इन दिनों देश

बेहतर तो यही होता कि इस कविता के किसी पत्रिका में छपने की प्रतीक्षा करता...पर आज इसे सीधे अपने पाठकों और साथियों तक पहुँचाना उचित लगा।
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पिकासो की पेंटिंग गुएर्निका इन्टरनेट से साभार 




दिशाएँ पिघलते बर्फ सी बेशक्ल गोजर की तरह असंख्य पैरों से रेंगती समय की पीठ पर कच्छप से  खुरदुरे निशानों में समय को बींधते से कंटीले बाड़ बांधती  उस पार से इस पार तक रिस रिस कर जा रही हैं  क्वार की अनमनी धूप सी कसमसा रही हैं। पश्चिम दिशा का सूर्य पूरब   तक आते आते डूब जाता है। उत्तर दिशा में चाँद का हसिया काटता है सारी रात तम की फसल और हारकर फिर दक्षिण की नदी में डूब जाता है।

पूरब दिशा में जहाँ होता था एक तारा
एक खोह है रौशनी को लीलती
उषा का संगीत नहीं बिल्लियों के रोने का स्वर समवेत
एक स्त्री भूख के हथियार से लड़ रही हारा हुआ सा युद्ध
बंदूकें सम्भाले जंगलों में भटक रहे हैं सैकड़ो बेमंज़िल
हरे पेड़ों से टपक रहा खून लगातार
रासलीला के ठीक बीच लास्य से तांडव में बादल गयी है मुद्रा
विष्णु ठेका से दुई ठेका के बीच गोलियों की आवाज़ से भटक गयी है ताल
पहाड़ों में छुप कहीं ग़म ग़लत कर रहा है चाँद
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों


शिव की भग्न मूर्ति एक जिसकी जटा में गंगा सूख गयी है। खो गया है ललद्यद का पहचान पत्र और दिल्ली उसे लाल आरिफ़ा[1] कहती हुई पूछ रही है वह रहस्य कि जिससे शेख नुरूद्दीन नन्द ऋषि हुए जाते हैं। एक चिनार सूख गया है अचानक अचानक एक झील का रंग बदल गया है। एक किताब अचानक जल गयी है। जहाजों में बैठ कर दिशाएँ जा रही हैं इधर से उधर। समय किसी हाउसबोट में शरणागत है। लाल चौक पर अभी अभी उतरा है तेज़ नाखूनों वाला सफेदपोश और बच्चे उस अजूबे को देखने उतर आए हैं गलियों में। आसार कर्फ़्यू के हैं और भीड़ बढ़ती जा रही है।

      
बर्फीली आँधियों के बीच उत्तर दिशा से टूटते हैं रोज़ तारे
बह रहा लाल लाल जल पंचनद में
गोलियों की आवाज़ रह रह कर गूँजती चीत्कार आधी रात
अल्लसुबह अँधेरा घनघोर और
कसमसाया एक नारा होंठ तक आते आते दम तोड़ देता है
माथे के बीचोबीच छेद गहरा एक नासिका पर आके रुक गया है खून
उफ़! कैसी सुघड़ है नाक कोई फ़िदा हो जाए
और आँखें यों कि जैसे डल के बीचोबीच जलता हो दिया
मरने पर भी रह गयी हैं खुली किसी के इंतज़ार में
कौन  आज़ादी?
बेनाम कब्रों के बीच घूमते हैं सपने ख़ामोश
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

किसी मंदिर के गर्भगृह में सैकड़ों साल पुरानी मृत धातुओं का खज़ाना गिन रहे हैं लोग कुछ। एक रजस्वला चली आई है वहाँ तक और उनकी अंगुलियों पर रक्त है अपवित्र जो वे उसे उसके खुले केशों पर पोत देना चाहते हैं। फर्श के नीचे धंसा ईश्वर मुसकुराता है और अरब सागर का जल अट्टहास करता चला जाता है इस छोर से उस छोर तक। चाँदी की कटोरी का ख़ून गढ़चिरौली के जंगलों में बह रहा है अबूझमांड तक फैली है गंध कसैली बड़े तालाब[2] में मछलियाँ मर रही हैं और मछेरे जाल लिए हँस रहे न जाने किस ख़ुशी में। गांधी जख्म पर अपने नमक का लेप रखते नोआखली से लौट आए हैं साबरमती के जले तट पर ।
     

   

दक्षिण दिशा में टूटते रथ से आरुणि[3] की हाहाकार
आर्तनाद में डूबते सब
वृहति, उष्णिक, गायत्री, जगती, पंक्ति, त्रिष्टुप, अनुष्टुप[4]
अंधकार गहन आर्तनाद तीव्र और एक मौन जिसमें डूबती सातों दिशाएँ
टूटे कलम से स्याही बिखर कर जम गयी है फर्श पर
किताबें चीथड़ों सी बिखर गयी हैं गिद्ध मंडरा रहे हैं चाव से
उठता है समन्दर क्रुद्ध ज्वार में और फिर डूब जाता अपनी ही बोझिल धार में
पश्चिमी तट तक फैलता जाता है रक्तिम फेन
सत्य के मुख पर घाव गहरे कई बहता रक्त लिखता है संभल कर
शहर के शहर नींद में बेहाल
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

कबीर और दशरथ मांझी गाँव से दोनों बहिष्कृत आँख फाड़े देखते हैं चमचमाते पर्दों पर अपने जैसे चेहरे और फिर देखते हैं एक दूसरे को और फिर उजड़ी बस्तियों  की ओर देख फूट पड़ते हैं  उदास सी एक हंसी में। जयप्रकाश लखनऊ की सड़क पर लोहिया को ढूंढते हैं खिसियाए से।  मार्क्स मटियाबुर्ज़ में सर झुकाये सुन रहे हैं फरियाद ग़ालिब की। विचार भूलभुलैया में लुका छिपी खेलते खो गए हैं। पार्कों में सर पटकती गोमती दादरी पहुँचने से पहले की जा चुकी है गिरफ़्तार। गोरखनाथ को
  यज्ञोपवीत डाल बुद्ध के साथ कर दिया गया है शहरबदर और राप्ती में हजारों शिशु-लाशें तैरती हैं कमलनाल से लिपटी हुईं। 


कर्फ्यू शहर में गाँव में हाहाकार
हृदय में शूल सी गड़ती है कोई फांस
वृद्ध गायें रो रही हों ज्यों कि वैसे रो रहे हैं हजारो स्वर
वधिक उन्मत्त होकर घूमते हैं
तबाह खेत खलिहान बंजर गाँव के गाँव बर्बाद
गंदुमी गंगा का रंग हो गया है लाल
भूख के पेट से निकली है दुधारी तलवार
शरणार्थी कैम्पों में तिरंगा मुंह छिपाये रो रहा निःशब्द
एक शिशु गर्भ से बाहर निकल कर
मिचमिचाई आँख से देखता है चारो ओर
और फिर दूध भरे स्तनों में डूब जाता है
एक हृदय सीता है जख्म एक और बार
हँसता है हारी हुई हँसी में  रोता हो ज्यों
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं जैसे कि शवयात्रा में निकली हों

गंगा लौट रही है गंगोत्री में सफ़र के लहूलुहान किस्से बटोरे  नुकीले पत्थरों से टकराती बार बार । छावनियों में मर रहे सैनिक अज्ञात से भय से किसी कि जैसे दम तोड़ते हों  शब्द कंठ में ही। ख़ूब सारी रौशनी में पूरबिहा कोई भटक गया हो ज्यों कि ऐसे अख़बार एक पीला छिपता छिपाता किसी दरवाज़े तक पहुंचता है भोर ही में और सारे शब्द कुंडी में फंसाकर लौट आता है।
                  

रात की गोद में जलती चिता सी चमकती राजधानी में
बजती मातमी धुन उत्सवी उत्साह से
स्वांग रचते भांड जंतर मंतर पर
कसमसाई मुट्ठियों में डूबती है स्वेद की धार पिछली पंक्तियों में
राजघाट पर भेड़ियों की भीड़
उड़ते घायल कपोत
लुटियन की महफिलों में शराबी शोर
दौड़ते दिन रात नीले अश्व कफन सी सफ़ेदी रौंदते
राजपथ पर शान्ति एक श्मशानी
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं जैसे शवयात्रा में निकली हों

यमुना के मूर्छित तटों पर नांदियाँ सारी थककर सो गयी हैं। पहले ही मिसरे में बिखरकर शे
र एक  सारी महफ़िल में उदासी बांटकर मंच पर पसरा है कि जैसे क़त्ल के बाद कोई हँसते हँसते दे गवाही।  दिशाएँ आत्महत्या कर रही हैं विशाल कब्रगाह से झक सफ़ेद गुम्बदाकार भवन के बीचोबीच के अंधेरे कुएं में समय बैठा कगार पर गिन रहा लाशें एक दिन डूब जाएगा। 










[1] लल् द्यद को कश्मीर में हिन्दू लल द्यद और मुस्लिम लाल आरिफ़ा के नाम से पुकारते हैं। आरिफ़ा का अर्थ रहस्यात्मक शक्तियों वाली से है। शेख नुरूद्दीन भी उसी परंपरा के हैं जिन्हें हिन्दू नन्द ऋषि के नाम से पुकारते हैं। जब उनकी चरारे शरीफ़ स्थित मज़ार तबाह हुई थी, तब देश भर मे चर्चा हुई थी।
[2] भोपाल स्थित बड़ा तालाब
[3] सूर्य का सारथि
[4] सूर्य के सातों घोड़े 

टिप्पणियाँ

अपर्णा ने कहा…
जरूरी कविता। साझा करने के लिए शुक्रिया।
अरुण अवध ने कहा…
अनूठे बिम्बों से वर्तमान का पोस्टमार्टम करती अद्भुत कविता।
सूर्य से चन्द्र तक , उजाले से अंधकार तक , हर्ष से पीड़ा तक सब कुछ समेटे हुए है ये कविता .. और उतना ही अच्छा इस ब्लॉग पर इसे सजाना लगा .. शुक्रिया .
नये अंदाज़ की बहुत बढ़िया और अद्भुत कविता है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (22-10-2015) को "हे कलम ,पराजित मत होना" (चर्चा अंक-2137)   पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
विजयादशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
Shamshad Elahee "Shams" ने कहा…
हालत ए हाजरा पर एक कवि की सम्मोहित कर देने वाली कृति, बेबाक और संवेदनशील. अपने आप में एक मुकम्मिल कविता, इंसाफ की तलाश में मुब्तिला.
जसवंत लोधी ने कहा…
सत्यम है ।Seetamni. blogspot. in
असंगघोष ने कहा…
संवेदनशील, बेबाक कविता.
Mayank Saxena ने कहा…
इस कविता में एक समस्या है...

ये बेचैन कर देती है...इस को पढ़ कर तत्काल टिप्पणी ही नहीं कर पाया...ऐसी कविताएं, परेशान करती हैं...समाज विरोधी हैं...और इसीलिए ऐसी कविताएं ज़रूरी हैं...विक्षिप्त हो जाने के पहले की स्थिति....जहां हम सब लगभग खड़े हैं....वहां इस तरह की कविता, उस क्रांतिक रेखा को स्पष्ट करती है, जो दरअसल विक्षिप्तता का विभाजन है...कि हां, हम विक्षिप्तता की स्थिति में हैं...पर क्यों हैं...क्योंकि धर्म-फासीवाद-समाज की हिंसक विक्षिप्तावस्था को देख कर, झेल कर भी असहाय सा महसूस करने लगे हैं...जिनको अहम साथी समझा था, वह पाला बदल कर कहीं और खड़े हैं...या फिर मानवता के पक्ष में लगातार स्टैंड लेने का दावा करने वाले लोग-बुजुर्ग और हमारे कभी के मार्गदर्शक भी सुविधाजनक चुप्पी या वाचालता अपना रहे हैं...
बचने और बचे रहने की कोशिशें, सिर्फ जीवन बचाती हैं...बाकी सब खत्म कर देती हैं...खत्म हो जाने के ख़तरे से जूझते देश के नाम ये कविता है...शायद किसी आखिरी कविता से ठीक पहले की कविता...या फिर शायद पहली कविता, जिसके बाद कभी कोई आखिरी कविता न हो...बेचैन हो जाना कोई बीमारी नहीं है...बेचैनी शायद इस बात का भी लक्षण है, कि बीमारों के बीच कुछ लोग हैं, जो ठीक हैं और बीमारी को देख कर बेचैन हैं...मानवता को बचाने के सारे रास्ते जब अंधेरे दिखाई देते हैं...उस वक्त की तमाम कविताएं, विद्रूप दिखती हैं...लेकिन ग़ौर से देखिएगा...लौ के अंदर की बाती, न केवल काली और विद्रूप होती है...खुद को जला भी रही होती है...ऐसी हर कविता के लिए एक मौत मुकर्रर होनी चाहिए...ऐसी हर कविता के लिए हम मौत के लिए भी तैयार हैं...
अशोक भाई, तमाम लोगों की लगातार यही शिकायतें हैं...कि हम सब बेहद बदसूरत और निराशावादी...स्याह कविताएं लिख रहे हैं...ये कविता शायद उन सारी कविताओं का समुच्चय है...लेकिन समय इस कविता से ज़्यादा स्याह है...और स्याह होते जाते समय में कविता अगर स्याह नहीं होती है...तो दुनिया की सारी खूबसूरती जला दी जाएगी और हम मसनद के आगे सिर झुकाए खड़े रह जाएंगे...दुनिया की खूबसूरती बची रहे...भले ही उस पर एक कविता न लिखी जाए...इसलिए हम ढेर सारी स्याह कविताएं लिखेंगे...आने वाली पीढ़ियों के लिए ये कविताएं, सबक होंगी कि हमने दुनिया के साथ जो किया...वह उनको नहीं करना है...आने वाली पीढ़ी की हर खूबसूरत और प्रेम कविता की नींव में हमारी सैकड़ों विद्रूप-स्याह-डरावनी कविताओं की समाधि होगी...यह ही हमारा उनके लिए तोहफा है...यही सीख है...यही विरासत है...विरासत में हम अगली पीढ़ी को विद्रोह दे कर जाएंगे...विद्रोह...जी हां, हथियार उठाना ही विद्रोह नहीं होता...सच बोलना भी विद्रोह है...उससे बड़ा विद्रोह कुछ नहीं...
इस कविता को पढ़ने के बाद अब लिखने बैठा हूं...बहुत लम्बी टिप्पणी लिख गया...और लगता नहीं कि गलत किया, क्योंकि कुछ कविताओं के भावार्थ नहीं, संदर्भ और प्रसंग ज्यादा अहम होते हैं...वही अहम होते हैं...
एक और बेचैन करने वाली कविता के लिए आभार...बेचैनी हमारा दूसरा युगधर्म है...
Amit Upmanyu ने कहा…
अद्भुत बिंब. इतनी बड़ी कविता अच्छे से निभाना बहुत बड़ी बात है. एक-दो पैराग्राफ में कुछेक पंक्तियाँ बहाव में अवरोध की तरह लगीं. बहुत अच्छी कविता. इसमें बहुत मेहनत की गई है
Arun Sri ने कहा…
कितनी डरावनी कविता !!!! और पाठ माँगती कविता , न जाने कितना खुलेगी अभी और कितना बिखेरेगी अंधकार ! आपके ही शब्दों में //एक खोह है रौशनी को लीलती// ! पढूंगा और तो शायद कोई छोर किसी उजली दुनियाँ में खुले
Devendra Arya ने कहा…
बहुत संश्लिष्ट कविता है। कथ्य से अधिक फार्म पर ध्यान जाता है। फार्म का नयापन थोड़ा आतंककारी भी लगा। कविता और मंच (रंगकर्म) का कॉकटेल सा। पहला पाठ काफी नहीं इसे समझने के लिए। जाहिर है जब कवि ने खुद नौ ड्राफ्ट के बाद दसवें में संतुष्टि पाई हो तो हमें दो तीन बार तो पढ़ना ही चाहिए।कविता को कितना गंभीर कर्म समझते हैं अशोक यह ज़ाहिर है।
Shalinee Mani ने कहा…
हमेशा की तरह बेचैन कर देनेवाली कविता..इस भयावह समय में ऐसी ही कविता सच्ची लगती है..

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