रीतेश मिश्र की कविताएँ
रितेश वैसे तो पत्रकार हैं, घुमक्कड़ हैं, कवितायें लिखते हैं लेकिन अगर उनके लिए कोई विशेषण उपयोग ही करना हो तो कहूँगा ठेठ इलहाबादी हैं. मुहफट, बिंदास और गहरी बातों को बेसलीका कहने का सलीका. बहुत पहले माँ पर लिखी उनकी एक कविता के ज़रिये उनके कवि रूप से परिचय हुआ था. अपने कहन में माँ को लेकर गलदश्रु भावुकता से भरी कविताओं के बीच इस एकदम युवा कवि की वह कविता इसके "भीड़ से अलग" होने की गवाही दे रही थी. हालांकि अपने स्वभाव के अनुरूप कविता लिखने को उन्होंने उस तरह "गंभीरता" से नहीं लिया, जैसे आजकल चलन है लेकिन बीच बीच में उनकी कविताएँ आती रही हैं. उनकी एक कविता हमने कविता कितबिया वाले सेट में भी शामिल की थी.
आज यहाँ उनकी दो कविताएँ और कुछ दोहे
चहकौरे
काली उरद की खड़ी दाल
और बिना 'धोया -बिना ' चावल
कि माई चली गयी थीं
गुप्त रास्तों से
अपने विलासता के स्वप्न लोक में
रात सोते हुए जब उत्तर से दक्खिन
सर बदला
माई धीरे से बोलीं
"बड़कऊ ?"
इतनी करीब थीं माई
कि अम्मा बहुत दूर हो गयीं
अब, कभी न सुन पाने वाले समय में
महसूसता हूँ
माई भाषा थीं
आखिरी दिनों में माई
चुपचाप लेटीं रहतीं
और कभी-कभी सुर में गातीं
और कभी जब किसी सोहर के 'हो' में
सांस छूट जाती
तो हंसने लगतीं
(पिता अपनी माँ को 'माई'
कहते थे तो हम भी कहने लगे )
डर
मैं एक -एक क़तरे से बना रहा हूँ
तुम लगातार हमें बनाते आ रहे हो
जो तुम बनना चाहते हो उसका कोई
मतलब नहीं है
जो तुम हो-- वो हमने मिल के कितने
दिनों में बनाया था
मैं बनाने के ख़िलाफ़ नहीं हूँ
न ही बनने के
मुझे सिर्फ़ अपने "बन"
हो जाने का भय है
अँधेरा सा एक बन -- बंद !
प्रिय !
दोहे
१-
कुल्ला कर के थुक दिया आधा
हिंदुस्तान
साधो हमसे का पड़ी मरते रहें किसान
२-
इल्ली -बिल्ली बोल न चुप्पे से
रहु बैठ
साधो ! जो गुस्सा गए चार पड़ेगा
फैट
३-
छत्तीसगढ़ में नदी बेच दी औ'
बिहार में पुल
कंपनियों को परबत बेचे अंडा-बच्चा
कुल
४-
बुद्ध जो सगरौ कह गए ,
ई न बताये आप
इश्क़ में दूरी जो हुई ,
कित्ता करें प्रलाप !
६-
ऊपर से सब रंग नवा,
अहंकार में चूर।
भीतर से कोई कह रहा,
'भक ससुरे मजदूर'॥
८-
भूखा नंगा मर गया ,
उस टाकीज के पास।
'एक कालम' की हेडिंग है,
अज्ञात पड़ी है लास॥
१०-
चिरई के जीउ जात है लौंडन खेले
खेल
धरम जाति और उमर की कहाँ लगी है
सेल ?
९-
एक तारा एक ढोलकी ले-ले फिरूँ
संदेस
उसका दिन भर थाम ले हलके होंगे
क्लेस
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