शोक काल : सूरज की लम्बी कविता

दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए द्वितीय वर्ष के छात्र सूरज एकदम युवतर पीढ़ी के कवि हैं, अंखुआती दाढ़ी  मूछ  के साथ अंखुआते क्रोध और अंतर्द्वंद्व के कवि. उनकी कुछ कविताएँ अभी हाल में पढ़ी तो चौंका नहीं बल्कि एक आश्वस्ति से भर गया. समकालीन कविता में नयेपन की चिरपुरातन मांग के दबाव में चमत्कारी वाक्य लिखते कवियों के बीच अपने कथ्य के प्रति गहन सम्बद्धता और शिल्प के प्रति एक लापरवाह सी सावधानी मुझे सदा से आकर्षित करती है, सूरज के यहाँ वह जनपक्षधर कहन के साथ और निखर कर आई है. इतना सा कहकर मैं आपको उनकी कविताओं के साथ अकेले छोड़ता हूँ...


 

शोक काल

(एक)

शब्दों  में  प्रतिरोध  की  अनुगूँज  है
सभ्यता  के  अंधे  कुएँ  में  गूँज  रहे  हैं  ,किसी  भयावह  आपदा  के  पूर्वाग्रह ,
गड़गड़ातेअट्टहास  करते हैअँधेरे में ,संदेह  और  अवसाद   के  मानसूनी  बादल
थरथराता  हुआ- सा  है , कहीं  गहरे  में  लटकी  हुई
किसी  पेंड़  की  सूखी  टहनियों  पर लगा दीमक 
मृतप्राय  पेड़  की  अस्थियों  में  कोई  है ,दीमक  की  नसों  में दबे  पाँव  घुसता  हुआ

सड़क  के  किनारों  पर
गाड़ियों  की  धुंध  और  शोर-शराबे   से  बेखबर  ,अलसाये  हुए  कुत्ते
दौड़ते  हैं  भौंकते  हुए  अचानक
जैसे  उनकी  संवेदना  में  हवा ,दहन   की   गुप्त -ऊष्मा  का  प्रसार  है!
इन  सब  के  बीच  एक  आदमी  मृतक  हो  रहा  है
वह  चिल्लाता  है
और  उसकी  चमड़ी  उधड़ने  लगती है
उसके  शरीर  में  घुसते  जाते  हैं
सभ्यता   के  हमलावर  पिस्सू
   
   यह रात  के साये  की तस्वीर है
   हर  दीवार पर  उगती  हुई

(दो)

शहर  से  कुछ  दूर
एक  पिछड़े  हुए  इलाके  में
यह  बूचड़खाने  की  नाली   है
यहाँ   बहते  खून  से  तय  होता  है ,इंसानियत  का  आरोप
अब  वक्त  एक  कसाई  की  भूमिका  में  है
और  घुण्डियों  में   टंगे  माँस  के  लोथड़े
मृत्यु  के  करीब  बैठी  सभ्यता  के  नर-पशु  के हैं

असमंजस  की  स्थिति में, जब  नहीं  रह जाता दिन और रात के बीच कोई फ़र्क
धुंध  में  तब्दील  होती  है  दिन  की रौशनी
एक  विलुप्त  होती  नदी के किनारों  पर  उगी  सभ्यता   की  झाड़  में
कुछ  परजीवी  घसीटते हुए  एक  चिथड़ा  मांस
चल रहे हैं , गड़ाए हुए नुकीले पंजे
वक़्त  की  पीठ पर  उभरते  जाते हैं  हर  कहीं  खून  से  सने हुए जबड़े
खड़ी हैं  दिशाएँ  स्तब्ध , आसमान में  सूरज बादलों की ओट में ठिठक जाता है

  यह  अँधेरे का  दृश्य  है
  जब  घड़ी  की सूईयाँ  ठहर  सी जाती हैं
  जब  नदी  में  जल , जल नहीं रह  जाता
  जब  सिर्फ  मूक सितारे  होते  हैं , निर्मम और अहिंसक  के बीच  अटकी किसी हत्या के गवाह

(तीन)

एक दुहराव   होता है

वर्तमान   को   जलती  हुई  भट्टी  में  फेकते
आतंक  और  डर  के  इस   खूँखार   चेहरे   में 
भविष्य    के  इतिहास   लेखन  के  बीच
एक  कलम   कागज़  से  अधिक चीरती  है 
एक  कलमघसीट  की  छाती

ठीक  उसी  वक़्त 
जब  आदमी  आदमी  से  ज्यादा  एक  घृणित  वस्तु  है
जब  एक  जीव  जीवन  से  अधिक  मृत्यु  का  करीबी  है
जब  कविता  में  शब्द  बोलने  से  अधिक  खामोश  हैं
हाँ ,ठीक  उसी  वक़्तकिले  में  राजा  हँसता  है
और  बाहर  हवा  में  कोई  खामोश  हो जाता  है!

एक  आँधी -सी  चलती  है
एक  शहर  गायब  हो  जाता है  कहीं
हर  तरफ   डर  की  खामोशी
हर  तरफ  इक  अनहोनी  के  पदचाप
जैसे  धरा  के  गर्भ  में   धधकती  है  आग
और  चिंघाड़ते  चले  जाते  हैं  संस्कृति  के  काल - पुरूष
यहाँ  आग  नहीं  है
शहर  में  सतह  पर   सुलगते  धुएँ  के  पीछे

(चार)

खुले आसमान  की  तेज धूप में  खुलता  है नींद  के कमरे का दरवाज़ा

हर रोज़  कुछ ऐसे  ही 
जैसे अवचेतन  में  सरकते  हुए आते हैं कुछ शब्द
बनाते हैं  एक  डरावने स्वप्न  का शीर्षक
और  आँख  धक्क से खुल जाती है
मैं  देखता हूँ ज़मीन  पर  रेंगते हुए तमाम  जीव
तमाम  लोग  जो  चलतें  हैं पर्दे पर रेंगती
थोड़ी  देर बाद कहीं गुम हो जाती , तस्वीर की तरह
हर  बार  किसी  वैसी  ही  तस्वीर  के  कोने  में  खड़ा होता है एक  आदमी
कुछ  और  लोग खड़े होते हैं उसके ठीक पीछे
कतार में  अपनी बारी के  इंतज़ार  में
अँधेरे  में जहाँ  चल रही होती मृत्यु के समक्ष  डरे हुए चेहरों की पेशी

मौत  एक दायरा बनाती हैपरिधि पर चलते हुए
जाने- अनजाने  वक़्त -बेवक़्त जीवन रेंगता है, चलता है लुढ़क जाता है
उसी  दायरे में  केन्द्र और परिधि के बीच की जद्दोजहद में
यह  मृत्यु और जीवन के बीच का गुरुत्वाकर्षण है

कतार में  खड़े  कुछ लोग खड़े हैं बिल्कुल  केन्द्र में , इस बल को सहन करते हुए
एक  आदमी  मरे  बैल  की  खाल  ओढ़े  बैठा  है,
एक  आदमी  उस  बैल  की  अंतड़ियाँ  गिनता  है
एक  आदमी , आदमी  और हिंसक  पशु  में ,  कर  पा  रहा  है  अंतर
और  कुछ   सभ्य  लोग  हैं  धूप-चश्में  के  नीचे  से ध्यानार्थ  कुछ ढूँढ़ते
कब्रिस्तान  और  शमशान  के  फ़र्क़  पर  पर्यटन पर  निकले हुए

(पाँच)

एक  दृश्य  जिसके  करीब  मैं  बैठा  हूँ, एक  दृश्य  जो  मेरी  आँखों  में   है, एक  दृश्य   मैं   जिसमें  खुद  हूँ

सबकी  के  पृष्ठभूमि  में एक  खूनी  साया  तैरता  है
सबकुछ  सिमटता  जाता   है , एक  भयावह  भँवर  की  ओर धीरे -धीरे
स्पर्श  में  नहीं  हैं जीवन  और  मृत्यु , दोनो
शब्दसंविधान   और  आवाजें , कुछ  खाली -खाली  है  हर  कहीं
इक  आह  की  चुप्पी है  तैरती  हुई 
और  लोकतंत्र  की  हलक़  में कुछ  शब्द 
कब्र  जैसे  खुद  गये हैं
  
  ये  उठती  हुई  चीखें , ये मौन  लोकतंत्र, ये गहरा  सन्नाटा 
  और कुछ  लोग जो खड़े  थे अभी  यहीं  कहीं
  सब , किसी  धुंध  की  स्मृतियाँ हैं, धुएँ सी उड़ती  हुई

गूँज रही  हैं  हर  कहीं कुछ  आवाज़ें ,   प्रलय  की  खामोश  ध्वनि  जैसे 
गलियों  में  तैर  रहे  हैंहिंसा    के  मेनिफेस्टो
डूब  रहा  है  हर  मुहल्ला  किसी  शोक  में
हर  तस्वीर  की  पृष्ठभूमि  में  छींटे  हैं  खून  कीउभरी हुई
बड़ा  मुश्किल  है रह पाना आत्महत्या  के विरुद्ध
मुश्किल है  कह  पाना धुएँ  को  धुआँ

धुएँ  में ज़िंदा  है डर  का संदेह...

टिप्पणियाँ

विजय गौड़ ने कहा…
शिल्प के लिहाज से ये परिपक्व कवि से परिचित कराती कविताएं है।
Unknown ने कहा…
मार्मिक
बेनामी ने कहा…
बेबाक बोल
दिल खोल के बोल
Vaanbhatt ने कहा…
कविता का ये तेवर और ये कलेवर एक नया एहसास है...बधाइयाँ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " चटगांव विद्रोह की ८६ वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
इतनी सी उमर में इतनी शानदार कहन....
निःशब्द करते भाव ... कमल की रचना ...

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