काव्य-चित्त का परिष्कार और विस्तार: उमेश चौहान का कवि-कर्म


 कल हमने अपने प्रिय मित्र, सक्रिय कवि और बेहतरीन इंसान उमेश चौहान जी को खो दिया...यह क्षति इतनी निजी है कि उसकी भरपाई असंभव है और इतनी सार्वजनीन कि साहित्य जगत में लम्बे समय तक महसूस की जायेगी. उनके कवि कर्म की पड़ताल करता उनके अभिन्न मित्र और ख्यातिलब्ध आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव का यह आलेख चौहान साहब को श्रद्धांजलि स्वरूप. 




  • जितेन्द्र श्रीवास्तव


तीन दशकों से लगातार कविताएं और गीत लिख रहे वरिष्ठ कवि उमेश चौहान के कवि-कर्म का विस्तार अवध से लेकर सुदूर केरल तक है। उन्होंने मलयालम की कविताओं के  हिन्दी में और हिन्दी की कविताओं को¨ मलयालम में अनूदित कर दोनों भाषाओं के काव्य परिसर को विस्तृत और उदार बनाया है। उमेश चौहान के विषय में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने एक ऐसे समय में जब हिन्दी आलोचना में गीत विधा को अपेक्षित महत्व प्राप्त नहीं है तब भी बिना किसी हिचक के पहले-पहले वर्ष 2001 में अपना गीत संग्रह गाठँ में बाँध लूँ थोड़ी चाँदनीको ही प्रकाशित कराया । कहने की आवश्यकता नहीं कि यह अपनी रचनाशीलता के प्रति गहरे विश्वास का सूचक है। एक कवि गीत लिखता है तो उसे छिपाकर क्यों रखे! उमेश जी के इस पहले संग्रह से गुजरते हुए भावों और विचारों की उज्ज्वलता के दर्शन होते हैं। कवि को भय नहीं है कि उसे भावुक कहकर खारिज़ करने की कोशिशें की जा सकती हैं। वह अकुंठ होकर कहता है-

थरथराते हैं गुलाबी अंजुबे के होंठ,
हो न हो यह आखिरी बरसात हो।

और आगे की पंक्तियों में अवधका यह कवि सुदूर केरल की प्रकृति से गहरी आत्मीयता प्रकट करते हुए अपनी उदात्त भारतीयता का पता देता है-

नारियल के पंख कोमल
चूमते हैं धार बढ़कर
काँपते लघु पुष्प के स्वर
बादलों का नाँद सुनकर।

उमेश चौहान गाँठ में चाँदनी बाँधने का शऊर रखने वाले कवि हैं। यह कोरी भावुकता का गायन नहीं है, जीवन में गहरे डूबने और विश्वसनीय बने रहने की अभिलाषा है। इस संग्रह के गीतों में अनुरागों का सरगमहै। उमेश जी आवरण रहित शब्दावली में सीधे-सीधे कहते हैं -

जिसका हृदय न भर-भर आए सुधि से
जिसका मन उलझे न सदा प्रेयसि में,
जिसने कभी न अंतस की कोमलता जानी
और न उर की उथल-पुथल की जटिल कहानी,
जो न भाव में बहा वेदना-सरि में
समझ न पाया ध्येय नेह-संचय में,

वह कैसे तृष्णाकुल मधुरस छानेगा?
क्या होती है प्रीति भला कब जानेगा?

कहने की जरूरत नहीं कि उमेश चौहान जीवन में बहुत गहरे डूबने वाले कवि हैं इसलिए अमरत्व का  प्रत्याख्यान करने का भी सामर्थ्य रखते हैं-मैं सागर की एक लहर हूँ जो उठती है, मिट जाती है।लेकिन मिटने से पहले उठती जरूर है। यह एक आम आदमी के निज स्वाभिमान का भी गायन है।

गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनीका कवि जब अपने दूसरे संग्रह दाना चुगते मुरगे’ (2004) में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित होता है जो प्रेम की परिधि का विस्तार दिखाई देता है। इस संग्रह का नाम ही बहुत कुछ कह देता है। उमेष जी युद्ध पर कविता लिखते हुए बच्चों के भविष्य की बात करते हैं। कश्मीरसे लेकर फ्लोरिडातक की भाव-यात्रा करते हैं। कविता की पंक्तियाँ देखिए-

दुनिया का कोई भी बच्चा
नहीं जानता कि लोग क्यों करते हैं युद्ध?
जबकि इस दुनिया में
कल बड़ों को नहीं, इन्हीं बच्चों को जीना है।

युद्ध होता है तो
बच्चे ही अनाथ होते हैं
और आणविक युद्ध का प्रभाव तो
गर्भस्थ बच्चे तक झेलते हैं।

बच्चे यह नहीं जानते कि
क्यों शामिल कियाज जाता है उन्हें युद्ध में
किंतु वे ही असली भागीदार बनते हैं
युद्ध के परिणामों के।

काश! दुनिया की हर कौम
युद्धों को इन तमाम बच्चों के हवाले कर देती
और चारों ओर फैले रिष्तों के
बारूदी कसैलेपन को
मुसकराहटों की बेशुमार खुशियों में
हमेशा-हमेशा के लिए भुला देती।


गीतों की दुनिया से आए उमेश चौहान की कविताआंे के संकेतार्थ बहुत गहरे हैं। वे बौनों पर कविता लिखते हुए अर्थपूर्ण संकेत करते हैं। वे गठबंधन की राजनीति पर कविता लिखते हुए वर्तमान भारतीय राजनीति के असली चरित्र का उद्घाटन करते हैं। उनकी चिंताओं में ढेर सारी बातें हैं। वे सीता के बहाने जो कहना चाहते हैं, उसे आप भी महसूस कीजिए -

विरथ रघुवीर
सीता को पहचनना तो दूर
अपने दल को ही पहचानने में असहाय हैं।

सीता की चिंता भी
रघुवीर को अपनी पहचान की पुष्टि देने की नहीं है
असली चिंता तो रघुनाथ की पहचान की है।

कौन देगा सीता को राम की पहचान की पुष्टि?
हनुमान तो राजनीति की सुरसा के मुँह से
बाहर ही नहीं आ पा रहे।

उमेश चौहान के इस संग्रह में 1985 में लिखी गई एक कविता संकलित है। मुक्तिबोध का लिफाफाशीर्षक से। यह कविता उमेश चौहान के भीतर के कवि की बनावट और बुनावट का पता देती है। कवि-कर्म के बिल्कुल आरंभिक चरण में कवि के स्वप्न में कोई और कवि नहीं, आजाद भारत के हिन्दी के सबसे प्रमुख कवि मुक्तिबोध आते हैं। वे इस नए कवि के लिए एक लिफाफा छोड़ जाते हैं। उस लिफाफे से दोनों हाथों आसमान थामे एक शक्ति-पुरुषनिकलता है, जो किसी विभ्रम का शिकार नहीं है। उसमें से रक्तालोक स्नात-पुरुषभी निकलता है लेकिन अब वह रहस्यमयी नहीं है। आगे कवि कहता है-

लिफाफा खोलते ही मुझे मिला है-
मुक्तिबोधके अतिशय परिचित शिशुजैसा
एक समूचा
ज्योतिष्मान भविष्य...
सुनहरी भोर का रष्मि-पुंज
जो मेरा अपना
सिर्फ अपना होगा।

बशर्ते कि
मैं अँधेरे में घबराना छोड़ दूँ।

क्या अलग से कहने की जरूरत है कि यह कविता ही उमेश चौहान का प्रस्थान विंदु है। यह अकारण तो नहीं  कि इस कविता के लगभग 16 वर्ष बाद वे शैतान का सायाषीर्षक कविता में कहते हैं -

कहने को तो हमारा प्रजातंत्र मजबूत हो रहा है
किंतु यह मजबूती
शैतान के साये से नीचे जीने वालों की मजबूती है
वे अपनी-अपनी जगह संगठित होकर
प्रजातंत्र की दुहाई देते हैं
और शैतान की जय बोलते हैं।

शेष लोग बस तमाशा देखते हैं
रोजमर्रा की जरूरतों के लिए दूसरों की नहीं
वे अपनी जेब टटोलते हैं
प्रजातंत्र के नाम पर कभी-कभी वोट डाल देते हैं
और फिर अपने पेट के चक्कर में
खेतों-खलिहानों, हथौड़ी-बसूलों में खो जाते हैं
ऐसे लोग सबके पेट पालते-पालते ही
एक दिन चुपचाप हमेशा के लिए सो जाते हैं।

उमेश चौहान राजनीतिक कविताका शोर नहीं मचाते लेकिन उनकी रचनाशीलता और उनकी राजनीतिक चेतना में कोई अलगाव नहीं है। वे अपनी कविताओं में उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते। कोई भी सच्चा कवि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ता है। उमेश जटिल लगते प्रष्नों और प्रसंगों को इस तरह कविता में लाते हैं कि पाठक चकित रह जाता है। उनकी 1982 में लिखी एक कविता की इन पंक्तियों को देखिए-

हमारा अपना अंतर्मन
क्यों नहीं रह पाता
साफ शीशे सा
कि उसमें जो कुछ भी जैसा है
वैसा ही दिखाई दे।

जब हम घास खानेवाला खरगोश पालते हैं
दाना चुगनेवाला कबूतर पसंद करते हैं
कटखने कुत्ते को प्यार से दुलराते हैं
तो अपने बीच का ही एक आदमी
चाहे कैसा भी हो
आखिर क्यों नहीं जुड़ पाता है हमसे?

वर्ष 2009 में प्रकाशित संग्रह जिन्हें डर नहीं लगताने उमेश चौहान को एक कवि के रूप में पूरी तरह स्थापित कर दिया। यह उनका अब तक का सर्वाधिक परिपक्व संग्रह था। इस संग्रह ने उमेश चौहान की रेंज का पता भी दिया। इस संग्रह के साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस संग्रह पर पहली बार कवि के रूप में उमेश चौहाननाम प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व प्रकाशित संग्रहों पर कवि का नाम यू. के. एस. चौहान छपता था। इस संग्रह में उनकी बेहद चर्चित कविता करमजीते चक दे!संकलित है। यह पूरी कविता एक आख्यान है। उमेश चौहान ने इस कविता में पितृसत्ता के समक्ष एक मजबूत आईना रखा है।

उमेष जी अपनी कविताओं में दिल्ली के आसमान की धूलदेखते हैं तो सुरक्षित बस्तीका स्वप्न भी पालते हैं-

हम सब मिलकर कोषिष करें तो
इन्हीं बची-खुची, बेदाग
इन्सानी बस्तियों के बीच भी
खोज सकते हैं
अपनी परिकल्पना की उस नई बस्ती को
जहाँ इन्सानों के दिल तो होंगे
दिलों में दीवारें नहीं,
सहूलियतें तो होंगी
पर दूसरों को चूसकर जुटाई गई नहीं,
प्रकृति के अंधाधुँध षोषण के सहारे भी नहीं,
जहाँ नहीं मानेंगे हम अपने को महान
दूसरों से जीने का हक़ छीनकर।

चलो! चेत जाएँ!
खोज लें हम
बिना चाँद, मंगल अथवा दूसरे सौर-मंडलों मंे गए
इसी धरती पर
अपने सुरक्षित भविष्य की एक बस्ती,
वैष्विक उष्मता से उफनाए समुद्रों द्वारा
पृथ्वी को निगल जाने अथवा
ओजोन-कवच से विहीन धरती के
काॅस्मिक किरणों में पिघल जाने से पहले ही।

जाहिर है, ऐसा स्वप्नदर्षी ही बाहुबलियों को इस तरह चेतावनी दे सकता है-
कहीं ऐसा न हो कि
जिस वक्त का मैं कर रहा हूँ इन्तज़ार
वह समय से पहले ही आ जाए,
फिर मैं वक्त से पहले ही जाग जाऊँ और
तुम वक्त से पहले ही मिट जाओ।

उमेश चौहान ने अपनी एक कविता में स्वीकार किया है कि कविता उनके भीतर एक नदी की तरह बहती है। कहने का आशय यह कि उमेष जी की कविता में कृतिमता नहीं है। ये प्रयासों से बनाई गई कविताएं नहीं हैं। इनमें अलग से प्रतिबद्धता का घोल भी नहीं डाला गया है। अपनी सम्पूर्णता में ये कविताएं प्रतिबद्ध कविताएं हैं। पुतले ही तय करेंगेकविता में जब वे कहते हैं ये पुतले ही तय करेंगे/हमारी जिंदगी की कीमतऔर कामरेड महेन्द्र सिंह की शहादत का प्रसंग लाते हैं तो कुछ और कहने की जरूरत ही नहीं रह जाती है। कामरेड महेन्द्र राजनीतिज्ञ के साथ-साथ कवि भी थे। 16 जनवरी, 2005 को अपराधियों ने उनकी हत्या कर दी। कीमत चुकाती जिंदगीउनकी कविताओं का संग्रह है। उमेश जी कहते हैं कि इंसान को माटी के मोल बेच देने में भी नहीं हिचकेंगे ये पुतले। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि लेकिन उमेश चौहान सिर्फ त्रासदी का बयान करने वाले कवि नहीं हैं। वे अंधेरे को स्थाई भाव मानने वाले भाव को अस्वीकार करते हैं। उनका दृढ़ विष्वास है कि जुल्मों-सितम को मिटना ही होगा। वर्ष 2012 में प्रकाशित जनतंत्र का अभिमन्यु उनका चौथा कविता संग्रह है। इस संग्रह में कवितायें और कुछ गीत¨  के आलावा अवधी भाषा में लिखी कविताएं और गीत भी संकलित हैं। संग्रह क¨ पढ़ते हुए एक बार फिर यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि उमेश चौहान चतुर सुजानकिस्म के कवि नहीं हैं। वे कवि होने के मुकम्मल अर्थ में कवि हैं। एक ऐसे समय में जब चालाकियों से कविताएं गढ़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही ह¨ तब एक ऐसे कवि के संग्रह से गुजरना सुखद अनुभव की तरह है जो अपनी भावुकता और रूमानियत को छिपाता नहीं बल्कि अपनी ताकत बना लेता है।


उमेश चौहान की राजनीतिक समझ और सामाजिक प्रतिबद्धता अंसदिग्ध है। वे बृहत्तर मानवीय सरोकारों के कवि हैं। अपनी कुछ कविताओं में उन्होंने मितकथन को महत्व दिया है तो कुछ में बहसधर्मिता को। इस संग्रह की पहली कविता, जो कि शीर्षक कविता भी है, एक प्रश्न के साथ शुरू होती है। कवि सीधे प्रश्न करता है -

आज इस नए दौर के महाभारत में
जनतंत्र का अभिमन्यु बचेगा क्या ?


फिर धीरे-धीरे यह कविता बहसधमी होती चली जाती है। गौर करने की बात है कि उमेश चौहान जनतंत्र का अर्जुन, जनतंत्र का कर्ण या जनतंत्र का युधिष्ठिर जैसे पदों का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि अभिमन्यु के माध्यम से जो बात कही जा सकती है, वह किसी अन्य मिथकीय पात्र के सहारे संभव नहीं है। वे मिथकों से अभिमन्यु को  निकालकर अपनी कविता में लाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि अभिमन्यु का प्रसंग आते ही चक्रव्यूह की स्मृति ही आती है। कवि जानता है कि वर्तमान समय में धर्म, जाति, क्षेत्र जैसे अनेकों अभेद्य चक्रव्यूह समाज में हैं। कवि को कहना पड़ता है -

इस युद्ध में अभिमन्यु की मृत्यु तो तय है ही
पांडवों की हार भी निश्चित है
क्योंकि इसमें जीत के लिए
केवल संख्या-बल ही निर्णायक है।

लेकिन यहाँ यह रेखांकित किया जाना भी आवश्यक है कि उमेश चौहान आईना दिखाकर आगे बढ़ जाने वाले कवियों में नहीं हैं। वे गहरी प्रश्नाकुलता और उम्मीद के कवि हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता है कि - कैसे बचाई जाए अब इस जनतंत्र की साख।“ वे  सूर्यघड़ीके माध्यम से अपने समय और समाज की गति को संकेतित और व्याख्यायित करते हैं –

जन्तर-मन्तर की सूर्यघड़ी
नित्य साक्षी बनती है
समय के उन पड़ावों की
जहाँ पर तख्तियां और बैनरों पर लटकी होती हैं
उस समय के तमाम सताए हुए लोगों की उम्मीदें और विश्वास,
लेकिन भारत के भाग्य-विधाताऑन की तरह ही
यह सूर्यघड़ी भी
दिन के किसी भी पहर नहीं थमती
समय के किसी भी ऐसे पड़ाव पर सहानुभूति से भर कर,
भले ही शहर में
कितनी भी दहला देने वाली कोई दुर्घटना घटित हो
जिसमें सहम कर थम जाएँ
बाकी की सभी कलाई अथवा दीवार की घड़ियाँ।

इस कविता को पढ़ते हुए उन्हें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लेना होगा लपक कर सूर्य के रथ कोजैसी पंक्ति को एक चमकदार वाक्य मानकर तेजी से आगे नहीं बढ़ जाना चाहिए। हताशा के क्षणों में गहरे रूमान वाली ऐसी पंक्तियाँ जीवद्रव्य और प्राणवायु का कार्य करती हैं।

उमेश चौहान की कविताएं मुक्ति के प्रसंगों क¨ अपेक्षित गहराई के साथ सामने लाती हैं। यही कारण है कि उनमें कोई आसान रास्ता खोजने की कोशिश के बदले विभ्रमों से टकराहट है। सुनहरी रश्मियों का प्रकाश पुंज खोजने वाला यह कवि अच्छी तरह जानता है कि आदमखोर सिंह बाहर के उजाले में निद्र्वन्द्व घूम रहे हैं। इसीलिए वह उजाले की तलाशको एक साथ स्वप्न और विडम्बना की तरह प्रस्तुत करने में सक्षम हुआ है।

इस संग्रह की कई कविताऑन में दार्शनिक चिन्ताएं दिखाई देती हैं लेकिन वे किसी रहस्यवादी आवरण में नहीं हैं। सुनामी और तीन वर्ष के एक बच्चे का प्रसंग लेते हुए वे  महानाशपर विचार करते हैं और किसी ईश्वर की शरण में जाने के बदले अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में छिपे शक्ति विमर्श को रेखांकित और प्रश्नांकित करते हैं -

कोई नहीं लेता है जिम्मेदारी
आने वाली विपत्तियों की,
विकसित देश कोसते हैं
चीन व भारत की विशाल आबादी को
लेकिन भूल जाते हैं वे प्रायः कि
चाहे प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत है
या कार्बन डाइआॅक्साइड का उत्सर्जन,
अमेरिका जैसे देश सदा ही रहे हैं
विश्व के औसत से कई गुना आगे,
भारत जैसे देश तो  हमेशा
बेकार में ही बदनाम किए जाते हैं बेचारे।

सत्य की आँखों में आँखें डालने की लालसा से भरी कविताओं वाले इस संग्रह की रेंज बड़ी है। मैं चोर नहींशीर्षक कविता पढ़ते हुए कोई कठकरेज पाठक ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख पाएगा। यह पाठकीय भावनाऑन के दोहन की नहीं बल्कि उसके विस्तार की कविता है। सिर्फ तर्क बुद्धि के सहारे कविता लिखने वाले कवियों के लिए मनुष्यता के संधान की ऐसी कविता लिखना असंभव है। ध्यान देना होगा कि उमेश चौहान गीतों से कविता की अ¨र आए हैं लेकिन उनकी सभी कविताएं प्रगीतात्मक नहीं हैं। उनकी कई कविताओं में गद्य का वैभव है लेकिन उनके पास वह अपेक्षित विवेक भी है, जो कविता के गद्य को अन्य विधाओं के गद्य से अलगाता है।

परिवर्तन एक ऐसा शब्द है जिसे लोग अपने-अपने ढंग से समझते और समझाते हैं। एक कवि के रूप में उमेश चौहान भी परिवर्तन के आकांक्षी हैं लेकिन वे किसी क्षणिक परिवर्तन के हिमायती नहीं हैं। वे मनुष्यता के पक्ष में किसी बड़े परिवर्तन का स्वप्न देखते हैं -


समय आ गया है कि अब
जीवन के सारे अर्ध-विरामों को
बदल डाला जाय पूर्ण विरामों में
क्योंकि पूर्ण विराम ही होते हैं
मंजिलों तक पहुँचने के परिचायक।

समय आ गया है कि अब
मारी जाए एक ज़ोरदार फूँक
वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ से उठ रहा है सुलगकर काला धुआँ
ताकि धू-धू कर जल उठें
सच्चाई की अग्नि-ज्वाला में
सारे के सारे संदिग्धता व अविश्वास के केन्द्र।

यहाँ यह रेखांकित किया जाना अनावश्यक न होगा कि बेसुरे हो चुके सारे के सारे विप्लव-गानों के बावजूद यह कवि आम लोगों के प्रति विश्वास से भरा हुआ है। यह गहरी संग्लनता ही है कि वह यह देख और कह पाता है -

वे जमीन से उखड़े हुए दरख्त की भाँति सूख रहे
पर उनकी जड़ें अभी
पूरी तरह जमीन से अलग नहीं हुई थीं शायद,
दरअसल,
अपनी इन तमाम बुनियादी लाचारियों के बावजूद
उनके भीतर अभी भी
अपना अस्तित्व बचाए रखने की उत्कंठा बरकरार थी
और इसीलिए वे चुपचाप
अब आखिरी संघर्ष की तैयारी करने के लिए
बस तन कर खड़े ही ह¨ने वाले थे किसी वक्त।

उमेश चौहान में रूमान है लेकिन इसका यह आशय नहीं कि उन्हें यथार्थ की पहचान नहीं है। उन्हें यथार्थ की सटीक पहचान है। वे जब गाँव को  काव्य विषय बनाते हैं तो रूमान को किसी ताख पर रख आते हैं और बदलाव का स्वप्न देखते हुए पुनः उसे अपने अन्तःकरण का अस्त्र बनाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यथार्थ बोध के साथ-साथ रूमान भी किसी अर्थपूर्ण बदलाव के लिए बेहद जरूरी होता है। दुनिया बदलने का स्वप्न रूमानी लोग ही पालते हैं। व्यवहार बुद्धि तो सांसारिक सफलताओं का अस्त्र है।

इस संग्रह की कुछ छोटी-छोटी कविताएं अलग से आकृष्ट करती हैं। उनके भीतर का काव्यरस देर तक पाठक के अन्तर्मन में टपकता रहता है। कुछ कविताऑन के शीर्षक मन मोहते हैं। जैसे- बित्ताभर धूप, पावों भर छाँव। ये शीर्षक एक तरह का विम्ब भी बनाते हैं। लेकिन इन कविताओं का कथ्य विचलित करता है।  पावों भर छाँव की इन पंक्तियां देखें -

सामने बस पावों भर छाँव है
सुलगते चूल्हे पर
धूमाक्रमित आँख से टपकी
आँसू की एक बूँद जैसी
निष्फल आश्वासन देती।

मेरे भस्मावशेषों को
समेटने तक के लिए भी
जरूरत भर की शीतलता न दे पाएगी
आसमान से उतारी गयी
सुख की पाँव भर छाँव यह।

इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएं भी हैं लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना होगा कि उमेश चौहान की प्रेम कविताएं हिन्दी में इन दिनों लिखी जा रही प्रेम कविताओं से थोड़ी अलग हैं। इनमें से कुछ प्रेम के दार्शनिक और उदाŸा पक्ष के बारे में हैं।  सच्चा प्रेमीशीर्षक कविता मे कवि की प्रेम संबंधी समझ अभिव्यक्त हुई है। इसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -

सच्चे प्रेम को दरकार नहीं होती
प्रस्फुटन की प्रतीक्षा के पूर्ण होने की
वह सन्तुष्ट रहता है गूलर की कलियों की तरह
देह के भीतर ही भीतर खिल कर भी

यह जरूरी नहीं होता कि सच्चा प्रेम
दीवानगी का पर्याय बन कर सरेआम संगसार ही हो
वह सारे आघात मन ही मन सहता हुआ
अनुराग की प्रतिष्ठा की वेदी पर प्रायः
अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है

सच्चा प्रेमी वही होता है जो
अपने सारे विषाद को भीतर ही भीतर पचा कर
नीलकंठ की भाँति इस दुनिया में सबके लिए
एक कतरा मुसकान बाँटता फिरता है।

कोई  कह सकता है कि इसमें आदर्श ही आदर्श है। यह सच भी है। प्रेम के संदर्भ में यह याद रखना जरूरी है कि प्रेम अपने मूल स्वरूप में उदात्त और आदर्श ही होता है। लेकिन एक कवि के रूप में उमेश प्रेम के व्यवहार पक्ष की भी उपेक्षा नहीं करते हैं। वे  रति-योगजैसी कविता लिखते हैं। प्रेम की मादकता के विविध रंगों को  दिखाते हैं किन्तु साथ में यह लिखना नहीं भूलते-


विरलों के पास ही होती है
भौतिक प्रेमालापों से परे
हृदय में अन्तर्निहित
अदृश्य आवेशों के
परस्पर आकर्षण व सम्मिलन को
परखने की दृष्टि।

जैसा कि आरंभ में संकेतित है, हिन्दी में गम्भीर कविताओं के पाठक गीत का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। लोगों के मन में एक बात बैठ गई है कि गीत अनिवार्य रूप से लिजलिजे होते हैं। लेकिन यह अधूरा सच है। हिन्दी में आज भी अच्छे गीत लिखे जा रहे हैं। इस संग्रह में संकलित छः गीत (नवगीत) उत्कृष्ट कविता के उदाहरण हैं। ये गीत कवि के पहले संग्रह गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनीके गीतों से आगे के गीत हैं। उमेश चौहान के  यह कैसा बसंत आयाशीर्षक नवगीत की इन पंक्तियाँ किसी भी श्रेष्ठ कविता के समक्ष रखी जा सकती हैं –

कौमार्य का निद्र्वन्द्व अपहरण करता
सौन्दर्य को  लहू-लुहान करता
यौवन को क्षत-विक्षत बनाता
बलात्कार की विकृतियों के
नए-नए प्रतिमान गढ़ता
यौन-पिपासा की वीभत्सता से
रस-राज का नित्य स्वागत करता
यह कैसा बसन्त आया ?

उमेश चौहान बसन्त पर लिखते हुए प्रकृति-चित्रण की ओर नहीं जाते। किसी वायवीय प्रसंग या प्रिया के सौन्दर्य की ओर नहीं जाते बल्कि गहरे डूब कर सामाजिक सांस्कृतिक समीक्षा प्रस्तुत करते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपने समय अ©र समाज के साथ अपने गहरे जुड़ाव का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए पाठकीय चिन्तक को जाग्रत करते हैं। कहना न होगा कि समर्थ कवि इसी तरह अपने पाठकोंं तक पहुँचकर उनका विरेचन करते हैं। जनतंत्र का अभिमन्युसंग्रह की एक विशिष्टता इसमें संकलित अवधी की रचनाएं भी हैं। इनमें उमेश चौहान का कवित्व देखते ही बनता है। हिन्दी कविताओं के संग्रह में आईं ये अवधी भाषा की रचनाएं पाठकों के चित्त के साथ ही हिन्दी कविता के वर्तमान परिसर का विस्तार करती हैं।


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जितेन्द्र श्रीवास्तव
हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ
इग्नू, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली’110 068
मो. नं. 09818913798


टिप्पणियाँ

अरुण अवध ने कहा…
शानदार समीक्षात्मक आलेख।
Onkar ने कहा…
बहुत बढ़िया लेख. उमेशजी को श्रधांजलि

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