अरुण श्री की तीन कविताएँ

अरुण अपने मूल रूप में एक राजनीतिक कवि हैं. एक सहज आवेग से भरी उनकी भाषा में प्रयोग उतने नहीं हैं जितना प्रवाह. इस रुक्ष भाषा समय में उनकी भाषा में विन्यस्त ध्वन्यात्मक सौन्दर्य आश्वस्त करता है. कविता में समकालीन विडम्बनाओं से जूझते अरुण उम्मीद की धुंधली राहों की तरफ निरंतर गतिमान कवि हैं. असुविधा पर आप उन्हें पहले भी पढ़ चुके हैं. आज उनकी तीन ताज़ा कविताएँ. 

अरुण श्री


सूर्य का यह देश 
सूर्य का यह देश -
मानो अर्धनिद्रारत किसी पाषाण युग की कंदरा में ,
यात्रा के स्वप्न में हो ।
सभ्यताओं के अँधेरे छोर थामे -
रेंगता ,
उठ लड़खड़ाता ,
खोजता है खो गई निज विश्वगुरुता का उजाला ।
चाहता है मुग्ध नायक -
छापना पदचिन्ह अपने काल की दुःसाध्य छाती पर ।
भ्रमित है ,
काल को अपने बनाना चाहता है सर्वकालिक ।
चीन्हता गंतव्य निज आकाशगंगा में ,
कुचल कर -
खेत-जंगल, नार-नद है अग्रसर अपने पतन की ओर ।

कौन है वह ?
गरजता घनघोर घन सा ,
घनप्रिया के तेज सा है कौंधता , भयभीत करता ।
किन्तु यह घोषित हुआ उत्सव क्षणिक-अप्राकृतिक है ।
छद्मवेशी तृप्ति है प्यासी धरा के द्वार ,
ठिठकी है धरा चंचल नहीं है ।
अंजुरी में अंजुरी भर जल नहीं है ।
दिख रही है जो क्षितिज पर लालिमा- कितनी अजानी !
नव वधू की आँख के हैं लाल डोरे ,
या -
किसी के रक्त से भींगा हुआ है पथ विजय का ,
अश्वमेघी अश्व आँखें मूँद जिस पर भागता है ।
सात अश्वों का रथी आँखें झुकाए ,
टाप की सुर में मिलाकर सुर बजाता शंख -
करता रक्त से अभिषेक माथे पर अँधेरे के, अघाता

रक्त किसका ?
पोटली में बाँध जीवन काँख में दाबे हुए हैं ,
लाद सर पर बाँध, अनगिन कारखाने चल रहे जो ।
बस्तियों की छातियों पर है सड़क का बोझ ,
जिनके -
आँख के आगे बंधी पट्टी पर एक नक्शा बना है ,
और गर्दन से टंगी हैं नीतियाँ सरकार की ।
वे जानते हैं ,
प्यास का सन्दर्भ -
उपसंहार तक मृग-मरीचिका होने लगेगा ।
जानते हैं हंटरों का जोर -
धारीदार चमड़ी की कहानी लिख गया है देह उनके ।

अह ! अभागे रक्त के परतों तले एक देह भी है ।
साथ मादा छातियाँ सहमी हुई हैं ,
भूख में लिपटी हुई किलकारियाँ है ।
पाँव में विद्रोह ने जंजीर पहनी है पलायनवाद की ,
काया जलाती-
चौंधियाती रौशनी से दूर कोई छाँव की उम्मीद जैसे ।
या प्रतीक्षा, बस प्रतीक्षा -
देश बदले ,
सूर्य बदले देश के आकाश का ,
रौशनी का अर्थ बदले ।
काश -
इस अवसान में उत्थान की संभावना भी शेष हो ।

काश
मानो मृत्युशैय्या पर पड़े अतृप्त के मुख पत्र-तुलसी ।
युद्ध रत लेकिन पराजित हो रहे -
विद्रोह के माथे छपे हों मुक्तिकामी श्लोक गीता के ,
निरर्थक ।
जिन अभागों की नसों में रक्त की बूंदें नहीं हों शेष -
उनके नाम से टांगा गया हो घंट पीपल-डाल पर ।

वस्तुतः -
चूकते सामर्थ्य का आलम्ब है संभावनाएँ, मात्र ।
कवि की कल्पनाएँ -
बच निकलने का सरल न्यायीकरण हैं ,
रौशनी का भ्रम चमकता है ह्रदय के अंध कूपों में ।
अकेला बैठ कर मैं आँख मूँदे, साँस साधे सोचता हूँ -
इस अँधेरी कोठरी में कौन रहता है ?
निरंतर मौन रहता है ।

मौन क्यों ?

- क्या हो विरत मन कर्म से कर ढोंग कायोत्सर्ग का,
ओढ़े हुए है यह अनैतिक मौन ?

- या
अतिरेक पीड़ा बन गई है चेतना पर बोझ, अविचल ?
बुझ गई ज्यों लौ अबूझी ,
उठ गया मन में सजा मेला अलौकिक ,
खो गया साथी न लौटा ,
जोहते पथ हो गईं आँखें अँधेरी रात सी ।
वे फूल से दो हाथ हाथों में नहीं अब ,
लड़खड़ाते क्षण संभाले अब नहीं जाते ।
पलायन की दिशा में क्लांत मन उद्धत हुआ है ।

- या कि है मायूस ?
सत्ता लोकहित में कर रही अनुबंध -
जिसमें लोकहित का अर्थ बदला जा रहा है ,
पाँव निज पुजवा रहा है -
सात अश्वों के रथी की रंगशाला में अँधेरा ।
कौन रंग अब द्रोह की भाषा बनेगा ?
अश्व सातों गा रहे मानो प्रशस्तिगान अनथक ,
हो चुके -
काले खुरों से रौंदते है सभ्यताओं के सिंघासन को ।

सभ्यताएँ क्या !!

- कई मिथकीय स्मृतियाँ सजी हैं हाट में इतिहास बन ।
प्रतिरोध की आदिम कला का ह्रास बन कर -
बच गए अवशेष जाने किस पुरा अ-सभ्यता के ।
सभ्यता है सभ्यता है शोर बढ़ता जा रहा है ,
हो रहा उत्तेजनाओं का अधम व्यापार,
निर्मम हो गईं संवेदनाएँ देवताओं के ह्रदय की ।

- या कि -
कोई व्यूह रचना है किसी प्रकृति विरूध षणयंत्र की ।
आरम्भ से विध्वंस तक षणयंत्र ही तो पोसता हैं -
सभ्यताओं को ।

अचम्भा क्या ?
यही षणयंत्र मेरे समय में संवाद की भाषा हुआ है ,
और भाषा -
भावना के साथ ही षणयंत्र होती जा रही है ।
नीतियाँ षणयंत्र सी लगने लगीं संसद भवन का ।
दिग्भ्रमित है राज्य,
अपने ही अचाहे तंत्र की अवधारणा है उपनिवेशिक ।
और सोने पर सुहागा यह -
कबीरों ने चुना है चाँपना ऊँचे पहाड़ों के चरण को ।
शब्द का चौसर बिछा है ,
चेतना को दाँव पर रख -
मन प्रजा का है हुआ उत्सव ।
अँधेरे से किए गठजोड़ मनमाने, अघाता धूर्त राजा -
गढ़ रहा हर दिन नए प्रतिमान झूठे रौशनी के ।

क्या अचम्भा है ?
अगर है -
आँख मूँदे ,
तान छाती ,
यात्रा-रत सूर्य का यह देश , साधो सूर्य का यह देश ।


मैं धीरे-धीरे मर रहा हूँ

हताश मैं गवाही देता हूँ आज -
कि समय के गर्भ में हमेसा पलता नहीं रहता कोई भविष्य ही ।
अतीत की किसी अँधेरी गुफा में घटित हुआ अनचाहा गर्भपात -
कभी-कभी मार देता है संभावनाएँ भी ।
मैं एक बाँझ समय के कंधे पर अपनी उम्मीद का सर रखे -
एक आँसू तक को तरस रहा हूँ इन दिनों ,
इन दिनों मैं धीरे-धीरे मर रहा हूँ ।

दिल तो नहीं कहा जा सकता धड़कते हुए पत्थर को ,
रसोई और शौचालय के बीच हाँफती सासें चाहे जितना सर पीटें -
जीवित होने का प्रमाण तो हरगिज नहीं हो सकतीं ।

भरे हुए मन से न बूँद भर प्रेम संभलता है आजकल न पीड़ा ही ।
भूल गया हूँ तरतीब से छलकने का हुनर भी -
सो, बेरंग पड़ा कागज बहुत हुआ तो रह जाता है बदरंग हो कर ।

पेट की आग में झोंक दिया अपने हिस्से का समूचा समय मैंने ,
लेकिन ये कौन है मुझमें जो प्यासा मरा जा रहा है अब भी ?
कहीं प्रेम तो नहीं ?
लेकिन -
उसे तो कब का दफन कर आया हूँ किसी गीले आँगन में ।
वो बन चुका होगा अब तक तो तुलसी का एक पौधा ,
उसकी प्यास को मिलने लगे होंगे -
पायलों की उदास रुनझुन साथ मासूम किलकारियाँ भी अब तो ।
या पूजा घर में रखा पवित्र लेकिन अभागा सिंदूरदान शायद ,
अपनी इच्छा के प्रति मौन और नियति के प्रति नत होता हुआ ।

फिर ऐसा क्यों है कि किसी युद्ध सा शोर है भीतर ही भीतर ?
ये है कौन और किससे लड़ रहा है -
कि नींद के कानों में मानों हो रहे हों तारकीय विस्फोट ।
टकरा रहा है खून का लोहा लगभग मर चुकी लाल कोशिकाओं से -
या टूट रहा है कोई शीशमहल , नहीं जानता ।
दूर देश का दफ्तर हुए दिन की रातें कलकतिया रेल हो चली हैं ।
ओस में भीगने को अभिशप्त विरही श्रृंगार हुए हैं सपने ,
प्रिय के देह का नमक न मिल सका हो जिन्हें

देखना -
एक दिन मैं तमाम विद्रोही शब्दों से ढँक लूँगा मेरा प्यासा चेहरा ,
प्रेयसी को भी याद करूँगा तब -
तो मुट्ठियाँ जोर से भींच कर चिखूँगा मुर्दाबाद,
या मुर्दाबाद की हर चीख पर प्रेयसी को याद करूँगा शायद ।
योद्धा समझा जाएगा जिरह-बख्तर पहन मरने वाले प्रेमी को ।
लेकिन -
पत्थर होते आँगन में झरे तुलसी बीजों सा खत्म होता मेरा बसंत -
समय और प्रेम को कोसेगा मेरे साथ इतना कठोर होने के लिए ,
रोएगा भखरा से भरी हुई माँग का सूना छूट गया एक कोना ।

देख लेना ।।


कवन ठगवा नगरीय लूटल हो

राजधानी के मंच पर शुरू है विकास का नाटक ।
इकतीस प्रतिशत की कुर्सी पर काबिज विकास-पुरुष -
इतराता है उसकी बहुमतीय छाया पर ।
सौ फायदे गिनाता है खेतों में कारखाने उगाने के ।
भूमि और भूख के अनुपात पर चुप्पी साध लेता है ।
अनाज के प्रश्न पर चर्चा करता है मुआवजे की ।
प्रतिप्रश्न की सम्भावनाओं पर -
आत्महत्या को कानूनी घोषित कर मुस्कुरा देता है ,
लेकिन -
स्पष्ट नहीं करता अवसंरचनाकी कानूनी परिभाषा ।

अगले किसी दृश्य में -
एक अतिरिक्त नकार देता है पलायन के मोहक संवाद ,
लेकिन नहीं सह पाता भूख अपने बच्चे की ।
उसे रख आता है -
राजधानी से कारखाने तक आती रेल की पटरियों पर ।
अपने उभार गला चुकी पत्नी से कहता है -
 “न तो पास मेरे खेत है, न ही देह है तुम्हारे पास
वो आँगन में उकेरती है रेल की पटरियाँ -
और खो जाती है अपने वर्ग-समाचारों की भीड़ में ।
मुआवजे की घोषणा में दब जाती है भूख की आवाज ।
नेपथ्य में जोर-जोर से बजती है रेल की सीटी ,
प्रायोजित कार्यक्रम कृषि दर्शन के बाद -
रेडियो पर छेड़ दी जाती है एक प्यारी सी देशी धुन
नीक ना लागेला अँगनइया बलम छोड़ गइले बिदेसवा
दृश्य बदल दिया जाता है बलात् ।

प्रस्तावित पटकथा के पन्ने पलटते हुए -
मैं चीखना चाहता हूँ कि तयशुदा तो कुछ भी नहीं ।
मेरे माथे पर पुरातनपंथी लिख देते हैं सिपहसालार ।
ख़ारिज हो चुका मैं कुरेदता हूँ अपनी पुरानी स्मृतियाँ -
कि खेतों का विकल्प नहीं होते कारखाने ,
तनख्वाह रोटी जैसे नहीं बाँटी जा सकेगी परिवार में ।
अपने भूखे दिनों में मेरी माँ ने खाए थे सेम के पत्ते ।
हालाँकि भगवान माना जाता लेकिन -
एक बन्दर उसकी फलियाँ चबाता था भूख लगने पर ।
बड़े होने तक मेरा पसंदीदा भोजन रहा था माड़-भात ।
लेकिन मेरा निजी कह नकार दिया जाता है -
लाखों चूल्हों का नियत समय से पहले ठंढा हो जाना

इधर -
मैं साँस की हद तक हाँफते बजा रहा हूँ पिपिहिरी ।
उधर नगाड़ों का उत्तेजक नाद से काँप रहा मानचित्र ।
भविष्य-मंच पर किसी विश्वयुद्ध सी लड़ी जा रही है -
विकास की लड़ाई ।
इस रणभूमि में खेत होते जा रहे हैं खेत के खेत ,
गाँव के गाँव बंगाल होते जा रहे हैं ।

और व्यस्त है नायक अपने हिस्से की रोटी सेंकने में,
नेपथ्य में रिरिया रहा है कोई भूखा -
एक रोटी दो साब। मैं भूख से नहीं मारना चाहता ।
बीच-बीच में चाँद के सपने बाँटता नायक -
आम आदमी की जगह बुदबुदाता है साले-कमीने,
मंच से छीट देता है राष्ट्रवाद के तयशुदा संवाद ।
मुग्ध दर्शक बीनते हुए ताली पीटते है यंत्रवत ।
उनके सपने में चाँद है , विकास है , राष्ट्रवाद भी है ।
वे मुट्ठियाँ भींचे मंच की ओर उछालते है कई नारे ।

ये उत्तेजनाओं के स्खलित होने का समय है ,
ये बिल्कुल सही समय है कि पर्दा गिराया जाय अब ।

लेकिन मेरे आँखों में कौंधता है नेपथ्य बार-बार ,
धीरे-धीरे धीमी पड़ती आवाज में चीख रहा कोई भूखा -
बस एक रोटी दे दो साब ।
मैं किसी तरह रेल की पटरियों तक पहुँच जाऊँ बस ।
मैं बस भूख से नहीं मारना चाहता ।

दूर कहीं अब भी जोर-जोर से बज रही रेल की सीटी ,
रेडियो धीरे-धीरे बजा रहा जाने किसके मन की बात -
कवन ठगवा नगरीय लूटल हो
कवन ठगवा नगरीय लूटल हो






टिप्पणियाँ

बहुत ही सुन्दर कविताएं हैं . लय ही इनका सौन्दर्य है और सच तो यह है कि लय ही कविता का सौन्दर्य है . ऐसी लय अब बहुत कम देखने मिलती है . कविताओं की यह विशेषता सचमुच अभिनन्दनीय है .
Rahul Dev ने कहा…
पढ़ लिया | अद्भुत लय है इन कविताओं में | बेहद प्रभावी और सम्मोहित कर लेने वाली | पहली कविता सबसे बेहतरीन लगी | शेष दो भी अच्छी हैं | मेरा बस चलता तो मैं 'सूर्य का यह देश' कविता को भारत भूषण पुरस्कार दे देता | जियो अरुण भाई !

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