ध्वंस के इस काल में : मानवता के पक्ष में


ये कविताएं मैंने यों ही फेसबुक पर ब्राउज़ करते चुन ली हैं। सुधिजन कहते हैं कि घटनाओं पर कविताएं नहीं लिखनी चाहिए। लेकिन कवि जिस समय सबसे अधिक उद्वेलित होता है उसके पास कोई और चारा होता है? इनका आक्रोश हो सकता है भाषा और शिल्प के सुंदर कपड़ों के बगैर चिढ़, उदासी और निराशा के फटे-पुराने कपड़ों में बाहर निकल आया हो। 

पर जब सब इतना असुंदर है तो यह और क्या हो सकता था? जितेंद्र श्रीवास्तव से उधार लूँ अभिव्यक्ति तो यह "असुंदर-सुंदर" है। 


  • सुमन केशरी


बेटी
इतना डर है बिखरा हुआ कि
मन में आता है
तुम्हें बीज के अंतर्मन में
छिपे अंकुर-सा
अपने भीतर ही पालूँ
तब तक 
जब तक कि तुम पूर्ण पेड़ न हो जाओ 
पर फिर लगता है कि क्या तब तुम 
झेल सकोगी
धूप के ताए
हवा के थपेड़े
बिजली के गर्जन-तर्जन को
क्या जमा सकोगी अपने पाँव 
पृथ्वी पर मजबूती से..
डर डर कर भी
बिटिया
इतना तो जान चुकी हूँ
अपने दम पर कि
तुझे बीज की तरह
उगना पड़ेगा
अपने बूते ही
अपने हिस्से की धूप, हवा और नमी पर हक जमाते...



  • रमेश प्रजापति


प्यारी बेटियो!

प्यारी बेटियो!
अब तुमको आसान नही रह गया बचना
भेड़ियों, कुत्तों और भालुओं
गिद्धों और कव्वों से
इन आंखों के सामने ही
नोंच डालते हैं नाज़ुक अंग
लपलपाती जीभ और आंखों की क्रूरता के बीच
कितना बेमानी लगता है
इस बेरहम समय के माथे पर चिपका *बेटी बचाओ* स्लोगन
मां ,बाप,भाई
जब भी चाहते हैं बचाना
इंशानियत को तार-तार करते दरिंदों से
हाथ धोना पड़ता है उन्हें
तब अपने ही जीवन से
कहीं कुछ भी सुरक्षित नहीं सिवाय आदमखोर आदमियों के
जिन्हें रक्षक होना था
वहीं तेरे जीवन और अस्मिता के भक्षक
और लुटेरे बने हैं
आगे नाथ न पीछे पगाह की तरह
बेपरवाह घूम रहे हैं
जो चाहते हैं बक देते हैं
इस बदलती मर्दवादी मानसिक और सामाजिक परिदृश्य के बीच
तुम्हारा पैदा होना ही सबसे बड़ी त्रासदी है बेटियो!
जिन्हें बोलना चाहिए वे सब गूंगे-बहरे बने बैठे हैं
हम कितना चाहे ढोल पीटे कि तुम
पुरुष वर्चस्व को तोड़कर
उड़ो मुक्त गगन में
पर शातिर बाजों के ख़ूनी पंजे
तुम्हारे पंखों को नोचने पर हरदम उतारू रहते हैं
इस आब-ओ-हवा में तुम्हारे सांस लेने से
आत्मग्लानि से भरा इतना डर गया हूँ कि
कायरता की सब हदें पार कर चुका हूं बेटी!
एक कवि कर भी क्या सकता है सिर्फ,
भाषा बदलने के
विचार बदलने के
शब्द बदलने के
प्रतिरोध करने के
परन्तु कविता से दुनिया कतई नहीं बदल सकता है
तुम्हारे पैदा होने के डर से ही
यह धरती बेबस और लाचार बनी कांप रही है
तुम्हारे कोमल कदमों की थाप से हवा हांफ रही है
पेड़ों का कलेजा थरथरा रहा है
आसमान का चेहरा फीका पड़ रहा है
मां की कोख में हीं नहीं
दरिंदों से भरी
इस धरती के किसी भी कोने में
तुम सुरक्षित नहीं हो बेटी!


  • प्रदीपिका सारस्वत

ध्वंस के इस काल में 

हथियार उठा लो, लड़कियों
पैने कर लो 
दांत और नाखून
इज़्ज़त और आबरू नाम का महीन रेशम
तुम्हें कमज़ोर कर देने की साज़िश भर है
मत देखो उनके चेहरे
जो तुम्हें सिखाते हैं
कि शर्म तुम्हारा गहना है

तुम्हें सीखना होगा
कि तुम्हारी कोख, तुम्हारी ताकत है
मत पालने दो उसे, किसी की कमज़ोरी
नाज़ुक देह पर जब तक इतराती रहोगी
तुम बनी रहोगी सजावटी सामान, खुली तिजोरी

उठो, निकलो, देखो, चुनो और खत्म कर दो सब कुछ
जो दूर करता है तुम्हें, तुम्हारे होने से
काट दो सब खूबसूरत जाल

ध्वंस के इस काल में 
तुम बनी रहीं कोमलांगी
तो उसके दिए निशानों को 
उसके गहनों तले छुपाए
गाती रहना शोकगीत
उसकी संस्कृति के उत्सवों में 
और देखना, तुम्हारी अपनी संस्कृति की कहानी
तुम्हारे आंसू, तुम पर हंसते हुए लिखेंगे


  • मृदुला शुक्ला


एक दिन 

एक दिन जी उठेंगी
बलात्कार के बाद खुद को फूंक लेने वाली औरते
और वो भी जो भोगे जाने के बाद
लटका दी गयी थीं पेड़ों पर
उनमे भी जान पड़ जायेगी
जिन्हें भोगने के लिए तुम्हारा बल कम था
तुम्हे यकीन नहीं था खुद के अकेले पौरुष पर
तुम समूह बना कर टूटे थे
उस एक अकेली स्त्री पर
उन्हें भी जीना होगा जो मर गयी थी गिराते हुए
तुम्हारा अवैध गर्भ
शहर के किसी सरकारी अस्पताल में
कम उम्र और खून के कमी से
वे आदिवासी लडकियां
भी जी उठना चाहेंगी
जिन्हें सिर्फ इसलिए मार दिया गया
की वे चरा रही थी बकरियां
उनके हाथ में बन्दूक नहीं थी
मगर वे नक्सली करार दी गयी थी
बलात्कार के बाद
अपने वस्त्र और कौमार्य
संभालती ये स्त्रियाँ
खुद को मार लेती हैं ,अथवा मार दी जाती है
नग्न होते ही
भग्न होते ही कुंवारापन
ये औरतें जी उठेंगी समूह में
चौराहों पर चलेंगी
गर्दन झुकाए नहीं
सिर उठाये
उनकी आँखों में पानी नही
खून उत्रा हुआ होगा
आँचल वे ओढ़े ही नहीं होंगी
वे सब होंगी निर्वस्त्र
कुछ स्त्रियों के हाथ में होगा बैनर
जिस पर किसी अपराधी का चित्र नहीं
बने होंगे मानव लिंग
और सुनो
वे अपने हाथों में
मोमबत्तियां नहीं थामे होंगी
बल्कि वे संभाल कर लिए होंगी
अपने कटे हुए स्तन,क्षत विक्षत योनि
क्या तुम्हे ऐसी किसी कल्पना से सचमुच डर नहीं लगता
विकसित सभ्यता के आदिम लोगों !

  • विहाग वैभव

बलात्कार और उसके बाद
==============
कई दिनों तक लड़की रोयी, बस्ती रही उदास
कई दिनों तक बड़की भाभी सोयी उसके पास
कई दिनों तक माँ की हालत रही बेतरह पस्त
कई दिनों तक बाबा दुअरे देते रह गये गस्त
निर्णय आया लोकतंत्र में कई दिनों के बाद
बरी हो गया ये भी अन्त में कई दिनों के बाद
हवशी हैं मुसकाकर झाँकें कई दिनों के बाद
फफक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (14-04-2017) को "डा. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती" (चर्चा अंक-2940) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
http://bulletinofblog.blogspot.in/2018/04/blog-post_17.html
Alaknanda Singh ने कहा…
सही कह रहे हैं आप पांडेय जी, धवंस के इस काल में हम अपने प्रयासों को क्‍यों छोड़ें
Alaknanda Singh ने कहा…
ध्वंस के इस काल में : मानवता के पक्ष में आपने बहुत अच्‍छा लिखा है, हमें प्रयास तो करते रहने होंगे विमल चन्द्र पाण्डेय जी

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ