सुजाता की कविताएँ
सुजाता ने इधर हिन्दी कविता जगत में महत्त्वपूर्ण पहचान हासिल की है.दो साल पहले उनकी कविताएँ असुविधा पर प्रकाशित हुई थीं. अपने अलहदा कहन, परम्परा तथा आधुनिकता संपन्न भाषा संस्कार, टटका बिम्बों व सघन शिल्प तथा बौद्धिक तैयारी के साथ साहित्य जगत में प्रवेश कर कम समय में वह लगभग सभी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
आज उनके के कविता- संग्रह 'अनन्तिम मौन के बीच' की पांडुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन पुरस्कारों की श्रेणी में अनुशंसित किया गया है. उन्हें बहुत बधाई. यहाँ प्रस्तुत हैं इसी संकलन से कुछ कविताएँ.
अनंतिम मौन के बीच
दृश्य-1
(बात जहां शुरु होती है एक भंवर पड़ता है वहाँ, दलीलें घूमती हुई जाने किस पाताल तक ले जाती हैं)
मैं कहती हूँ बात अभी पूरी नहीं हुई
जवाब में तुम बुझा देते हो बत्ती
बंद होता है दरवाज़ा
उखड़ती हुई सांस में सुनती हूँ शब्द
- अब भी तुम्हें प्यार करता हूँ
स्मृतियाँ पुनव्र्यवस्थित होती हैं
बीज की जगहों में भरता है मौन
किसी झाड़ी मे तलाशती हूँ अर्थ
कपड़े पहनते हुए कहती हूँ - एक बात अब भी रह गई है
उधर सन्नाटा है नींद का!
दृश्य-2
तुम नहीं जानती यह निपट अकेलापन
वीरानियाँ फैली हुई इस झील की तरह
और दूर एक टिमटिमाती सी बत्ती है तुम्हारी स्मृति
जाने दो खैर
तुम नहीं समझोगी!
(एक वाक्य दरवाज़े की तरह बंद होता है मेरे मुंह पर अपने थैले में टटोलती हूँ हरसिंगार के फूल जो बीने थे रात तुम्हें देने को...नहीं मिलते... मुझे झेंप होती है... कैसे खाली हाथ आ गई हूं... इस सम्वाद में मुझे मौन से काम लेना होगा, बंद दरवाज़े फिर खुलने से पहले एक ग्रीन रूम चाहिए, पुनव्र्यवस्थित होती हूँ, समझने के लिए क्या करना होगा? मेरी उम्र अब 40 होने चली है।)
- कैसे गटगटा जाती हो! पियो आराम से
थामे रहो गिलास जैसे थमती है सांस पहली बार कहते हुए - प्रेम!
और फिर एक घूँट आवेग का ज़बान पर जलता और उतरता गले से सुलगता हुआ
नाराज हो?
हर बात का अर्थ निकालती हो तुम
(झील पर घने कोहरे जैसा पसरा है सन्नाटा, उस पार जलती बत्तियाँ बुझ गई हैं, मुझे अभी सुरूर आने लगा है)
दृश्य बदलते हैं जल्दी-जल्दी, पटाक्षेप के लिए भी वक्त नहीं
इस झील को यहां से हटाना होगा
मंच पर लौटना होता है आखिर हर नाटक को
कोई विराट एकांतिक अंधकार साझा अंधेरों से मिले बिना नहीं लाता रोशनी
दृश्य-3
बहस के बीच कोई कह गया है-
जो मंदिर नहीं जाती पब जाती होंगी
ऐसी ये समाजवादी भिन्नाटी औरतें!
तुम कहते हो - बीच का रास्ता क्यों नहीं लेती
परिवार का बचना ज़रूरी है
स्त्री की मुक्ति इसी के भीतर है
मैं समझता हूँ तुम्हें
सारा तर्क आयातित दर्शन हो जाता है
कोई उपहास करता है- है आपके दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ी व्याखाएं?
मैं कहती हूँ
तुमने मेरी गर्दन पर पांव रखे
कोख को बनाया गुलाम
ऐसे हुई सृष्टि की उत्पत्ति
- कैसे बात करती हो मुझसे भी!
तुम्हारा रुआँसा चेहरा देख पिघल जाती हूँ
तुम देखते हो अवाक और चूमती हूँ तुम्हें पागलों सा
मेरे बच्चे!
(उमस भरी चुप्पी है। प्यार के सन्नाटे असह्य हैं!)
झाँकती है देह आँखों के पार
...और
इस दूसरे जाम के बाद मुझे कहना है
कि
दुनिया एकदम हसीन नहीं है तुम्हारे बिना
हम
तितलियों वाले बाग में खाए हुए फलों का हिसाब
तीसरे
जाम के बाद कर ज़रूर कर लेंगे...
हलकी
हो गई हूँ सम्भालना ...
मौत
का कुँआ है दिमाग,बातें सरकस
बच्चे
झांक रहे हैं खिलखिलाते
एक
आदमी लगाता है चक्कर लगातार
धम्म
से गिरती है फर्श पे मीना कुमारी
‘न जाओ सैंया...कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूंगी...’
और
सुनो -
जाना, तो बंद मत करना दरवाज़ा।
आना , तो खटखटा लेना ।
मौत
के कुएँ पे लटके ,हंसते हुए
बच्चे
ने उछाल दिया है कंकड़
आँखें
मधुमक्खियाँ हो गई हैं
आँखें
कंकड़ हो गई हैं
आँखें
हो गई हैं बच्चा
आँखें
हंसने लगी हैं
झाँक
रही हैं आँखें
अपने
भीतर !
बच्चे
काट रहे हैं कागज़ कैसे आकारों में
कि
औरतों की लड़ी बन जाती है मानो
दुख
के हाथों से बंधी एक-से चेहरों वाली
एक-
सी देह से बनी
झाँकती
है देह आँखों के पार
अरे
...देखो ! उड़ गई मधुक्खियाँ शहद छोड़
जीने
की लड़ाई में मौत का हथियार लेकर
आँसू
कुँआ हैं, भर जाता है तो
डूब
जाती है आवाज़ तुम्हारी
सूखता
है तो पाताल तक गहरा अंधेरा !
बहुत
हुआ !
तुम
फेंकते हो झटके-से बालटी डोरी से बंधी
भर
लेते हो लबलबाता हुआ ,उलीचते हो
रह
जाती हूँ भीतर फिर भी उससे ज़्यादा
उफ़
! दिमाग है कि रात की सड़क सुनसान
जिन्हें
कुफ्र है दिन में निकलना
वे
दौड़ रहे हैं खयाल बेखटके
इंतज़ार
रात का
इंतज़ार
सुबह का
बहती
है नींद अंतरिक्ष में, आवारा होकर
भटकती
है शहरज़ाद प्यार के लिए
अनंत
अंधेरों में करोड़ों सूर्यों के बीच
ठण्डे
निर्वात में होगी एक धरती
हज़ारों
कहानियों के पार !
एक
अबबील उड़ी
दो
अबाबील उड़ीं
तीन
अबाबील उड़ीं
चार...
पाँच...
सारी
फुर्र
!
पुर ते निकसीं रघुवीर वधू
बेमतलब
-सी बात की तरह होती है सुबह
नीम
के पेड़ पर कमबख्त कोयल बोलती ही जाती है
उसे
कोई उम्मीद बची होगी
सारी
दोपहरें आसमान पर जा चिपकी हैं आज, उनकी अकड़ !
एक
शाम उतरती है पहाड़ से और बैठ जाती है पाँव लटका कर, ज़िद्दी बच्ची !
ढलने
से पहले झाँकना चाहता है नदी में कहीं कोई सूरज
सिंदूरी
रेखा खिंचती है
जैसे
छठ पूजती स्त्रियों की भरी हुई मांग
पूरा
डूबा है मन आज
आधी
डूबी हैं मछलियाँ
मल्लाह
पुकारता है – हे हो !
आज
और गहरे जाएंगे पानी में ...
यह लौटने का
समय है
समय…प्रतीक्षाओं की लय ...
झूठ
बोलकर खेलने चले गए बच्चे पहाड़ी के पीछे
तितलियाँ
साक्षी हैं उनके झूठ की
अभी
साथ में करेंगे धप्पा और चांद को आना पड़ेगा बाहर मुँह लटकाये
ये
देखो आज शिकारी छिपा है आसमान में , एक योगी भी है
छिप-छिप
के रह-रह टिमकते तारे ...चोर हैं चालीस
कहानियों
की सिम-सिम ...नींद का खज़ाना...लो...सो गए...
अब
सब काम निबट गए
पाँव
नंगे हैं मेरे
बच्चों
ने छिपा दी होगी...
या
रख दी होगी मैंने ही कहीं
मेरे
नाप की कोई चप्पल नहीं है भैया ?
– आपको कुछ पसंद ही नहीं आता
ह्म्म...
सपनों
के लिए बुलाया गया है आज मुझे कोर्ट…
अचानक
लगता है खो गई हूँ
यहाँ
वह पेड़ भी नहीं है बरगद का चबूतरे वाला
किसी
हत्या के भी निशान नहीं हैं मिट्टी पर
चौकीदार
कहता है –पूजा करनी होगी आपको , गलत गेट से आ गई हैं आप, दूसरी तरफ है बरगद , सही-सलामत ।
एक
प्रेम को भर देना चाहती थी आश्वासनों से ,मीलॉर्ड !
फुसफुसाता
है कोई- झूठ !
शब्दकोश
से मेरे गायब हो रहे हैं शब्द जजसाहब -
गड्ढे
बन गए हैं जहाँ से उखड़े हैं वे...मैं गिरती हूँ रोज़ किसी गड्ढे में
फुसफुसाता
है कोई- झूठ !
मैं
धरती से बहिष्कृत थी...
कोई बोला- झूठ
!
मैं
कविता लिखती थी ...मैंने लिखा था सब ...ये देखिए
सारे
काग़ज़...मेरी ही हस्तलिपि है...मेरी..
वह छीनते काग़ज़ उठ खड़ा हुआ है- झूठ !
मैं
तब भी थी ...अनाम...मैं भटक रही थी अँधेरी गुफाओं में
चलती
रही हूँ रात-रात भर ...दिन भर स्थिर ...
बड़बड़ाती
रही हूँ नींदों में ...दिन भर मौन ...
मीलॉर्ड
! मुझे सुना नहीं गया मेरे क़ातिलों को सुनने से पहले
वह चिल्ला
पड़ा है – चुप्प् प !!
आप
पर अनुशासनहीनता का आरोप है
अदालत
की तौहीन है ...
होती
हूँ नज़रबंद आज से ...अपने शब्दों में ...कानो में गूंजता है – झूठ है !
होती
हूँ मिट्टी ...हवा ...आँसू ...पानी...
मुझे उनके जागने से पहले पहुँचना है
चीखता
है ऑटो वाला- हे हो !
मरने
का इरादा है क्या !
जानते होंगे बादल साँवले
एक ख्वाब में धुला निखरा अंधेरा है
दूर तक बीहड़, सूखे,
उदास, जले,
काले पेड़
भागती हूँ बदहवास, बेपता
तलाशती हूँ तुम्हे थामती हूँ अपना
ही हाथ
अपना ही पर्दा हूँ
खुद ही से झाँकती हूँ
छिप जाती हूँ
सहलाती हूँ ज़मीन जैसे तुम छूते हो
करना चाहती हूँ प्रेम और संशय में पथरा जाती हूँ
चूमती हूँ दीवार सपाट
खिरने लगता है चूना , नमक से भरती जीभ
खारे ,अपने ही आँसुओं में लगाती हूँ डुबकी नदियों के
सिकुड़ने से पहले
लेती हूँ श्वास और महुआ की गंध में उन्मत्त हाथी से
खयाल
झुंड के झुंड मचाते हैं उत्पात
उतारना चाहती हूँ त्वचा
आखिरी परत तक होने एकदम नग्न
कि ठीक ठीक महसूस कर सकूँ सब जैसे मिट्टी
विवस्त्र औ’ आज़ाद
हो जाया चाहती हूँ ढेला, चाँद होने से पहले
धरती का गला रुँध गया है उसे चिपटा लेना चाहती हूँ
सीने से बहुत कस कर
आज रात अकेले नहीं सोने दूँगी उसे
उसकी दरारों में उंगलियाँ फंसा कर गुनगुनाऊँगी...
मैं बेपता सही ...
जानते होंगे बादल साँवले...
प्रतीक्षाएँ...
सूखा हैं !
नहीं मरूंगी मैं
जाऊंगी
सीधी, दाएँ और फिर बाएँ
आगे गोल चक्कर पर घूम जाऊंगी और
लौट आऊँगी इसी जगह फिर से
आगे गोल चक्कर पर घूम जाऊंगी और
लौट आऊँगी इसी जगह फिर से
जब
सो जाओगे तुम सब लोग
उखाड़ दूंगी यह सड़क और उगा आऊँगी इसे
समन्दर पर
उखाड़ दूंगी यह सड़क और उगा आऊँगी इसे
समन्दर पर
गोल चक्कर को चिपका दूंगी
सड़क के फ़टे हुए हिस्सों पर
सड़क के फ़टे हुए हिस्सों पर
कुछ
भी करूंगी
सोऊँगी नही आज
सोऊँगी नही आज
मैं मरूंगी नही बिना देखे काली रात सुनसान
लैम्प पोस्ट की रोशनी में चिकनी सड़कें
मरूंगी नही मैं
लैम्प पोस्ट की रोशनी में चिकनी सड़कें
मरूंगी नही मैं
शांतिनिकेतन के पेड़ों की छाँव मेँ निश्चेष्ट कुछ पल पड़े रहे बिना
नहीं मरूंगी उस विद्रोहिणी रानी का खंडहर महल
अकेले घूमे बिना
मर भी कैसे सकती हूँ मैं
नहीं मरूंगी उस विद्रोहिणी रानी का खंडहर महल
अकेले घूमे बिना
मर भी कैसे सकती हूँ मैं
बनारस के घाट पर देर रात
बैठ तसल्ली से कविताएँ पढे बिना
नहीँ
मरूंगी
किसी शाम अचानक पहाड़ को जाती बस में सवार हुए बिना
बगैर किए इंतज़ाम और सूचना दिए बिना
और फिर...
किसी शाम अचानक पहाड़ को जाती बस में सवार हुए बिना
बगैर किए इंतज़ाम और सूचना दिए बिना
और फिर...
मैं
लौटूंगी एक दिन
बिल्कुल ज़िंदा।
बिल्कुल ज़िंदा।
टिप्पणियाँ
ऐसी कविताओं को शायद, कुंजी के साथ समझना पड़ेगा, तब जाकर संभवतः मेरी समझदारी को कोई सकारात्मक सूझ मिलेगी। शब्दों से खेलने की कवि की कला का कायल हुआ। अपनी एक कविता में मैंने ऐसी कलाबाज़ी करके फेसबुक पर आजमाया था, लोगों ने पसन्द किया था, और यह पसन्द आना मुझे डरा गया था।
बहरहाल, कवि (कवयित्री) को बहुत बहुत बधाई!