गौतम राजरिशी की आठ ग़ज़लें
गौतम राजरिशी अब किसी परिचय का मुहताज नहीं। एक ग़ज़ल संकलन आ चुका है उसका - पाल ले एक रोग नादां,' कहानियाँ छपी हैं और इन दिनों कथादेश मे उसकी डायरी बड़े चाव से पढ़ी जा रही है। मेरे इसरार पर उसने असुविधा के लिए ग़ज़लें भेजी हैं, पढ़िये और उसकी कहाँ तथा विविधता का आनंद लीजिये।
(एक)
देहरी पर सरकार पधारे, ऐसा काहे हौ ?
अब तो इलक्शन खतम हुआ रे...ऐसा काहे हौ ?
अब तो इलक्शन खतम हुआ रे...ऐसा काहे हौ ?
हमरी खेती पानी तरसै और उधर तुमरे
लॉन में नाचै हैं फव्वारे...ऐसा काहे हौ ?
लॉन में नाचै हैं फव्वारे...ऐसा काहे हौ ?
मुन्ना टाय पहिन कर जाये रिक्शा पर इस्कूल
मुन्नी अँगना-द्वार बुहारे...ऐसा काहे हौ ?
मुन्नी अँगना-द्वार बुहारे...ऐसा काहे हौ ?
हुक-हुक करके दादा अब्बौ जिंदा लेटे हैं
कक्का गुस्से में फुफकारे...ऐसा काहे हौ ?
कक्का गुस्से में फुफकारे...ऐसा काहे हौ ?
कबिता-कबिता कह के सब ही किस्सा बाँचे जाय
बिला गये हैं कबियन सारे...ऐसा काहे हौ ?
बिला गये हैं कबियन सारे...ऐसा काहे हौ ?
उनकी कोठी पर हरदम्मे सूरज चमके है
अपनी धूप पे बदरा कारे...ऐसा काहे हौ ?
अपनी धूप पे बदरा कारे...ऐसा काहे हौ ?
अँग्रेजी की पोथी लिक्खै वाला हौ लखपति
हिन्दी वाले सब बेचारे...ऐसा काहे हौ ?
हिन्दी वाले सब बेचारे...ऐसा काहे हौ ?
(दो)
तस्वुर, ख़्वाब, उल्फ़त या मुहब्बत से सजा मुझको
मेरे अल्फ़ाज़ को तासीर दे, आ गुनगुना मुझको
जुनूं सर से फिसल कर दिल में जाने कब उतर आया
कि या अब तू है या कोई नहीं तेरे सिवा मुझको
बिना तेरे अरे ओ देख, हूँ टूटा हुआ कैसा
मुझे आ जोड़ दे वापस, गले आकर लगा मुझको
ये जो बिस्तर की सिलवट पर है कोई नाम खुरचा सा
तुम्हारी रात है मुझको, तुम्हारा रतजगा मुझको
निशां बाक़ी हैं जितने भी बदन पर लम्स के तेरे
अगर उनको मिटाना है तो ऐसा कर, मिटा मुझको
कोई दरिया मेरी जानिब बढ़ा आता है हर लम्हा
जो अब आओगे तो पाओगे तुम डूबा हुआ मुझको
कहूँ क्या और तुझको मैं, लिखूँ क्या और तुझको मैं
तू मेरी रूह सी मुझको, तू मेरा जिस्म सा मुझको
(तीन)
उसकी मुश्किल...तो इसकी आसानी हूँ
जाने किन-किन आँखों की हैरानी हूँ
गले लिपट कर नदी समन्दर से बोली
चख कर देखो कितना मीठा पानी हूँ
भीड़ भरा हिल इस्टेशन है दिल तेरा
मैप देखता मैं कोई सैलानी हूँ
वो है मेरी करवट-करवट वाली रात
मैं उसकी सिलवट वाली पेशानी हूँ
उम्र वहीं ठिठकी है, जब वो बोली थी
तुझ पर मरती हूँ...तेरी दीवानी हूँ
हुस्न ये समझे वो तो ख़ुदा की नेमत है
इश्क़ कहे...मैं मौला की नादानी हूँ
जादू कोई मेल कराये...तो कुछ हो
वो है ग़ज़ल-सी, मैं मिसरा बेमानी हूँ
(चार)
ये इशारे और हैं, यह मुँह-ज़ुबानी और है
दर हक़ीकत मेरी-तेरी तो कहानी और है
अश्क़, आहें, बेबसी, वहशत, ख़ुमारी...कुछ नहीं
और है, यारो !
मुहब्बत की निशानी और है
तुमने बस देखा वही पलकों से जो टपका अभी
जो न छलका, जान मेरी, वो तो पानी और है
पास बैठे इक ज़रा, फिर गाल छू कर चल दिए
ये सितम कुछ और है, ये मेहरबानी और है
अपनी वुसअत पर समन्दर चाहे इतरा ले, मगर
पूछ लो साहिल से, दरिया की रवानी और है
हाँ ये माना जा चुका वो, अब ख़िजां का वक़्त है
आयेगा वो आयेगा...इक रुत सुहानी और है
नाक पर मोटा सा चश्मा, कुछ सफ़ेदी बाल में
हाँ मगर तस्वीर अलबम में पुरानी और है
इक चमेली से महकता है तो घर सारा, मगर
रोज़ ख़्वाबों में सुलगती रातरानी और है
(पाँच)
वो एक ख्व़ाब कहीं जो छुपा-वुपा सा था
निकल के आया तो कैसा खिला-विला सा था
नहीं रहा वो मेरा तो गिला नहीं कुछ भी
कि जब तलक था मेरा...मैं ख़ुदा-वुदा सा था
बदन में फैल गया तुझ नज़र के पड़ते ही
वो एक दर्द जो पहले दबा-वबा सा था
‘जवाब ख़त का कहाँ है ?’ ये सुन के बोला वो
लिखा तो उस पे तेरा ही पता-वता सा था
तमाम शिकवे मेरे उन तलक जो पहुँचे तो
ख़बर मिली कि उन्हें भी गिला-विला सा था
न पूछ हाल मेरे दिल का अब के बारिश में
है बरसा टूट के...कब से भरा-वरा सा था
तुम्हारे लम्स की लौ से है जगमगाया फिर
चराग़ जिस्म का जो कुछ बुझा-वुझा सा था
बस इतनी सी ही ख़ुशी में ये उम्र गुज़रेगी
कि जाते-जाते गले वो लगा-वगा सा था
(छः)
कहता रहता है वो मुझसे क़िस्सा ठहरा-ठहरा सा
ख्व़ाब-ग़ज़ीदा आँखों में इक चेहरा ठहरा-ठहरा सा
जब से मुझको देखा तुमने, तब से ऐसा होता है
देखे मुझे हर कोई आता-जाता ठहरा-ठहरा सा
धरती थोड़ी डोल रही थी, काँप रहा था अम्बर भी
मेरे होठों पर था उसका बोसा ठहरा-ठहरा सा
हाल मेरा उसने तो रस्मन पूछा था, लेकिन तब से
हाल है ऐसा...मैं हूँ चलता-फिरता ठहरा-ठहरा सा
छूने दे ! उफ़...छू लेने दे ! इन हाथों को तेरा बदन
छोड़ हया...है आलम तन्हाई का ठहरा-ठहरा सा
दिन की बोझिल पलकों पर क्यूँ सुबह से आकर बैठा है
बीती रात का वस्ल में लिपटा टुकड़ा ठहरा-ठहरा सा
आधी शब थी, बल्ब बुझा था, बेड पर थीं कुछ तस्वीरें
खाली थी सिगरेट की डिब्बी...धुआँ था ठहरा-ठहरा सा
शोर मचाते इन मिसरों में गौर से देखो...पाओगे
माज़ी का इक गुमसुम-गुमसुम लम्हा ठहरा-ठहरा सा
(सात)
हाँ,
न, ये,
वो में फिर से उलझी सी
उसकी बातें सदा अधूरी सी
चाँद जल कर पिघल गया थोड़ा
चाँदनी कल ज़रा थी सुलगी सी
शोर सीने का सुन के देखा तो
इक उदासी खड़ी थी हँसती सी
रात के जिस्म पर ख़राशें हैं
नींद ख़्वाबों तले थी कुचली सी
हुस्न का ख़ौफ़ इस कदर ठहरा
इश्क़ की धड़कनें हैं सहमी सी
तेरी ख़ातिर, फ़क़त तेरी ख़ातिर
उम्र कब से खड़ी है ठिठकी सी
कौन आया है बारिशों सा यूँ
एक ख़ूश्बू उठी है सौंधी सी
खिल गया हूँ कि एक लड़की है
जेह्न में उड़ती फिरती तितली सी
(आठ)
चलो,
ज़िद है तुम्हारी फिर, तो लो मेरा पता लिक्खो !
गली दीवाने की औ' नाम...वो...हाँ ! सरफिरा लिक्खो !
उदासी के ही क़िस्सों को रक़म करने से क्या हासिल
अब आँखों बाज़ भी आओ न सब दिल का कहा लिक्खो !
मैं आऊँगा ! बदन पर आँधियाँ ओढ़े भी आऊँगा !
सुनो मंज़िल मेरी तुम तो हवा पर रास्ता लिक्खो !
मुहब्बत बोर करती है ? ...तो आओ गेम इक खेलें !
इधर मैं अक्स लिखता हूँ, उधर तुम आईना लिक्खो !
दहकता है, सुलगता है, ये सूरज रोज़ जलता है
अबे ओ आस्माँ ! इसको कभी तो चाँद सा लिक्खो
तुम्हारे शोर की ग़ज़लें तुम्हारी चीख़ती नज़्में
अरी ओ महफ़िलो ! इक गीत अब तन्हाई का लिक्खो
ये मोबाइल के मैसेजों से मेरा जी नहीं भरता
मेरी जानाँ ! कभी एकाध ख़त ख़ुशबू भरा लिक्खो
वही चलना हवाओं का, वही बुझना चराग़ों का
बराये मेह्रबानी, शायरो ! कुछ तो नया लिक्खो
टिप्पणियाँ
आपकी फेसबुक पर पोस्ट की गई ताज़ा ग़ज़ल पढ़ी, सच मज़ा आ गया।
दुष्यंत जी के शेर का स्मरण हो आया
"तू किसी रेल सी गुज़रती है,
में किसी पुल सा थरथराता हूँ"
क्या मज़े का शेर लिखा है, आपने....
"भीड़ भरा हिल इस्टेशन है दिल तेरा,
मैप देखता में कोई सैलानी हूँ।"
मेरा प्रणाम स्वीकारें।
(आपसे कुछ पल की मुलाक़ात हुई थी, 2008 दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में, जहाँ यूनिकवि प्रतियोगिता (हिन्दयुग्म द्वारा) में आप आये थे (मैं भी अपने पिताजी श्री मुकेश कुमार तिवारी जी के साथ उपस्थित था)।
तब साहित्य में डूबा नहीं था, अब निकल नहीं पाता हूँ।
सादर,
अंशुल तिवारी।