महेश चंद्र पुनेठा की कविताएँ
१० मार्च १९७१ को पिथौरागढ़ के एक गाँव में जन्मे कवि महेश चन्द्र पुनेठा हिन्दी काव्यजगत में अपनी सघन संवेदना और प्रखर पक्षधरता के लिए जाने जाते हैं. उनका पहला संकलन 'भय में अतल' पिछले साल आया था और इसके लिए उन्हें प्रतिष्ठित सूत्र सम्मान से सम्मानित भी किया गया था. महेश चन्द्र पुनेठा की कविताओं में उनका पहाड़ का परिवेश तो अपनी पूरी धमक के साथ है ही, वे इस नव उदारवादी समय में मनुष्यता और बाज़ार के बीच के अंतर्विरोधों की भी बखूबी पहचान करते हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नई-पुरानी कविताएँ ...
संतोषम् परम् सुखम्
पहली-पहली बार
दुनिया बड़ी होगी एक कदम आगे
जिसके कदमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला।
किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार संुदर दुनिया का सपना
पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही ।
असंतुष्टों ने ही लाॅघे पर्वत पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया
असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म
इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही
उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाँद
और
पहिए से जहाज तक की
असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाँ ।
फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक
क्या इसीलिए कहा गया होगा
संतोषम् परम् सुखम् ।
भय अतल में
अपनी बड़ी बहन बगल में
सहमा -सहमा बैठा मासूम बच्चा
जैसे छोटी सी पूसी
ताकता ,टुकुर-टुकुर मेरी ओर
पहला दिन है उसके स्कूल का
मालूम है मुझे -
बोलूँगा अगर कड़कती
भीतर बैठ जाएगा उसके भय अतल में
निकल न पायेगा जो
आसानी से
किसी गड़े काँटे की तरह
बाधित हो जाएगी
उसकी सहज सीखने की प्रक्रिया ।
छुटकारा पाना चाहेगा स्कूल से ।
मालूम है मुझे
मेरा दांत पीसना
कठोर मुख मुद्रा बनाना
या छड़ी दिखाना
जिज्ञासु बच्चे को
मजबूर कर देगा
मनमसोस कर बैठे रहने को
घोंट देगा गला जिज्ञासाओं का
भर देगा कुंठाओं से
यातना शिविर की तरह
लगने लगेगा उसे स्कूल
होने लगेगा पेट में दर्द
स्कूल को आते समय ।
पर भूल जाता हॅू मैं
यह सारी बातें
अवतरित हो जाता है -
दुखहरन मास्टर
भीतर तक
खड़ा होता हॅू जब
पाँच अलग -अलग कक्षाओं के
सत्तर -अस्सी बच्चों के सामने ।
ताकि
एक मीठे अमरूद की तरह हो तुम
जिसका
पूरा का पूरा पेड़ उगाना चाहता हॅू
मैं अपने भीतर
तुम फैला लो अपनी जड़ें मेरी
एक-एक नस में
पत्तियाँ एक-एक अंग तक
चमकती रहें जिनमें संवेदना की ओस
तुम्हारी छाल का
हल्का गुलाबीपन छा जाए मेरी आँखों में
होठों में
तुम्हारे भीतर की लालिमा
तुम फूलो-फलो जब
मैं फैल जाऊॅ
तुम्हारी खुशबू की तरह
दुनिया के कोने-कोने तक
ताकि
तुम्हारी तरह मीठी हो जाए सारी दुनिया।
एक नई दुनिया के निर्माण की तैयारी
मेरा तेरह वर्षीय बेटा
गूँथ रहा है आटा
पहली-पहली बार
पानी उड़ेल समेट रहा है आटे को
पर नन्हीं हथेलियों में
नहीं अटा पा रहा है आटा
कोशिश में है कि समेट लँू एक बार में सारा
गीला हो आया है आटा
चिपका जा रहा है अंगुलियों के बीच भी
वह छुड़ा रहा है उसे
फिर से एक लगाने की कोशिश
अब पराद में चिपके आटे को छुड़ा रहा है
फिर पानी आवश्यकतानुसार
अब भींच ली हैं मुट्ठियाँ उसने
नन्हीं-नन्हीं मुट्ठियों के नीचे तैयार हो रहा है आटा
इस तरह उसका
समेटना
अलगाना
भींचना
बहुत मनमोहक लग रहा है
मेरे भीतर पकने लगा है एक सपना
जैसे रोटी नहीं
एक नई दुनिया के निर्माण की तैयारी कर रहा हो वह ।
कन्या पूजन
अल्ट्रा साउंड की रिपोर्ट
आने के बाद से
घर का माहौल ही बदला-बदला है
सास-ससुर के व्यवहार में
आ गई है थोड़ी नरमी
पति के मन में अतिरिक्त प्रेम
प्रसवा भी खुश है
अब के औजारांे से बच गई
उसकी कोख
और भी कारण हैं उसकी खुशी के
आज रामनवमी है
नवदुर्गा के व्रतों का समापन है
कन्या पूजन है आज घर में
धोए जाएंगे नौ कन्याओं के चरण
पिया जाएगा चरणामृत
चढ़ाए जाएंगे फूल
उतारी जाएगी आरती
खिलाए जाएंगे सुस्वादिष्ट व्यंजन
मुहल्ले भर में ढूँढी गई कन्याएँ
इग्यारह से कम की
बड़ी मुश्किल से
गिनती पूरी हो पाई नौ की
कन्या पूजन चल रहा है इस समय.....।
पहाड़ी औरत
इतने ही नहीं दीदी
और भी हैं बहुत सारे संघर्ष
हमारे जीवन में ।
हर दिन
निकलते हैं जब घास -लकड़ी को
शुरू हो जाता है
जीवन -मौत का खेल
लड़ती हैं खड़ी चट्टानों से
ऊॅचे- ऊॅचे पेड़ो से
तनी हुई रस्सी में
चलने से कम नहीं होता
किसी चट्टान में चढ़
घास काटना
लकड़ी तोड़ना ।
याद आती हैं -
हरूली /खिमुली अपने गाॅव की
हार गयी थी जो
ऐसी ही खड़ी चट्टानों से
स्मारक बन गई हैं ये चट्टानें आज
उनके नामों की -हरूली काॅठ् /खिमुली काॅठ्
घायलों की तो गिनती ही नहीं
जी रही हैं जो
विकलांग होकर कठिन जीवन
और तरह की दुर्घटनाओं पर तो
मिल जाती है कुछ
सरकारी मदद
पर इसमें तो ऐसा भी कुछ नहीं ।
बच गये चट्टानों से अगर
डर बना रहता है
न जाने कब
किस झाड़ी में
किस कफ्फर में
बाघ -भालू -सूअर
बैठे हों
घात लगाये
कर दें बोटी-बोटी अलग
लाश भी मिलनी कटिन हो जाए
परिजनों को
चैमासी गाड़-गधेरे तो
बस जैसे
हमी को निगलने को
निकलते हैं
जगह-जगह रास्ता रोक
उफनते हैं
कहाॅ तक कहॅू दीदी
कोई अंत हो संघर्षों का
तब ना भला !
एक हथिया देवाल *
न बना सके वह
उस ऊॅचाई का अन्य कोई स्थापत्य
कटवा डाला
दायाॅ हाथ उसका
लेकिन
नहीं छूटा
उसका छेनी -हथौड़ा
एक नये शिल्प में
बना डाला उसने
पहले से भी
अद्भुत और बेमिसाल यह देवाल
एक ही पत्थर से।
काट -काट कर कठोर काँठे को
उकेर दी
मुँह -बोलती हुई मूर्तियाँ
मेन को थाम लेने वाले बेल-बूटे
और एक सुदंर गर्भगृह
उठती चिनगारियों
और अनंत टंकारों के साथ
जो रही होंगी जितनी बाहर
उससे अधिक भीतर ।
कटवा दिया हो भले
राजा ने
उसका हाथ
मगर नहीं काट सका
उसके दृढ़ इरादों
और पहाड़ से धैर्य को
नदी से आवेग को
कला के प्रति समर्पण को
मन में धधक रही
प्रतिरोध की आग को
गवाही देता है जिसकी
देवाल में गढ़ा एक-एक शिल्प
आज भी ।
(*उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर जो एक हाथ से कठोर चट्टान को काट-काट कर बनाया गया है।)
टिप्पणियाँ
एक दम नये मुहावरे(मेरे देखे) में रची कविता कन्या दान का शिल्प भी अनूठा है। बधाई। आभार अशोक।
विजय गौड
बेहतरीन कविताएं...
’भय अतल में’ बहुत ही मार्मिक है.
इन कविताओं से साक्षात्कार कराने का शुक्रिया आपका.=== प्रशांत श्रीवास्तव
phadi aaurat,phadi aaurat ke sanghrshon ki gatha.
asntusthon ko pradam.
aapni jameen pr khdi kavitayen hai ye kavitayen.
ashok ji aapka aabhar aur mahesh ji ko itni aacchi kavitaon ke liye bdai.
rekha chamoli