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‘‘अब का लउटि के ना अइबे का रे बाबू’’ (शेष स्मृति प्रो. तुलसीराम)

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जितेन्द्र बिसारिया                                                                                                                            ओह ! तुलसी सर तो आप चले गए। एक दिन पहले ही तो ज्ञानपीठ से मेरा कहानी संग्रह अनुशंसित हुआ था। सोचा था    प्रकाशित   होने पर सबसे पहले आपको ही अपना पहला संग्रह भेंट करूँगा। ‘ समानधर्मा कौन होता है यह भवभूति को पढ़कर जाना था और ‘ मुर्दहिया   पढ़कर पाया कि हमारे समानधर्मा आप हैं । ... चंबल के बीहड़ से निकलकर साहित्य के बीहड़ में ‘ तीसरी ’ बार जब ‘ हाथी ’ कहानी लिखी और वह ‘ वागर्थ ’ के अक्टूबर 2004 के नवलेखन अंक में प्रकाति हुई , तब विमर्श और विचारधारा के   चौखटावद्ध व्यूह में अभिमन्यु की भाँति प्रहार झेलता मैं नितांत अकेला था। 2005 में जीवाजी विश्वविद्यालय से ‘‘ हिन्दी की प्रमुख दलित आत्मकथाएँ : एक विश्लेषण ’ शीर्षक से पीएच - डी शोध में स्वानुभूति और सहानुभूति के बीच दलित साहित्य का लेखक कौन हो ? इस छानबीन में ‘ उत्तर