मराम अल-मासिरी की कविताएं



असुविधा के स्त्री कविता माह में इस बार मराम अल मासिरी की कविताएं । वह सीरिया की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री हैं, फ्रांस में आत्मनिर्वासित । उनकी कविताओं का हिन्दी में पहला संकलन "मांस, प्रेम और स्वप्न" के नाम से जल्द ही दखल प्रकाशन से आ रहा है । अनुवाद मैंने, देवेश ने और मनोज पटेल ने किए हैं । आज सीरिया जब फिर एक बार बमों की जद में है और बच्चों की लाशें बिखेर जाने कौन सा लक्ष्य हासिल करना चाहती हैं ये सत्तायेँ तो मराम की कविताएँ सिर्फ़ भावुक नहीं करतीं बल्कि अपने मुल्क के किसी ऐसे भविष्य की संभावनाओं के खिलाफ लड़ने की ताक़त भी देती हैं।    

पेंटिंग सीरिया के ही कलाकार तम्माम अज़्ज़ाम की हैं।    


अशोक कुमार पाण्डेय के अनुवाद 

(एक)

सीरिया के पहाड़ों और मैदानों में
और रिफ्यूजी कैम्पों में
वह आई निर्वस्त्र.
पैर कीचड़ में सने हुए
हाथ ठण्ड से फटे हुए
लेकिन वह आगे बढ़ती रही.

वह चलती रही
उसके बच्चे झूल रहे थे उसकी बाहों में
जब वह भाग रही थी नीचे गिर गए वे
कष्ट से रो पड़ी वह
लेकिन आगे बढ़ती रही.
उसके पाँव टूट गए
लेकिन वह आगे बढ़ती रही
उन्होंने गर्दन रेत दी उसकी
लेकिन वह गाती रही

एक बलत्कृत औरत के
सीरिया की जेल में जन्में बेटे ने कहा

मुझे एक कहानी सुनाओ माँ.


(दो)

मुलाक़ाती ने कहा –

एक समय की बात है
एक बच्चा अपनी माँ के साथ
खिड़की वाले घर में रहता था
जिससे बाहर की एक खामोश सड़क दिखाई देती थी

बच्चे ने टोका-
खिड़की क्या होती है?

यह दीवार में खुलती है
जिससे धूप भीतर आती है
और कभी कभी इसकी चौखट को
चिड़ियाँ स्पर्श करतीं हैं

बच्चे ने टोका-
चिड़ियाँ क्या होतीं हैं?

तो किस्सागो ने एक पेन लिया
और दीवार पर
एक खिड़की
और एक दो पंखों वाले बच्चे का चित्र बनाया.


क़बूल करती हूँ, उदास हूँ मैं

बहुत लम्बे वक्फे से नहीं खोलीं मैंने अपने रूह की खिड़कियाँ
मानती हूँ, उदास हूँ मैं
एक माँ की तरह जिसका बेटा गिरफ़्तार है
शहीद की बेवा की तरह
और एक नन्हें यतीम की तरह

मानती हूँ मैं कि मैं उदास हूँ  
जब वे हमारे दुःख से इंकार करते हैं
और जबरन हमें मस्ती और ताक़त के लिए
शतरंज की बिसात बनने पर मज़बूर करते हैं.

मानती हूँ कि उदास हूँ मैं
और मैं नहीं चाहती कुछ भी और
बस रोकना चाहती हूँ
लहू की इस नदी को


(चार)

पढ़ो मेरी बच्ची अच्छे से
तुम्हारे देश को नवनिर्माण के लिए
 ज़रूरत पड़ेगी किसी की

कॉफ़ी चाहिये तुम्हें?
चाय चाहिए?
पास हो जाओगी तुम, निश्चिन्त हूँ मैं
तुम्हें मिलेगा ही प्रमाणपत्र
कितनी ख़ुश होऊंगी मैं
एक बड़ी पार्टी दूँगी
इंजीनियरिंग का पेशा निश्चित रूप से एक इज्ज़तदार पेशा है

वह लड़की गई यूनिवर्सिटी में
अपने हाथों में एक डिग्री और एक सपना थामे
लौटा तो माँ की गोद में
उसके जूतों का एक टुकड़ा 
---------------

मराम अल-मासिरी


देवेश के अनुवाद 


नग्न आती है वह, आज़ादी

आज़ादी आती है नग्न
सीरिया के पर्वतशिखरों तक,
मैदानों में
और शरणार्थी शिविरों में.
उसके पाँव कीचड़ में डूबे हुए
ठण्ड और अत्याचार सहते हाथों में पड़ जाते हैं आबले
मग़र वह आगे बढ़ती जाती है

वह आती है
और उसकी गति से
बाहों से चिपके उसके बच्चे गिरते जाते हैं ...मरते जाते हैं
रोती है, यातनाएँ झेलती है
मग़र वह आगे बढ़ती जाती है

वे उसके पाँव तोड़ देते हैं
मग़र वह आगे बढ़ती जाती है
उसकी गर्दन मरोड़ दी जाती है
मगर वह गाती ही रहती है

उसके वृक्ष काट दिए जाते हैं
उसके पुष्प रौंद डाले जाते हैं 
उसकी नदियाँ उपराती हैं ख़ून से
उसके वसंत का क़त्ल कर दिया जाता है   
और अब ग्रीष्म दावा करता है उदासी का
मग़र वह आगे बढ़ती जाती है...



गाज़ा

वहाँ पर, हर रोज़
एक आदमी मारा जाता है;
एक औरत से उसका नाता होता है,
जो दुनिया की दूसरी माँओं जैसी ही होती है,
जो अपने बच्चे को यूँ देखती है
जैसे वही हो सबसे प्यारा और खूबसूरत,
एक ऐसा बच्चा, जो न बड़ा हो पाता है न ही बूढ़ा,
और
खून से सना
ढोया जाता है ताबूत में.

मेरा गर्भाशय जो संभालता है जीवन
चीर दिया गया है
मेरे पिताओं, मेरे भाइयों, मेरे बेटों की लाशों की तरह,
उत्सव के दिनों में
देवदार के वृक्षों के नीचे
कोई उपस्थित नहीं होता, लेकिन
उनके शव मौत के तोहफों की तरह तह किये जाते हैं.

लैम्पों से रौशन गलियों वाली इस दुनिया से अलग,
मेरी गलियाँ
जलती हैं बमों से.
नलों में पानी की जगह
बहता है
मेरे बच्चों का लहू.

विनाश, और घनघोर विनाश         
चीखें, चीखें
जो किसी पाक मौके पर जन्नत के कानों तक नहीं पहुँचती
न पैगम्बरों की आँखों तक ही पहुँच पाती हैं.

मेरे घर के चूहे तक भूखे हैं,
प्यासे हैं.
मैं मर रही हूँ,
मर रही हूँ,
और कोई परवाह नहीं करता।।


 (पाँच)

मेरे लिए जख्म है एक सीरिया जिससे लहू टपकता है
मेरी माँ है यह मृत्युशैया पर पड़ी
मेरा बचपन है यह जिसका क़त्ल कर दिया गया  
मेरा दुह्स्वप्न है यह और मेरी उम्मीद
मेरी चिंता है यह और मेरा जागरण

मेरे लिए अनाथ बच्चा है सीरिया जो परित्यक्त है
एक महिला है जिसका हर रात एक बूढ़ा आदमखोर बलात्कार करता है
वह फँस गयी है 
कर दी गयी है अपवित्र
और मजबूर है विवाह करने को

सीरिया मेरे लिए यातना सहती मनुष्यता है
एक खूबसूरत महिला है
जो गाती है आज़ादी के गीत
फाड़ दिया जाता है जिसका गला

मेरे लिए इन्द्रधनुष है एक सीरिया
जो आँधी और तूफान के बाद
ले आएगा प्रकाश 


टिप्पणियाँ

kuldeep thakur ने कहा…
जय मां हाटेशवरी....
हर्ष हो रहा है....आप को ये सूचित करते हुए.....
दिनांक 27/02/2018 को.....
आप की रचना का लिंक होगा.....
पांच लिंकों का आनंद
पर......
आप भी यहां सादर आमंत्रित है.....

Firoj khan ने कहा…
शुक्रिया अनुवाद के लिए और ये कविताएं पढ़वाने के लिए...
Firoj khan ने कहा…
शुक्रिया अनुवाद के लिए और ये कविताएं पढ़वाने के लिए...
रेणु ने कहा…
अगर मैं इन कवियों के लिए वाह कहूँ तो ये इंसानियत के प्रति नाइंसाफी होगी |ये सीरिया की खूँनी फिजाओं के जख्मी दस्तावेज हैंजिन्हें पढ़कर प्रतिक्रिया नहीं मिल पा रही |इंसानी ज़ज्बात एक जैसे होते हैं -- वही आंसूं ,व्ही आहें और वही अपनों को को खोने का दारुण दुःख!! अमानवीयता से भरे लोगों की लिप्साएं भी एक जैसी होती है उन्हें भी क्या चाहिए ? सत्ता या ये रक्तपात ?????? उन्हें ना किसी के आसूं दिखते हैं ना किसी का खून | ये कवितायेँ रक्त सने चित्र हैं जिन्हें भगवान् ना करे किसी राष्ट्र को देखना पड़े | प्रिय देवेश व मनोज आप दोनों का बहुत आभार ये दिखाने के लिए कि क हर इन्सान की चीत्कार एक जैसी होती है जो किसी भी बाशा या भूखंड में कैद नहीं हो सकती -- उसे सब पहचान लेते हैं | सस्नेह ---
रेणु ने कहा…
अगर मैं इन कवियों के लिए वाह कहूँ तो ये इंसानियत के प्रति नाइंसाफी होगी |ये सीरिया की खूँनी फिजाओं के जख्मी दस्तावेज हैंजिन्हें पढ़कर प्रतिक्रिया नहीं मिल पा रही |इंसानी ज़ज्बात एक जैसे होते हैं -- वही आंसूं ,व्ही आहें और वही अपनों को को खोने का दारुण दुःख!! अमानवीयता से भरे लोगों की लिप्साएं भी एक जैसी होती है उन्हें भी क्या चाहिए ? सत्ता या ये रक्तपात ?????? उन्हें ना किसी के आसूं दिखते हैं ना किसी का खून | ये कवितायेँ रक्त सने चित्र हैं जिन्हें भगवान् ना करे किसी राष्ट्र को देखना पड़े | प्रिय देवेश व मनोज आप दोनों का बहुत आभार ये दिखाने के लिए कि क हर इन्सान की चीत्कार एक जैसी होती है जो किसी भी बाशा या भूखंड में कैद नहीं हो सकती -- उसे सब पहचान लेते हैं | सस्नेह ---
बेनामी ने कहा…
दुख और अवसाद होता है। जिस प्रकार सीरिया के हालातों पर ये कविताएं लिखी गयी हैं और वहां से जो भी समाचार आ रहे हैं बहुत अफसोस होता है।
Meena sharma ने कहा…
इन कविताओं को पढ़कर अमृता प्रीतम जी की वे कविताएँ याद आ गईं जो उन्होंने भारत के विभाजन के समय मची हिंसा, मारकाट और उस दौरान स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों पर लिखीं थीं। देश कोई भी हो, हिंसा से कत्ल तो इंसानियत का ही होता है।
Abhi ने कहा…
दर्द की खूनी तस्वीर पेश कर रहे हैं शब्द। बहुत कुछ पढ़ने को मिला अनुवाद के बहाने।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ