मौन
(यह कविता कथाक्रम के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है। लखनऊ से निकलने वाली इस पत्रिका में कविता का कालम वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी देखते हैं।)
हडप्पा की लिपि की तरह
अब तक नहीं पढी जा सकी
मौन की भाषा…
पानी सा रंगहीन नहीं होता मौन
आवाज़ की तरह
इसके भी होते हैं हज़ार रंग
बही के पन्नों पर लगा अंगूठा
एकलव्य का ही नहीं होता हमेशा
आलीशान इमारतों के दरवाज़ों पर
सलाम करते हांथों में
नफ़रत का दरिया होता है अक्सर
पलता रहता है नासूर सा
घर की अभेद दीवारों के भीतर
एक औरत के सीने में
पसर जाता है शब्दों के बीच
निर्वात सा
और सोख लेता है सारा जीवनद्रव्य
उतना निःशब्द नहीं होता मौन
उतना मासूम और शालीन
जितना कि
सुनाई देता है अक्सर
हडप्पा की लिपि की तरह
अब तक नहीं पढी जा सकी
मौन की भाषा…
पानी सा रंगहीन नहीं होता मौन
आवाज़ की तरह
इसके भी होते हैं हज़ार रंग
बही के पन्नों पर लगा अंगूठा
एकलव्य का ही नहीं होता हमेशा
आलीशान इमारतों के दरवाज़ों पर
सलाम करते हांथों में
नफ़रत का दरिया होता है अक्सर
पलता रहता है नासूर सा
घर की अभेद दीवारों के भीतर
एक औरत के सीने में
पसर जाता है शब्दों के बीच
निर्वात सा
और सोख लेता है सारा जीवनद्रव्य
उतना निःशब्द नहीं होता मौन
उतना मासूम और शालीन
जितना कि
सुनाई देता है अक्सर
टिप्पणियाँ
बधाई
आवाज़ की तरह
इसके भी होते हैं हज़ार रंग
सुन्दर भाव
वीनस केसरी
main kya kahun , maun hi chha gaya hai .. aapki is poem ko padhkar .. maun ki apni abhivyakti haoti hai ...
aapke lekhan ko salaam karta hoon bhai..
vijay
निर्वात सा
और सोख लेता है सारा जीवनद्रव्य
उतना निःशब्द नहीं होता मौन
उतना मासूम और शालीन
जितना कि
सुनाई देता है अक्सर
अद्भुत ..देखिये ना .कितना मुखर है मौन !
उतना निःशब्द नहीं होता मौन
उतना मासूम और शालीन
जितना कि
सुनाई देता है अक्सर
aur kai baar ek maun hazaro shabdo ka kaam kar jata hai........
उतना मासूम और शालीन
जितना कि
सुनाई देता है अक्सर
--बहुत गहरे उतर गई यह पंक्तियाँ..जबरदस्त रचना!! बहुत बधाई.
उतना मासूम और शालीन
जितना कि
सुनाई देता है अक्सर
मौन की भी आवाज कितनी मुखर, कितनी स्पष्ट है.............लाजवाब कविता, अध्बुध ..............
bahut mukhar aur teekhi
bebaaq hoti hai maun ki bhasha
agar rah jaaye lambe arse tak
to jhakjhorne lagta hai maun
toofan ke pahle ki shaanti
aksar saabit hoti hai
maun ki bhasha.
aapki kavita padhte hi kuchh shabd man me ghumadne lage unhi ka nishkarsh hain ye panktiya.
Ashok bhai mujhe lagta hai ki is kavita ko aur bhi behtar karne ka vichar shayad aapke man me bhi hoga. baharhaal shukriya ek achchhi kavita ke liye.
aur moun ko jis tarah mukhr kiya hai wah bahut achcha hai
fazalsathiya@gmail.com
क्या लिखते हो आप...
"बही के पन्नों पर लगा अंगूठा/एकलव्य का ही नहीं होता हमेशा"
सच को कहना इतने सहज भाव से कि पढ़नेवाला एकदम से असहज हो उठे अद्भुत कला है।
maunswarn saman hai....
bahut achcha likha hai.
आवाज़ की तरह
इसके भी होते हैं हज़ार रंग
मौन की भाषा मुखर है
अगर आपकी अनुमति हो तो मैं यह कविता दूसरों को दिखाना, पढ़ाना व सुनाना चाहता हूं।