श्वेता तिवारी की ताज़ा कविताएँ
श्वेता तिवारी की कविताएँ आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. बहुत कम लिखने और उससे भी कम छपने वाली श्वेता अक्सर दिल्ली की साहित्यिक जमघटों से भी अनुपस्थित रहती हैं. उनकी कविताएँ अपने बेहद कसे शिल्प और मितव्ययी भाषा से अलग से पहचानी जा सकती हैं.
बेरोज़गार भी नहीं
मेरे पास नहीं कोई
नौकरी
और बेरोज़गार भी नहीं
हूँ
उठती हूँ सुबह
बुहारती हूँ घर आँगन
पोछती हूँ कमरे का
हर कोना-अतरा
परिजनों के ताने साफ़
नहीं कर पाती
अपेक्षाएँ बनी रहती
हैं हस्बेमामूल
बीतते समय को बचाती
छिपाती अपनी घबराहट
रसोई में जाती हूँ
हाथ पाँव और साँसों
को
नसीब नहीं राहत
जब तक ऑफिस जाते पति
और स्कूल जाते बच्चों
के लंच नहीं हो जाते
तैयार
कितना अखरता है
जिस दिन नहीं दे
पाती हूँ
समय पर समय और चीज़ें
और स्कूल बैग में
नहीं रख पाती ज़रूरी किताब
तो शाम तक नहीं पढ़
पाती अपना मन
पति झल्लाहट का
पुलिंदा होता
और बच्चे फिकरों के
गुच्छे
बर्तन माँझती धोती
कपडे प्रैस करती नहलाती धुलाती पोछती बच्चों को सुलाती----
महँगाई के इन दिनों
में इन कामों के एवज
मेड माँगती है 4 से 5 हज़ार
तय नहीं हमारे मेहनत
का कोई मोल
बस हमारी सेवा के
बदले
मिल जाते हैं कभी
कभी
बिंदी चूड़ी सिंदूर
पायल या साड़ी
भोर होते ही मुझे
फिर करनी है
ड्यूटी विदाउट
सेलरी...
चुनाव
अनन्त उदासी से भरा
मेरा मन
फिर भी
अपनी साँसों की लय
को टूटने नहीं दिया
अजीब अपनों के बीच
मेरा सामना था
बचपन से
जहाँ मानुस भेष में
थे जानवर तमाम
जो लांछित और
अपमानित ही करते रहे
जीने की जुगत करते
हुए किया उनका प्रतिरोध
इस आशा में कि एक न
एक दिन
मिलेगा मुझे स्नेह
और सम्वेदना
मुझे प्रेम करता हुआ
कोई मुझे सोचता हुआ महसूस करता हुआ अपने भीतर अतल में
आएगा एक न एक दिन---
इसी उम्मीद ने मुझे
बल दिया और
काले दिनों में हुआ
कुछ उजाला
इच्छाएँ जीने की
चुनौती और
आशा ही सम्बल है।
पुराना कैलेंडर
मौसम बदला और
दीवारों पर
महसूस हुई रंग रोगन
की ज़रूरत
जब पलस्तर
छिपकिलियों के
रेंगने तक से
झड़ने लगे
गिरने लगीं
कीलें जंग खाई हुई
उधड़ उधड़ कर दीवारों
और दिल पर से खुद
बखुद
परिवार चौंका और
चिंतित हुआ
कुछ जुटाए साधन और
मरम्मत शुरू हुई माहौल की
धीरे धीरे दुरुस्त
हुआ अस्त व्यस्त
आहिस्ता आहिस्ता
दीवारें जगमग हुईं और दिल रौशन
लेकिन
एक टीस की तरह
फड़फड़ाता
गिरा ज़मीन पर पुराना
कैलेंडर
और उसकी तारीखें
और उसके दिन
और उन दिनों की
स्मृतियाँ गिरीं
नए ने विदा कीं
आपबीती ज़िंदगी की कई
धूप छाँही घड़ियाँ...
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