अमित उपमन्यु की दो कविताएँ
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अमित की कविताएँ आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं। भीड़ से दूर रहकर बहुत कम लिखने और कविता से बाहर दूर दूर तक भाषा और विषय की तलाश में भटकने वाले अमित की कविताएं एक सघन प्रेक्षक की कविताएं हैं जिनमें अपने समय से एक बहुत आत्मीय संवाद संभव होता है।
खोये हुए
हाथ से डोर छूटते ही
गुब्बारे चल देते हैं अपनी यात्रा पर
अनंत की ओर...
मैं देखता रहता हूँ उनको बढ़ता हुआ
मेरी विस्मृति की ओर
कुछ शब्द समंदर में बहायी गयी बोतलबंद पहचानों की तरह
धीरे-धीरे ज़बानों से दूर चले जाते हैं.
आखिरी बचे कुछ सौ लोगों के साथ
एक भाषा चुपचाप बैठी घूरती रहती है
अपनी कुछ सौ कदम दूर खड़ी मौत को.
टी.बी. की डूबती खांसी,
कैंसर के बुझते चेहरे भी
किसी क्रॉस-वर्ड पहेली की तरह
बस एक तारीख की ओर इशारा करते हैं
पर कई लोग बस यूँ हीं कहीं चले जाते हैं एकदम
और फिर खंज़र की तरह कलेजे में बार-बार उतरते हैं
उनकी नेम-प्लेट के कोने
उनके फोन-नंबर के सारे विषम अंक
और फोटो में उनकी खिलखिलाती आँखें
जो बच्चे निकले थे सुबह
स्कूल या खेल के मैदान के लिए
अगर वे लौटते नहीं गोधूली तक भी
उसके बाद भी नहीं
कभी भी नहीं
तो उन घरों में क्षितिज पर
ही टंगा रहता है सूरज हमेशा के लिए
एक पवित्र सवालिया निशान
की तरह.
टूटते सितारों से भरी आकाशगंगा के
तर्पण
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ श्रीमद्भगवद्गीता
२.२० ॥
घनघोर
बारिश में सुदेश अंकल घर आये
शर्ट बदल
अपना भीगा कुर्ता छोड़ गए जिस शाम उनकी हत्या हुई
उनकी देह
में जहाँ-जहाँ गोलियां मारी गयीं कुर्ते में वहां दाग उभर आये
वह मेरे सर
पर हाथ फेरा करते जो केवड़े सा महकता था
केवड़ा रक्त
को मिला
कुर्ता अग्नि
में जला
अख़बार की
खबर में उतनी ही आंच थी जितनी चिता में
दाग फिर भी
गहराते गए,
गंध तेज़ होती
गयी
गीता के
श्लोक गूंज रहे हैं उनकी लहूलुहान बोली में अनवरत
हे कृष्ण...
उन्हें
शांति दो!
सर्द रातों
में जब बुझ जाते हैं सारे द्वारदीप मेरी आत्मा धधकती है
भादों भर
गिरते हैं संसार भर के झरने सीने में मैं बुलबुले में सिमट जाता हूँ
चींटियों
का झुण्ड अब भी वहीँ बांबी बना रहा है जहाँ कुचला गया था बचपन में
हलचल बाकी
है उन फिसले हुए अण्डों में
वह गिलहरी
अब भी आती है कूलर के पंखों के बीच ठीक उसी जगह
जिसके नीचे
गंदले पानी में उसकी फूली हुई लाश तैर रही है
अब मैं
कूलर चलाने से पहले झाँक लेता हूँ... वह झट से
बारहमासी के गमले पर चढ़ जाती है
वह आत्मा
जो अजर और अमर है
सपनों में आती
रहेगी सदा सर्वदा के लिए
न छेद पाती
है चीत्कार न भस्मती है ह्रदय की अग्नि
भटकती है मन
की भूली कोठरी में अपरिमित यातना की तरह
गुनगुनाती
है अँधेरा भर फुसफुसाती आवाज़ में लगातार -
“राम नाम
सत्य है! सत्य बोलो मुक्ति है!”
हे राम...
उसे
विश्राम दो
एक
ब्रह्माण्ड है अपार जिसमें है छोटी सी पृथ्वी
पृथ्वी पर
एक घर जहाँ मैं रहता हूँ
मेरे मन
में एक मन है मैं उस मन में घर बना रहा हूँ
घर में शामिल
एक ब्रह्माण्ड
ब्रह्माण्ड
में एक और पृथ्वी
उस पृथ्वी
पर बेघर भटक रहा हूँ मैं
जो कुत्ते
खाते हैं घर की पहली रोटियां उनकी कुचली लाशों से अटे पड़े हैं राष्ट्रीय राजमार्ग
पितृपक्ष
का तर्पण भोगने वाले हज़ारों कौवों की मृत चादर फैली है खेत-खलिहानों पर
वे सब पशु,
पक्षी, सरीसृप जिनके नहीं कुल, वंश और पीढ़ियाँ
नहीं बाकी
हैं जिनके अवशेष गंगा तक लाने
मैं
समर्पित करता हूँ उन्हें अपने समस्त पुण्य, श्राद्ध और संवेदनाएं
हे माँ
गंगा...
उन्हें मुक्ति दो!
13 जून की
तपती दुपहरी में लिखे अल्हड़ प्रेमपत्र मैनें भेजे उस पते पर
जो 25
दिसंबर को वीरान हो चुका था
वे मृत चूड़ियाँ,
पायल, कंगन, मुस्कान और खिलखिलाहटें
खनकते
रहेंगे लेटरबॉक्स में घुटती पीली पड़ती चिट्ठी में
चिट्ठी
घुटती रहेगी मेरी स्मृतियों में, नाकाम; अपनी गति को मिलने में
स्मृतियाँ!...
आह!
घुटना ही हम
सबकी गति है
हासिल नहीं
है हमें कोई और गति, कोई और मृत्यु
हे परमपिता
परमेश्वर...
हम सबको मोक्ष
दो!
अव्यक्तोsक्षर
इत्युक्तस्त्माहुः परमां गतिम् |
यं प्राप्य
न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || श्रीमद्भगवद्गीता ८.२१ ॥
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बंबई
और ग्वालियर के बीच आवाजाही कर रहे अमित फिल्म निर्माण से जुड़े हैं। उनसे amit.reign.of.music@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
टिप्पणियाँ
उसके बाद भी नहीं / कभी भी नहीं / तो उन घरों में क्षितिज पर ही टंगा रहता है सूरज हमेशा के लिए / एक पवित्र सवालिया निशान की तरह...... बहुत खूब.
जैसी उक्ति के सन्दर्भ में तुम्हारी कविताओं में मुझे प्रत्यय की तलाश, उसका होना और उसके दायरे में जीवन का अपनी सम्पूर्णता में होना, जो कि नहीं है, उसकी फ़िक़्र और छीजते जाने की पीड़ा नज़र आती है।
जितना समझ पाया । समर्थ अभिव्यक्ति