तरुण भटनागर की तीन कविताएँ
तरुण भटनागर के कथाकार रूप से हम सब परिचित हैं लेकिन कविता में उनकी गहरी रूचि के बारे में कम ही लोग जानते हैं. कई मुलाक़ातों में जब उनसे कविताओं पर लम्बी लम्बी बातें हुईं तो बहुत कुरेदने पर उन्होंने अपनी कुछ कविताएँ पढवाईं जो मेरे लिए आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य था. तरुण की कविताएँ सूक्ष्म विवरणों में जाती हैं और वहाँ से संवेदना के बेहद महीन तंतु तलाश लाती हैं. उनका विन्यास बहुत सावधान नहीं लेकिन कथ्य को बेहद करीने से उभारने और सहारा देने वाला है. भाषा पर तो खैर इस कहानीकार का अधिकार स्वयंसिद्ध है ही. सुखद है मेरे लिए उनकी कविताओं को असुविधा पर शाया करना. आशा है वह आगे भी कविताएँ लिखते रहेंगे और डायरियों की क़ैद से आज़ाद कर हमें पढने का भी मौक़ा देंगे.
नाइट लैंप
स्याह
अंधेरों की दुनिया में
सकुचाता
दीखता जो नाइट लैंप
तमाम सपनों
से अलहदा
मगन अपनी
मद्धम रौशनी में
डटा हुआ
स्याह अंधेरे प्रेत से।
दिखता भद्र
जनों सा
पर उनसे
बेहद विलग
न बंधे होते
उसके हाथ
न सकुचाता
न
मुस्कुराता नकली
न खिसियाता
न ही यह भय
कि कहीं
बहिष्कृत ही न कर दिया जाय
अंधेरों की
समभाव दुनिया से ।
साक्षात्कार
बोर्ड के सामने
सकुचाते,
होते आत्मग्लान
नाइट लैंप
एक बेरोजगार
जो कबका जान
चुका
कि दुनिया
को उसका होना पता नहीं चलना
कि उसके बुझ
जाने से
कोई खलल
नहीं पडना
अंधेरों में
फैलती
नींद और
झूठे सपनों
की काहिल
दुनिया पर ।
उसकी जाति में
बरसों से शामिल हैं-
अबूझमाड के
अंधेरे के प्यार में
स्याह
पगडण्डी पर चलती कोई टॉर्च।
रेल के बेखबर मुसाफिरों
की मोहब्बत में दमकता
कोई सिग्नल तन्हा पटरियों
पर।
कोई बिजली का लट्टू किसी
मचान पर
गाँव से बहुत दूर
फसल के इश्क में किसान की
नींद पर...।
हड्डी, मिट्टी, राख के प्रेम में
कब्र पर बूँद-बूँद अपनी
रौशनी का मोम।
जवान होती लडकी को वर्जित
सपनों में
किसी दमकते मर्दाना जिस्म
सा
रौशन, रौशन, रौशन.....।
देखो-देखो
किस तरह तो उतर आई है
नाइट लैंप
की कंपति झिझकति मद्धम आभा
कस्बे की
वैश्या के चेहरे पर
बेतस्दीक
जिद होकर दमकती ।
दमकता
कोलाहल बिना।
नींदों पर
काँपता।
पर्दे पर
डोलती उसकी आभा देख गाता है कोई झींगुर।
चाँद डरता
सा गुजरता है चुपचाप छत के ऊपर से।
दमकता है जब
रात के बिस्तर पर
स्त्री आँख
भर घूर लेती है आदमी की नग्न देह।
फर्श पर यूँ
ही तो नहीं उसकी आभा का चकत्ता
रात के कमरे
में इंसान के होने को जलता है वह।
जलता है
अंधकार की भाषा में
गहन अंधेरों
से उसकी गुफ्तगू गुलजार करती है
बेगैरत
खामोश कमरों को, पूरी रात।
वे जो जागते थे
सारी रात
खो चुकी थी जिनकी
नींद
दगा दे गये थे
जिनके सपने
उनकी बातों में वही
था।
रात के एकांत में
वीरान बिस्तरों पर
दम तोडती देहों का गवाह
वही था, वही था।
नाइट लैंप की
बातें
शयनकक्ष की
दीवारों पर
त्वचा में गोदने
के शब्दों सी जज्ब
बेखयाली के दौर
में
बाँचने रौशनी का
किस्सा।
भयाक्रांत
दौर में
जो धडकाती
रही
मासूम
बच्चों- औरतों को
वही
बस वही
गोल घेरे
में दमकती बेहद नाजुक
जीरो वॉट के
बल्ब से भी फूट पडती जो
कितनी कम
पर
पूरी-पूरी रात
कांपती,
पर स्थायी
ढंके बंद
भेदकर, तोडकर निकल आती जो बाहर
रौशन न माने
जाने पर भी
जो बेझिझक
गुनती
अपनी
अत्यल्प आभा।
औंधा पडा है
सूरज धरती के पीछे।
अंधेरी
सडकों पर हैं आदमखोर।
बंदूक छिपा
चुपचाप कहीं सोया है
रात का
मोहल्ले का चौकीदार।
मुँह फाड
बाहर निकल आये हैं कालरात्रि के रदनक।
रक्त की
तलाश में घूमता है ड्रैकुला और कबरबिज्जू।
अंधेरे में
पसरी नीम की प्रेत शाखों पर इत्मिनान से बैठा है हैवान।
काँपते तारे
खींच रहे हैं बादल की चादर मुँह तक।
सन्नाटे की
कब्र में सो चुकीं आवाजें।
डोलता है
डराता चिर अंधत्व।
बेभरोसे
यतीम अंधेरे घरों में
जलता है,
जलता है
सिर्फ नाइट लैंप।
वह इश्क हुआ
(1)
कोलाहल के
बीच
जो
एकाँत घिरता है
वहाँ
वजहें थीं
तुम्हारे
इंतजार की।
इस
तरह था लाखों सालों तक
रासायनिक
क्रिया से बन रहे
सिंक
होल और गहन गुफाओं का दौर
अनवरत...
अनवरत...
सफेद
से नीली
ठोस
और, और ठोस हो रही बर्फ की शिलायें
पहाडी
ढलानों पर
परत
दर परत
नहीं
पिघलना चाहती थीं होने को नदी
रेगिस्तान
में
काँटो
की त्वचा में
जमा
होता पनीला हरा गूदा
सिर्फ
वही.....
सिर्फ
वही....
हरा
और
गहरा हरा था
बस
उसे पता नहीं था
कि
वह इश्क था।
(2)
इश्क जिद्दी
है
मुस्कुराता
चूमता है फाँसी का फंदा
चला जाता है
इतने गहन
कि संजो
पाता है सिर्फ अंधेरा
और मौत,
खालिस मौत ।
ऐसी दीवानगी
कि होठों पर
होंठ
इस तरह
कि कहीं कोई
जंग न दीखने के इस दौर में
जो युद्ध
हुआ
इश्क
हुआ...।
(3)
करना इश्क
जैसे हथकड़ी पर गिरता है आँसू
कुछ यूँ
कि तकलीफ
सिर्फ तकलीफ हो
दुनिया फिर
से दुनिया।
इश्क करना
जैसे
मुनिस्पालिटी के मेहतर
दफनाते हैं
लावारिस लाश को
कोई डॉक्टर
कागजों में
दर्ज करता है
जलकर मर
रही लडकी का आखरी बयान
कि हो
मिट्टी फिर से मिट्टी
काँटे को
बनना पडे फिर से काँटा ।
कुछ यूँ
कि जैसे
करती है प्यार कोई वैश्या
जिसने गाड
दी अपनी शर्म
तलाश में
जिंदगी के जैसे।
(4)
हँसता है आशिक
जब पढता है इश्क के
किस्से
बुद्ध की तरह
चुपचाप गुनता है
हमारी मोहब्बत की
बातों को
डरता है, चीखता है
रोता है एकांत में।
इश्क एक गप्प थी
और इश्क का शोक
मनाने वाला वह अकेला था।
(5)
अभी मुठ्ठी में बची है
रेत
अभी इश्क है।
खिडकियों के टूटे शीशे
मोर्टार और गोलियों से
उधडी बदरंग दीवारें
शहर में कर्फ्यू का
सन्नाटा
लाशों को आँखों से गिनता
ड्यूटी वाला हवलदार
जेल ले जाये जाते
कतारबद्ध फटेहाल लोग
भूमध्यसागर के तट पर औंधे
मुँह एक मृत बालक।
खत्म होगी मुठ्ठी की रेत
हथेली पर चिपके कणों के
मानिंद
पसीने में लिथडा
टिमकता होगा कण-कण भर
इश्क
होगा कनस्तर में बचे आखरी
मुठ्ठी भर आटे की तरह
पता नहीं कहाँ-कहाँ
कैसे-कैसे लोगों के बीच
धडकता, उदात्त, बेदावा यह इश्क
अंधेरों और तिरस्कृत
अजनबियत में
साँस ले लेगा
अचरज में डालता फिरेगा
फिर-फिर।
अबकी बार
जन जन की है यही पुकार,
अबकी बार,
एक चाल,
एक जुगाली,
एक लीद,
एक उबासी,
सिर्फ और सिर्फ एक कतार,
सिर्फ और सिर्फ एक खामोशी,
एक खुरों की आवाज,
एक से गले में लटकते,
लकडी के बम्बे और घण्टो की आवाज,
हमेशा,
हर बार,
बार-बार।
तिक्त मैदानों को
सूखे बेजान जंगलों को
राख की तरह ठण्डी
रंगहीन चरागाहों को
बस उसी जगह तक,
जहाँ होते आये जमा,
निरुद्देश्य बस पीछा-पीछी,
बस वहीं तक,
बस वहीं तक,
अबकी बार,
बार बार,
जन जन की है यही पुकार।
फूटते हों तो फूटें,
हजार हजार रास्ते,
पर उन पर से न गुजरने की चाहतों में,
देह पर मक्खी और कीडे,
और उनको चुगने मंडराते कौवों की,
एकमात्र चिंता से,
ऐतिहासिक बेखयाली में,
सिर डुला,
सींग झिडक,
धूल फुंफकार,
पूंछ पटक,
लत्ती घुमा,
अबकी बार....।
एक सा मौन,
एक से सपाट चेहरे,
एक से अर्थहीन सपने,
एक सी मौत,
एक सी मुस्कान,
एक से झुके सिर,
कतारबद्ध एक से,
कहीं बहुत पास गढी जा रही,
बेहद नई भाषा के दौर में,
खाज खुजली,
अचीन्हे की तिक्तता सा,
यह बार बार,
हर बार,
गुजरना तमाम लोगों का,
हो जाना जन जन की यही पुकार।
आँखों पर बंधी है पट्टी,
कपडे के गंदे थैले में कैद हैं थन,
भौंकता है कुत्ता पीछे-पीछे,
लीद,
पेशाब और कीचड से सना रास्ता,
धूल और बेनूरी में पसरा,
शताब्दियों से यथावत,
क्या हुआ अगर अब भी है,
अबकी बार......।
खींच दे,
गर कोई नया रास्ता,
या लिख ही दे एक इबारत साफ सुथरी,
आकाश पर,
मारा जायेगा
गडरिये की गोलियों से।
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