साहित्यिक महामानव मुर्दाबाद
इस बार बडे व्यथित मन से गोरख पान्डे की एक ग़ज़ल लगा रहा हूं। पता नहीं कि वजन वगैरह बराबर है या नहीं। आप इसे ग़ज़ल ना मानना चाहें तो न माने…महत्वपूर्ण इसकी अर्थवत्ता है)
रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है
ऊंचे से ऊंचे उससे भी ऊंचे और ऊंचे जो रहते हैं
उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है
गालिब-मीर कि दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है
ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं
जिनका सूरज डूबता जाये तख़्ता पलटता जाए है।
रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है
ऊंचे से ऊंचे उससे भी ऊंचे और ऊंचे जो रहते हैं
उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है
गालिब-मीर कि दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है
ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं
जिनका सूरज डूबता जाये तख़्ता पलटता जाए है।
टिप्पणियाँ
शरद कोकास
aap gorakh pande ko vyaktigat rup se jante the to unse juda koi sansmaran lagaye.
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है
beautiful..........
मेरा भी उनसे वैसे ही परिचय है जैसे आपका है।
व्यक्तिगत कैसे होता…जब तक समझने बूझने लायक हुआ वह जा चुके थे
gazal ke vyakaran ke baare me mujh jesa budhhu kuchh jaanataa nahi, mujhe to ras lene me mazaa ataa he aour aaya.
dhnyavaad
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है
!!!!!!!!!!!!!!!!!
शुक्रिया अशोक भाई