विपिन चौधरी की कविताएँ
हमारी पीढ़ी की महत्त्वपूर्ण कवि विपिन लगातार बेहतर कविताएं लिख रही हैं। असुविधा पर आप उन्हें कई बार पढ़ चुके हैं। उसकी ये चार कविताएं प्रेम को केंद्र में रखकर हैं , लेकिन टिपिकल अर्थों में प्रेम कविताएं नहीं हैं। यहाँ प्रेम के सामाजिक व्यापार से उपजे तमाम रंग हैं, प्रेम की राजनीति के कई अंतःपुरीय आख्यान हैं और एक स्त्री की इन सबमें अवस्थिति भी। बाक़ी सब पाठकों पर छोडकर मैं विपिन को इन कविताओं के लिए बधाई देना चाहता हूँ।
अभिसारिका
ढेरों सात्विक अंलकारों संग
हवा रोशनी ध्वनि से भी तेज़ भागते मन को थामे
सूरजमुखी के खिले फूल सी
चली प्रिय - मिलन-
स्थल की ओर
पूरे चाँद की छाँह तले
सांप बिच्छुओं तूफ़ान डाकू लुटेरों के भय को त्वरित लांघ
एक दुनिया से दूसरी दुनिया में रंग भरती
अभिसारिका
सोचती हुयी,
होगी धीरोचित प्रेमी से मिल
तन-मन की सारी गतियाँ स्थगित
तन-मन की सारी गतियाँ स्थगित
निर्विकार चित्त में प्रेम,
शीशे में पड़े बाल सा
प्रेमी को यथास्थान न पा
लौटी जब उन्हीं पाँव
घर की देहरी पर
तब तुम्हारी निर्भीकता को दायें हाथ से
क्या किसी ने थामा अभिसारिका ?
या तुमने भी अकेले ही वरण किया
अपने हौसले का स्याह परिणाम
आज सी बोल्ड बालाओं की तरह
कहते हुए अनायास
" इट्स माई लाइफ "
सखी भी तुम, दुती भी *
कहाँ से आती तुम
लोप हो जाती कहीं
हास अपरिहास रहते तुम्हरे आजू-बाजू
प्रेमी- प्रेमिकाओं के तमाम भेद समझती
सखी के प्रेमी का गुपचुप तिरछे ताकना भी पचा लेती गुपचुप
दो तरफ़ा भेजा सन्देश पढ़ देती
ज्यों का त्यों
प्रेम में विह्वल विरहणी को समझाती पग- पग
'तेरी दशा तेरे हठ के कारण है री'
तेरे ही सहारे प्रेम गाढ़ा हुआ री सखी
ज्यों पकता आम होल -होल
जब प्रेम अपना स्थान पा जायेगा
तब तेरी ज़रूरत क्या होगी री मेरी दूती
* दूती का काम नायक- नायिका को मिलाना होता है
प्रीत का भय
कितने प्रयत्न से छुपाई मन की दशा
मन की हार को धकेल परे
प्रेमी-मन की अंतर्कला को जाना
ढाँपा प्रेम- आवेग
अपनी मुस्कान से कितनी ही बार
प्रीति का भय कितना री सखी
अनिष्ट की आशंका
चीर की कसमसाहट
चंचल मन की धाह
उसपर आकरण लाज का परिहास उड़ाता 'वो'
दिखावट नहीं मेरी लाज
प्रेम में भीरु होना भी,
शोभा मेरी
प्रीति का भय भी
माना मैंने मधुर
कुतूहल नहीं मेरा प्रेम
प्रेम भय से
उदासीन नहीं मैं
न मेरा प्रेम
दक्षिण नायक *
श्रृंगार रस का आलंबन ले
बदलता अनेकों बार रूप -रंग
कोई अवसर नहीं ईर्ष्या, मान का
सब प्रेमिकाएं खुश बेहद खुश
बंध एक ही प्रेमिल डोर से
सबको आनंदित रखना कैसे सीखा रे छलिया
कैसी चतुराई तेरी
हर मन का फूल अपनी झोली में समेट
डोलता फिरता करता तू रंग- रंगीला नृत्य
क्या हुआ उन स्त्रियों का ?
एक से अधिक पर टिके जिनके नयन
वे अपने स्त्री के रुतबे से भी धकेल दी गयी
सुहाई सबको वे ही एक ही उंगली पर खड़ी रही जो
एक नाम जाप वस्त्रों समेत मूर्ति में हुयी लोप
दक्षिण नायक की जड़ों को जीवन मिलता रहा
आज भी है चौकस है वह
छलता
बिसराता हुआ
प्रेम अनेक विरहणियों का
* जो सब नायिकाओं से एकसा प्रेम रखता है
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विपिन की असुविधा पर आई कवितायें आप यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
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टिप्पणियाँ
एकाध स्थान पर शायद टाइपिंग की वजह से वर्तनी की अशुद्धियाँ रह गयी हैं। उन्हें दुरुस्त कर लेना बेहतर होगा।
चर्चा - 2123 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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