यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी बुझती हुई
आज अपनी एक कविता जो तद्भव के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है.
(शुक्लाष्टमी)[1]
रात का वक़्त है नहीं है यह
बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ
वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न सा
पर वक़्त नहीं है रात का
देखो
साफ़ दिख रहा है आसमान में सूरज
जैसे किसी लाश की खुली रह गयी आँख
आसमान वीभत्स और विवस्त्र कि जैसे
किसी ने झटके से खींच दिया हो चाल का परदा फटे टाट वाला
और उसमें मुचमुचाया सूर्य जैसे
भौंचक ताकता कोई बूढ़ा अपाहिज
बादलों के मटमैले टुकड़े कि जैसे
उसके वस्त्र हों कीचट
हवा की सांय-सांय जैसे अर्धनग्न
बच्चियों की चीत्कार, भाग-दौड़
वक़्त नहीं है रात का यह
अंधेरों पर नहीं थोप सकते अपने
अंधत्व का दोष हम.
नीम उजाला भी नहीं चमकती रौशनी में
चला आ रहा है राजा का रथ काले अरबी घोड़ों से जुता लहू के कीचड़ में दौड़ता चीरता
धरती के सीने को रोज़ नए जख्म बनाता गूंजता है स्वर विजयी तूर्य का भयावह ध्वजा पर
देवता सवार सारे पुरोहितों के मंत्रोच्चार से भयभीत पक्षियों की चीत्कार से भर गया
है आकाश तांत्रिक शहरों के बीच-ओ-बीच पढ़ रहे उच्चाटन कर रहे हवन
ॐ लोकतंत्राय स्वाहा
ॐ मनुष्यताय स्वाहा
ॐ सत्याय स्वाहा
ॐ प्रकाशाय स्वाहा
ॐ एम हवीं क्लीं स्वप्नाय नमः
स्वाहा
कर रहे समिधा में समर्पित
जीव-अजीव-सजीव-निर्जीव उठ रही अग्नि, धुएँ
से भरी दसो दिशाएँ, चीत्कार से भरी, भरी
आर्तनाद से हाहाकार से जयकार से विलाप से परिहास से अट्टाहास से!
वर्तमान, भूत और भविष्य के स्वप्न
रौंदते हुए
सब
अश्व हैं
कि भागते ही चले जाते हैं
(दो)
राजा के पीछे खड़ी
चतुरंगिणी फौज़ बड़ी
तोप और बन्दूक लिए
भरे हुए संदूक लिए
टीवी के चैनल हैं
दफ्तर अखबार के
झुज झुक के गाते हैं
गीत सब दरबार के
राजा के पाँव को
राजा की छाँव को
राजा के नाम को
मुख को मुखौटे को
कुत्ते-बिलौटे को
चूमते-चाटते
रेंगते केंचुए सा
फुंफकारते नाग से
भेडिये से काटते
पीछे-पीछे भागते हैं हाथ में कलम
लिए
भाषा के कारीगर जादू बिखेरते
कला कला गा गा के सिक्के बटोरते
नोच नोच फेंकते हैं चेहरे पर के
चेहरे
आँसू बहाते हैं,
रोते हैं, गाते हैं, चीखते
चिल्लाते हैं
कोट काला टांग कर
आला लहराते हुए
प्रेस क्लब का नया पुराना
बिल्ला चमकाते हुए
कविता सुनाते हुए
कहानी बनाते हुए
एकेडमी से कालेज से
पार्टी मुख्यालय से
मल मल के आँख जागे सब
दिन के उजाले में
भागे सब भागे सब
जय श्रीराम,
हनुमान जय
जय जय भवानी
जय अक्षरधाम जय
हम भी हैं हम भी है हैं हम ही
हैं..हम
बम बम बम बोल बम
एक नज़र देखो तो
राजाजी नहीं अगर सारथि जी देखो तो
देखो न कर दो न हम पर भी ये करम
जय जय अमेरिका सी आई ए की जय जय
वर्ण की व्यवस्था जय आप ही की सत्ता
जय
कोई नहीं सुनता कोई कान भी देता
नहीं
सडक किनारे खड़ा जन ध्यान भी देता
नहीं
देखते ही देखते क्या हुआ ग़ज़ब हुआ
कलम लिए लिए जोंक बन गए सारे
जाकर चिपक गए अश्वों की पीठ से पूँछ
से पैर से लिंग से अंड से
कुछ जो चतुर थे जा चिपके राज दंड से
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते
हैं
(तीन)
ये कौन सी औरतें हैं अर्धनग्न खड़ीं राह में?
कौन ये वनवासिनें जिनके हाथ में
जयमाल नहीं पुष्पगुच्छ नहीं
जिनकी आँखों में भय नहीं क्रोध है
संताप है
चीत्कार सी लगती है जिनके विलाप की
ध्वनि
फटी बिवाई वाले पैरों वाली यह कैसी औरतें
खड़ी हैं राह में?
कैसी शक्लें कुरूप कैसा स्वर रुक्ष!
इन्हें दूर करो चीखता है सारथी और
अश्व चींथते चले जाते हैं उनका अस्तित्व
रौंदते हुए उनका क्रोध उनकी चीत्कार
उनका विलाप
यह धरती पर बिछे पलाश के फूल नहीं
हैं
उन आवाजों का रक्त है
उन विलापों का रक्त
संतापों का रक्त
भागते हैं अश्व तीर से चुभते हुए
जंगल के सीने में
चीखते हैं मोर,
मणि, वनदेवी स्वर में समवेत
कहता है सारथी उन्मत्त से स्वर में
‘यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी
बुझती हुई’
विजय मद में मदमस्त राजा
चीखता है, गाता है, अपने ही गले को बाजे सा बजाता है
बांस की फुनगियों को नोचता है
खखोर डालता है धरती का गर्भ
अतिथियों को बांटता है
पदवियां समेटता है भाल पर सजाये हुए
तिलक रक्ताभ अपनी धुन में गाता है
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते
हैं ...
वहाँ
जहाँ पहियों के निशान छूट गए हैं विजय चिन्ह की तरह
वहीँ
पाँव के निशान कुछ उभरते हैं,
वहाँ
जहाँ बज गयी है विजय ध्वनि
कुछ
पुरानी आवाजें ठिठकी हुई हैं वहाँ
वहीँ
जहाँ धरती के
गर्भ
में घाव है हो रही है हलचल कुछ
गीत कुछ विचित्र धुनों में बज रहे हैं
घायल
से सैनिक कतारों में सज रहे हैं
औरतें वे फिर से उठकर खड़ी हुईं
और उनके हाथ में फूल नहीं
बन्दूक है
लाशों के बीच रखतीं संभल संभल
के क़दम
थर-थर-थर कांपती नसों में
संकल्प प्रतिघात का
संकल्प एक युद्ध का नई शुरुआत
का
भय का निशान नहीं
चेहरे की चोटों में गुस्सा
अकूत है
गाँवों में,
खेतों में, बंजर मैदानों में
भूख से भरे हुए दक्खिन टोले, सहरानों में
दृश्य
में..
स्वरहीन कंठ हैं रुंधे हुए,
नीली नीली लाशें, कीचड़ भरी आँखों से देखते हैं
वृद्ध जन भागते हैं पीछे पीछे, भागती हैं औरतें, भागते हैं बच्चे, जानवर भागते हैं. खेतों की मेढ़ों
पर, भूतिया से डेरों पर, सूखे हुए
कूपों में, ख़ाली बखारों में, मंदिर के
ओटले पर, मस्जिद में, गिरजे में और
गुरद्वारों में, ऊंघते बेकारों में मची हाहाकार है..
दृश्य में...
राजा के रथ,
अश्व, तूर्य, ध्वजा
भव्य सैन्य दल अस्त्र-शस्त्र से सजा
नेपथ्य में अन्धकार घोर है
शांति नहीं,
संगीत नहीं, संभावना है
शोर है!
कोई नहीं देख पाता कि घोड़े के पाँव
में गहरा एक घाव है
रुधिर जो जंगल की धरती पर पसरा पलाश
सा
कुछ बूंदे गिरकर उसमें मिलती जाती
हैं
निःशब्द
टापों के बीच टप-टप-टप
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते
हैं ...
(तीसरा सुत्या दिवस) [2]
राजधानी की सुसज्जित यज्ञशाला
हवन
कुंड है धधकता
हविष्य
घृत धूप चन्दन
मन्त्रजाप
तीव्र, ध्वजा है फहरती
सातों
दिशाओं से झुकाए सर खड़े नृप अधिपति कुलाधिपति
इतिहास
कंधे झुकाए विज्ञान के संग धो रहा बरतन
बुहारता
है राह गीले चश्में से झाँकता वह कृशकाय वृद्ध
सीने
में गोलियों को पुष्पमाल सा सजाये
हंस
रहा है गोडसे
तेज़
होते जा रहे हैं अट्टहास
एक
बच्चा नींद से उठ रो पड़ा है
डर
के शोर से
सोमरस
की गंध तीखी
तेज़
मंत्रोच्चार
पारिप्ल्व
समाप्त सारे,दीक्षाएं समाप्त,
समाप्त उपसद
उपांग
याग[3] की
प्रतीक्षा में झूमते हैं विप्रवृन्द
बलिगृह
से उठ रहीं चीख़ें निरंतर
मन्त्रों
में डूबते चीत्कार के करुण स्वर
और
उधर वस्त्रावरण में
नग्न
महिषी पुरोहित नग्न अश्व घायल
वावाता[4] को
गोद में बिठाए राजा उन्मत्त
घायल
है अश्व, महिषी घायल पुरोहित
कामातुर पढ़ता है मन्त्र करता केलि
अश्व के पाँवों से रुधिर महिषी की
आत्मा से बह रहा है रक्त
पुरोहित उन्मत्त
राजा उन्मत्त
बह रहा है रक्त
पर्वत शिखर से रक्त
महासागरों से रक्त
जंगलों से रक्त
पुरोहित उन्मत्त
राजा उन्मत्त
और
फिर उठता है खड्ग अंतिम बलिष्ठ
गूंजती
जयकार धड़ से अलग सर
लड़खड़ाते
पाँव श्लथ रुधिर के भंवर में डूबते हैं
अश्रु
स्वेद रक्त सब धरा को चूमते हैं
चौंक
कर देखता है उसे राजा और फिर मुंह फेर लेता है
जंगली
नदी सी रुधिर की एक धार आती है
और
धर्म की ध्वजा और और फहराती है.
उठता हूँ नींद से जाने कि
जागरण से
पसीना है कि खून है जाने
अंधेरा इतना कि आँख को कोई रंग
नहीं सूझता !
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टिप्पणियाँ
जाकर चिपक गए अश्वों की पीठ से पूँछ से पैर से लिंग से अंड से
कुछ जो चतुर थे जा चिपके राज दंड से"
इतना सच सुनने की आदत नही रही लोगों को, शानदार! बहुत कुछ है इस कविता मे कहने को फिर कभी विस्तार से फेसबूक मे लिखते है ।
ॐ लोकतंत्राय स्वाहा
ॐ मनुष्यताय स्वाहा
ॐ सत्याय स्वाहा
ॐ प्रकाशाय स्वाहा
ॐ एम हवीं क्लीं स्वप्नाय नमः स्वाहा
सभी कविताएँ बहुत बढ़िया हैं।
पुरोहित उन्मत्त
राजा उन्मत्त
बह रहा है रक्त
पर्वत शिखर से रक्त
महासागरों से रक्त
जंगलों से रक्त
पुरोहित उन्मत्त
राजा उन्मत्त
बहुत ही बढ़िया।
यह धरती पर बिछे पलाश के फूल नहीं हैं
उन आवाजों का रक्त है
उन विलापों का रक्त
संतापों का रक्त
भागते हैं अश्व तीर से चुभते हुए जंगल के सीने में
चीखते हैं मोर, मणि, वनदेवी स्वर में समवेत
कहता है सारथी उन्मत्त से स्वर में
‘यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी बुझती हुई’
वो सनातन प्रेत जो फिर जाग उठा है उसकी इस तस्वीर से किसे चिंता न होगी ? होनी भी चाहिए ...
सशक्त कविता के लिए साधुवाद ।वर्तमान कुहासे पर जनवादी चेतना का प्रतिकार ।
अभी सिर्फ शुरुआत और अंत...
अपनी समझ के हिसाब से कहूँ तो -
सूरज के लिए शुरुआत में बहुत सारे बिम्ब एक साथ आ रहे हैं ,हो सकता है कि ये स्थिति की भयावहता के लिए हो या फिर कुछ साफ़ न देख पाने के कारण। इतना तो तय है कि सूरज हैं लेकिन उजाला नहीं है।
अंत में नींद से उठने या जागरण से उठने के बीच भी घना अन्धेरा है।
ये दोनों ही निपट नंगा सच हैं। बीच बीच में कहीं कहीं उजाले के दाग हैं ... 'गाँवों में, खेतो में, बंजर मैदानों में, भूख से भरे हुए दक्खिन टोले, सहरानों में'
और सच भी इतना ही भर रह गया है कि दिन यहीं कहीं से निकलेगा !
वहीँ पाँव के निशान कुछ उभरते हैं,
वहाँ जहाँ बज गयी है विजय ध्वनि
कुछ पुरानी आवाजें ठिठकी हुई हैं वहाँ
वहीँ जहाँ धरती के
गर्भ में घाव है हो रही है हलचल कुछ
गीत कुछ विचित्र धुनों में बज रहे हैं
घायल से सैनिक कतारों में सज रहे हैं
......'अद्भुत है
भागते हैं अश्व तीर से चुभते हुए जंगल के सीने में
चीखते हैं मोर, मणि, वनदेवी स्वर में समवेत
कहता है सारथी उन्मत्त से स्वर में
‘यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी बुझती हुई’
बहुत कसी हुई कविता है अशोक. बहुत दिनों बाद इतना गंभीर कुछ पढ़ा है कविता के नाम पर. इसे सेव कर रहा हूँ ताकि जब - तब पाठ कर सकूं. कभी कोई कमी तलाश सका तो बताऊंगा. अभी तो अभिभूत ही हूँ.
बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न सा
पर वक़्त नहीं है रात का