अगर सावधान नहीं हैं आप
उनके हाथों में नहीं होगा कोई हथियार
कोई गणवेश नहीं शरीर पर
शब्दों से खेलते हुए आयेंगे आपके बिल्कुल करीब
बोलते-बतियाते एकदम आपकी ही भाषा में
इतने क़रीब होंगे वे
कि पड़ोसी से अधिक मित्रता के भ्रम उपजेंगे
किसी सुबह जब अलसाई आंखों से देखेंगे उन्हें
लगेगा आईने में देख रहे हैं आप अपना ही अक्स
चुपचाप रख देंगे काँधे पर हाथ
और गहरा हो जायेगा आपका दुख
मुस्कुरायेंगे इतने अपनेपन से
कि उजली हो जायेगी आपकी हँसी
सुनते हुए कवितायें
कुछ ऐसे फैल जायेंगी उनकी आँखें कि धन्य हो जायेंगे आप
विरोध अनुपस्थित उनके शब्दकोश में
प्रशंसाओं से कर देंगे अवश
फिर चुपचाप कविताओं में रख देंगे कुछ शब्द
और आप चाह कर भी नहीं कर पायेंगे प्रतिवाद
जहाँ आपने लिखा होगा ‘हत्यारा’
वहाँ लिख देंगे ‘इंसान’
जहां आपने ‘हत्या’ लिखी होगी वहाँ ‘क़ानून’
शहीदों की जगह मृतक बैठ जायेंगे चुपचाप
और जहां प्रतिरोध लिखा होगा आपने जमाकर
वहां चुनाव लिखकर मुस्करा देंगे वे
और इस तरह धीरे-धीरे करेंगे वे आपकी काया में प्रवेश
हत्यारे आजकल सिर्फ़ हत्या नहीं करते…
टिप्पणियाँ
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सच तो यह है कि यही हो रहा है। आखिर सावधान कौन है।
एक बेहतरीन कविता...
इस कविता के भीतर से मुझे ऐसा आवाहन भी मिल रहा है कि हम ऐसा होने नहीं देंगे...जहाँ लिखना होगा हत्यारा वहां हत्यारा ही लिखा जायेगा. शहीदों कि जगह मृतक हरगिज नहीं. पत्थर पे लिखेंगे सच और कोई उसे बदल भी नहीं पायेगा...
सच को और भी पैना कर दिया
हम जानकर भी अंजान बने रहते हैं....और कोई हत्या कर देता हैं हमारे विचारो की
हमारे उन भावनाओ की जो अब सिर्फ बाज़ार के लिए बची हैं.
बहुत बहुत धन्यवाद इस कविता के लिए