कुछ ताज़ा कविताएँ
अशोक कुमार पाण्डेय की चार कविताएँ
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प्रशांत साहू का काम गूगल से |
जैसा होता है...
आँसुओं की खारी झील सी
यह कथा स्त्री के प्रेम की है
तैरती हैं जिसमें हमारी सारी
प्रेम कथाएँ सूखे पत्तों की तरह
जैसा होता है वैसा ही था सब
एक राजकुमार प्रेम में डूबा हुआ
और झील के किनारे सपने देखती हुई
एक स्त्री
वे मिले तो हिलोरे लेने लगा झील
का पानी
महलों से चला आता था वह रात बिरात
दोनों तारों पर पाँव रखते जाते थे
चाँद तक
जहाँ एक बूढ़ी औरत खूब दूध वाली
चाय के साथ उनकी प्रतीक्षा करती थी
वे अपने साथ लिए जाते थे अधूरे
लिखे पन्ने
मांग लेते थे कलम बूढी औरत से
लिखते थे साझा सपने
और जैसा होता है वैसा ही हुआ फिर
अचानक पावों के नीचे से खींच लिए
गए तारे
ठंडी होती रही खूब दूध वाली चाय
चाँद थोड़ा और अकेला हो गया
धरती थोड़ी और सख्त
हवा थोड़ी और भारी
शापित हुआ राजकुमार
दृष्टि छीन ली गयीं उससे
छीन ली गईं स्मृतियाँ
छीन लिया गया जीवनदायी स्पर्श भी
कह दिया गया यह
---
न देख सकोगे न करोगे याद
और स्पर्श मृत्यु का कारण होगा
फिर भी
पहचान लोगे यदि उसे
होगे शापमुक्त !
और इस तरह शापित हुई वह स्त्री
जिसे अंतहीन प्रतीक्षा का दण्ड मिला
।
जैसे बीतते हैं बीतने लगे दिन
चलती रही दुनिया हस्बे मामूल
उगता रहा सूरज समन्दर में डूबने
के लिए
खिलता रहा चाँद तारे बनते रहे
सीढ़ियाँ प्रेमियों के
भटकता रहा वह स्मृतिहीन राजकुमार
वह स्त्री भटकती रही एक जानी
पहचानी प्रतीक्षा में
झील होती गई और गहरी ।
और जैसा होता है वैसा ही हुआ फिर -
मिला फिर वह एक दिन जैसे हर कथा
में मिलना तय होता है असम्भव की तरह
दौड़ कर लिपट जाना चाहती थी वह
लेकिन शाप !
उसने पुकारा नाम बेकल
न पहचान सका राजकुमार बस चौंका और
चला गया
पलकें बिछा दीं स्त्री ने उसी राह
अगले दिन जब गुजरा वह तो हँसी
खिलखिलाकर स्त्री
हंसती थी जैसे चाँद पर
– तुम्हें नही आता चाय भी पीना
कहती हुई प्याले के छलकने पर
इस बार चौंका भी नहीं राजकुमार उस
हँसी से और चला गया
वह घिसटती चली उसके संग - किस्से
सुनाये चाँद के,
चाय का स्वाद याद दिलाया
बिखरा दिए वे पन्ने अधूरे और साझा
और जैसा होता है
हार कर रो पड़ी वह
निराशा में डूबा एक विलाप शब्दहीन
जिससे चौंका राजकुमार बुलाया उस
नाम से जो दिया था अपनी प्रिया को
रौशनी लौट आई आँखों में,
स्पर्श का विष ख़त्म हुआ
ख़त्म हुई विस्मृति
धरती से हरियाली फूटी
बसने लगे नीड़
अँखुआए बीज हुलस कर
नदियाँ मचल कर बहने लगीं
हवा थोडा और महकी
और रोते हुए पसार दिया अपना आंचल
स्त्री के लिए खारी झील ने
पुचकारते कहा मेरी बच्च्री
जैसा होता है ,
हुआ है सब फिर वैसा ही !
बहुत गझिन है यह यवनिका
प्रतीक्षाएँ छायाओं सी होती जातीं रात के साथ विस्तारित
स्वप्न धुंधलाते और एक चेहरा
उभरता अंधेरों की पीठ पर
भ्रम एक अधूरा सत्य है सत्य एक
अधूरा भ्रम
यह जो आया है हाथ में जाने रस्सी
है कि साँप है
साँसें चल रही हैं अभी और पाँव भी
होठों पर झाग नहीं एक भुनभुनाहट
अस्पष्ट
आँखें नहीं देखतीं कुछ कान सुनते
हैं कोई आवाज़ बेआवाज़
जहाँ राह है वहीँ एक गहरा काला
धब्बा भी
उतरता है किन्हीं अनंत खाइयों में
और खो जाता है
मैं चलता हूँ सारी रात और पहुंचता
कहीं भी नहीं
मैं जहाँ पहुंचता हूँ वहा जगह है
कोई या बस एक धब्बा काला
वह काला धब्बा राह है या बस एक
धब्बा
जैसे आत्मा पर हो कोई कचोट जैसे
देह पर घाव कोई
दूर कहीं कोई आवाज़ पुकारती है
यह मेरी ही आवाज़ है
कंठ रुंधा और आवाज़ बिलकुल साफ़
मैं भागता हूँ इसके पीछे और गिर
कर गिरता चला जाता हूँ
कोई समतल मैदान जैसे हो गया हो
तिर्यक अचानक
फिर जैसे दृश्य कोई नाटक का
यवनिका सी गिरती है चुप्पी आवाज़
और मेरे बीच
इस ओर मैं हूँ अब अकेला
मैं अपनी आवाज़ की प्रतीक्षा में
हूँ
आँखे उसे ढूँढने गयीं और किसी
झाड़ी में उलझकर परेशान हैं
हाथ टटोलते की कोशिश करते हैं तो
पता चलता है सुन्न हैं कबसे
पाँव चलते हैं तो हवा में रह जाते
हैं
एक चूहा कुतरता है चेहरा
सीने का कवच कुतरता है
साँसों में सेंध लगाता पहुंचता है
सपनों तक
सपने तिलमिला कर जाग पड़ते हैं
नींद से और फिर चीखते हैं
उस चीख में यह जो आवाज़ है रोने की
सी किसकी है?
मैं उस आवाज़ को पहचनाने की कोशिश
में ढूंढता हूँ अपनी आँखें
मैं अपनी आँखों की तलाश के लिए
अपनी आवाज़ ढूंढता हूँ…
बेशर्मी
के पक्ष में
एक
भीड़ है पगलाई हुई
और
पीछे जलते हुए घर तमाम
मैं
सड़क किनारे खड़ा हूँ किताबें संभाले
एक
टूटे हुए लैम्पपोस्ट की आड़ में खड़ा जाने किसे पुकार रहा हूँ
और
आवाज़ बुझे बल्ब के हलके धुएँ में डूबती जा रही है
उनके
हाथों में सबसे मंहगे मोबाइल हैं
वे
उन्हें पिस्तौल की तरह पकडे भाग रहे हैं
उनके
पैरों में सबसे मंहगे ब्रांड के जूते हैं और उन पर ज़रा सी भी धूल नहीं
उनके
सीनों पर सजी हैं सबसे मंहगे संस्थानों की डिग्रियाँ
जेबें
फूली हुई हैं, बाल एकदम संवरे देह गमक रही है खुशबू से
वे
एक ही साँस में कहते हैं प्रेम, सेक्स, देश और फाँसी
एक
ही सुर में भजन और रैप गाते खिलखिलाते हैं
इतिहास
उनके जूतों के नीचे पिसता चला जाता है
भविष्य
खुशबू की तरह उड़ता है कमीज़ों से
वे
किसी मंदिर के सामने रुकते हैं, झुकते हैं और उठते समय कनखियों से नहीं पूरी आँखों
से देखते हैं पोर्न फिल्मों के पोस्टर और इसके ठीक बाद नैतिकता पर एक लंबा स्टेट्स
लिखते हैं और फिर माँ बहन की गालियाँ देते वन्दे मातरम का उद्घोष करते पञ्च सितारा
होटलों की बहुराष्ट्रीय बैठक में एकदम अमेरिकी अंग्रेजी में प्रेजेंटेशन देते
विकास की परिभाषा समझाते हैं.
मैं निकल आया हूँ उस आड़ से पसीना पोछते
मैंने अभी अभी जिस भाषा में लिखा था एक शब्द
वह कुचली पड़ी है सड़क पर
उठाता हूँ उसे दो घूँट पानी पिलाता हूँ
तो हंसता है कोई – दूषित है यह पानी
झलता हूँ पंखा रूमाल से चेहरा पोंछता हूँ
तो हँसता है कोई – दूषित है हवा
मैं
शर्मिन्दा सा उठता हूँ और वह मेरे चेहरे की शर्मिंदगी उखाड़ झंडे की तरह लिए भागता
शामिल हो जाता है भीड़ में. मेरी रूमाल रख ली उसने विजय चिन्ह की तरह और मेरी भाषा
को पोस्टर की तरह चिपका दिया चौराहे पर.
मैं भौंचक देखता हूँ
तो कहता है कोई
शर्म अब हार का प्रतीक है
खेल के नए नियम हैं यह अब हार चुके हो तुम
जाओ अपनी भाषा की शर्म सम्भालो
वह जो सबसे पहले हुई शर्मिन्दा और अब हमारे लिए
जिंगल लिखती है.
गुबार बाक़ी है और मैं अकेला खड़ा शर्मिन्दा
अपनी शर्म से जूझता एक पुराने पेड़ से टिकता हूँ
उस ओर खेत हैं सूखे और उन पर धब्बे तमाम
मेरे पावों में पुराने जूते हैं धूल और थकान से
भरे
प्यास एक तेज़ उठती है गले में कांटे सा चुभता है
कुछ
चलता हूँ थोड़ी दूर और एक कुआँ रोकता है राह
जगत पर कत्थई धब्बे रस्सियाँ उदास
एक कमज़ोर सा हाथ बढ़ाता है डोल तो चुल्लू पसारता
हूँ
प्यास से पहले चली आती है वह शर्म और चौंक कर
देखता हूँ चारो तरफ
कहता है वह हाथ कमज़ोर –
मरना तो है ही बाबू पानी से या प्यास से
दोनों से बचे तो भी मरना ही है सल्फ़ास से
और मुस्कुरा कर रख देता है कंधे पर हाथ
पीता हूँ पेट भर पानी कमीज़ की बांह से पोछता हूँ
मुंह लेता हूँ सीने भर साँस
और कहता हूँ – शर्म छोड़ दो तो कोई नहीं मार सकता
हमें.
मैं चाहता हूँ करना प्यार
(मरीना त्यस्तेसावा का एक ख़त पढ़कर)
(मरीना त्यस्तेसावा का एक ख़त पढ़कर)
तुम देखती हो जब सौन्दर्य मैं
तुम्हें देखता हूँ
समंदर
किनारे की रेत पर चलते एक समंदर तुम्हारी आँखों में भी लहराता होगा
एक
पहाड़ देखा है मैंने तुम्हारी आँखों में पहाड़ी नदी के किनारे चलते चलते
ढलानों
पर उतरते तुम्हारे पाँवों से बिखरते देखा मैंने मुक्ति का संगीत
और
उस संगीत को अपनी आत्मा के ज्यूक बॉक्स में दर्ज़ किया निःशब्द
जब
तुम कविता पढ़ती हो तो एक कविता तुम्हारी उदासी लिखती है
हर्फ़
दर हर्फ़ पढ़ता हूँ वह कविता जैसे स्कूल की पहली कक्षा में कोई बच्चा पढता हो
बारहखड़ी
भयों
को छोड़ आया था तुम तक आने से पहले
जैसे
छोड़ आते हैं पेड़ पत्तियाँ बसंत के आने से पहले
पर
दुःख बचा रहा क्लोरोफिल सा, कामनाएँ टहनियों सी बची रहीं
बची
रही उम्मीदें अधूरी छायाओं सी, सपने जड़ों की तरह तलाशते रहे जीवन
और
इस तरह तुम तक पहुँचा मैं
मुझे
नहीं आया प्यार करना
बचपन
के सबकों में प्यार का कोई सबक नहीं था
मुझे
आसुंओं से भरी आँखों को होठों से पी जाना आता था
आता
था मुझे भीड़ भरी सड़क पर तुम्हारे भर की राह बना देना
मुझे
सिखाया गया था आँसुओं का नमक अपने कन्धों की हड्डियों में घोल लेना
और
मैंने सीखा गलना इस तरह धीमे धीमे कि हड्डियों को भी पता न चले
मुझे
धीरज सिखाया गया था और मैंने की प्रतीक्षा जैसे वेंटिलेटर पर करता है कोई मृत्यु
की
आज़ादी
मेरे लिए उन रास्तों का सफ़र थी जिन पर सत्ताएं बिखरती हैं धीरे धीरे
मैं
चला और चाहा तुम भी चलो जैसे हवा के साथ चलती है बारिश
मैंने
जब किया ख़ुद से प्यार तो उस ख़ुद में जाने क्या क्या शामिल होता गया
एक
दुनिया थी दुख और अत्याचार से भरी और मुझे बुद्ध नहीं होना था
एक
मुसलसल जंग थी चारों तरफ़ और नो मैन्स लैंड की ओर नहीं गयी मेरी निगाह
मैंने
किया प्यार ख़ुद से तो उन तमाम दुखों से प्यार कर बैठा जिनके दाग़ मेरे पुरखों की सफ़ेद
कमीज़ पर थे
ख़ुद
से प्यार किया तो कर पाया तुमसे प्रेम
मैंने
प्यार किया जैसे युद्ध में घायल सिपाही करता है ज़िन्दगी से प्यार
जैसे
आख़िरी साँस लेता मरीज़ चिड़ियों से प्यार करता है
जैसे
पिघलते पहाड़ करते हैं नदियों से प्यार
जैसे
शहर की पुरानी इमारतें करती होंगी स्मृतियों से प्यार
जैसे
सूखे के तीसरे साल कुँए की जगत से करता हो कोई प्यार
हाँ
मेरी प्रिय नहीं जानता पर चाहता हूँ करना प्यार
जैसे
बेसुरा कोई गाना चाहता हो कबीर के पद कुमार गन्धर्व को सुनते सुनते
टिप्पणियाँ
कबीर के पद और कुमार गंधर्व जी तो नहीं पर मीरा याद हो आई
माई री मैं का से कहूं पीड अपने जिया की, माई री..
-स्वरांगी साने
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