कुलदीप कुमार की कविताएँ


कुलदीप कुमार एक इतिहास मर्मज्ञ पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं और संगीत में उनकी गहरी रुचि से ख़ासतौर पर अंग्रेज़ी अख़बारों के पाठक बख़ूबी परिचित हैं. लेकिन यह कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने शुरुआत एक कवि के रूप में की थी और सत्तर के दशक में प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित हुई थीं. लम्बे अंतराल के बाद 'नया ज्ञानोदय' के ताज़ा अंक में आई इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि इस वक्फे में उन्होंने शायद छपना छोड़ा था लिखना नहीं. किताबें छपवाने के मामले में बेहद आलसी कुलदीप अगर अपना आलस्य त्यागते तो हमें राजनीति और संगीत पर कुछ बेहतर किताबें ही नहीं बल्कि कविताओं का भी एक शानदार संकलन पढने को मिलता. इस आग्रह के साथ नया ज्ञानोदय से ये कविताएँ साभार प्रस्तुत हैं. 





 शोकसभा 

उस पूरे कमरे में 
शोक ही शोक फैला था 
लगता था फर्श पर आंसुओं की बाढ़ 
अभी-अभी आकर गयी है 

सभी शोक प्रकट कर रहे थे 

जो गया 
उसके लिए नहीं 
जो रह गया 
उसके लिए 


जाना 

वह जो चला गया 
क्या वह 
वाकई चला गया?
उनींदी आँखों की सारी नींद पीछे छोड़कर 
गाते-गाते अचानक उठकर 
अधूरे गीत के सुर गले में भरकर 
चला गया

जाते वक़्त क्या उसने नहीं छोड़ी कोई भी खुशबू 
नहीं कीं कुछ भी बातें 
क्या कुछ भी नहीं बोला 
उन चीज़ों के बारे में 
जिन्हें वह भूलना चाहता था 
क्या वह इतना बेज़ुबान हो गया था 
जाते वक़्त

वह 
जिसके आते ही घर की दीवारें कांपने लगती थीं 
जिसके होने से 
घर का होना साबित होता था 
जो जहां था 
वहीं घर था 

लेकिन यह भी तो सच है 
कि 
अमलतास के फूल उसके कहने से नहीं खिलते थे 
उसके कहने से नहीं होती थी रात की रानी सुहागन 
न ही उसके कहने से 
कभी तारों ने अपनी दिशा बदली 

तो फिर 
वह क्या था?

वह जो चला गया 
और 
नहीं छोड़ गया अपनी खुशबू भी 

लालटेन की चिमनी के चटखने की आवाज़ करते हुए 
जब चन्द्रमा तरेड़ खाता है 
जब तारे बिलबिलाते हैं और 
चांदनी निर्लज्ज अट्टहास करती है 
तब 
दसों दिशाओं से यही सवाल गूंजता हुआ लौट कर आता है 
कौन था जो चला गया?

कोई नहीं 

बस एक ख़याल
एक स्वप्न 
एक शबीह  

मैं 

मैं एक भरा-पूरा आदमी हूँ 
कोई प्रेमपत्र नहीं 
जिसे बिना पढ़े फाड़कर फेंका जा सके
और, कान खोल कर सुन लो  
मैं कोई तर्क भी नहीं हूँ 
जिसे सुने बिना ही 
तुम काट  दो 
न ही मेरा जीवन कम्युनिस्ट पार्टी की तरह है 
जहाँ कोई भी आये और मेरी आत्मालोचना करके चला जाए 

 अंतड़ियों  से कलेजे तक आते हुए 
 विलाप की तरह 
मेरा गला नहीं घोंटा जा सकता 
मैं बीता हुआ कल नहीं 
विकल भी नहीं 

छल नहीं 
मुझे प्यार ने पछाड़ा है. 


क्षण 

हमने एक-दूसरे की ओर देखा 
और मुस्कुरा दिए 

मैं सचमुच मुस्कुराया 
तुम आदतन 


सुबह 

आँख खुली 
तो नहीं दिखा 
तुम्हारा नींद से लहूलुहान चेहरा 
नहीं सुनायी दी उठती-गिरती साँसों की चुप्पा आहट 

दोनों तकिये थे मेरे ही सिर के नीचे 
रजाई भी नहीं गिरी थी पलंग के उस पार
एक भी गायब नहीं  
पाँचों अखबार बालकनी में पड़े थे 
गले में भी नहीं चुभ रही थीं 
रात में गिलास के साथ तोड़ी हुई बातें 
रसोई में पडी थी खाली केतली उलटी 

लो  
हो ही गयी 
एक और सुबह 
तुम्हारे बिना 

प्रेम

दुपहर 

दो काले गुलाब सिहर उठे 
न जाने कितने प्रकाशवर्ष दूर से आई एक निःश्वास 
और 
चारों ओर 
एक महीन-सा जाला बन गयी 

खिंच गयी बहुत दूर तलक 
पत्थर पर गहरी लकीर 

ज्योतित हो उठी 
जनवरी की एक अँधेरी दुपहर 
जब अचानक किसी ने कहा 
"लो, कॉफी पियो"
      
तुम्हारा नाम 

होंठों पर खिला गुलाब 
आँखों पर जमा शर्मीला चुम्बन 
नीम-बेहोशी में याद आयी कोई पंक्ति 
किसी अधूरी कविता की 

किसी कभी न जिए जा सके क्षण की कचोट 
किसी याद न आने वाले अनदेखे स्वप्न का पहला दृश्य 
किसी अनजानी आहट की उत्सुक उपस्थिति 

तुम्हारा नाम 
इत्ता-सा 
और इतना कुछ...!!!

क्या कभी ले पाया तुम्हारा नाम 
ठीक वैसे 
जैसे लेना चाहता था 
कभी  कर पाया बातें 
ठीक वैसे जैसे करना चाहता था 
क्या कभी देख पायीं तुम मुझे 
जैसा मैं दिखना चाहता था 
जैसा मैं था

मरने का एक सहज तरीका 
जीने का एक कठिन सहारा
तुम्हारा नाम 
गले में अटकी एक फांस 
होंठों पर कांटे मारता एक गुलाब 
एक सांवला रंग 
फ़क़त.... 











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