प्रकृति करगेती की तीन कविताएँ
पेशे से पत्रकार प्रकृति करगेती एकदम युवा पीढ़ी की कवि हैं. अब तक कई जगहों पर छप चुकी प्रकृति की कविताओं में एक भव्य सादगी है भाषा की तो अनुभवों की बारीक़ पच्चीकारी भी. उनके पास ओबजर्वेशंस हैं और उन्हें कविता में कहने की कला भी वह लगातार सीख रही हैं और परिमार्जित कर रही हैं. असुविधा पर उनका स्वागत है.
नंबर लाइन
मैं होने,
और न होने की छटपटाहट में
खुश हूँ
न होना मुश्किल है
और होना एक संभावना
होने में जो सब होगा,
उतना ही नहीं होने में नहीं होगा
पर इस होने और न होने के बीच
एक शून्य है मेरे पास
उसी के आगे होना है,
और उसी पीछे न होना
जो भी हो या न हों
मैं इस होने और न होने की
छटपटाहट में खुश हूँ
क्यूँकि मैं
दोनों ही में
अंतहीन हूँ
सभ्यता के सिक्के
हर रोज़ तालाब में गिराती है
कुछ सिक्के ऐसे होते,
जिनपर लहलहाती फ़सल की
दो बालियाँ नक्काश होती हैं
या कुछ पर
किसी महानुभाव की तस्वीर
या गए ज़माने का कोई विख्यात शासक ही
ये सभी, और
इनके जैसे कई सिक्के
सभ्यता की जेब से
सोच समझकर ही गिराए जाते हैं
वक़्त की मिट्टी परत दर परत
इनपर रोज़ चढ़ती है
इस बीच, न
चाहते हुए भी
कुछ सिक्के हाथों से फ़िसल जाते हैं
वो सिक्के, जो
काली याद बन आते हैं
पुरातत्व के अफ़सर जिन्हें,
काँच के पीछे सजाते हैं
सिक्के, जो सौदे
की दहलीज लाँघ
इंसानों से बड़े हो गए थे कभी
सिक्के, जिनपर
दहशत की नक्काशी है
सभ्यता के सिक्के
जो आज मिले,
तो कल की परख करवा गए
और काँच की दीवारों से झाँकते
ये कह गए
“अतीत
के तालाब में,
तुम कौन से सिक्के फेंकोगे ?”
एक ख़रगोश हूँ मैं
एक ख़रगोश हूँ मैं
दुबक जाऊँगी
एक भेड़ हूँ मैं
सहम जाऊँगी
एक बकरी हूँ मैं
क़त्ल की जाऊँगी
पर मैं इंसान क्यूँ नहीं?
रीढ़ है,
पर सीधी नहीं
ज़बान है
पर खुलती नहीं
सोच है
पर इरादा नहीं
नीयत है
वो भी ज़्यादा नहीं।
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