोदना है...
तुम्हारे कंधे पे पांव रखकर
पहली बार चढ़ा था पेड़ पर
उस बबूल की शाख़ें फिर से छा गई हैं पूरे खेत पर
फिर एक बार चाहता हूं
कमर में कुल्हाड़ी खोंस
तुम्हारा सहारा लेकर पेड़ पर चढ़ना
तुम्हारे साथ बैलों के पीछे चलना
जोतना, गोड़ना, सींचना, काटना
पिता!
तुम कभी नहीं हारे थे
जीवन में सबसे बुरा है
तुम्हें कमजोर होते देखना...।
2. पिता का प्रेम
पिता की स्मृतियां मां के जैसी कोमल नहीं हैं
मां याद आती है तो याद आता है
रोज सुबह माथा सहलाकर जगाना
बिस्तर से उठाकर चूम लेना
पकड़कर नहलाना, खाना खिलाना
कपड़े पहनाना, खूब समझाकर
दूध की बोतल या टिफिन भर के स्कूल भेजना
चोट लगने पर परेशान हो जाना
बीमार होने पर साथ—साथ रोना
जब तब खींच कर गले लगा लेना
मन की बात सुन लेना और मुस्करा देना
पिता मां के जैसे कोमल नहीं होते
पिता याद आते हैं तो याद आता है उनका गुस्सा
उनका रौब, अकड़, डांट—फटकार
तबियत या पढ़ाई के बारे में पूछना
खर्चे की चिंता करना, रोज किराए के पैसे देना
किताबें लाना, फीस भरना
पूरे घर के लिए एक—एक तिनका जोड़ना
खून—पसीने बहाना
बीमारी में भी नहीं सुस्ताना
पिता का प्रेम कठोर है पिता की तरह
उनकी ही तरह खामोश रहा उम्र भर
स्कूल जाते हुए मां चूम लेती थी
पिता दफ्तर जाने से पहले
मेरे हिस्से का प्यार रख जाते थे
मां के पास.
मां आज भी
हंसने की बात पर हंस देती है
दुखी होती है तो रो देती है
पिता आज भी चुप रहते हैं
आंख मगर सब कह देती है.
टिप्पणियाँ
धन्यवाद
पिता दफ्तर जाने से पहले
मेरे हिस्से का प्यार रख जाते थे
मां के पास. ..मन को छूती कविता....मन के खाटी भाव उतर आए शब्दों में..
* निशा कुलश्रेष्ठ