अनुराधा सिंह की कविताएँ
पिछले कुछ सालों में हिंदी कविता संसार में स्त्रियों की जो नई खेप आई है वह न केवल अपने अधिकारों और वंचना को लेकर सावधान और व्यग्र है बल्कि अपनी अभिव्यक्ति के लिए लगातार नई भाषा और नए शिल्प की तलाश में है. ऊपरी तौर पर दिखने वाला साम्य भीतरी तहों तक उतरने पर विविधता के तमाम पते मिलते हैं. अनुराधा सिंह ने कम समय में इस परिदृश्य में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है. मुख्यधारा की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रही उनकी कविताएँ उम्मीद जगाती हैं. उनके यहाँ देश, दुनिया के साथ भीतर की दुनिया की यात्रा भी है और इन सब यात्राओं को दर्ज़ करते हुए उनकी स्त्री दृष्टि लगातार और शार्प होती जा रही है.
ये कविताएँ उन्होंने काफ़ी पहले मुझे भेजी थीं, लेकिन अब अपने कुख्यात हो चले आलस्य के चलते जो विलम्ब हुआ उसके लिए माफ़ी के साथ इन्हें अब प्रकाशित कर रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ उनका सहयोग नियमित मिलता रहेगा.
तिरिया
वह सेमल जैसी नर्म आवाज़ में कहता है नाम बताओ किसने कहा........यह आवाज़ उसके खुरदुरे भीतर बाहर पर सूट नहीं करती........नाम जान कर ऐसे चिल्लाओगे कि मेरे कान में छेद हो जायेगा........नहीं चिल्लाऊंगा ........वह उस सेमल के नीचे अंगारे छिपाने की कोशिश कर रहा है ....अच्छा बस शहर बता दो ....मैं उसकी आवाज़ में छिपे फुर्तीले गिरगिट का नया रंग पढ़ लेती हूँ ........तुम मेरे सबको जानते हो, शहर बताते ही नाम जान जाओगे .......उसका बहुत थोडा सा सब्र अब चुक रहा है......अच्छा काम काज ही बता दो.......फिर तो सब पता चल जायेगा तुम्हें.......वह जोर से बोलना शुरू करता है और मैं कहती हूँ- देखा, मैंने कहा था न तुम चिल्लाओगे.........वह थक जाता है, हार जाता है .......नहीं चिल्ला रहा, सो जाओ .
बेआवाज़ हो हर लाठी
मेरी आस्तिकता नहीं
मेरा आलस्य
विश्वास बनाये रखता है
भगवान के लिए गढ़े मुहावरों पर
मेरा आलस्य
विश्वास बनाये रखता है
भगवान के लिए गढ़े मुहावरों पर
चूँकि भगवान सब देखता है
तो मुझे आँख खोल कर
वह सब अब और देखने की ज़रूरत नहीं
तो मुझे आँख खोल कर
वह सब अब और देखने की ज़रूरत नहीं
उसकी लाठी का बेआवाज़ होना मुझे पसंद है
क्योंकि लाठियां वैसी ही बेआवाज़ होनी चाहिए
जैसे अन्याय चला आता है जीवन में दबे पाँव
आत्मीय चले जाते हैं दूसरी दुनिया में चुपचाप
और हम रोते रहते हैं भीतर ही भीतर हाहाकार
भगवान के घर देर से भी ज़्यादा अंधेर है
यह मानते हुए भी मैं चाहती हूँ कि
उसकी सत्ता के पक्ष में
गढ़े जाएँ कुछ और मुहावरे तुरंत
ज़रा भी देर न की जाये इस अंधेर में ।
क्योंकि लाठियां वैसी ही बेआवाज़ होनी चाहिए
जैसे अन्याय चला आता है जीवन में दबे पाँव
आत्मीय चले जाते हैं दूसरी दुनिया में चुपचाप
और हम रोते रहते हैं भीतर ही भीतर हाहाकार
भगवान के घर देर से भी ज़्यादा अंधेर है
यह मानते हुए भी मैं चाहती हूँ कि
उसकी सत्ता के पक्ष में
गढ़े जाएँ कुछ और मुहावरे तुरंत
ज़रा भी देर न की जाये इस अंधेर में ।
वे अच्छी तरह जानती हैं कि साल १४९८ में वास्को दि गामा भारत तक
पहुँचने का समुद्री मार्ग तय करने ही नहीं आया था वह आया था व्यापार और घुसपैठ
करने भी. उन्हें मालूम है कि हर बार मुहम्मद गोरी के लौटने के बाद दिल्ली किस हाल
में मिलती होगी अपने आपसे. वे जानती हैं कि आक्रमण केवल शाब्दिक या सांकेतिक नहीं
होते वे अक्सर होते हैं ख़ामोशी से, नज़रअंदाजी में, तिरस्कार में, भर्त्सना में और उपहास
में. सबसे खतरनाक होते हैं वे आक्रमण जो प्रशंसा और प्रेम के मुखौटे लगा कर आते
हैं, क्योंकि
तब वे अपने सब कवच और हथियार गिरा देती हैं.
जो डरती थी सो नहीं डरती
आगे
निकल जाने से डरती थी
पीछे
रह जाने से डरती थी
तुम्हारे
कहीं छूट जाने से डरती थी
मैं
डरती थी तो एक फांक बन जाती थी सीने में
और
उगता था उससे कल्पवृक्ष
लगते
थे जिस पर असंभव सपने
डरती
थी तो ढूँढ़ती थी एक आवाज़
जिसे
लपेट कर सोना पड़ता था नाउम्मीद रातों में
मैं
डरती थी तो नाराज़ हो जाती थी दुनिया से
अब
नहीं डरती कभी
नहीं
नाराज़ किसी से
नहीं
ढूँढ़ती कोई आवाज़
जानती
हूँ कि अपने हत्यारे को माफ़ करना
कई
कई बार आत्महत्या करने जैसा है
इसलिए
छूट गयी थी जहाँ
उल्टी
चल दी हूँ वहीँ से
पाँव
तले की ज़मीन छीन ली है
एक
आसमान ने
दुनिया
अब भी गोल है
फिर
भी नहीं मिलूँगी
सामने
से आती
किसी
भी दिन
दुःख
की उंगली पकड़
वहीँ
जा पहुँचूँगी जहाँ छूटी थी
उतना
ही चलूँगी
जितनी
छूटी थी .
हम लौट नहीं पाए कही से
कसम से हमने बहुत कुछ सीखा ज़िन्दगी में
मरना मारना
थोडा जीना भी
हमने जाना सीखा
मन से बेमन के
पहियों में फंस कर घिसटे बड़ी दूर तक
और फिर मुंह पर ओली बना कर चिल्लाये ‘हे! आना रे SS’
और नहीं आया कोई तो इंतज़ार करना सीखा
कसम से, बिना रोये खड़े रहे हम वहीं
शाम भर जीवन भर
हमने सीखा कि कोई प्रेम करे तो करना पड़ता है
तेजाब में पिघलने से बेहतर है हाँ कहा जाये
एकांत में धरती और असमान को बाँध लिया आलिंगन में
और बाज़ार में एक नाम लेने से डरना सीखा
इतना कुछ सीखा
और लौटना नहीं सीख पाए
कहीं से नहीं लौट पाए
कहीं नहीं लौट पाए
जाने के लिए कह दिया गया / ठगे से खड़े रह गए
जानते थे बाहर उलटी थाली बजायी जाएगी स्वागत में
जब कोख से नहीं लौटे
तो कैसे लौटते तुम्हारे हृदय से .
मरना मारना
थोडा जीना भी
हमने जाना सीखा
मन से बेमन के
पहियों में फंस कर घिसटे बड़ी दूर तक
और फिर मुंह पर ओली बना कर चिल्लाये ‘हे! आना रे SS’
और नहीं आया कोई तो इंतज़ार करना सीखा
कसम से, बिना रोये खड़े रहे हम वहीं
शाम भर जीवन भर
हमने सीखा कि कोई प्रेम करे तो करना पड़ता है
तेजाब में पिघलने से बेहतर है हाँ कहा जाये
एकांत में धरती और असमान को बाँध लिया आलिंगन में
और बाज़ार में एक नाम लेने से डरना सीखा
इतना कुछ सीखा
और लौटना नहीं सीख पाए
कहीं से नहीं लौट पाए
कहीं नहीं लौट पाए
जाने के लिए कह दिया गया / ठगे से खड़े रह गए
जानते थे बाहर उलटी थाली बजायी जाएगी स्वागत में
जब कोख से नहीं लौटे
तो कैसे लौटते तुम्हारे हृदय से .
डरो
डरो जब वह तुम पर से हटा ले
अपना हाथ धीरे से
डरो उस दिन से
जब कोई उलाहना बाकी न रहे
लहजे और खतों में
छोड़ दे वह सारी तितलियाँ एक साथ
एक मकबरे के उजाड़ में
लौट आए फ़कीर सी खाली हाथ
अलमस्त,
तुम्हें बार बार गुम जाने की आदत है
डरो
जब वह न डरे एक शाम
तुम्हारे घर न लौटने से
कभी नहीं डरे तुम
उसकी बेख्वाब करवटों से
पर डरना
जब तुम्हारी रात के
दोनों तरफ दीवार हो
और खिड़की पर टंगी हो
उसकी उखड़ी हुई नींद ।
कहाँ जातीं हैं वे
कहाँ
जातीं हैं वे चीज़ें
जो
चलती तो हैं
पर
नहीं पहुंचती कहीं
वह
उतरता है
मेरी
आँख में खून की तरह
गरम
और धड़कता हुआ
फिर
कहाँ जाता है आखिर
आँसू
तो जलता नहीं इतना
याद
आता है तो जो ठेस लगती है
उसका
अपना एक नाम है
जो
मैं सही सही नहीं जानती बोलना
जानती
तो मैं उस पार वाली सड़क का
नाम
भी नहीं
फिर
भी यह सड़क
आई
थी एक दिन उसका हाथ थामे
बस
यहाँ तक
तबसे
पड़ी है कमला तालाब के सामने
सूखी
सकरी हड़ीली और गड्ढेदार
बुढ़ा
रही है जल्दी जल्दी
उसके
जाने के बाद से
फिर
कहीं नहीं गयी
मई
की एक शाम
बात
जो मैंने शुरू की थी
और
जिसे खा गया था उसका मौन
वह
कहाँ तक पहुंची होगी अब
इतनी
अधूरी चीज़ें लिए बैठी हूँ
कि
बिना किसी के बताये उनके
कहीं
सकुशल पहुँचने की ख़बर पाना
मुश्किल
है .
अप्रेम
तुम
हर बार कितने भी अलग
नए
चेहरे में आये मेरे पास
मैं
पहचान लेती रही
विडम्बना
यह थी कि
मैं
तुममें का
प्रेम
पहचानती रही
आह्लाद
से आपा खोती रही हर बार
भूल-भूल
जाती रही
कि
प्रेम तुम तब तक
और
उतना ही कर पाओगे मुझसे
जब
तक और जितनी मैं तुम्हारे अप्रेम में रहूंगी
मेरी
माँ यह कठिन यंत्र सिखाना भूल गयी थीं मुझे
और
उनकी माँ उन्हें
वे
सब कच्ची जादूगर थीं
पहले
ही जादू में अपनी पूरी ताकत झोंक देतीं थीं
उस
पर कि
बस
आधा जादू जानती थीं
अपने
ही तिलिस्म में फँस कर
दम
तोड़तीं रहीं
उन्हें
उस मंतर का तोड़ तक नहीं मालूम था
जो
पलट वार करता था
हालाँकि
सीना पिरोना साफ़ सफाई और पकाने से ज़्यादा
अनिवार्य
विषय था
अप्रेम
में रहना सीखना और सिखाना
बहुत
करीब से दूर तक जो पगडंडियाँ
सड़कें
और पुल पुलिया देखती हूँ
जो
तुमने बनाये हैं
किसी
न किसी सदी तारीख या पहर
वे
सब किसी न किसी जगह से
बाहर
जाने
के तरीके हैं
प्रेम
से बाहर जाने का तरीका नहीं है इनमें से एक भी।
स्त्री सुबोधिनी संविधान
वह
कि जिसने
सुरंग
में पहली बारूद भरी थी
और
जिसने
पुरुषों
के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था
जाने
कबसे उसे ही ढूंढ रही हूँ मैं
कि
जब तुम यह ‘स्त्री सुबोधिनी संविधान’ लिख रहे थे
तो
क्या तुम एक भी ऐसे पुरुष से नहीं मिले
जो
उजले, निखरे, ताज़ा चेहरों से प्रेम
करता हो
जिसे
सोती सुंदरी सुंदर लगती हो
और
ज्ञान बघारती पत्नी जिम्मेदार
या
जिसे बस एक बात
एक
मस्तिष्क
एक
दिल
एक
देह
एक
सोच
एक
आवाज़
एक
स्पर्श
एक
चाल
एक
सुगंध
एक
दृष्टि
बस
एक झलक भर से प्रेम हो जाए
तुम्हारे
हवनकुंडों की समिधा बनते बनते
न
जाने कितनी देहें, दिल
और दिमाग
जो
बोल, सुन
और देख सकते थे
और
शायद बिना लाग लपेट वाला प्रेम भी कर सकते थे
धसकी
अँगीठियों में तब्दील हो गए
रंग
और मुश्क़े हिना हल्दी, तेल
और आटे की
बसायन्ध
में खेत रहे
भंवों
का पसीना झुलसे गुलाबों तक ही छनक गया
कितना
ही प्रेम झिलमिलाती आँखों से
सरक
गिरा फूंकनी के रास्ते
फुंक
गया खांड़ू की पोली लकड़ियों के साथ
यार, अगर तुम्हें बड़े बड़े हंडे
और देग माँजती
स्त्री
इतनी ही मोहक लगती थी
तो
वह कौन था
जो
मधुबाला, नर्गिस
और मीना कुमारी पर मर मिटा था
तुम
समूचा प्रेम लील गए
कई
बार तो डकार भी नहीं ली
और
कैज़ुअल वर्कर्स बिछाते ही रह गए
बजरी
और धधकता डामर
तुम्हारे
पेट से दिल जाते सिक्स लेन एक्सप्रेस वे पर।
देगची में प्रेम
बगल
वाले कमरे में
उसके
अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
परमाणु
बम बना रहे थे
फ्रिज
में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
बहुत
आगे जाकर पूरब में कहीं
तख़्ता
पलट होने वाला था
मैं
प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
‘प्रेम’ की आखिरी किश्त भी
भुना
लेना चाहता था
और
यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से
उसे
परेशान किए हुए था
आज
तो
हमारे
मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
भी
उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी
उसके
और मेरे लोग
घरों, बाज़ारों, सड़कों, स्कूलों को
परमाणु
रियेक्टर बनाए हुए हैं
फ्रिज
में पता नहीं क्या क्या रखा है
और
पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
यहाँ
कितने गहरे गिर रहे हैं
इन
सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मेरा
उसके प्रेम को हल्के में लेना था
और
वह सिरे से ‘न’ कहना
सीख रही थी ।
प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं
प्रेमिकाएँ
प्रेम नहीं करतीं थीं
दूसरे
कई काम करती थीं दिन भर
प्रेम
न करने वाली स्त्रियों सी
शांत, संयत दिख पाने में विफल
होकर
व्याकुल रहती
थीं
सोचतीं
रहतीं कि कैसे इस पार उतरते ही
सब
कश्तियाँ जला दीं थीं उस दिन
बस
तभी से थीं लगातार गुमशुदा
शहर
के पुराने रास्ते
ख़ुमारी में काट देतीं रहीं
वर्षों
नहीं सीखीं नए रास्ते
अपरिचित
सड़कों या आसमानों के रंग तक
नहीं पहचानना चाहतीं थीं
भनभनाहटों
और व्यवधानों में
फ़ासले
तय करती रहीं
ठिकाने
पर बमुश्किल होश में लायी जाती थीं
ये
प्रेम में बेसुध स्त्रियाँ
उलटे
पाँव तय करती रहीं
सब
काले अँधेरे जंगल निर्विकार
जिन्नों औघड़ों मसानों से अविचलित
कितने
ही सिरों और कन्धों पर
हवा
के पाँव रखते
गुजर
गयीं
ये
विदेह औरतें
लेकिन
काँपती थीं
प्रेम
की क्षीण हूक भर से
जाने
कैसे माएँ बनी रहीं इस दौरान ये प्रेमिकाएँ
बच्चों
के पुराने सामानों को देख
थरथराती
रहीं इनकी छातियाँ
चिर
वियोग और क्षणिक रोमांच के बीच
लगाती
रहीं खाने के डिब्बे
याद
रखती रहीं डाक्टर की विज़िट और परीक्षा की तिथियाँ
बच्चों के उन्हीं चेहरे मोहरों में तलाशती रहीं
हालिया प्रेम के नाक नक़्श
आनुवांशिकी
के नियमों से अनजान
कुपढ़
औरतें
इनके
तकिये दीवार की तरफ करवट लिए
बहुत
नम थे
और
चादरें थीं एक ही तरफ घिसी
पति
सुख से चूम लेते थे सुबह
उषा
से गुलाबी मुख
और
बहुत रात गए, हर
रात
छनके
हुए लहू से निस्तेज हुए
पीले
चेहरे बिछा देती रहीं
कुछ
दीवार की ओर सरक कर बिना नागा
अपराध
विज्ञान नहीं पढीं थीं
दण्ड व्यवस्था भी नहीं
लेकिन
कैद समझती थीं
और जिस ढब की मैनाएँ वे थीं
उसमें
प्यास ही ऊपर ले जाती है
पंख
नहीं
ये
बेमियादी प्यास थी
कि
धसकती ही जा रही थी
पेस्टन
जी की रेत घड़ी में
ज़र्रा
ज़र्रा
सबको
सुनती और मानती थीं ये निर्विरोध
बस
झगड़ पड़ती थीं प्रेमी से
पहले तीन मिनटों के भीतर
प्रेमिकाएँ
खर्च करतीं थीं सब ईंधन
प्रेम
छिपा लेने में।
छूटा हुआ प्याला
आज
उन सब स्त्रियों की पीठ थपथपाओ
जिन्होंने
अपने लिए एक प्याली चाय बनाई है
और
पी ली है
गरम
रहते घूँट दर घूँट
जिन्होंने
नहीं दुरदुराया है अपनी ख़्वाहिशों को
जिन्हें
पता था कि तलब क्या होती है
और
उसे मारा नहीं जाता है बार-बार
जो
नहीं बैठी रह गयी हैं होंठों तक आई एक बात मसोस कर
या
नहीं खड़ी हो गईं हैं होंठों तक पहुंचा कप रख कर अधबीच
बस
टाँकने एक टूटा हुआ बटन, ढूँढ्ने
एक खोयी जुराब
इस्तिरी
करने एक मैचिंग कमीज़
या
निबटाने एक बेहद ज़रूरी काम
वे
जो बसों ट्रेनों और रिक्शा में बैठी सोचती हैं
पीछे
छूटी उम्र और कामनाओं की बाबत
और
सोचतीं हैं उन पीछे छूटे
अधपिए
ठंडे चाय के प्यालों के बारे में
ऐसे
ही न जाने कितनी राहत
इच्छाएं
और सुकून छूट गये
उनके
हाथों से
इन्हें
तो इस चाय के पिये जाने पर
कोई
सम्मान भी दिया जा सकता है
कि
इस एक कप के साथ वे एक पूरी व्यवस्था पी गईं हैं
उन्हें
मैरी पिजाँ या ग्लोरिया स्टाइनेम हो जाने की
काँच
की अदृश्य दीवारें तोड़ने के दुस्साहस की ज़रूरत नहीं है
राजघाट
या जंतर मंतर पर धरना देने की भी नहीं
बस
चाय की एक प्याली
अपने
मन मुताबिक बनाना
और
उसे पी लेना ही काफी है ।
खत्म होना लाज़मी था
तुम्हारा
खत्म होना लाज़मी था
लाज़मी
था कि मुझे नहीं आते थे नए सपने
कि
मेरी खिड़कियों के पर्दों पर
उसी
बसंत के फूल चस्पाँ थे अब तक
कि
मैं पुराने चेहरों से कतराती थी
और
नए चेहरे दिलचस्प नहीं लगते थे मुझे
कि
मुझे सुख दुख में फर्क ही नहीं लगता था
और
खट्टे मीठे, या
रंगीन और बेरंग में भी
तुम्हारा
खत्म होना लाज़मी था।
लाज़मी
था कि मुझे आईने की फ़राखदिली खलती थी अब
कि
मुझे रुखसत के दिन का स्क्रीन सेवर पसंद नहीं था
कि
मुझे ज़िंदगी बेशकीमती लगने लगी थी
और
तुम्हारे बहाने बड़े खोखले
कि
मैंने जान लिया था कि लोग पुरखुलूस और सच्चे भी हैं
कि
मैंने तुम्हारी आँखों में सर्द बिल्लौरी काँच देख लिए थे ।
टिप्पणियाँ
नारी विषयक चिंता सनातन सामाजिक समस्या बनी रही है जिसमें समय - समय पर पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिकता ने इजाफा ही किया है और इसका श्रेय पुरुष वर्चस्ववाची शक्तियों को जाता है।
समस्या यह है कि लाख ढिंढोरा पीट दिया जाए लेकिन वस्तु स्थिति यही है कि सदियों पूर्व अवगुंठनों में ढँकी स्त्री जिस भुलावे और छलावे के साथ जी रही थी , आज भी हालात कमोबेश वही हैं।
भले ही सीता आज अभीष्ट नहीं किन्तु आज भी यथार्थ बनी हुई है।
यह भी नारी जीवन का एक दुर्दांत सत्य है कि पुरुष आज भी मर्यादा
पुरुषोत्तम बना हुआ है और मनसा , वाचा ,कर्मणा पति अनुगामिनी होकर भी नारी मर्यादा की सामाजिक कसौटी पर खरी नहीं उतर पाई ।बदलते परिवेश और समय के साथ स्त्री ने स्वंय को अवगुंठन मुक्त तो कर लिया , अशिक्षा के अंधकार से भी बाहर आ गई किन्तु सदियों से जिस कूढमगज के खिताब से इसे नवाजा जाता रहा ,उससे मुक्त होने का कोई मार्ग नहीँ ढूँढ पाई अबतक। सहज प्राप्य और पुरुष के अपने ही शर्तो पर सरलता से उपलब्ध होने वाली चीजों में स्त्री सबसे ऊपर है , उसकी इसी विशेषता को एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत भुनाते हुए वर्चस्ववादियों ने स्त्री की स्व अर्जित अस्मिता को अपने अहं के नीचे कब और कैसे कुचल डाला स्त्री समझ भी नहीं पाई।
कवयित्री की यातना का सबब नारी विषयक ऐसी ही अवधारणाएँ हैं क्योंकि उसकी संवेदनशीलता बडी शिद्दत से नारी की सार्वकालिक यातना से उसे जोडती है। कविताएँ गवाह बनती हैं कवयित्री की व्यापक दृष्टि फलक की, नवीन कल्पनाओं ,बिंबों की - यही शिल्पगत विशेषताएँ अनुराधा को एक अलग पहचान दिलाती हुई उनकी रचनाओं को अत्यंत संप्रेषणीय बनाती हैं और निसंदेह किसी भी रचनाकार के लिए यह बहुत बडी उपलब्धि है।
अनुराधा जी को सशक्त रचनाओं के लिए बधाई , शुभकामनाएँ।